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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४१९ ॥ www.kobatirth.org जे कर्मद्रव्य ( दलआ ) अन्य प्रकृतिना स्वभाववडे परिणमन कराय छे अर्थात् तद्रूप कराय छे ते प्रदेशसंक्रम छे. कं छे के–“ जं दलियमन्नपराई, णिज्जइ सो संकमो पएसस्स " उक्तार्थ छे. निपातथी भावमां के कर्ममां क्त' प्रत्यय की छते निघत्त पदनुं निधान अने निहित एवं रूप थाय छे. उद्वर्त्तन अने अपवर्तनरूप के करण सिवाय शेप ( उदीरणादि) करणीना अयोग्यपणा कर्म स्थापत्रं अर्थात् उदीरणादि थई शके नहि ते निघत्त कहेवाय छे. नि-अत्यंत काचनं बांध ि अर्थात् बधाय करणना अयोग्यपणाए स्थापवं ते निकाचित कर्म कहेवाय छे बन्नेना समर्थनरूपे कं छे के “ संकमणंपि निहत्तीऍ, णत्थि सेसाणि वत्ति इयरस्स " नित्तपणामां संक्रमण अने उदीरणादिकरण प्रवर्त्तता नथी परंतु उद्वर्त्तन अने अपवर्त्तनकरण होय छे, परन्तु निकाचितमां कोई पण करण होतुं नथी. अथवा पूर्वे बांधल कर्मने अग्निवडे तपाववाथी मळेली लोहनी शलाका ( शळी ) ना संबंधी जेम निधत्त छे अने तपाववाथी मळेली अने घणथी कूटेली लोहनी शलाकाना संबंधना जेवुं जे कर्म ते निकाचित छे अर्थात् निकाचित कर्म भोगच्या सिवाय छूटी शकतुं नथी. निधत्त अने निकाचितने विषे प्रकृति, स्थिति विगेरेनुं विशेष स्वरूप, सामान्य लक्षणने अनुसारे जाणत्रुं. विशेषथी बंधादिना स्वरूपना जिज्ञासुए कर्मप्रकृति ग्रंथ (कम्मपयडी )नी संग्रहणी अनुसरण करवा योग्य छे अर्थात् ते वांचवी. ( सू० २९६ ) अहिं हमण ज अल्पत्वक, तेमां अत्यंत अल्प, एक छे शेष ते अपेक्षाए बहु छे. आवी रीते अल्पबहुत्वने कहेनार एक, कति, सर्व, रूप शब्दोंने चोथा स्थानमा अवतारता थका ' चत्तारि ' इत्यादि० त्रण सूत्रोने कहे छे * तवसा निकाइयंपि तीव्र तपवडे निकाचितकर्मनी पण स्थितिरसनों हानि प्रायः थाय छे, एम अन्यत्र कहेल छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः २ प्रकृतिब न्वादि ०२९६ ॥४१९ ॥
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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