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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (OXOXOXOXOXOXOXOKOKEXXxxxxxxXXXKOK:XK:Xxxxo पजत्तमेत्तबिंदिय, जहन्नवइजोगपज्जया जे उ। तदसंखगुणविहीणे, समए समए निरंभंतो ॥२५|| सव्ववइजोगरोह, संखातीएहिं कुणइ समएहिं । तत्तो अ सुहुमपणगस्स, पढमसमओववन्नस्स ॥२६॥ पर्याप्त मात्र द्वीन्द्रिय जीवना जघन्य वचनयोगना जेटला पर्यायो छे, तेथी असंख्यातगुणहीन वचनयोगने समये समये रुंधन करता थका असंख्यात समयमा सर्वथा वचनयोगर्नु रुंधन करे छे. त्यारबाद प्रथम समयमा उत्पन्न थयेल सूक्ष्मपनक- | (निगोदविशेष जीव )नो जो किर जहन्नजोगो, तदसंखेज्जगुणहीणमेक्केके । समए निरंभमाणो, देहतिभागं च मुंचतो ॥२७॥ रुभइ स काययोगं, संखाईतेहिं चेव समएहिं । तो कयजोगनिरोहो, सेलेसीभावणामेइ ॥२८॥ जे निश्चये जघन्य योग छे तेथी असंख्यातगुणहीन-एकेक समयमा निरोध करता थका अने योगना सामर्थ्यथी देहना त्रीजा भागने मृकता थकां असंख्यात समयमां ते स्वकाययोगनो निरोध करे छे, एम करतो थको स्वकार्मणशरीरथी बनेला मुख, कर्ण, शिर अने उदर विगेरेना छिद्रोने पूरे छे तेथी त्रण योगनो निरोध करेल छे जेणे एवा केवली शैलेशीभावने प्राप्त थाय छे अर्थात् श्वासोश्वासना निरोधसमये अयोगी थाय छे. शैल-पर्वत, तेनो ईश जे मेरु, तेनी माफक स्थिरता, ते शैलेशी. हवे शैलेशीनु कालप्रमाण कहे छेहस्सक्खराई मज्झेण, जेण कालेण पंच भन्नंति। अच्छइ सेलेसिगओ, तत्तियमेत्तं तओ कालं॥२९॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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