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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद १३५३॥
४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ ध्यानानि सू०२४७
तथा 'समुच्छिन्नकिरिए' त्ति० शैलेशीकरणमां* योगना निरोधपणाए कायिकादि क्रिया समुच्छिन्न-नाश थयेल छे जेने विषे ते समुच्छिन्नक्रिय 'अप्पडिवाए 'त्ति. विराम नहिं पामवावालो स्वभाव छ जेनो एवो अर्थ छे. समुच्छिबक्रियअप्रतिपाती नामनो चोथो भेद छे. कहे छ केतस्सेव य सेलेसी-गयस्स सेलोव्व निप्पकंपस्स। वोच्छिन्नकिरियमप्पडिवाई झाणं परमसुकं ॥२२॥
भावार्थ जणाव्या प्रमाणे छे.
अहिं शुक्लध्यानना छेल्ला वे भेदमां आ प्रमाणे क्रम छे-केवलीने ज्यारे चोक्स अंतर्म हतकालमा मोक्षे जवान होय छे त्यारे वेदनीयादि चार भवोपग्राही (आयुष्य पर्यत रहेनार ) कर्म, समुद्घातथी अथवा स्वभावे ज समान स्थितिवाळा होते छते केवली योगर्नु रंधन करे छे. योगनिरोधमा क्रम बतावे छेपज्जत्तमेत्तसन्निस्स, जत्तियाइं जहन्न जोगिस्स । होति मणोदव्वाइं, तव्वावारो य जम्मेत्तो ॥२३॥ तदसंखगुणविहीणे,समए समए निरंभमाणोसो।मणसो सव्वनिरोहं.कुणइ असंखेजसमएहि॥२४॥
पर्याप्त मात्र संज्ञीपंचेंद्रियX जघन्य योगवाळा जीवने मनोद्रव्यो अने तेनो व्यापार जे प्रमाणमां होय छे तेनाथी असंख्यात गुणहीन मनोयोगर्नु समये समये रंधन करता थका ते असंख्यात समयवडे सर्वथा मनोयोगर्नु रंधन करे छे.
शैलेश-मेरुपर्वतनी माफक निष्प्रकंप रहेवु ते शैलेशीकरण. X पर्याप्तपणाए प्रथम समयवाळो.
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