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श्रीस्थानाज-सूत्र
सानुवाद ॥ ३६२ ।।
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चार प्रकारे मृषा- जूटुं कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कायानी वक्रता - वांकुं चालवु, भाषानी वक्रता - कपट वचन बोलवु भावनी वक्रता - मननुं वक्रपथुं अने विसंवादन योग- गायने घोडो कहेवो इत्यादिरूप. चार प्रकारे प्रणिधान-प्रयोग कहेल छे, ते आ प्रमाणे - मननुं प्रणिधान, वचननुं प्रणिधान, कायानुं प्रणिधान अने उपकरण-वस्त्र पात्र विगेरेनुं प्रणिधान एवी रीते चार प्रकारनुं प्रणिधान नैरथिकोने, पंचेंद्रियाने यावत् वैमानिकोने होय छे अर्थात् पंचेंद्रियना सोळ दंड कमां होय छे. चार प्रकारे सुप्र णिधान - सारो व्यापार कट्टेल छे, ते आ प्रमाणे- मननो भलो व्यापार, वचननो भलो व्यापार, कायानो भलो व्यापार अने उपकरणनो भलो व्यापार आ चार प्रकारनो प्रणिधान संयत (साधु) मनुष्योने ज होय छे. चार प्रकारे दुष्प्राणधान कल छे, ते आप्रमाणे - मननो दुष्प्रणिधान, वचननो दुष्प्रणिधान, कायानो दुष्प्रणिधान अने उपकरणनो दुष्प्रणिधान. एवी रीते चार प्रकारनो दुष्प्रणिधान पंचेंद्रियाने यावत् वैमानिकोने होय छे अर्थात् सोळ दंडकमां होय छे. ( सू० २५४ )
टीकार्थः - ' अत्यिकाय'त्ति० अस्ति ए निपात त्रण कालनो बोधक है. भूतकालमां हता, वर्तमानमां होय छे अने भविष्यमा हशे एवी भावना छे. एटले त्रिकाल विषयक कायो ते कोना ? प्रदेशांना समुदायो अथवा ' अस्ति' शब्दवडे कोईक स्थलमा प्रदेशो कहेवाय छे. तेथी तेओ ( प्रदेशो ) ना काय ते अस्तिकायो अने ते चार अस्तिकायो अचेतन होवाथी अजीवकायो छे. अस्तिकायो मूर्त अने अमूर्त होय के माटे अमूर्त अस्तिकायना प्रतिपादन माटे अरूपी अस्तिकायनुं सूत्र कल छे. रूप-आकारवाळं अर्थात् वर्ण विगेरे स्वरूपवालं हे जेओने ते रूपी अस्तिकाय तेना पर्युदास-निषेधयी अरूपी अर्थात् अमूर्त अस्तिकायो, हमणां ज जीवास्तिकाय कयो, तेना विशेषभूत पुरुषना निरूपण माटे फलमूत्र कहे छे - आम एटले अपक फल छतां
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४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ अजीवास्ति
कायाः,
आमादि,
सत्यप्रि
धानानि च
सू० २५२
२५४
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