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णियाणं ४, चउव्वि सुप्पणिहाणे पं० तं०- मणसुप्पणिहाणे जाव उवगरणसुप्पणिहाणे, एवं संजमसावि चविहे दुष्पणिहाणे पं० तं०- मणदुप्पणिहाणे जात्र उवकरणदुष्पणिहाणे, एवं पचिदियाणं जाव वैमाणियाणं २४ । सू० २५४
मूलार्थ:- चार अस्तिकाय अजीवकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अन पुद्गलास्तिकाय. चार अस्तिकाय अरूपीकाय कहेला छे, ते आ प्रमाणे- धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय अने जीवास्तिकाय. चार प्रकारां फळ कहेलां छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक फळ काचुं छे अने रसथी कईक मधुर छे १, कोई एक फळ का छे पण रसथी अत्यंत मधुर छे २, कोईएक फळ पाकुं छे पण रसथी कंईक मधुर छे ३ अने कोईएक फळ पाकेलं छे अने अतिशय मधुर छे ४. ए दृष्टांती चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष वय अने श्रुत ( ज्ञान ) थी अव्यक्तकाचो छे अने उपशमादिगुणथी अल्प मधुरतावाळो छे १, कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी काचो छे पण उपशमादिगुणथी अत्यंत मधुरतावा छे २, कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी परिणत (पाको) छे पण उपशमादिगुणथी अल्प मधुरतावाळो छे ३ अने कोईएक पुरुष वय अने श्रुतथी परिणत तेमज उपशमादिगुणरूप अत्यंत मधुरतावाळो छे ४. (सू० २५३) चार प्रकारे सत्य - सरल भाव कहेल छे, ते आ प्रमाणे-कायानी सरलता - शरीरनी कुचेष्टादिथी रहित, भाषानी सरलता-कपट वचननो अभाव, भावनी सरलता - मननी सरलता, अविसंवादनायोग-विपरीत ज्ञान रहित बोलवु अर्थात् गायने गाय कहेवी इत्यादिरूप.
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