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योजयिता अने वियोजयिता तो अनुचित प्रवृत्ति करनार मुनिओने अटकावनार छे. यानसूत्रनी जेम अश्व अने गज (हाथी) ना सूत्रोपण जाणवा. 'जुग्गारिय ' ति० युग्य ( अश्वादि ) नी चर्या - गति. क्वचित् 'जुग्गायरिय' ति० एवो पण पाठ छे त्यां युग्यचर्या एटले अवादिनी गति जाणवी. एक वाहन ( अश्वादि) मार्गमां जनार होय छे परंतु उन्मार्गमां जबावालं होतुं नथी, इत्यादि चतुर्भगी जाणवी. अहिं वाहननी गतिवडे ज निर्देश-कथन चार प्रकारवडे कहेल होवाथी तेनी चर्या (गति) ने ज उद्देश डे कहेतुं चार प्रकारपणुं जाणवुं भावयुग्य पक्षमां तो वाहननी माफक युग्य-संयमयोगना भारने वहन करनार साधु, मार्गमा जनार ते अप्रमत्त मुनि, उन्मार्गमां जनार द्रव्यलिंगी, बनेमां जनार ते प्रमत्त यति अने चोथा भंगमां सिद्ध छे, क्रमशः १ सत्, २ असत् ३ उभय-सत् तथा असत् अने ४ बनेथी रहित अनुष्ठानवाळा होवाथी अथवा पथ अने उत्पथनुं स्वसमय अने परसमयस्वरूप होवाथी अने 'यायि' शब्दनो गतिरूप अर्थवडे बोधपर्याय होवाथी स्वसमय अने पर समयबोधनी अपेक्षाए आ चतुर्भगी जाणवी. अर्थात् एक स्वसमयने जाणे हे पण परसमयने जाणतो नथी, एक परसमयने जाणे छे पण स्वसमयने जाणतो नथी, एक उभय समय ( शास्त्र ) ने जाणे छे अने एक बन्नेने जाणतो नथी. एक पुष्प रूपसंपन्न - सुंदराकार छे पण गंधसंपन्न ( सुगंधी ) नथी - आवळना फूलनी जेम, बीजुं फूल बकुलना फूलनी जेम, त्रीजुं जाईना फूलनी जेम अने चोथुं बोरडी विगेरेना फूलनी जेम. पुरुष रूपसंपन्न - रूपाळो अथवा सुविहित साधुना रूपवाको १ जाति, २ कुल, ३ बल, ४ रूप ५ श्रुत, ६ शील अने ७ चारित्रलक्षण आ सात पदोने विषे द्विकसंयोगी एकवीश चोभंगी करवी सुगम छे. [ते आ प्रमाणेजाति पद साथे कुलादिथी चारित्रपद पर्यंत छ चोभंगी, कुल पद साथे बलादिपदथी पांच चोभंगी, बलपद साथे रूपादि पदथी
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