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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Koxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx है| गायनुं पूंछडु, आदिमा स्थूल (जाई) अने अंतमा सूक्ष्म (झीणु) छे तेना जेवा अंजनक पर्वतो पण छे. 'सवंजणमय'त्ति. अंजन-कृष्णरत्न विशेष तन्मय छे. बधा य अनन्यपणावडे अथवा सर्वथा अंजनमय एटले परम कृष्ण(काळा) छे. कयु छे केभिंगंगरुइलकजल-अंजणधाउसरिसा विरायंति।गगणतलमणुलिहंता, अंजणगा पव्वया रम्मा॥१४७॥ ___ काळो भमरो, भेसनुं शींगहुँ, काळो सुरमो तेना जेवा काळा सुंदर अंजनक पर्वतो, गगनतलने जाणे स्पर्श करता होय नहि ? तेम शोभे छे. आकाश अने स्फटिकनी जेम स्वच्छ, 'सण्हा'-कोमळ तंतुथी बनेला वस्त्रनी जेम कोमळ परमाणुना स्कंधथी बनेला, 'लण्हा' घुटेला वस्त्रनी जेम श्लक्ष्ण (लीसा ), तथा तीक्ष्ण शाण( शराण )वडे घसेल पाषाणनी प्रतिमानी जेम घसायेला, सुकुमाल शाणवडे पाषाणनी प्रतिमानी जेम पालीस करायेला अथवा प्रमानिकावडे जेम शुद्ध कराय तेम शुद्ध करायेला, आ कारणथी ज रज रहित होवाथी नीरज (रज वगरना), कठण मलना अभावधी अथवा धोयेला वस्त्रनी जेम निर्मल (मेल वगरना), आर्द्र मल( कादव )ना अभावथी अथवा कलंक रहित होवाथी निष्पंक, 'निकंकडच्छाया' निष्कंकट-निष्कवच अर्थात् आवरण रहित छाया-शोभा छ जे पर्वतोनी ते निष्कंकटछाया अथवा अकलंक शोभावाला, सप्रभा-देवाने आनंद करनार विगेरे प्रभावबाळा अथवा स्वप्रभा-पोताना स्वरूपवडे दीपे छ परंतु बीजाथी नहि एवा, जेथी समिरीया-किरणो सहित, आने लईने ज‘सउज्जोया' उद्योत सहित एटले वस्तुना प्रकाशवडे वर्त्तता, 'पासाईय'त्ति० मनने आह्लाद करनारा, Koxxxxxoxoxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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