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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ४३९ ॥
४ स्थानकाध्ययने उद्देशः २ नन्दीश्वराधिकार
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दर्शनीय-कोईक नेत्रबडे जोतो थको पम श्रम पामतो नथी, अभिरूप-मनोहर, प्रतिरूप-दरेक जोनारने रमणीय लागे एवा छे. आ (वर्णन ) यावत् शब्दथी संग्रह करेल छ. ते अंजनगिरि पर्वत पर बहुसम-अत्यंत समान रमणीय भूमिभागो छे. तेनी मध्यमां 'सिद्धानि'-शाश्वता अथवा शाश्वती अहेतप्रतिमाओना आयतन-स्थानो ते सिद्धायतनो छे. का छे के| अंजणगपव्वयाणं, सिहरतलेसुं हवंति पत्तेयं । अरहंताययणाई, सीहणिसायाइं तुंगाइं ॥१४८ ॥
दरेक अंजनक पर्वतोना शिखरनी उपर बेठेला सिंहनी जेवा आकारवाळा अने ऊंचा अहंतना आयतनो होय छे...
मुख-अग्रद्वारने विष आयतनना मंडपो ते मुखमंडपो-पट्टशालो ( पडशाळरूप), प्रेक्षणक-नाटक माटे घररूप मंडपो ते प्रेक्षागृहमंडपो प्रसिद्ध स्वरूपवाळा अर्थात् रंगमंडपो, 'वैरं वज्ररत्नमय अखाडाओ, जोनार मनुष्यना बैठकभृत प्रसिद्ध छे. विजयष्य-चंदरवारूप वस्त्रो, तेना मध्य भागमा ज अवलंबन माटे अंकुशो अर्थात् आंकडाओ छे. मोतीओना परिमाणवडे कुंभ छे विद्यमान जे दामोने ते कुंभिकारूप मोतीओनी माळाओ. कुंभर्नु प्रमाण आ प्रमाणे जाणवु-दो असतीओ पसती, दो पसतीओसेतिया, चत्तारि सेतियाओ कुडवो, चत्तारि कुडवा पत्थो, चत्तारि पत्था आढयं, चत्तारि आढया दोणो सट्ठी आढयाई जहन्नो कुंभो, असीइ मज्झिमो सयमुक्कोसो"बे असतीथी एक पसली (खोबो), बे पसलीथी एक सेतिका (धोबो), चार सेतिकाथी कुडव ( मापविशेष ), चार कुडवे एक प्रस्थ, चार प्रस्थथी एक आढक, चार आढकथी एक द्रोण, साठ आढकथी एक *जघन्यकुंभ, एंशी आढकथी एक मध्यमकुंभ अने एक सो आढकथी एक उत्कृष्ट
* मागध परिभाषामां धान्य भरत्रानुं मापविशेष छे.
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४॥ ४३९ ॥
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