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ते प्रथमसमय एवा जिन-सयोगिकेवली, ते प्रथमसमय जिनना सामान्यरूप कर्मनां अंशो-ज्ञानावरणीय विगेरे भेदो क्षय थाय छे. आवरणनो क्षय थवाथी उत्पन्न थयेल विशेष अने सामान्य( पदार्थ )ना बोधरूप ज्ञान-दर्शनने धारण करनार ते उत्पन्न ज्ञानदर्शनधर. आ वाक्यवडे अनादि सिद्ध केवळज्ञानवाळा सदाशिवना असद्भावने बतावे छे. नथी विद्यमान रहा-एकांतरूप गोप्य (छार्नु) जेने ते अरहः, केम के समीप, दूर, स्थूल अने सूक्ष्मरूप समस्त पदार्थसमूहना साक्षात्कार करनार होवाथी अथवा देवादिवडे पूजाने योग्य होवाथी अर्हन्. रागादिने जीतनार होबाथी जिन. केरल-परिपूर्ण ज्ञान विगेरे छे जेने ते केवली. सिद्धत्वनो अने कर्मना क्षयनो एक समयमां संभव होवाथी प्रथमसमय सिद्ध इत्यादि कथन कराय छे. (सू० २६८) असिद्ध जीवोने तो हास्य विगेरे विकारो होय छे माटे प्रथम हास्यनुं चार स्थानकमा अवतरण करतां सूत्रकार कहे छे
चउहि ठाणेहिं हासुप्पत्ती सिता तं०-पासित्ता भासेता सुगेता संभरेत्ता। सू० २६९, चउबिहे | अंतरे पं०२०-कटुंतरे पम्हंतरे लोहतरे पत्थरंतरे, एवामेव इथिए वा पुरिसस्त वा चउबिहे अंतरे पं० २०-कटुंतरसमाणे पम्हंतरसमाणे लोहंतरसमाणे पत्थरंतरसमाणे । सू. २७०, चत्तारि भयगा | पं० सं०-दिवसभयते जत्ताभयते उच्चत्तभयते कब्बालभयते । सू० २७१, चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-संपागडपडिसेवी णामेगे णो पच्छन्नडिसेवी पच्छन्नपडिसेवी णामेगे णो संपागडपडिसेवी एगे
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