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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ३ ३७७ ॥
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संपागडप डिसेवीवि पच्छन्नप डिसेवीवि, एगे नो संपागडपडिसेवी णो पच्छन्न डिसेवी । सू० ६७२ मूलार्थ:- चार कारणे हास्यनी उत्पत्ति थाय, ते आ प्रमाणे- भांड विगेरेनी चेष्टा जोईने १, विकारवाळां वचनो बोलीने २, बजा विकृत वचनो सांभळीने ३ अने चेष्टा विगेरेना शब्दो मनमां सभारीने ४ इसे छे. (सू०२६९) चार प्रकारे अतरं (एक बीजानो भेद) कहेल छे, ते आ प्रमाणे काष्ठांतर - लाकडा लाकडामां अंतर १, पक्ष्मांतर - कपासनी पुणी पुणीमां अंतर २, लोढा लोढामां अंतर ते लोहांतर ३ अने पत्थर पत्थरमां अंतर ते पत्थशंतर ४. ए ज दृष्टांते स्त्री खीमां अंतर, पुरुष पुरुषमां अंतर चार प्रकारे कल छे, ते आ प्रमाणे - विशिष्ट पदवनी योग्यता विगेरेथी काष्टांतर समान १, वाणीनी कोमळतावडे पक्ष्मांतर समान २, स्नेहना छेद करवावडे लोहांतर समान ३ अने चिंतित मनोरथ पूरवावडे जगत्वंद्य जे थाय ते पत्थरांतर समान (०२७०) चार भृतक - नोकरो कहला छे, ते आ प्रमाणे- दररोजना मूल्यथी जे काम करे छे ते दिवसभृतक १, देशांतर गमनप्रसंगे अमुक मूल्य लईने मदद करनार सेवक ते यात्राभृतक २, मूल्य अने काल (अमुक समय )नो निर्णय करीने जे नियमित कार्य करनार नोकर ते उच्चताभृतक ३ अने अमुक हस्तप्रमाण भूमि तारे खोदवी अने अमुक मूल्य आपीश एम ठरावपूर्वक जे काम करनार ते कब्बाडभृतक. ४. (सू०२७१) चार प्रकारना पुरुषो कहेला छे, ते आ प्रमाणे- कोईएक पुरुष अगीतार्थनी समक्ष अकल्पनीय भात विगेरे सेवनार पण प्रच्छन्न (छानुं) सेवनार नहिं ते बकुस १, कोई एक पुरुष प्रच्छा दोषने सेवे छे पण प्रगट सेवतो नथी
* अहि विशेष रूपथी व्याख्या करेज छे.
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४ स्थान• काध्ययने उद्देशः १
हास: अन्त
रं भृतका: प्रतिसेविनः
* सू० २६९
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॥ ३७७ ॥