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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ॥ ३७६ ॥
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(निंदित मनुष्यनी अपेक्षाए) अने देव संबंधी दुर्गति, (किल्लिपिक विगेरेनी अपेक्षाए) १, चार सद्गति कहेली छे, ते आ प्रमाणेसिद्ध संबंधी सद्गति, देव संबंधी सद्गति, मनुष्य संबंधी सद्गति अने स्वर्गमां जईने उत्तम कुलमां जन्मवारूप. २, चार दुर्गत (दुष्ट स्थितिमा रहेनार) कहेल छे, ते आ प्रमाणे- नैरधिक दुर्गत, तिर्यंचयोनिकदुर्गत, मनुष्य दुर्गत अने देवदुर्गत. ३, चार सुगत (सारी स्थितिमा रहेनार) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-सिद्धसुगत, देवसुगत, मनुष्यसुगत अने सारा कुलमा अवतरेल ४ (०२६७) प्रथमसमयविशिष्ट जिनना चार कर्मना अंशो (भेदो) नाश पाम छे, ते आ प्रमाणे- ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, मोहनीय अने अंतराय. १, उत्पन्न थल केवलज्ञान अने केवलदर्शनना धरनार, अरह (सर्वज्ञ), जिनकेवली चार कर्माशने वेदे छे, ते आ प्रमाणेवेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र. २, प्रथमसमय सिद्धना कर्मांशो युगपत् (एकी साथ) क्षय थाय छे, ते आ प्रमाणे वेदनीय, आयुष्य, नाम अने गोत्र. ३. (सू० २६८)
टीकार्थ:-' चत्तारी' त्यादि ० सूत्र कहेल अर्थवाळां छे. विशेष एके - निंदित मनुष्यनी अपेक्षाए मनुष्य दुर्गति अने किल्विषक विगेरेनी अपेक्षाए देवदुर्गति, 'सुकुलपच्चायाइ' ति० देवलोक विगेरेमां जईने इक्ष्वाकु गिरे सुकुलमां आव, अथवा प्रत्याजाति प्रतिजन्म-जन्मवुं. आ तीर्थंकर विगेरेने होय छे. युगलिक विगेरे मनुष्यत्वरूप मनुष्यनी सुगतिथी आ सुकुलमां जन्मत्रारूप मनुष्य सुगतिनो भेद बतावेल छे. दुर्गति छे जेओने ते दुर्गतो (आई अच्प्रत्यय कर्षे छते दुर्गतिनुं दुर्गता एवं रूप थाय छे) अथवा दुःस्था-दुष्ट स्थितिमां रहेला ते दुर्गतो, एमज सुगता एटले सारी स्थितिमां रहेला जाणा. (सू० २६७) अनंतर सिद्धभुगतो का, ते सिद्धो अष्ट कर्मना क्षयथी थाय छे, आ हेतुथी क्षयपरिणामनो क्रम कहे छे- 'पढमे 'त्यादि० त्रण सूत्र स्पष्ट छे. विशेष ए के प्रथम समय के जेनो
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४ स्थान काध्ययने
उद्देशः १
दुर्गति
सुगती
केवल्यादि
कर्मक्षयो
सू० २६७ -२६८
।। ३७६ ॥