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श्रीस्थानाङ्गसत्र सानुवाद
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णिवत्तिते उवसंते अणुवसंते, एवंनेरइयाणंजाव वेमाणियाण२४, एवं जाव लोभे जाव वेमाणियाणं
२४ । सू० २४९ __ मूलार्यः-चार प्रकारे देवोनी स्थिति-मर्यादा कईली छे, ते आ प्रमाणे-कोईएक सामान्य देव छ १, कोईएक स्नातक(प्रधान) देव छे २, कोईएक शांतिकर्म करनार पुरोहित देव छ ३ अने कोईएक प्रचलन देव एटले भाट चारणनी जेम अन्य देवोनी प्रशंसा करनार देव छ ४. चार प्रकारे संवास (मैथुन) अथै पुरुष अने स्त्रीन एकत्र वसवू कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ कोईएक देव देवीनी साथे संवास करे ( भोग करे), २ कोईएक देव छवी-नारी अथवा तिचणीनी साथे संवास करे, ३ कोईएक छत्री-नर अथवा तियंच, देवीनी साथे संवास करे अने ४ कोईएक छवी-मनुष्य के तियंच, मनुष्यणी के तियंचणी साथे संवास करे. (सू०२४८) चार कषायो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-क्रोध कषाय, मान कषाय, माया कषाय अने लोभ कषाय. ए चार कषाय नैरपिकने होय यावत् वैमानिकने चार कायो होय. चार स्थानक( भाव )मा रहेनारो क्रोध कहेल छे, ते आ प्रमाणे-१ पोताना अपराधथी पोताने विषे थयेल क्रोध ते आत्मप्रतिष्ठित, २ बीजाना वचनथी थयेल क्रोध अथवा बीजा प्रत्ये थवेल क्रोध ते परप्रतिष्ठित, ३ बनेयी (कईक पोताथी अने कंईक परना निमितथी) थयेल क्रोध
ते तदुभयप्रतिष्ठित अने ४ कई पण कारण सिवाय क्रोधना उदयथी ज थयेल ते अप्रतिष्ठित क्रोध. आ चार प्रकारनो क्रोध x नैरयिकथी मांडीने यावत् वैमानिकने होय छे. चार कारणोवडे क्रोध उत्पन्न थाय छे, ते आ प्रमाणे-१ पोतपोताना उत्पचिना
४ स्थान काध्ययने उद्देश:
संवास: कषायाध सू०२४८
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॥३५६ ।।
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