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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४०४ ॥
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४ स्थानकाभ्ययने उद्देशः २ | महाप्रति
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सू० २८५
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कारणपणाने लईने कारणमां कार्यना उपचारथी अने गर्हाना जेवू ज फल होवाथी कहेल परिणामर्नु गहापणुं समजवु केमके श्री भगवती सूत्रमा कडं छे के-'निग्गंथे णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए, पविटेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवइ-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि जाव पडिवज्जामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोइस्सामि० से य संपहिए असंपत्ते अप्पणा य पुब्वमेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा! आराहए नो विराहए"त्ति निग्रंथ गृहपतिना कुलमा आहार लेवानी प्रतिज्ञावडे गृहमा प्रवेश्यो-आव्यो छतो (तेणे) कोई पण एक अकृत्य स्थान सेव्यु, पछी तेने आ प्रमाणे विचार थाय के-अहिं ज प्रथम हुं आ दोषनी आलोचना करु, प्रतिक्रमण करूं, निंदा करूं यावत् प्रायश्चित्तने स्वीकारुं. त्यारवाद स्थविरोनी समीपे आलोचना करीश यावत् प्रायश्चित्त करीश, ते साधुए प्रायश्चित्त लेवा माटे प्रयाण कयुं परंतु स्थविर पासे पहोंच्या अगाउ कदाच काल करे तो ते मुनि आराधक थाय के विराधक थाय ? (आवा प्रकारनो भगवंत महावीर प्रत्ये श्री गौतमस्वामीनो प्रश्न छ) उत्तर-हे गौतम ! आराधक थाय पण विराधक न थाय. 'वितिगिच्छामि सिविशेषबडे अथवा विविध प्रकारोथी 'चिकित्सामि'-" उपाय करूं-निंदनीय दोषोने हुँ दूर करूं, आ प्रकारनी विकल्पात्मक गर्दा होवाथी बीजी गर्दा २, तथा 'जंकिंचिमिच्छामीति' ति. जे काई अनुचित कयु होय ते दुष्कृत्यनुं फळ मने मिथ्या थाओ, आवा प्रकारनी वासनागर्मित वचनरूप त्रीजी गर्दा, गर्हाना स्वरूपपणाथी ज आ प्रमाणे छे. तथा 'एवमपी 'ति. स्वदोषनी गर्दाना प्रकारवडे पण 'प्रज्ञप्ता' जिनेश्वरोए दोषनी शुद्धि कहेली छे, आq कथन स्वीकारवारूप चोथी गर्दा छे; केम के आवा प्रकारना स्वी
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RURARIRI
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