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बीस्थानास्त्र सानुवाद ॥५४९॥
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४ स्थानकाध्ययने उद्देशः४ उदकगर्भः मनुष्यगर्म
सिणा उ चित्ते, वतिसाहे पंचरूविता ॥१॥ सू० ३७६, चत्तारि माणुस्सीगब्भा पं० तं०-इत्थित्ताए पुरिसत्ताए णपुंसगत्ताए बिंबत्ताए-अप्पं सुक्कं बहुं ओयं, इत्थी तत्थ पजातति। अप्पं ओयं बहुं सुकं, पुरिसो तत्थ पजातति ॥१॥ दोण्हं पि रत्तसुक्काणं तुल्लभावेणपुंसओ। इत्थीतोतसमाओगे, बिंब तत्थ पजायति ॥२॥ सू० ३७७
मूलार्थ:-उदकना चार गों-काळांतरे जल वरसवाना हेतुओ कहेला छे, ते आ प्रमाणे-अवश्या-झाकळ, महिका- धूमस, शीता-अत्यंत टाढ अने उष्णा-गरमी. उदकना चार गर्भो कहेला छे, ते आ प्रमाणे-हिम-परफर्नु पडवू, अभ्रसंस्थितावादळाओवडे आकाशन आच्छादन थवू, शीतोष्ण-अत्यंत ठंडी अने गरमी तेमज गाज, वीज, जल, वायु तथा वादळां-आ पांच लक्षणना मिलनरूप पंचरूपिका. माह मासमां हिमवाळा गर्भो, फाल्गुन मासमां अभ्रसंस्थिता लक्षण गर्भो, चैत्र मासमां शीतोष्णा अने वैशाख मासमां पंचरूपी गर्भो होय छे. (३० ३७६) चार प्रकारे मनुष्यणीना गर्भो कहेला छे, ते आ प्रमाणेस्त्रीपणाए, पुरुषपणाए, नपुंसकपणाए अने किंव-गर्भाशयमा गर्भनी आकृतिरूप रूधिरनो बंध-पिंडपणाए. ज्यां अल्प वीर्य अने विशेष रुधिर होय छे त्यां स्वीपणे गर्भ उत्पन्न थाय छे, ज्यां अल्प ओज-रुधिर अने बहु वीर्य होय छे त्यां पुरुषपणे गर्भ उत्पन्न | थाय छे ।। १ ।। रुधिर अने वीर्य, ए बनेनो समानभाव ज्यां होय त्यां नपुंसकपणे गर्भ उत्पन्न थाय छे अने वायुना वशथी ज्यां स्त्रीचें रक्त स्थिर थई जाय छे त्यां गर्भाशयमां विंबरूपे गर्भ उत्पन्न थाय छे ।। २ ।। (सू० ३७७)
३७६-७७
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