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ते दीपकनी माफक मोक्ष छे. आवी रीते (बौद्धना) स्वीकारने विषे दीपकना दृष्टांतथी अनादिमान् संताननी पण अवस्तुता थाय छे, ते बतावे छे-दीप अने आत्माना संताननो नाश उत्तर क्षणनो अजनक छे. उत्तरक्षणने उत्पन्न न कर्ये छते अर्थक्रियाकारित्व (कार्य) लक्षणरूप सच्च (विद्यमानपणु) नो अभाव होवाथी ठेल्ला क्षणनुं अवस्तुपणुं छे केमके अन्य क्षण अबस्तुत्वजनक छे. पूर्व क्षणनुं पण अवस्तुत्व छे, तेथी ज पूर्वतरनुं पण, एवी रीते समस्त संताननुं अवस्तुपणुं थशे. पूर्वपक्षी - अन्य क्षणना अनारंभमां पण स्वगोचर (प्रत्यक्ष ) ज्ञान उत्पन्नरूप अर्थक्रियानो करनार होवाथी अंत्यक्षण वस्तुरूप थशे. उत्तर - एम नथी. ए प्रमाणे तो भूत अने भावी पर्यायनी परंपरारूप योगिज्ञान पण पोताना विषयने उत्पन्न करे छे माटे वस्तुपणं स्वीकारनुं एम कहेतुं योग्य नथी. क्षणांतरना अनारंभमां वस्तुत्व छे, आ कथनथी दीपनुं दृष्टांत स्वमतमां दूषण आपनारुं थाय छे. अथवा कृतकत्व होवाथी घटनी माफक शब्द अनित्य छे. आ वक्तव्यमां संभ्रमथी कृतकत्व होवाथी शब्दवत् घट अनित्य छे. आम कहेनारने विपरीत दृष्टांतथी दुरुपनीत थाय छे. आ संबंधमां जगावे छे के
पढमं अहम्मजुत्तं, पडिलोमं अत्तणो उवन्नासो । दुरुवणियं च चउत्थं, अहम्मजुत्तम्मि नलदामो । १९२ । पडलो जह अभओ, पज्जोयं हरइ अवहिओ संतो । इति
* आ अर्धी गाथा छे.
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