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छ. ) कोईक घट प्रीतिने माटे थाय ते प्रियार्थ, कारण के कनकादिमय होवाथी सारभृत छे, तथा अपदल-कारणभूत मृत्तिकादि द्रव्य असुंदर छ जेनुं ते अपदल अथवा अवदलति-विदाराय छे-चीराय छे ते अवदल, कईक ओछो पाकेल होवाथी असार छे. तुच्छ घट पण एवी रीते जाणवो. (७) पुरुष धन, श्रुतादिवडे पूर्ण अने प्रियार्थ-कोईक प्रिय वचन तथा दानादिवडे प्रियकारी सारभूत छ, बीजो तो तेवो नथी माटे अपदल छे-परोपकार करवामां अयोग्य छे. तुच्छ पण एवी रीते समजबो. (८) घट पूर्ण छ तो पण जलादिने झरे छे, अहिं जलादिवडे तुम्छ-ओछो छ ते ज झरे छे. 'अपि' शब्द सर्वत्र प्रतियोगीनी अपेक्षाए समुच्चय अर्थमा छे. (९) कोई एक पुरुष तो धन के श्रुतादिवडे पूर्ण छे अने तेने आपे छे-आ एक, बीजो तो पूर्ण छे पण धनादि आपतो नथी, त्रीजो तुच्छ अल्प धनादिवाळो छे तो पण धन, श्रुतादिने आपे छे, चोथो धनादिथी रहित छे ने आपतो पण नथी. (१०) तथा भिन्न-फूटेलो. जर्जरित-रेखायुक्त अर्थात् फाटवाळो, परिश्रावी-दुष्पक्व होवाथी झरनारो अने अपरिश्रावी-कठिन होवाथी झरनारो नथी. (११) चारित्र तो मूल प्रायश्चित्तनी प्राप्तिवडे भिन्न-भांगेलं, छेदादि प्रायश्चित्तनी प्राप्तिवडे जर्जरितनबलं, सूक्ष्म अतिचारपणावडे परिश्रावी-अल्प दोषवाळु चारित्र अने निरतिचारपणाए अपरिश्रावी चारित्र छे. अहिं पुरुषना अधिकारमा पण जे चारित्रलक्षण पुरुषधर्मर्नु कथन करेल छे ते धर्म अने धर्मानुं कथंचित अभेदपणुं होवाथी निर्दोष जाणवु. (१२) तथा मधुनो कुंभ ते मधुकुंभ अर्थात् मधुथी भरेल अथवा मधु छे पिधान-ढांक| जेनुं ते मधुपिधान, एम बीजा त्रण भांगा पण जाणवा. (१३) पुरुषसूत्र स्वयमेव सूत्रकार भगवाने 'हिय' मित्यादि० गाथाचतुष्टयवडे भावेल छे. तेमा हृदय-मन, अपाप-हिंसा रहित, अकलुष-अप्रीति रहित अने मधुरभाषिणी जिला पण जे पुरुषने विषे विद्यमान छे ते
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