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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org १३ क्रियाविशाल पूर्वमां नव क्रोड पद छे अने १४ बिंदुसार पूर्वमां साडावार लाख पदनी संख्या छे. ओने विषे गत- रहेलुं जे श्रुत ते पूर्वगत, अर्थात् पूर्वे ज जेम अंगप्रविष्ट ते अंगो कहेवाय छे तेम अहिं जाणवुं. जोडं ते योग, ते अनुरूप अथवा अनुकूल, सूत्रनो पोताना अभिधेय-विषय साधे योग ते अनुयोग. तीर्थंकरोने प्रथम समकितनी प्राप्ति पूर्वभव विगेरेनुं वर्णनरूप जे छे ते मूल प्रथमानुयोग कहेवाय छे. वळी जे कुलकर विगेरेनी वक्तव्यता जणावनार ते गंडिकानुयोग छे. ( सू० २६२ ) पूर्वगत श्रुत हमणा कां, तेमां प्रायश्चित्तनी प्ररूपणा हती माटे प्रायश्चित्तनां वे सूत्र कहेल छे. तेमां ज्ञान एज प्रायश्चित्त, कारण के ज्ञान ज पापने छेदे छे अथवा प्रायः चितने शुद्ध करे छे माटे निरुक्तिवशात् ज्ञानप्रायश्चित्त, एवी ते दर्शन अने चारित्रमां पण समज. 'वियत्त किचे' ति०व्यक्तस्य भावथी गीतार्थनुं जे कृत्य ते व्यक्त कृत्यप्रायश्चित्त, गीतार्थ तो गुरु लघुना पर्यालोचन (विचार) बडे जे कंई पण करे छे ते बधुं पापनी विशुद्धि करनार ज होय छे, अथवा ज्ञान विगेरेना अतिचारोनी विशुद्धि माटे जे प्रायश्चित्तो एटले आलोचनादि विशेषथी कहेला छे, ते ज्ञानप्रायश्चित्तादि कहेवाय छे, अथवा 'वियत्ते' ति० विशेषवडे - अवस्था विगेरेनी उचितताए [ सूत्रमां] न कहेल छतां पण जे आप्युं - आज्ञा करी - हुकम कर्यो एवं जे कई पण मध्यस्थ गीतार्थवडे करायेलं अनुष्ठान ते विदत्तकृत्यप्रायश्चित ज छे. ' चि यत्तकिचे' ति० आ पाठांतरथी तो प्रीतिवडे करवा योग्य वैयावृत्य विगेरे अर्थ थाय छे. प्रतिषेवणम्-अकृत्यनुं सेवनुं ते प्रतिसेवना, ते परिणाममेदथी अथवा प्रतिसेवनीयना भेदथी बे प्रकारे छे. परिणामना भेदधी तो * पूर्वना पदनी संख्यामां मतांतर पण छे. For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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