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रोसेण पडिनिवेसेण, तहय अक्यण्णुमिच्छभावेणं । संतगुणे नासित्ता, भासइ अगुणे असंते वा।२२२॥
प्रायः उक्तार्थ छे.
असत'-नहि विद्यमान गुणो प्रत्ये, (क्वचित् 'संते' त्ति पाठ छे त्यां विद्यमान गुणो प्रत्ये) दीपयेत्-बोले. अभ्यास| स्वभाव अथवा वर्णन करवा योग्यनी समीपतारूप निमित्त छे दीपन-बोलवामां ते अभ्यासप्रत्यय, अभ्यास टेव या विषय सिवाय अने फळ सिवाय पण प्रवृत्ति देखाय छे. समीपमा रहेनारना गुणोर्नु ज प्रायः ग्रहण थाय छे. परछंद बीजाना अभिप्रायनी अनुवृत्ति-तेनी पाछल वर्तवू छे जेमां ते परच्छंदानुवृत्तिक, तथा कार्यना हेतुथी-प्रयोजन निमित्ते इच्छित कार्यने अनुकूल करवा माटे, तथा उपकारने विषे प्रत्युपकार छे जेने ते कृतप्रतिकृतिक अर्थात् उपकारनो प्रत्युपकार करनार आ हेतुथी अथवा उपकारना प्रत्युपकार माटे अथवा कोई एक व्यक्तिने एकना उपकार कर्यों अथवा गुणो प्रशंस्या. ते तेना अछना गणाने । पण प्रत्युपकार माटे प्रशंसे छे. 'इति' शब्द समीप देखाडवामां अने 'वा' शब्द विकल्पमा छे. (सू० ३७०) आ गुणोनो नाश करवो विगेरे शरीरवडे कराय छे माटे शरीरनी उत्पत्ति अने निवृत्ति-पूर्णता सूत्रना बे दंडक छे ते सुगम छ. विशेष ए के-क्रोध विगेरे कर्मबंधना हेतओ छे अने कर्म शरीरनी उत्पत्तिनु कारण छ माटे कारणमा कार्यना उपचारथी क्रोधादि अग्नी उत्पत्तिना निमित्तपणाए कथन कराय छे. आ हेतुथी 'चउहिं ठाणेहिं सरीरे' त्यादि. का. क्रोधादिजन्य कर्मबडे पूर्ण थतं होवाथी क्रोधादिवडे निर्वर्तित शरीर एम कर्दा. अहिं उत्पत्ति-शरूआतमात्र अने निवृत्ति तो निष्पत्ति- पूर्णतारूप छ. (सू० ३७१) क्रोध विगेरे शरीरनी निवृत्तिना कारणो छ एम कयु, तेना निग्रहो-नाश करनारा धर्मना कारणो छ ते सत्रकार दर्शावे छ
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