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त्रियोगनी चिंतावाळं आर्त्तध्यान छे. कं छे के-" आर्त्तममनोज्ञानां सम्प्रयोगे तद्विप्रयोगाय स्मृतिसमन्वाहारः ।" ( तच्चार्थ० अ० ९, सू० ३१ ) अर्थ स्पष्ट छे. आ पहेलो भेद. एवी रीते पाछळना भेदो पण जाणवा. विशेष ए के मनोज्ञ- वहाला धन, धान्यादिनो वियोग न थाओ एम चिंतत्र ते बीजुं (भेद ) आर्त्त, आतंक - रोग ए त्रीजुं, तथा 'परिजुसिय ' ति० सेवायेला जे कामो - इच्छवा योग्य, भोगो-शब्द विगेरे अथवा शब्द अने रूप ते कामो अने गंध, रस तथा स्पर्श ते भोगो अर्थात् कामभोगो अथवा 'कामानां ' शब्द विगेरेनो जे भोग, तेनावडे जोडायेल, पाठांतरमां तो तेओनुं कामभोगना संबंधबडे जे युक्त ते निषेवित कामभोग संप्रयोग संप्रयुक्त, अथवा ' परिशुसिय' सि० जरा विगेरेवडे क्षीण धयेल अने कामभोगवडे जोडायेल जे जीव, तेने कामभोगना ज अवियोगनी स्मृतिनुं प्राप्त थनुं (आवबुं) ते पण आर्त्तध्यान कहेवाय छे. आ चोथो भेद छे. बीजो भेद वल्लभ धनादिना विषयवाळो छे अने चोथो भेद ते धनादिधी मळेल शब्दादि भोगना विषयवाळो छे. ए प्रमाणे आ बने बच्चे रहेल तफावत विचारखो. शास्त्रांतरमां तो बीजा अने चोथा भेदनुं एकपणावडे श्रीजु कहेल छे, अने चोथो भेद तो त्यां निदान ( नीयाणुं ) कहल छे. कधुं छे के
अन्नाणं साइविसयवत्थूण दोसमइलस्स । ( वस्तूनि - शब्दादिसाधनानि दोसोत्ति द्वेषः ) धणियं वियोगचिंतणमसंपओगाणुसरणं च ॥ ६ ॥
अमनोज्ञ शब्दादि विषयना साधनभूत वस्तुओनी ( प्राप्तिमां ) द्वेषवडे मलिन थयेल जीवने एना वियोगनी अत्यंत चिंता
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