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श्रीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥ ३३५॥
४ स्थानकाध्ययने उद्देशः १ उन्नतादि सू०२३६
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उन्नए नामं०४.६। चत्तारि पुरिसजाया पं० २०-उन्नते नाममेगे उन्नतमणे उन्न०४, ७ । एवं संकप्पे ८ पन्ने ९ दिट्ठी १० सीलायारे ११ ववहारे १२ परक्कमे १३ एगे पुरिसजाए पडिवक्खो नथि। चत्तारि रुक्खा पं० सं०-उज्जूनाममेगे उज्जू, उज्जूनाममेगे वंके, चउभंगो ४, एवामेव चत्तारि पुरिसजाता पं० तं०-उज्जूनाममेगे [उज्जू] ४, एवं जहा उन्नतपणतेहिं गमो तहा उज्जुवंकेहिवि भाणियव्वो, जाव परक्कमे २६ । सू० २३६
मूलार्थ:-चार प्रकारना वृक्षो कहेला छे, ते आ प्रमाणे ('नाम' शब्द संभावनाना अर्थमा छे )-कोई एक वृक्ष द्रव्यथी उन्नत-शरीरथी ऊंचो अने भावथी पण उन्नत-ऊंचो ते अशोकादि १, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी ऊंचो पण भावथी प्रणत-नीचो ते लींबडो विगेरे २, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी प्रणत-नीचो पण भावथी ऊंचो ते नीचा (नाना) *अशोकादि ३, कोई एक वृक्ष द्रव्यथी प्रणत-नीचो अने भावथी पण प्रणत-नीचो ते (नाना) लींबडा विगेरे ४ (१), ए प्रमाणे वृक्षना दृष्टांत चार प्रकारना पुरुषो कह्या छे, ते आ प्रमाणे-कोई साधु अथवा गृहस्थ द्रव्यथी-शरीरथी ऊंचो अने भावथी कुल, ऐश्वर्यादि लौकिक गुणवडे
HIRAAM चार उन्नत-ऊंची अथवा कोईक साधु लौकिक गुणोथी अने शरीरथी ऊंचो अने दीक्षा लीधा पछी पण ज्ञानादि गुणोथी ऊंचो
*टबामा त्रीजे भांगे एलची विगैरे अने चोथे भांगे नानो बावळ विगेरे जणावेल छे, ते पण संभवित जणाय छे.
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H॥ ३३१
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