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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra श्रीस्था नाङ्गसूत्र सानुवाद ।। ५१६ ।। www.kobatirth.org चाउरिंदिया संमुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणिया (३६) सू० ३५०, चत्तारि पक्खी पं० तं० - णिवत्तिता णाममेगे नो परिवर्तित्ता परिवइत्ता नाममेगे नो निवइत्ता एगे निवतित्तावि परिवतित्तावि, एगे नो निवतित्ता नो परिवतित्ता (३७) एवामेव चत्तारि भिक्खागा पं० तं णिवतित्ता णाममेगे नो परिवतित्ता (३८) सू० ३५१, चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - णिक्कट्ठे णाममेगे णिक्कट्ठे निक्कट्ठे नाममेगे अणिक्कट्टे (३९) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - णिक्कट्टे णाममेगे णिक्कट्टप्पा णिक्कठे नाममेगे अनिक्कट्टप्पा (४०) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०- बुहे नाममेगे बुहे, बुहे नाममेगे अबुहे ( ४१ ) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं० - बुधे नाममेगे बुधहियए ४ (४२) चत्तारि पुरिसजाया पं० तं०आयाणुकंपते णाममेगे नो पराणुकंपते ४ (४३) सू० ३५२ मूलार्थ:- चार प्रकारना मेघ कहेला छे, ते आ प्रमाणे- १ पुष्कलसंवर्त्तक, २ पर्यन्य, ३ जीमूत अने ४ जिम्ह. १ पुष्कलसंवर्त्तक नामनो महामेघ एक वृष्टिवडे दश हजार वर्ष पर्यंत भूमिने उदकना चीकाशवाळी करे छे अर्थात् धान्यादि उत्पन्न करवाने समर्थ करे छे. आ मेघ शीतळनाथ प्रभु सुधी वरसेल हे. २ पर्यन्य नामनो महामेघ एक वृष्टिवडे एक हजार वर्ष पर्यंत भूमिने उदकना चीकाशवाळी करे छे. आ मेघ शांतिनाथ प्रभु पर्यंत वरसेल छे. ३ जीमूत नामनो महामेघ एक दृष्टि For Private and Personal Use Only Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४ स्थान काध्ययने उद्देशः ४ पुष्कर संव तांद्या मेन पुरुषाः, कर ण्डकपुरुषाः वृक्ष-मत्स्थ गोलपक टाः चतुष्प दाद्याः पक्षिभिक्षू निष्कृष्टा द्याः सू० ३४७-५२ ॥ ५१६ ॥
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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