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श्रीस्थानाङ्गसूत्र
सानुवाद ।। ५४० ॥
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स्पर संक्रम न थाय. शेष प्रकृतिओनो स्वजातीय उत्तरप्रकृतिमां संक्रम थाय पण विजातीयमां न थाय. मूल प्रकृतिनो सर्वथा परस्पर संक्रम थतो नथी.
३ अशुभपणाए जे बांधलं अने शुभपणाए उदयमां आवे ते श्रीजुं अने चोथुं सुगम छे. त्रीजुं कर्मसूत्र आ चतुर्थ स्थानकना द्वितीय उद्देशक्रमां कहेल बंधसूत्रनी जेम जाणवुं. ( मू० ३६२ ) चार प्रकारना कर्मना स्वरूपने संघ ज जाणे छे माटे संघसूत्र अने ते संघ सर्वज्ञपुरुषना वचनवडे संस्कारित बुद्धिवाळो होय छे माटे बुद्धिसूत्र, अने बुद्धि ते मतिविशेष छे माटे बे मतिसूत्रो कहेल छे. आ बधा य सूत्रो सुगम छे. विशेष ए के संघ - गुणरत्नना पात्रभूत जीवोनो समुदाय, ते संघां *'श्राम्यन्ति', तपश्चर्या करे छे ते श्रमणो. अथवा शोभन मनवडे - नियाणाना परिणामलक्षण पाप रहित चित्त सहित व छे ते समनसः तथा समान स्वजन अने परजनने विषे तुल्य छे मन जेओनुं ते समनसः कबुं छे के— तो समणो जइ सुमो, भावेण य जइ न होइ पावमणो । सयणे य जणे य समो, समो य माणावमाणेसुं
ज्यारे शून्य मनवाळो होय छे, अने आत्मपरिणामरूप भाववडे पापयुक्त मनवाळो थतो नथी, तथा स्वजन अने पर - जनम के मान अने अपमानमां समानभाववाळो रहे छे त्यारे श्रमण कहेवाय छे अथवा सम-समानपणाए शत्रु के मित्र विगेरेने विषे प्रवर्त्ते छे ते समणाः कधुं छे के
* मूलमां 'समण' शब्द छे तेना भ्रमण, समनसः, समणः, समना इत्यादि अनेक रूपो करेला छे.
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४ स्थान
काध्ययने
उद्देशः ४
कर्मसङ्घः
बुद्धिः
जीवाः
सू०३६२-
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