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नत्थयसि कोइ वेसो, पिओ व सव्वेसु चैव जीवेसु । एएण होइ समणो, एसो अन्नोऽवि पज्जाओ । २१६ । समस्त जीवाने विषे जेने कोई पण द्वेष करवा योग्य नथी अथवा कोई प्रिय नथी, आ समभाववडे समनाः, एनो बीजो पण पर्याय छे.
प्राकृतपणाने लईने सर्वत्र 'समण' शब्द छे एम 'समणीओ' छे. 'श्रृण्वन्ति - जिनवचनने जे सांभळे हे ते श्रावक छे. कां छे के " प्राप्त करेल दृष्टि विगेरे विशुद्ध संपत्ति ( सम्यग्दृष्टि ), साधुजन पासेथी दररोज प्रभातमां जे आळस रहित उत्कृष्ट समाचार ( सिद्धांत ) ने सांभळे छे तेने जिनेंद्रो श्रावक कहे छे. " ( १ ) अथवा ' श्रान्ति' पचावे छे, तच्चार्थना श्रद्धानने निष्ठा प्रत्ये लई जाय छे ( निष्ठित-स्थिर थाय छे ) ते ' श्री ' तथा 'वपन्ति' - गुणवाळा सप्त क्षेत्रोने विषे धनरूप बीजने वावे छे ते ' वा ' तथा किरन्ति 'क्लिष्ट कर्मरूप रजने फेंकी दे छे ते ' का ' तेथी कर्मधारय समास कर्ये छते 'श्रावकाः ' एवो प्रयोग सिद्ध थाय छे. कधुं छे के" पदार्थना चिंतनथी श्रद्धालुताने दृढ करे छे, निरंतर पात्रोने विषे धन वावे छे अने सारा साधुना सेवनथी पापोने शीघ्र फेंके छे-दूर करे छे तेने ज्ञानीओ श्रावक कहे छे. एवीरीते श्राविका पण जाणवी. (०२३३) तथा उत्पत्ति ज छे प्रयोजन जेणीनुं ते १ औत्पत्तिकी बुद्धि. शंका- आ बुद्धिनुं तो क्षयो पशम कारण छे. समाधान - तमारुं कथन सत्य छे, परंतु ते अंतरंग कारण होवाथी सर्व बुद्धिनुं साधारण कारण छे, तेथी तेनी विवक्षा अहीं करेल नथी. वळी अन्य शास्त्र अथवा कर्म - शिल्पादिकार्यनी आ बुद्धि अपेक्षा करती नथी परंतु बुद्धिनी उत्पत्ति थया
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