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भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥४४१॥
करवारूप तप अने मनोज्ञ अमनोज्ञ आहारादिमां रागद्वेषना त्यागरूप तप (सू०३०९) चार प्रकारनो संयम कहेल छे, ते आ प्रमाणे-अकुशल मननो निरोध करवो ते मनसंयम, अकुशल वाणीनो निरोध करवो ते वचनसंयम, शरीरनी अकुशल प्रवृत्तिनो त्याग करवो ते कायसंयम अने बहुमूल्यवाळा वस्त्रादिनो परिहार करवो ते उपकरणसंयम. चार प्रकारनो त्याग (दान) कहेल छे, ते आ प्रमाणे-मनवडे साधुने दान देवारूप मनत्याग, एम ज वाणीवडे आपवारूप वचनत्याग, कायावडे प्रतिलाभवारूप कायत्याग अने पात्रादि उपकरणर्नु दान आपवारूप उपकरणत्याग छे. चार प्रकारनी अकिंचनतानिष्परिग्रहता कहेली छे, ते आ प्रमाणे-मनथी अकिंचनता. वचनथी अकिंचनता, कायाथी अकिंचनता अने उपकरणथी अकिंचनता. (सू० ३१०)
टीकार्थः-नामसत्य अने स्थापनासत्य सुगम छे. उपयोग रहित वक्तार्नु सत्य पण द्रव्यसत्य छे. स्व के परना उपरोध | सिवाय उपयोग युक्त वक्तार्नु जे सत्य ते भावसत्य छे. (मू० ३०८) सत्य ते चारित्रविशेष छे, माटे चारित्रना विशेषोने | यावत् उद्देशकना अंत पर्यन्त कहे छे-'आजीविए' त्यादि० आजीविक-गोशालकना शिष्योनो अहम विगेरे तप ते उग्रतप, कयांक 'उदारं' एवो पाठ छे. त्यां उदार-आ लोक विगैरेनी आशंसा(वांछा) रहितपणाने लईने शोभन तप, घोर-पोतानी अपेक्षा विना अर्थात् पोताना शरीरनी पण दरकार कर्या सिवायनो तप, “रसनिज्जूहणया" घृतादि रसना त्यागरूप तप अने जिवेंद्रियप्रतिसंलीनता-मनोज्ञ के अमनोज्ञ आहारोने विषे रागद्वेषनो त्याग. आ चार प्रकारनो तप छे. अर्हत्ना शिष्योनो तो बार प्रकारनो तप छे. (सू०३०९) मन, वचन अने कायानो अकुशलपणाए निरोधरूप अने कुशलपणाए उदीरणा
४ स्थान| काभ्ययने
उद्देशः २ नामसत्यादिआजीविकतपासंयमः सू० |३०८-१०
x॥४४१॥
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