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श्रीस्था
मानुवाद ॥४८४॥
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टीकार्थ:-'चउण्ह 'मित्यादि० सरळ छे. विशेष एके-'नो पस्सं'ति. अत्यंत सूक्ष्म होबाथी एक *शरीर, आंखवडे जोई शकाय नहि. क्यांक'नो सुपस्संति' एवो पाठ छे त्यां आंखथी सुखे देखाय नहि अर्थात् आंखथी प्रत्यक्ष दृश्य नथी परंतु अनुमान विगरे प्रमाणोथी दृश्य छ तेम समजवं. बादर वायुकायिकोर्नु तथा पांचे सूक्ष्म जीवोना एक अथवा अनेक शरीरो पण अदृश्य छे-देखाय नहिं माटे वायुने छोडीने शेष चारनु का. अहिं 'वनस्पति' शब्दवडे साधारण ग्रहण करवा योग्य छे केम के प्रत्येक वनस्पतिना एक शरीरनुं तो जोवापणूछे ज.(०३३५) पृथ्वी विगेरेना शरीरोनु च इंद्रियवडे विषयपणुं कधु माटे इंद्रियना विषयना प्रस्तावथी कहे छ-'चत्तारि इंदियेत्यादि. अर्थ स्पष्ट छे. विशेष ए के-इद्रियावडे 'अर्यत' जणाय छे ते इंद्रियोना अर्थों-शब्दादि, 'पुट्ट 'त्तिः स्पृष्टा-इंद्रियो साथे संबंध पामेला, 'वेएंति 'त्ति० आत्मावडे जणाय छ केमके नेत्र अने मन सिवाय श्रोत्र विगेरे इंद्रियोनो प्राप्त थयेल विषयना बोधरूप स्वभाव होय छे. कयु छ के
पुढे सुणेइ सदं, रूवं पुण पासई अपुढे तु । गंधं रसं च फासं च, बद्धपुढे वियागरे ॥ १८०॥ . श्रोत्रंद्रिय स्पर्शमात्रथी शब्दने सांभळे छे, वळी स्पर्श कर्या सिवाय चक्षुइंद्रिय रूपने जुवे छे अने विशेष रीते स्प. शोयेल अर्थात् सारी रीते एकत्र थयेल गंध, रस अने स्पर्शने घ्राणेंद्रिय विगेरे ग्रहण करे छे-जाणे छे. (सू० ३३६)
अनंतर जीव अने पुद्गलनो इंद्रियरूप द्वारवडे ग्राहक ग्राह्यभाव कह्यो, हवे ते बन्नेना गतिधर्म प्रत्ये चिंतन करता थका सूत्रकार __* पृथ्वो, अप, तेन अने साधारण वनस्पतिना अनेक शरीरो साथे मळवाथी देखाय छे.
४ स्थानकाभ्यवने उद्देश:३ पृथ्यादि
शरीरासुद्द* श्यतास्पृष्टा इन्द्रियार्थाः जीवपुद्गलानामलोकेगमः सू०३३५
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Xn४८४॥
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