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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir भीस्थानाङ्गसूत्र सानुवाद ॥५०३॥ आहार ते पुत्रमांसोपम. क्रमपूर्वक आ आहारो शुभ, सम, अशुभ जने अशुभतर जाणवा. ( वर्णवान् इत्यादि शब्दने विषे प्रशंसामा अथवा अतिशय अर्थमा 'मतुप' प्रत्यय थयेल छे. ) (सू० ३४०) आहार भक्षण करवा योग्य छ, माटे भक्षणना अधिकारथी आशीविष सूत्र कहेल छ. ते सुगम छे. विशेष ए के-'आसीविस त्ति० आश्य(दाढाओ)ने विपे विष छे जेओने ते आशीविषो. तेओ कर्मथी अने जातिथी होय छे. तेमांथी कर्मथी तियचो अने मनुष्यो कोईपण गुणथी आशीविषो थाय. सहसार देवलोक पर्यंतना देवो शापादिद्वारा अन्यनो नाश करवाथी कर्मथी आशीविषो छ. कह्यु छ के आसी दाहातग्गय-महाविसाऽऽसीविसा दुविह भेया। ते कम्मजाइभेएण, गहा च उव्विहविग्गप्पा। ___गाथानो अर्थ उपर जणाव्या मुजब छे. जातिथी आशीविषो वृश्चिक विगेरे छ. 'केवइय' त्ति विपनो केटलो विषय छे ? प्रभु एटले समर्थ. अर्द्ध भरतनुं प्रमाण एटले समर्थ. अद्ध भरतनुं प्रमाण कईक अधिक बसें त्रेशठ योजनरूप छे तेटला प्रमाणवाळा शरीरने पोतानी साधनभूत दाढाथी उत्पन्न थयेल विपवडे विषमय करी शके छे. अथवा क्यांक 'विषपरिगताम्' एवो पाठ छे त्यां विषवडे व्याप्त छे. 'विसट्टमाणि'-विदारण करवा माटे समर्थ होय छ. अथवा 'से' वृश्चिकनुं विष, ए ज अर्थनो भाव ते विषार्थता, विषार्थतानी विपनो अथवा तेमां 'नो चेव' त्ति. नहिं ज 'संपत्त्या'-एवा प्रकारनी बोंदि( शरीर )नी प्राप्तिद्वारा 'करिंसु' त्ति० वृश्चिकोए करेल नथी. अर्थात् तेवी तेनी शक्ति होय छे छतां कदापि करता नथी. अहिं एकवचनना प्रक्रमने विषे बहुवचन निर्देश करेल छे ते आशीविष वृश्चिकोनुं बहुपणुं ४स्थानकाध्ययने उद्देशः ४ प्रसर्पकाः आहार आशीविषाः सू० ३३९-४१ xxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxxx KKKXXkxx XXXX । ५०३॥ For Private and Personal Use Only
SR No.020755
Book TitleSthanang Sutra Ppart 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDevchandra Maharaj
PublisherMundra Ashtkoti Bruhadpakshiya Sangh
Publication Year1943
Total Pages450
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_sthanang
File Size20 MB
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