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श्रीस्थानाङ्गमत्र सानुवाद .३७३॥
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काध्ययने
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भगवंतो चाउज्जामं धम्मं पण्णवयंति, तं०-सव्वातो पाणातिवायाओ वेरमणं, जाव सव्वातो ४ स्थानबहिद्धादाणाओ वरमणं । सू० २६६ ।। मूलार्थ:-चार प्रकारे काल कहेल छ, ते आ प्रमाणे-१ प्रमाणकाल-दिवस अने गत्रि विगेरेना प्रमाणरूप, २ यथायु
उद्देशः १ कनिर्वृत्तिकाल-जे प्रमाणे आयुष्य बांध्यु होय ते प्रमाणे पूर्ण करे ते, ३ मरणविशिष्टकाल-मरणकाल अने ४ समय,
प्रमाणआवलिकादिरूप मनुष्य क्षेत्रमा वसेतो अद्धाकाल. (सू० २६४) चार प्रकारे पुद्गलना परिणाम-अवस्थांतर कहेल छे, ते आ
कालादिः प्रमाणे-१ वर्णनो परिणाम, २ गंधनो परिणाम, ३ रसनो परिणाम अने ४ स्पर्शनो परिणाम. (स०२६५) भरत अने ऐर-x
परिणामः क्तक्षेत्रने विषे पहेला अन हेल्ला तीर्थकरने वर्जी मध्यम (वचेना) बावीश अरिहंत भगवंतो चार याम( महाव्रत )रूप धर्मने यामाः मू० | प्ररूपे छे, ते आ प्रमाणे-सर्वथा प्राणातिपातथी विरमg, एमज सर्वथा मृषावादथी विरम, सर्वथा अदत्तादानथी विरमवू, एमज २६४-६६ मैथुन-परिग्रहथी विरम. १, सर्व महाविदेह क्षेत्रोने विषे अरिहंत भगवंतो चार यामरूप धर्मने प्ररूपे छे, ते आप्रमाणे-सर्वथा प्राणातिपातथी विरम, यावत् मैथुन-परिग्रहथी विरम. (सू० २६६)
टीकार्थ:-जनावडे वर्षशत, पल्योपम विगेरेनो निर्णय कराय छे ते प्रमाण, ते ज काल ते प्रमाणकाल, ते दिवस विगेरे लक्षणवाळो अने मनुष्यक्षेत्रमा वर्तनार अद्धाकाल विशेष ज छे. कपुंछ के| दुविहो पमाणकालो, दिवसपमाणं च होइ राई याचउपोरिसिओदिवसो, राई चउपोरिसीचेव ॥५७॥ ॥ ३७३ ॥
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