Book Title: Apbhramsa Pathavali
Author(s): Madhusudan Chimanlal Modi
Publisher: Gujarat Varnacular Society
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंशपाठावली गुजरात चर्नाक्युलर सोसायटी अमदावाद. Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ हरिवल्लभदास बाळगोविंददास ग्रंथावली नं. ५२ ॥अपभ्रंशपाठावली॥ मूलपाठनी संस्कृतछाया, अपभ्रंशव्याकरण, संस्कृतनिवेदन, गूजराती उपोद्घात, टिप्पणी, शब्दकोश सहित. सामान्य तंत्री, दी. बा. केशवलाल हर्षदराय ध्रुव, बी. ए. संपादक, मधुसूदन चिमनलाल मोदी, एम. ए., एलएल, बी... छपावी प्रसिद्ध करनारे, गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी तरफयर्थी हीरालाल त्रिभुवनदास पारेख, बी. ए. आसि. सेक्रेटरी, अमदावाद. किम्मत त्रण रुपिया. Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आवृत्ति : १ ली : सन : १९३५ : प्रत ५०० : संवत् : १९९२ : मुद्रक : मगनलाल बकोरभाई पटेल, घी सूर्यप्रकाश प्रिन्टिंग प्रेस पानको रनाका : अमदावाद. Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदन गुजराती भाषानो पद्धतिसर अभ्यास करवा सार अपभ्रंश साहित्यनुं ज्ञान परम उपकारक छे, एवं सूचन घणां वर्षोंथी दी. बा. केशवलाल हर्षदराय ध्रुव करता याव्या' छे; पण ते साहित्य घणुंखरूं भंडासेनी हाथप्रतोमा केटलीक वार अज्ञात भने अप्रसिद्ध पडेलु होवाथी बहु ज थोडा अभ्यासीओ तेनी लाम लाई सकेले. सोसाइटीना प्रमुख तरीके दी. बा. केशवलालभाइ छेल्लां पंदर वर्षयी प्रतिवर्ष निमाय छे; अने तेमनी प्रेरणाथीं सोसाइटीए जे अनेक प्रवृत्तिभो नवी ऊपाडेली छे, तेमां प्राचीन काव्यसाहित्य- प्रकाशन मुख्य छे. __ मुंबाई युनिवर्सिटी तस्फथीं क्सनर्जी माधवजी व्याख्यानो, छो विषे तेओं तैयार करता हता, ३ अरसामा श्रीयुत मधुसूदन चिमनलाल मोदीनी तेमने प्रो. बळवन्तराय सकारद्वारा परिचय थयो. श्रीयुत मधुसूदनमार, एम. ए. एलएल. बी थयेला छे; एटलुज नहि पण संस्कृत पाली, प्राकृत तथा अपभ्रंश साहित्यता सारा मता छै; भने अपभ्रंश तथा प्राकृतिनों केटीक पुस्तक मणे संपादितः पण करेंला छै. ____दी. बा. केशवलालभाइ लांबा समयथी अपभ्रंशपाठावली तैयार कराववानो अभिलाष सेवता हता, अने श्रीयुत मोदी साथैनो परिचय वधता, एमना हाथे ते पुस्तक तैयार कराववानो निर्णय तेमणे को. सोसाइटीनी कमिटी समक्ष ते विचार रजु करतां, सौए ते योजना पसंद करी हती; अनेः दी. बा. केशवलालभाइनो सलाह, सूचना भने देखरेख नीचे श्रीयुत मोडीने अपभ्रंशपाठावलीनुं संपादनकार्य सेपिकालो ठराव करवामां आव्यो. श्रीयुत मोदीए ए कार्यमां पोतानो घणो किंमती समय व्यतीत करे छे. खुशी थवा जेवु ए छे के ए पुस्तक प्रसिद्ध थवा पामें तें आगम, ज अर्धमागधीमां बी. ए. ना वर्ग माटे ते एक पाठ्यपुस्तक तरीके मैंजुर थयुं है. शाम सोसाइटीनों आशय अनायासें फळीभूत थई जाय छे. ते बदल खरे श्रीयुत मधुसूदन मोदीने धन्यवाद घटे छे. गु. व. सोसाइटी, ) अमदावाद, ता. २५---१२-१९३५) हीसलाल: बि. पारेख आसि., सेक्रेटरी.. - Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शेठ हरिवल्लभदास बाळगोविंददास ग्रंथमाळानो उपोद्घात ... सुरतना वतनी अने धंधार्थे मुंबाई निवासी स्वर्गवासी शेठ हरिवल्लभदास बाळगोविंददासे ता, १६ मी सप्टेम्बर सने १८७७ ने रोज वील कर्यु छे. ते अन्वये प्रथम सन १८८० मां रु. २०००)-सोसाईटीने मळ्या, एवी शरतथी के तेना व्याजमांथी सामाजिक सुधारो थाय एवां पुस्तको तैयार करी छपावा. : सदरहु वीलथी शेठ हरिवल्लभदासे अमुक प्रसंग बन्या पछी बाकी रहेली पोतानी तमाम मिल्कत, पुस्तकप्रचारने माटे सोसाइटीने अर्पण करेली छे. ते अन्वये १८९४ मा रु. १८०००) नी सरकारी नोटो सोसाइटीने मळी छे. आ रीते कुल रु. २००००) नी नोटो पुस्तक तैयार कराववा माटे सदरहु विद्याविलासी अने परोपकारी उदार गृहस्थ तरफथी मळी छे. सदरहु वीलनी हइए एमनी मिल्कतनी छेवटनी रकम रु. ५०००) सरकारी लोनो सन १९३३ मां सोसाइटीने वधु मळी छे. एटले ए फंड वधीने रु २५०००)नु थयुं छे. आजपर्यंत नीचेनां पुस्तको 'शेठ हरिवल्लभदास बाळगोविंददास ग्रंथथाळा' तरीके प्रसिद्ध थयां छे. . किंमत ०-६-० ०-१२-० नाम (१) कयी कयी नातो कन्यानी अछतथी नानी थती जाय छे, तेनां कारणो तथा सुधारो करवाना उपाय विषे निबंध (२) माने शिखामण नीतिमंदिर (४) बाळलग्नथी थती हानि पुर्नविवाहपक्षनी पूरेपूरी सोळेसोळ आना फजेती भोजन व्यवहार त्यां कन्या व्यवहार (७) धार्मिक पुरुषो (८) उद्योगी पुरुषो (९) बेन्जामीन फ्रेन्कलिन (१०) बोधक चरित्र ०-४-० ०-४-. २-०-० Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . . ० ० १-८-० ० . ० ० (११) सद्वर्तन (१२) रघुवंश काव्य (१३) जादवजी दादाजी चोधरीनुं जीवनचरित्र (१४) गुजरातनो प्राचीन इतिहास भा. १ (१५) गुजरातनो अर्वाचीन इतिहास भा. १ (१६) नीतिसिद्धांत (१७) फ्रान्सिस बेकन- जीवन चरित्र (१८) शेठ हरिवल्लभदास बाळगोविंददासर्नु जीवनचरित्त (१९) परोपकार (२०) ढोरनुं खातर (२१) जगतनो अर्वाचीन इतिहास (२२) किरातार्जुनीय काव्यर्नु मूळ साथे गुजराती भाषान्तर (२३) विविध प्रकारना हुनरोपयोगी तेजाबो (२४) वार्निश (२५) जीवननो आदर्श (२६) कीर्तिकौमुदी (२५) शिशुपाळवध-पूर्वार्ध-( सर्ग , थी १२) (२८) हिन्दुस्तानमा इंग्रेजी राज्यनो उदय (२९) रसायनशास्त्र (३०) ब्रिटिश हिन्दुस्ताननो आर्थिक इतिहास भा. २ जो (३१) जापाननी केळवणीपद्धति (३२) शिशुपाळवध-उत्तरार्ध-( सर्ग ११ थी २० ) (३३) लेन्डोरना काल्पनिक संवादो भा. १ (३४) खगोळविद्या (३५) लेन्डोरना काल्पनिक संवादो भा. २ (३६) मानसशास्त्र (३५) शिक्षित आर्य संतानोनुं आरोग्य (३८) सहकार प्रवृत्ति (३९) इंग्रेजी राज्यबंधारण (४०) उदारमतवाद (४१) सचित्र शरीरविक्षा १-४-० •-६-. ०-१२-० 6-४ २-०-० १-०-० .-१२-० १-.-. ०-१२-. ०-१२-. १-८ -. ०-१२-० ०-१२-० ०-१२-० १ -० -० ०-१२-. ०-१२-० ०-१२-० ० . ० . - ० ०-१२-० १-०-० Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (४२) हिन्द तत्वज्ञानमो इतिहास-पूर्वार्ध (५३) , , ,-उत्तरार्घ (४४) बंगाली साहित्यनो इतिहास (५५) संरक्षणवाद (४६) हिन्दी साहित्यनो इतिहास (४७) उपनिषद् विचारणा (४८) हिन्दुराज्यव्यवस्था (४९) समाळशा आख्यान (५०) वाणवटानी परिभाषा १-०-. १-.-. १-०-. ०-१२-. १-०-० १-०-.. ..-८-० गु. व. सोसाइटी ) अमदाबाद ता. २१-५-१९३५ ) हीरालाल त्रि. पारेख आसि. सेक्रेटरी Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रमणिका १. प्रास्ताविक विषय पान. निवेदनम् पान ५२. ८०. १०५. उपोद्घात भपभ्रंशम्याकरण उपसंहार २. छायासमेत मूल उधरणांक विषय कर्ता १. जलकीलावण्णणु. घउमुहु सयंभु. २. सीयदिव्वकहाणउ. तिहुयण संयंभु. ३. विराडनयरि पंडवई अण्णायवासु. चउमुहु संयंभु. ४. बलपण्हु तिहुयण सयंभु. ५. वसुएवघरच्चाउ पुप्फयंत ६. बंधुयत्ते चत्तहो भविसत्तहो तिलयदीवि हिंडी. धणवाल. ५. परमप्पप्पयासदोहासमुच्चउ जोइंदु ८. दोहापाहुड जोइंदु (2) ९. सावयायार जोइंदु (1) १०. सुजणदुज्जणसहावविवेयणु उज्जोयणसूरि ११. पुरुरवस्स उम्मायवयणाई १२. दोहाकोसोदरियगीयाई काण्ड १३. दोहाकोसोदरियगीयाई १४. पदण्णचंदाई ३. टिप्पणी ५. शब्दकोश संकेतसूचि शुद्धिपत्र १९. १२०. १३२. १३६. १४२. १४७. १५०. १५४. १-११२. १५०. १५२. १५६. TO Page #9 --------------------------------------------------------------------------  Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निवेदनम्। सर्वमिदं नामरूपात्मकं जगत्प्रायो पाचायाः प्रभावेण समुः योतितं भवति । तस्मादेव वाचाया महिमा श्रुतिभिरपि गीयते । तथा ह्येतरेयाण्यके "वाचा वै वेदाः संधीयन्ते, वाचा छंदांसि वाचा मित्राणि संदधति वाचा सर्वाणि भूतान्यथो वागेवेदं सर्व" मिति' । संसारव्यवहारायावश्यकं जनानां पारस्परिकं संधावं वाचैव क्रियत इत्येतत्सत्यममुष्याः श्रुतेः प्रादुर्भवति । एष एवा. भिप्रायो दण्डिनाऽपि काव्यादर्श समुपदर्शितः, " इह शिष्टानुशिष्टानां शिष्टानामपि सर्वथा वाचामेव प्रसादेन लोकयात्रा प्रवर्तते ॥ इदमन्धं तमः कृत्स्नं जायेत भुवनत्रयम् यदि शब्दाह्वयं ज्योतिरा संसारान दीप्यते ॥” इति । देशजनसमूहपरिच्छिन्ना एकाऽपि वाग् विविधासु भाषालु संविभक्ता भवति । प्रत्येकं भाषा तत्तद्देशजनसमूहसंस्कारलक्षः णान्याविष्करोति । यथा यथा कस्याश्चित् प्रजायाः संस्कृति समुपबृंहते तथा तथा तस्या भाषासमृद्धिरपि विपुलता वैविध्यं सौक्ष्म्यं चावाप्नोति । प्रजायाः संस्कार एव भाषायाः परा शक्तिः। भाषापारंपर्यस्य सर्वाङ्गं गवेषणं तद्भाषाभाषिण्याः प्रजायाः संस्कतेरितिहासं व्यनक्ति । तस्मादेव भारतवर्षे प्राचीनतमा ऋषयः निरुक्तव्याकरणे वेदाङ्गकक्षायां न्यदधुः । गोर्वाणभाषासत्वान्वेषणपरेण भगवता पतञ्जलिना भारतवर्षीयसंस्कृतिसौष्ठवरिरक्षणा तस्मादेव कंचिद्ब्राह्मणग्रन्थमवतार्य समुद्घोषितम् । “एकः शब्दः सम्यग्शातः शास्त्रान्वितः सुप्रयुक्तः स्वर्ग लोके कामधुग्भवती" ति ॥ १. ऐतरेयारण्यक. ३. १. ६. . २. दण्डिन्-काव्यादर्श-अ० १. श्लो. २-३. ३. पतञ्जलि-व्याकरणमहाभाष्य-अ. १. पा. १. आहिक १-पत्र (५. (निर्णयसागरावृत्तिः) Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधुना भारतवर्षे विविधाभिर्देश्यभाषाभिस्तत्संस्कारव्यक्तित्वं समासादितं यत्तासां पारंपर्येतिहासाध्ययने पुराविदः पण्डितान् प्रेरयति । भारतवर्षस्य उदीच्यप्रान्तीयानां विविधानां देश्यभाषाणां सम्यगैतिहासिकमध्ययनं तदैव खलु सिध्यति यदा संस्कृतप्राकृतयोर्विविधानां देश्यभाषाणां चान्तराले स्थितस्यापभ्रंशस्य सूक्ष्मदृष्ट्या समवलोकनं क्रियते । सामान्यतस्त्वार्यावर्तस्य पश्चिमदिग्देशेषुच्यमानानामर्वाचीनदेश्यभाषाणां विशेषतश्च गुर्जरत्रायां प्रयुज्यमानाया अर्वाचीनगुर्जर्याः सर्वाङ्गपर्यालोचनमपभ्रंशस्य सूक्ष्माध्ययनं विना दुःशकमेव । बहवोऽपभ्रंशकृतयो जैनै रक्षितेषु हस्त लिखित पुस्तकागारेषु संलभ्यन्ते । चतुःपश्चा अपभ्रंशकृतयोऽ. द्यापि कचित्पण्डितैर्यथार्थ संपादितमुद्रिताः । प्राकृतार्वाचीनदेश्यभाषाऽन्तरालवर्त्यपभ्रंशविषयेऽर्वाचीन गुर्जरी भाषामुद्दिश्य प्रभूत• मध्येयमवशिष्यते । तदध्ययनं तु तदैव सुशकं यदा प्रसिद्धाप्रसिद्धापभ्रंशग्रन्थेभ्यो यथाकालक्रममुद्धरणानि संकलय्यैक एव ग्रन्थो विदुषां करकमले निधीयते । एतत्प्रयोजनमवधार्यास्माभिरेषाऽपभ्रंशपाठावली संयोजिता । अयं त्वपभ्रंशपाठावल्याः प्रथमोऽशो विक्रमार्केयसप्तमशताब्द्या आरभ्य दशमशताब्दीपर्यन्तं यथालब्धप्रसिद्वाप्रसिद्धापभ्रंशवाङ्मयं यथाशक्त्यालोच्य चतुर्दशसुद्धरणेषु संकलितः । अस्याः खलु द्वितीयेऽशेऽवशिष्टापभ्रंशवाङ्मय पर्यालो. वनं कर्तुमाशास्महे ॥ को नामाsपभ्रंशः । भगवता पतञ्जलिना गदितं " भूयांसोsपशब्दाः, अल्पीयांसः शब्दा इति । एकैकस्य हि शब्दस्य बह वोsपभ्रंशाः तद् यथा गौरित्यस्य शब्दस्य गावी गोणी गोता गोपोतालिकेत्यादयो बहवोऽपभ्रंशा " इति । दण्डिना काव्यादर्श - ४ । पभ्रंशशब्दस्य द्विविधोऽर्थोऽभिहितः । यथा, आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥ ४. महाभाष्य - अ० १. पा. १. आह्निक १. पत्र ५० दण्डिन् - काव्यादर्श - अ. १. ३६. Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रथमपङ्क्तौ दण्डिना तत्कालीनदेश्यभाषाभ्यः समासादित. वाङ्मयविषयपरमोत्कर्षा काश्चिदाभोरादिगिरोऽपभ्रंशाभिधाप्रदानेन दृष्टिकक्षोकृताः । द्वितीयपङ्क्तौ तु पतञ्जलिविहितः संस्कृतापेक्षोऽपभ्रंशार्थः संनिहितः । 'आभोरादिगिरः ' इत्यनेन शब्दसमूहेनार्यावर्तस्य पश्चिमप्रदेशमधिवसतां जनानां गिर उद्दिश्यैवोक्तमिति पुराविदभिप्रायानुसारमस्मभ्यं प्रतिभाति । कैश्चिदालंकारिकैरपभ्रंशशब्दः सामान्यभूतं तस्य यौगिकार्थ निमित्तीकृत्य व्याख्यायते । यथा रुद्रटः, षष्ठोऽत्र भूरिमेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ ६ इदं खल्वपभ्रंशलक्षणं न साधु, रूढार्थावमानत्वात् , संस्कृत. शब्दयौगिकार्थवदपभ्रंशशब्दस्य केवलं यौगिकार्थप्रदानेनार्थानुपपत्तेः। यत्तु विक्रमार्कीयसप्तमशताब्दीभाविना दण्डिना समवालोकि तत्तु नवमशताब्दीयेन रुद्रटेनानवलोकितमिति दुष्प्रतर्कमेव । तस्मादेव रुद्रटेन सं चानुसृत्यान्यैः कैश्चिदालंकारिकैरुपनिबद्धमपभ्रंशलक्षणं न स्वीकारार्हम् । द्वादशशताब्दीयेन वाग्भटेन किंचिसंस्कृत्यापभ्रंशलक्षणमुपनिबध्यते । यथा, अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् ॥ 'शुद्ध' मित्यनेन शब्देन ता देश्यभाषाः सूच्यन्ते यास्तत्कालीनलौकिकवाये परमोत्कृष्टत्वात्समापन्नप्रतिष्ठा आसन् । वाग्भटस्त्वेवं सर्वा देश्यभाषा अपभ्रंशपक्षे न निक्षिपति । आलं. कारिकवचनानुगामिन उपरितनविवेचनस्य निष्कर्ष वयमुपसंहरामः। काश्चिद् देश्यभाषाः काव्यादिष्पनिबद्धत्वाद्विद्वज्जनप्रयुज्यमानत्वात्परां शुद्धिमाप्नुवन् । तासां च विशेषत आभीरादीनां गिरः अपभ्रंशतया स्मयन्त इति ॥ यथा महाराष्ट्राश्रया भाषा प्रकृष्टप्राकृतपदं समारूढा सामान्यतः प्राकृताभिधव ज्ञायते तथैव राजस्थान-मरुदेश-गुर्जरत्रा ६. रुद्रट-कान्यालंकार, २-१२. ७. वाग्बट-काम्यालकार. २-३. Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिवार्यावर्तस्य पश्चिमदिक्प्रदेशेषु प्रयुज्यमानाभ्यो गीर्भ्यः शुद्धस्वरूपा कविभिराहता लब्धप्रकर्षा खल्वेका भाषाऽऽपभ्रंशाभिध. यैव ज्ञायते । साऽपभ्रंशभाषा तत्कालीन देश्यभाषाभ्यो भिन्नाऽऽसीत् । एषोऽभिप्रायः समधिगत सकलापभ्रंशसाहित्यनिदर्शनाद्, दाक्षिण्य. चिह्नराजशेखरादीनां कथनाद्, अपभ्रंशस्य राजस्थान गुर्जरत्रादिप्रदेश प्रवर्तमानदेश्यभाषाणां च व्याकरणशब्दसमूहादिविषये पारम्पर्यगतसाम्यदर्शनात्प्रमाणपदवीमारोहति । वि. सं. ८३५ वर्षे दाक्षिण्यचिह्नोऽष्टादशदेश्यभाषाऽतिरिक्तामपभ्रंश भाषामुपदर्शयति । तस्याभिप्राये संस्कृतं ' दुर्जनहृदयमिव विषमं ' प्राकृतं च ' सज्जनवचनमिव सुखसंगतं किं त्वपभ्रंशस्तु ताभ्यामपि शोभनतरः 'प्रणयकुपितप्रियप्रणयिनीसमुल्लापसदृशो मनोहरः । एवं गुर्जरत्रातिलकभूतं भिन्नमालं परितो विहरन् दाक्षिण्यचिह्नो suit परं भावमाविष्करोतीति न चित्रम् । अपि च स कुवलयमालाकथायां गुर्जरपथिकमुखादपभ्रंशदोहक मुपवाचयतीति सुसंग तमेव । विक्रमायदशमशताब्द्या आदिमे विभागे प्रवर्तमानो राजशेखरस्तदुक्तमित्युल्लिख्य काव्यमीमांसायां दशमाध्याये अपभ्रंशं प्रयुञ्जानान्देशान्निर्दिशति यथा, , १० सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवष्टक्कभादान काश्च । तस्मिन्नेव ग्रन्थेऽन्यत्र च, सुराष्ट्रत्रवणाद्या ये पठन्त्यर्पितसौष्ठषम् । अपभ्रंशवदंशानि ते संस्कृतवचांस्यपि ॥ इति । ११ अपरत्र च तस्मिन्नेव ग्रन्थे राजासनसमीपमपभ्रंशिनां क वीनां निवेशनस्थानं व्यवस्थापयिष्यन् राजशेखर उद्गिरति ' [ राजासनस्य च ] पश्चिमेनाप्रभ्रंशिनः कवय [ निविशेरन् ] ११२ ८. अपभ्रंशपाठावली - टिप्पणी पत्र. ६६. ९. अ. पा. उद्धरण १४. १० राजशेखर - काव्यमीमांसा । पत्र. १५. ( गायकवाड - प्राच्य ग्रंथमाला. १.) ११. राजशेखर - का. मी. पत्र ३४. १२. राजशेखर - का. मी. पत्र. ५४-५५ Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इति । सः चेम उल्लेखा अपभ्रंशस्थानविषयेऽस्मदीयाभिप्रायमेव द्रढयन्ति । एकादश्यां विक्रमशताब्द्यां विद्यमानो भोजराजः सरस्वतीकण्ठाभरणे, पठन्ति लटभं लाटाः प्राकृतं संस्कृतद्विषः अपभ्रंशेन तुष्यन्ति स्वेन नान्येन गुर्जराः ॥3 इत्यभिप्रायमाविष्कुर्वाणो राजशेखराभिप्रायमेव समर्थयति। एवं च सापभ्रंशप्रयोगाः प्रदेशा आर्यावर्तस्य पश्चिमाशावतिन इत्यप्रत्याख्येयोऽयं सिद्धान्तः ॥ अत्रापभ्रंशस्य विविधाः पारंपर्यसमाम्नाताः शाखा इति के. षांचिन्मतम् । तत्त्वत्र समुपस्थापितमपभ्रंशैकत्वपक्षं न व्यावर्तयति। साहित्ये प्रयुज्यमानस्यैकस्याप्यभ्रंशस्य प्रादेशिकविशेषत्वाल्लोकोक्तिगताः बहवः शाखा भवेयुरिति नास्मदीयसिद्धान्तबाधकमनुभवविरुद्धं वा । वि. सं. ११२५ वर्षे रुद्रटीयकाव्यालङ्कारटोकायां ममिसाधुरभिधत्ते। "पाणिन्यादिव्याकरणोदितशब्दलक्षणेन संस्करणात्संस्कृतमुच्यते । तथा प्राकृतभाषेव किंचिद्विशेषलक्षणान्मा. गधिका भण्यते । तथा प्राकृतमेव किंचिद्विशेषात् पैशाचि. कम् । शौरसेन्यपि प्राकृतभाषैव । तथा प्राकृतमेवापभ्रंशः। स चान्यैरुपनागराभीरनाम्यावभेदेन त्रिधोक्तस्तन्निरासार्थमुक्तं भूरिमेद इति । कुतो देशविशेषात् । तस्य च लक्षणं लोकादेव स. म्यगवसेय " मिति । एवं च रुद्रटमतसमर्थनपरो नमिसाधुरप. भ्रंशस्य त्रीन् भेदान्न स्वीकरोति । प्राच्यपरंपरासमाम्नायमनुमृत्य मार्कण्डेयेन प्राकृतसर्वस्वे नागरोपनागरवाचडसंज्ञा अपभ्रंशस्य त्रयो मेदा अभिहिताः । अस्माभिः प्रस्तुतग्रन्थस्य चतुर्थोद्धरणस्य प्रस्तावे टाक्क्यपभ्रंशस्य शाखैवेति प्रतिपिपादयिषद्भिः प्रा. १३. भोजदेव-सरस्वतीकण्ठाभरण. २-१३. १४. रुद्रट-काव्यालङ्कार २-११. नमिसाधु-टीका. १५. मार्कण्डेय-प्राकृतसर्वस्त्र पाद. १७-१८. देश्यभाषाणामपभ्रंशे समावेशनायोक्तेषु बहुष्वपभ्रंशप्रकारेष्वपि मुख्यतया वर्तमानानामपभ्रंशस्य त्रयाणां प्रकाराणां विवेचनं मार्कण्डेयेन विस्तरतो कृतमपरे तु केवलं निर्दिष्टाः । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतसर्वस्त्रे 'हरिश्चन्द्रस्त्विमां भाषामपभ्रंश इतीच्छती "ति मार्कण्डेयनिराकृताऽभिप्रायः स्वीकृतः । एवं चैकस्यापभ्रंशस्य देश्यविशेषैः परिच्छिन्नं शाखाभिन्नत्वमस्मन्मतं न बाधते ॥ साहित्यभाषापदमारूढेकाऽपभ्रंशभाषा दक्षिणापथवर्तिमान्यखे. टनिवासिना महाकविपुष्पदन्तेन, कामरूपवसतिना महासिद्धसरोरुहेण, वंगदेशवास्तव्येन कृष्णपादेन, विविधदेशनिवासिभिश्च. वमनेकैः कविभिः संस्कृतप्राकृतवत्प्रयुज्यमानैकस्मिन् समये समस्ते भारतवर्षे लब्धप्रचाराऽऽसीदित्यत्र न भवति संशयलवस्याप्यवकाशः। एतस्यापभ्रंशस्य यथाकालं द्विविधः प्रवाहः समवतीर्णो दृश्यते । एकस्तु परंपरया साहित्ये प्रयुज्यमानोऽपभ्रष्टसंज्ञां प्राप्नुवन् पश्चाच्च डिंगलाभिधया चारणैरद्यापि राजसभासु प्रयुज्यमानायां भाषायामखण्डतयाऽवतीर्णोऽवगम्यते । मैथिलकविविद्यापतिना विक्रमार्कीयपंचदशशताब्दीवर्तिना 'कीर्तिलते' ति ख्याते काव्येsपभ्रष्टभाषैव प्रायुञ्जि । यथा तेन भण्यते, सक्कअवाणी बहुअ न भावइ पाउअरस को मम्म न पावई । देसिलवअना सवजनमिट्ठा - ते तैसन जपउं अवहट्ठा ॥२॥ 29 . १६. अ. पा. टिप्पणी. पत्र. ३६. १७. कारंजा-जैन-प्रन्थमालायां 'जसहरचरिउ' (सं. पी. एल. वैय) 'नायकुमारचरिउ' (सं. हीरालाल जैन) इत्येतो प्रन्यो मुद्रितौ । 'महा. पुराणं ' तु वैद्यमहाशयेन संपाद्यते तस्यामेव प्रन्थमालायां ) १८. अ. पा. उद्धरण, १३. टिप्पणी, १९. अ. पा. उद्धरण. १३. टिप्पणी. २०. सुनीतिकुमार चेटरजी: 0. D. B. L. Part 1 Intro. P. 113-115. २१. कीतिलता ( सं. बाबुराम सक्सेना ) पत्र. ७. (मूल.) Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकृतपिंगलेऽप्युदाहरणपद्यान्यपभ्रष्टभाषायामेवोपनिबद्धानीति भाषालक्षणात्तट्टीकाकारस्य लक्ष्मीनाथभट्टस्य वचनाच्च प्रसिद्धमेव । २२ एवं च विक्रमाकयपञ्चदशशताब्द्यां विरचिते संदेशareared sufसद्धाऽपभ्रष्टकाव्ये यथा, अवहट्टय- सक्कय- पाइयं च पेसाइयंमि भासाए । लक्खण छंदाहरणे सुकइत्तं भूसियं जेहिं ॥ एवं च लोकैः प्रयुज्यमानाभिर्देश्यभाषाभिः संपृक्तस्ताभिश्च विकृतोऽप्यपभ्रंश पारम्पर्गमनुकुर्वाणश्चारणविरचितेषु काव्येष्वद्या• प्यखण्डतया प्रवर्तमानोऽपभ्रष्टसंज्ञः प्रवाहो दरीदृश्यते । द्वितीयश्व प्रवाह उक्तिप्रधानो लोकभाषास्ववतीर्णः स्वातन्त्र्येण विकृतिमापद्यमानो विवर्धमानश्व पश्चिमहिंदी - राजस्थानी गुर्जरी-प्रभृतिवर्वाचीनदेश्यभाषास्वन्तर्गतो ढग्गोचरीभवति । यत्वपभ्रंश-गुर्जर्यो र्व्याकरणादिसंबंधविवेचनं टेसीटरी-ग्रीअरसन- दिवेटिआ - ध्रुव-टर्नरादिभिर्विद्वद्भिर्विविधेषु प्रबन्धेष्वकारि तत्प्रशावद्भिर्वाचकैस्तत्र तत्रावलोकनोयम् ॥ यत्कैश्चित्पण्डितप्रवरैरपभ्रंशानेकत्वं प्रत्यपादि तदत्र प्रत्याख्येयम् । अस्मिन् पक्षे प्राचीनपरंपरायां रुद्रट - मार्कण्डेय - रामतर्कवागीशादय आलंकारिक वैयाकरणा अर्वाचीनपरंपरायां च पीशल-ग्रीअरसनादयो भाषापण्डिताः । अपभ्रंशकत्वयाथार्थ्यमस्माभिरुपरि साधितम् । प्राकृतानन्तरवर्त्यर्वाचीन देश्यभाषापुरोभवमन्तरालवर्ति तत्कालीनदेश्यभाषा स्वरूपमपभ्रंश इति पूर्वपक्षिणां पण्डितानां पक्षः । तस्याऽपि वैतथ्यमस्माभिरदर्शि । यत्तु बलपण्हो ' इत्यस्मिचतुर्थोद्धरणे टाक्कोमागध्योः कडवकानि दृश्यन्ते तत्केवलं विदग्धताविश्चिकीर्षया । द्वादशत्रयोदशोद्धरणयोर्भाषा देश्योक्ति I १२. Pischel. G. P. Ein § 28. अत्र तु पीशलमहाशयेन स्रविस्तरमपभ्रष्टशब्दप्रयोगस्थानानि समवतारितानि । तथा हि, प्रा. पिं. पत्र ३. ( लक्ष्मीधर टीकायाम् ) । १३. संदेशकरास ( अप्रसिद्ध ) गाथा. ६. Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विकृतः प्रायशः प्रयुज्यमानोऽपभ्रंश इति तत्र प्रस्तावनायां प्रदर्शितम् ॥ सति प्रभूतेऽपि वक्तव्ये विस्तरभिया दिङ्मात्रं खल्वप्राभिधीयते । आशास्महे भविष्यत्येतद्विवेचनं विदुषां तोषायेति । एतस्य ग्रन्थस्य संस्करणकर्मण्यस्माभिः प्रचुरमवधानमवाधारि । तथापि मुद्रणाव्यवस्थाया अस्मन्प्रामादाद्वा याः कश्चित्त्रुटयो. ऽवशिष्यमाणा विधरंस्ताः संशोधनीयाः सूचनीया वाऽस्मभ्यं परोपकारप्रवणैः प्रेक्षावद्भिर्वाचकैरिति सप्रश्रयं विज्ञाप्यते । अस्व प्रन्थस्य संपादनकर्मणि प्रचुरं साहाय्यमनुष्ठितवद्भिः दि० ब. केशवलाल हर्षदराय ध्रुवेत्येतैः पण्डितधुरीणैर्महाशयैर्महाराजश्रीपुण्यविजयेतिमुनिवरैश्च वयमत्यर्थमुपकृताः॥ मोदीत्युपाहो मधुसूदनः। Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपोद्घात अंग्रेजीनो मूळगत संबंध अग्लो-सेक्सन साथे छे; लेटिने तेने ओप अने अलंकारो अर्ध्या छे. तेवी ज रीते गजराती, राजस्थानी अने पश्चिम हिंदुस्तानीनो मूळगत संबंध अपभ्रंश साथे छे; संस्कृते तो आ बधो य अर्वाचीन देश्यभाषाओने ओप अने अलंकारो आप्या छे. एटले के गूजरातीना शास्त्रीय अभ्यास माटे संस्कृतना अभ्यासनी आवश्यकता खरी; परंतु तेनी चिकित्सा, तेना आत्मानी ओळख तो अपभ्रंशना अभ्यासथी थई शके. परंतु आश्चर्यनी वात छे के गूजरातीना उच्चतर अभ्यासमां तेने नहि जेवू ज स्थान आपवामां आव्यु छे. अपभ्रंशना अभ्यास विना गूजरातीनी भाषाचिकित्सा असंभवित ज छे. घणा य गूजराती शब्दोनां मूळ अपभ्रंशमां दीठामां आवे छे. व्याकरणनां रूपो पण झीणवटथी तपासीए तो तेमाथी ज अवतीर्ण थतां दृष्टिगोचर थाय छे. डॉ. टेसीटरी, श्री. नरसिंहराव, प्रो. टर्नर, दी. बा. केशवलाल ध्रुव के सर ज्याज प्रीअर्सननां लखाणो तपासीशुं, तो आ बाबतनी आपणने सचोट प्रतीति थशे. हिंदनी परंपरामां ऊछरेला स्व. व्रजलाल शास्त्रीए पण अपभ्रंश-गूजरातीना संबंध उपर भार मूक्यो हतो. (सं. १९२२) दि. बा. केशवलाल ध्रुवे इ. स. १९०७मां गूजराती-साहित्य-परिषदना बीजा अधिवेशनना प्रमुख तरीकेना भाषणमां अपभ्रंश अने गूजरातीना संबंध विषे विस्तारथी चर्चा करी हती.२ अपभ्रंशना शास्त्रीय अभ्यास प्रत्ये गूजरातना विद्वानोए घणुं ओछु लक्ष आप्यु छे. तेनो अभ्यास सारा प्रमाणमां थशे नहि तो गूजरातोने सारो शब्दकोश के व्याकरण सांपडशे नहि. 'अपभ्रंश' नी अर्थव्याप्ति विषे प्राचीन समयथी ज भिन्न भिन्न मत दृष्टिः गोचर थता आवे छे. जूनामां जूनो अपभ्रंश शब्दनो प्रयोग आपणने पतञ्जलिना १. शास्त्री ब्रजलाल कालिदास विरचित 'गुजराती भाषानो इतिहास' (सं. १९१२), प्रसिद्ध करनार-गुजरात वर्नाक्युलर सोसायटी, अमदावाद डॉ. सर रामकृष्ण भांडारकर - Wilson Philological Lectures.' Lec. III ने छेडे अपभ्रंश-गूजरातीना संबंधे स्व. शास्त्रीजीनो उल्लेख करे छे. २. बीजी गूजराती साहित्य परिषदनो अहेवाल अने निबंधो (१९०७) मां दि वा. केशवलाल हर्षदराय ध्रुव- आखू य भाषण आ विषयना रसिके वांची जवा जेवू छे. Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० परंतु तेनो उल्लेख व्याकरणमहाभाष्यमा मळे छे. तेमां तो संस्कृतना हिसाबे जे कोई भाषाभ्रष्टता होय, तेने अपभ्रंश तरीके ओळखाववामां आवी छे. पतञ्जलि इ. स. पूर्व २०० नी आसपास प्रवर्तमान थया एम विद्वानोनो अभिप्राय छे. त्यार पछी भामहे ( आशरे इ. स. छट्ठो सैको) अपभ्रंशनो उल्लेख कर्यो छे; अपभ्रंशनी अर्थव्याप्ति पर झाझो प्रकाश पाडतो नथी. अपभ्रंशना अर्थ पर दण्डीनां वचन' (आशरे इ. स. सातमो सैको) ठीक प्रकाश आपे छे. संस्कृत प्रत्ये अभिनिवेशवाळा वैयाकरण अने आलंकारिकोनो मत पण तेणे नोंच्यो छे; अने • अपभ्रंश नामे रूढ भाषानो पण तेणे उल्लेख कर्यो छे. शास्त्रोमां तो संस्कृतथी जे कोई भिन्न भाषा होय ते अपभ्रंश, ए पहेलो अर्थ; अने आभीर इत्यादिनी भाषाओ काव्योमां वपराई होय ते अपभ्रंश, ए बीजो अर्थ. आभीर इत्यादि जातिओनो वसवाट पश्चिम हिंदुस्तानमां हतो ए विद्वन्मान्य बाबत छे. त्यार पछीनो उल्लेख रुद्रटनो छे. तेना मते तो देश विशेषे करीने जे अनेक भाषाओ होय, ते अपभ्रंशने नामे ओळखवी; एटले के दरेक देश्यभाषा तेने अभिप्राये तो अपभ्रंश ज लेखावी जोईए. आ अभिप्राय अर्थाभासरूप छे; कारण के रूढार्थनी अवगणना करी, केवळ यौगिकार्थने प्राधान्य आपी, तेणे आलंकाारेकोनी विभाग ३. पतंजलि - महाभाष्य. अ. १.पा. १. आह्निक. १. पान. ५०. ४. भामह - काव्यालंकार - १.३६. शब्दार्थौ सहितौ काव्यं गद्यं पद्यं च तद् द्विधा संस्कृतं प्राकृतं चान्यदपभ्रंश इति त्रिधा ॥ ५. दण्डिन् - काव्यादर्श. - १.३२.३६. तदेतद्वाङ्मयं भूयः संस्कृतं प्राकृतं तथा । अपभ्रंशश्च मिश्रं चेत्याहुरार्याश्चतुर्विधम् ॥ आभीरादिगिरः काव्येष्वपभ्रंश इति स्मृताः । शास्त्रे तु संस्कृतादन्यदपभ्रंशतयोदितम् ॥ ६. रुद्रट - काव्यालंकार. २ - ११. १२. भाषाभेदनिमित्तः षोढा भेदोऽस्य संभवति ॥ प्राकृतसंस्कृतमागधपिशाचभाषाश्च शौरसेनी च । षष्ठोऽत्र भूरिभेदो देशविशेषादपभ्रंशः ॥ Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११ प्रियताने ज तोषी छे. बाकी सातमा सैकाना दण्डीने जे अर्थ सूझ्यो, ते शुं नवमा सैकाना रुद्रटने न सूझे ? बारमा सैकाना वाग्भटनो अभिप्राय दण्डी अने रुद्रटना अभिप्रायनी वचटनो छे. ते रुद्रटनी माफक बधी देश्यभाषाओने अपभ्रंश कहेतो नथी; तेम पश्चिममां वसता आभीरादिनी भाषाओने ज अपभ्रंश तरीके उल्लेखतो नथी. तेने मते तो कोई पण देश्यभाषा शुद्धस्वरूपे पहोंची होय, एटले के साहित्यमां वपराई होय, तेने अपभ्रंश कहेवी, बीजीने नहि. आ. प्रकरनां शास्त्रप्रिय आलंकारिकोनां दलीली विवेचनो जवा दई, मुद्दा पर आवीए. आगळ पाछळना पूरावा परथी एम आपणे कही शकीए के केटलाक जीवा अपवादों बाद करतां, हेमचंद्रे जे भाषानी चर्चा सिद्ध है मना आठमा अध्यायने छेडे करी छे, ते भाषाने अपभ्रंश समजवी. ' बीजा प्राकृत वैयाकरणोने पण आज अभिप्रेत छे. आ भाषामां ज आर्यावर्तना पश्चिम दिशाना देशोनी अर्वाचीन भाषाओनुं मूळ विद्वानो जुवे छे. आ बाबतमां राजशेखर काव्यमीमांसामां कहे छे, के “ मारवाड, टक अने भादानक प्रदेशोमां भाषाप्रयोगो अपभ्रंश मिश्र होय छे.”” अपभ्रंश कविओनुं ते पश्चिममां स्थान स्थापे छे; " अने जणावे छे के " सुराष्ट्र अने त्रवण आदि प्रदेशना जनो सौष्ठव अपने संस्कृत वचनोने पण अपभ्रंशवत् बोले छे. """ भोज सरस्वतीकंठाभरणमां कहे छे के << गुर्जरो पोताना अपभ्रंशथी संतोषाय छे; नहि के बीजाथी ” जो सिद्ध हैमनी अपभ्रंश साथे गूजराती सरखावीए तो मालम पडशे के बन्ने वच्चे मा - दीकरीनो संबंब छे. मारवाडी तथा पश्चिम हिंदुस्तानीने पण अपभ्रंशनी साथे आ प्रकारनो ज संबंध छे. आथी जे अपभ्रंशनी वात भोज अने राजशेखर करे छे, ते अपभ्रंश सिद्धहैमनुं ज अपभ्रंश छे, ए वात दीवा जेवी चोक्खी छे. विक्रमना ७. वाग्भट - काव्यालंकार. २. ३. अपभ्रंशस्तु यच्छुद्धं तत्तद्देशेषु भाषितम् । ८. हेमचंद्र - सि. हे. ८ ४. ३२९ - ४४६; मार्कण्डेय - प्राकृतसर्वस्व १७ १-७८. लक्ष्मीधर - षड्भाषाचन्द्रिका ( सं . कमळाशंकर प्राणशंकर त्रिवेदी) पृष्ठ २६४ - २६८. इ. मां अपभ्रंशनी चर्चा करवामां आवी छे. ९. राजशेखर - का. मी. पान. ३४. १०. राजशेखर - का. मो. पान. ५४-५५ ११. राजशेखर - का. मी. पान. ३४.१२. भोजदेव - सरस्वतीकण्ठाभरण. २. १३. Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नवमा सैकानी प्राकृतकथा कुवलयमालामा उद्योतनसूरि गूर्जरपधिकने म्होए अपभ्रंश दुहो बोलावे छे १४ आ परथी प्रतीत थाय छे के अपभ्रंश नामे साहित्यमा ओळखाती भाषा एक होई, पश्चिम आर्यावर्तनी अर्वाचीन भाषाओनुं ते मूल छे. ा मतमंडननो केटलाक विद्वानो अंशतः विरोध करे छे प्रो. पीशल, प्रीअरसन इ० नुं मानवं एम छे जे अत्यारनी लोकभाषानुं पूर्वरूप तत्तद्देशीय अपभ्रंश हतु; अनें तत्तद्देशीय अपभ्रंशनु पूर्वरूप तत्तद्देशीय प्राकृत हतुं प्रो. पीशल अपभ्रंशनी अनेकता कल्पी, नीचे प्रमाणे मतस्थापना करे छे:१५ “ आपणे आम शौरसेनी अपभ्रंश जुद् पाडवू जोईए-जे अपभ्रंश शूरसेन प्रदेशनी जूनी लोकभाषा हती; तेनी विकृति गूजराती अने मारवाडी छे. ते ज प्रमाणे आपणे शौरसेनी प्राकृत पण जुईं पाडवू जोईए. + + + + हेमचंद्र खोटी रोते अपभ्रंशने शौरसेनी प्राकृत एकलीने ज अनुसरनाएं कहे छे. महाराष्ट्र अपभ्रंश हतुं (सरखावो Hoernle. Com. Gram. P.xxii), जेनी साथे मराठी संबद्ध छ; जने ते ज प्रमाणे महाराष्टर्नु प्राकृत जेने महाराष्ट्री तरीके ओळखवामा आवे छे, ते विषे आपणे जाणीए छीए तेज प्रमाणे मागधी अपभ्रंश हतुं, जे लाटभाषा मारफत अर्वाचीन बिहारी अने पश्चिम बंगालोमां जीवंत छ; अने ते प्रमाणे मगधन प्राकृत नामे मागधी पण आपणे जाणीए छीए." डॉ. सुनीतिकुमार चेटरजी आ मतने अनुसरी एक स्थळे कहे छे, " At the confluence of the second period (i. e. Middle Indo-Aryan Period) and the third period (i. e. New Indo-Aryan Period), we have the literary Apabbrans'as; and these Apabhrans'as of literature are mainly based on hypothetical spoken Apabhrans'as in which the earlier Prakrits die and the Bhāsās or modern Indo-Aryan languages १३. अपभ्रंशपाठावली. उद्धरण. १४. १४. Grierson: Art. on 'Prakrit' Encyclo. Britt. Vol. XXII P. 251: १५. Pischel: G. P. Eint. $7. १६. Chatterji: O. D. B. L. Intro. P. 17. Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ have their birth." आज प्रमाणे डॉ.हर्नल,१७प्रो. पीशल, प्रीअरसन इत्यादि विद्वानो जूनी देश्यभाषाओने अपभ्रंश तरीके लेखावी तेनी व्याप्तिने बहलावे छे; अने तेम करी अपभ्रंशनी अनेकता स्थापे छे; तेम ज आ मतने अनुकूळ करवा हेमचंद्रना अपभ्रंशने शौरसेनी अपभ्रंश नाम आपे छे. जूना वैयाकरण अने आलंकारिकोनी परंपरामा रुद्रटनो टीकाकार नमिसाधु, रामचंद्र,५ मार्कण्डेय इत्यादि अपभ्रंशनी अनेकता स्थापे छे; परंतु तेमणे कहेला अपभ्रंशन वाङमय मळतुं नथो. जे अपभ्रंशवाङमय आपणी समक्ष छे, ते उपरथी जो निर्णय बांधवानो होय, तो अपभ्रंश एक भाषा हती, एम कहेवामां कांई बाध नथी. देश्य भाषाओनी अपभ्रंश नाम आपी, अपभ्रंशनो अनेकता संबंधे मतस्थापना कराय; पण एकली मतस्थापनाए शुं वळयुं ? बीजां अपभ्रंशोनुं साहित्य क्यां छे ? तेमना सास व्याकरणविशेषोनी चर्चा पण कया वैयाकरणे करी छे ? मार्कण्डेय के रामतर्कवागीशे जे चर्चा करो छे, ते तो जूना शास्त्रीओनी विभागप्रियताने आभारी छे; नहि तो शुं बब्वे सूत्रो ज एकएक अपभ्रंशने वर्णवी शके ? वीजु के, अपभ्रंशनी अनेकताना उल्लेखो अपभ्रंश बोलाती बंध पडया पछीना छे. प्रस्तुत अपभ्रंशपाठावलीना चोथा उद्धरणमा त्रिभुवन १७. Hoernle: Grammer of Gaudian languages. Intro. xi-xii. १८. नमिसाधु-रुद्रट. २. १२. उपर टीका. १९. रामचंद्र -नाटयदर्पण. पान. २०९, कारिका. १९५ना प्रथम चरण उपर टीका. २०. मार्कण्डेय-प्राकृतसर्वस्व. पान. २ टीका . वाचडो लाटवैदर्भावुपनागरनागरौ । बार्बरावन्त्यपाश्चालटाकमालवकैकयाः ॥ गौडौढ़वैवपाश्चात्यपाण्ड्यकौन्तलसँहलाः कालिङ्ग्यप्राच्यकार्णाटकाच्यद्राविडगौर्जराः ॥ आभीरो मध्यदेशीयः सूक्ष्मभेदव्यवस्थिताः सप्तविंशत्यपभ्रंशाः वैतालादिप्रभेदतः ॥ अने पोताना अभिप्राये पाद. १. सूत्र. ७. पान. ३:नागरो वाचडश्वोपनागरश्चेति ते त्रयः अपभ्रंशाः परे सूक्ष्मभेदत्वान्न पृथङ्मताः ॥ Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वयंभूए रचेला हरिवंशपुराणना भागमांथी एक संधि लेवामां आव्यो छे. तेमां तेणे टाकी अने. मागधी भाषाने अनुसरता अपभ्रंशनां कडवक आप्यां छे" तेमां पण विदग्धता बताववानो ज यत्न छे. आपणने अत्यारे मळतुं साहित्य, अपभ्रंश, प्राकृतनी माफक, साहित्यनी प्रकृष्ट भाषा थई त्यार पछीनुं छे; तो पण तेनुं दूध पी ऊछरेली अर्वाचीन देश्यभाषाओनुं स्वरूप तेने अवलंबीने ज विकस्यु, एने माटे पूरावा आपी शकाय एम छे. अपभ्रंश प्रकृष्ट भाषा थयानो उल्लेख धरसेन बीजाए (इ स. ५५२-५६२) पोताना बाप गुहसेन संबंधी लेखमां को छे. तेमां गुहसेनने “ संस्कृत, प्राकृत,अपभ्रंश ए त्रणे य भाषाना प्रबन्धोनी रचनाथी जेनु अंतःकरण वधारे निपुण थयुं छे, " एम वर्णव्यो छे.२२ आ बतावे छे के इ. स. ना छठा सैकामां ते साहित्यभाषा बनेली हती. वळी त्रण ज भाषा तरोके संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंशने वर्णवेलां होई, अपभ्रंश ए एक ज साहित्यभाषा हती एम ठरे छे. आ पहेलांनो अपभ्रंशना प्रयोगनो एक दाखलो मळे छे. ते वसुदेवहिंडी जे इ. स. ५८९ पहेलांनो प्रन्थ छे, तेमा छे.२७ आथो जूनो अपभ्रंशनो प्रयोग दृष्टिगोचर थतो नथी. भरतना नाटयशास्त्रमा अपभ्रंश गीत छे एम बतावत्रा एक विद्वाने यत्न कयों छे; परंतु ते गीतने झीणवटथो तपासतां ए अपभ्रंशभाषानां होवानी प्रतीति थती नथी.२५ आपणने मदतुं अपभ्रंशसाहित्य नवमा दशमा सैकानुं छे; एटले के ते बोलाती बंध पडी, अने साहित्यमा स्थिर थई त्यार पछीन छे. मळी आवता बधा अपभ्रंशसाहित्यमा सामान्यतः जुदापणु छे व नहि. जो ए लोकोनी बोलाती भाषा होत तो रूपरचनामां क्यांक खास फेरफारो जुदाजुदा प्रदेशमा रही लखता कविओमां आव्या होत. बी के जो अपभ्रंश साहित्यभाषा न होत तो, निझाम राज्यमां २१. अपभ्रंश-पाठावली-उद्धरण, ४. कडवक. १-४. मागधी. कडवक. ११. टाक्की. २२. Indian Antiquary Vol. 10. P. 284. संस्कृतप्राकृतापभ्रंशभाषात्रयप्रतिबद्धप्रबन्धरचनानिपुणतरान्तःकरणः । आ प्रमाणे वल्लभीराज गुहसेननु विशेषण आपवामां आन्युं छे. २३. अपभ्रंशपाठावली. उद्धरण. १४. २४. डा. याकोबी अने तेने अनुसरी डॉ. गुणे ए भविसत्तकहानी प्रस्तावना. मां आ प्रमाणे यत्न को छे. तेनो निरास Indian Historical Quarterly Vol.VIII.No.4.M.Ghosh:Prakrit verses in Bharata-Natya Sastra. के. ह. ध्रुव ‘पद्धरचनानी अतिशसिक आलोचना' पान.२८३-२८६. Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ Ε आवेला मान्यखेटमां रही दशमा सैकामां महाकवि पुष्पदन्ते त्यांना सचिवकुलने संतोषवा अपभ्रंशमां जैनपुराणो ऊताया न होत; वळी महासिद्ध सरहे । आसाममां रंही एज साहित्यभाषा अपभ्रंशमां 'दोहाकोश' रच्यो न होत; तेम ज कृष्णपादे बंग प्रदेशमा वसी तेज अपभ्रंशमां पोताना 'दोहाकोश' नी संकलना न करी होत. आथी एम मानवाने कारण मळे छे के संस्कृत अने प्राकृत ( = महाराष्ट्री ) नी हारोहार अपभ्रंश एक काळे संस्कृत अने प्राकृत जेत्री ज विद्वन्मान्य हती; अने धरसेने तेथी ज तेना संस्कारी बापने संस्कृत अने प्राकृतनी साथे अपशना प्रबंध रचवामां निपुणतर कह्यो छे; उद्योतने अपभ्रंशने देश्यभाषाथी जुदी पाडी, संस्कृत अने प्राकृतना करतां य तेनी अदकी तारीफ करी छे; राजशेखरे तेने भव्य कह्यो छे. एक काळे अपभ्रंश आखा हिंदुस्तानमां संस्कृत अने प्राकृतनी जेम ज काव्यमां वपराती. डॉ. सुनीतिकुमार चेटरजीना शव्दोमां, "A kind of Mainland or S'aurseni Apabhrans'a was a sort of literary speech of Northern India in the closing centuries of the Ist millennium A, C. and some centuries later. The power and prestige of the Rajput courts which had their centres in the midland and the Ganges valley, was responsible for it. The Jainas of Gujarat cultivated it a great deal; and often it became a mixed dialect "२७ आगळ जतां ते ज जणावे छे के " The Western or S'aurseni Apabhrans'a became current all over Aryan India from Gujarat and Western Punjab to Bengal; probably as a Lingua franca, and certainly as a polite language, as a bardic २५. जुओ अ. पा. उद्धरण १० उपर टिप्पणी पान. ८६ उपर आने आप्युं छे. २६. राजशेखर - बालरामायण अं. १ श्लोक. ११. गिरः श्रव्या दिव्याः प्रकृतिमधुराः प्राकृतधुरः सुभव्योऽपभ्रंशः सरसरचनं भूतवचनम् । २७. Chatterji: O. D. B. L. Intro P. 90. Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६ speech which alone was rgarded as suitable for poetry of all sorts.. १२८ ८८ उपरना डॉ. सुनीति कुमार चेटरजीना शब्दो परथी एम तो तरी आवे छे के अमुक भाषा अमुक एक काळे संस्कृत अने प्राकृतनी जेम अखिल आर्यावर्तमां वपराती हती, अने ते अपभ्रंश हती. २९ डॉ. चेटरजी, पश्चिमना अन्य विद्वानोने अनुसरी, तेने शौरसेनी अपभ्रंश कहे छे. अत्यारे आपणने उपलब्ध थता साहित्यने आपणे शौरसेनी अपभ्रंश कही शकीशुं ? डॉ. चेटरजी आपणा अपभ्रंशने शूरसेन प्रदेशनुं होवाथी शौरसेनी कहे छे; एटलं ज नहि परंतु अपभ्रंशनुं पृथक्करण करी कहे छे के Nagara Apabhrans'a also cultivated by the Jainas, is probably based on the late Middle Indo-Aryan source-dialects of RajastaniGujarati, strongly tinged with S'aurseni, "30 एम लागे छे के ' शौरसेनीनी मजबुत असरवाळी' ए शब्द टीकापात्र छे. आमां प्रो. पीशन, प्रीअरसन इत्यादिए आ अपभ्रंशने शौरसेनी अपभ्रंश कहेवानी प्रथा चलावी तेने घटित ठराववा ज प्रयास छे. आ अपभ्रंशने कोइ प्राचीन आलंकारिक के वैयाकरणे शौरसेनी अपभ्रंश नाम आप्युं नथी. सिद्धहैमनां केटलांक सूत्रो आने माटे जवाबदार होवा संभव छे. दा. त. सि. हे. ८. ४. ३२९. ( टीका ) प्रायो ग्रहणात् यस्यापभ्रंशे विशेषो वक्ष्यते तस्यापि क्वचित्प्राकृतवत् - शौरसेनीवच्च भवति; सि.हे. ८.४.३९६. ( उ. ३) सवधु करेणु कधिदु मइं तसु परसभलउ जम्भु । जासु न चाउ न चारहडिन य परहट्ठ धम्मु ||; आना करतां य वधारे, सि. हे. ८. ४, ४४६. शौरसेनीवत् ॥ सूत्रनुं उदाहरण: सीसि सेहरु खणु विणिम्मविदु खणु कण्ठ पालम्बु किदु, हिदु खणु मुण्डमालिए जं पणपण २८. Chatterji: O. D. B. L. intro P. 161. २९. Chatterji: O. C. P. 91 "In the Apabhrans'a period, eastern poets employed the S'aurseni Apab hrans'a to the exclusion of their local patois. This tradition that of writing in a Western S'aurseni literary speech was continued in the east even after the eastern languages had come to their own. ३०, Chatterji O. C. P. 90. " Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७ तं नमहु कुसुमदामकोदण्डु कामहो । आ छल्ला उदाहरण " ते ज निमित्त बनावी, प्रो. पीशल कछे छे, ( शौरसेनी अपभ्रंशना ) उदाहरण तरीके, सि. हे. ८. ४. ४४६. कण्ठि पालम्वु किदु रदिए । शौरसेनी प्राकृतमां कण्ठे पालम्बं किदं रदिए । अने आज दृष्टान्त महाराष्ट्री प्राकृतमां कण्ठे पालम्बं कथं रइए । थशे. एटले शौरसेनी अपभ्रंश एकलं ज हतुं, ए हेमचंद्रनुं मन्तव्य बरोबर नथी. ” ” हेमचंद्रने अनुसरी, सिंहराज १२. १. पान. ९५ उपर शौरसेनी प्राकृतने अपभ्रंशनी मित्तिरूप माने छे. मार्कण्डेय प्रा स. १७ १ पान ११२. उपर नागरं तु महाराष्ट्रीशौरसेन्याः प्रतिष्ठितम् अने प्रमाणे षड्भाषाचन्द्रिका पान. २७६. पंक्ति १ २. मां अभिप्राय दर्शाने छे. आ प्रकारना प्राचीन उल्लेखो परथी अने देशानुसारी प्राकृत अने तेमांथी अवतीर्ण थता अपभ्रंशोना सिद्धांतने रोचक बने एम होवाथी, अपभ्रंशने शौरसेनी अपभ्रंश नाम अर्पवानो पूर्वग्रह बंधायो होय तो कांइ नवीन नथी. हेमचंद्रनुं व्याकरण बारमा सैकानुं छे; अने तेनां दृष्टान्तो अने नियमोमां लौकिक बोलीओ (Local dialects) नी छांट छे २ हेमचंद्रे पोतानां उदाहरणोने सूत्रानुरूप बनाववा घटता फेरफार कर्या होय, तो य नवाई न कहेवाय वळी आपणे कुवलयमालानां देश्यभाषानां उदाहरण परथी जोई शकीए छीए के सि. हे. ८. ४. ३९६ मां अपभ्रंश माटे विहित करेली मार्दवप्रक्रिया ( Softening ) देश्य - भाषामा वधारे प्रमाणमां मळे छे. प्रकृष्ट अपभ्रंशमां ते देश्यभाषा विशिष्टता ३२ 33 ३१. Pischel: G. P. Eint $5. ३२. J. R. A. S 1913. P. 882. Grierson " Apabhrans'a according to Markandeya and Dhakki Prakrit."'A great deal of Hem.'s Apabhrans'a is,as is well-known, Old Gujarati, and this shows that his S'aursena or standard Apabhrans'a (really a mixture of several dialects) was spoken or at least some of it was spoken in Gujarat. ' ३३. हेमचंद्रनां सूत्रो परनां उदाहरणो परथी आ देखाई भावे छे. दा. त. सि. हे. ८. ४, ४३४. परनुं उदाहरण. २. Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ तरीके आवे छे; परंतु नियमे करीने तो नहि ज. ॐ अपभ्रंशनी स्वरप्रक्रिया अने रूपरचनानुं पृथक्करण करी समजवाथी मालम पडे छे के राजस्थान अने गूजरात बाजुनी देश्यभाषाओमांथी उदभूत थई, साहित्यमां वपरावानी योग्यता मेळवी, तेना मूलस्थानमांथी आखा उत्तर आर्यावर्तमां ते भाषा प्रसरी. प्रकृष्ट साहित्यभाषा बनतां महाराष्ट्री प्राकृतनो आदर्श पोतानी समक्ष तेणे राख्यो, अने संस्कृतनी असरथी पण ते विमुक्त रही नहि. ज्यां ज्यां ते साहित्यमां वपरावा लागी, त्यां त्यां तेणे त्यांनी लौकिक बोलीओमांथी, पोतानुं मूळ स्वरूप साचवी, अणजाणे असर मेळवी; कारण के संस्कृत जेवी व्याकरणबद्धता अने शास्त्रीयता अपभ्रंश साहित्यभाषा बनी छतां य तेमां हृती ज नहि. हेमचंद्रनं अपभ्रंश, पुष्पदन्तनुं अपभ्रंश अने दोहाकोशनुं अपभ्रंश " एक ज अपभ्रंश छे; छतां य तेमां प्रान्तीय बोलीओनी असर कांइ ओछा प्रमाणमां नथी आ लौकिक बोलीओनी असरने कारणे तेमां जुदां जुदां अपभ्रंशनुं कचुंबर छे, ए मान्यता खोटी छे. ३६ कोइ पण अपभ्रंश लखाणनो अभ्यास भाषाशाखनी दृष्टिए करवो होय, तो आदर्श - अपभ्रंशना अंशो अने देश्यभाषाना अंशो जुदा पाडवा आवश्यक छे. प्रस्तुत प्रन्थमां एवो व्यापक अभ्यास थवो असंभवित छे; कारण के देश्यभाषाना अंशो तो अणजाणे अने अपवादात्मक रीते ज लखाणमां आवे छे. आ ज प्रमाणे नीचे सिद्धममां आपेलां दृष्ठान्तोमांथी देश्यभाषाना अंशोनुं तारण आपीने ज अत्रे वीरमीशुं. आ मुद्दा उपर प्रो. पीशलनुं वक्तव्य नीचे प्रमाणे छे, " सि. हे. ८.४.३२९-४४६. मां हेमचंद्र अपभ्रंशने स्वतंत्र भाषा तरीके चर्चे छे. पण तेना नियमो परथी मालम पडे छे के ते अपभ्रंशना अभिधान हेठळ विविध अपभ्रंश बोलीओने भेगी लावे छे. सि. हे. ४. ३६०. धुं, त्रं; ४. ३२७. तुन; ४. ३९३. प्रस्सदि ४ १९१ ब्रोप्पिणु, ब्रोप्पि; ४. ३४१, ३९४, ४३८ गृहन्ति, गृहेष्पिणु; ४. ३९९. बासु छेला बे दाखलामां ऋ नो विकाराभाव अने वधाराना हुन आगम ए, सूत्रोमां चर्चेला ३४. कुवलयमालानां देश्यभाषानां दृष्टान्तो माटे जुओ अ. का. त्र. नी प्रस्तावना पा. १०४-११० ; मार्दवप्रक्रिया माटे. जुओ आगळ निम्ननोंध ३६. Gune. भ. क. Intro पान. १३. ९.१३. इ० ३५. अ. पा. टिप्पणी. पान. १०० - १०१. ३६. Pischel: G. P. Eint. §.29. Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामान्य अपभ्रंश जेना नियमो बांधवामां आव्या छे, तेनाथी जुदी भाषानां रूप छे. सि. हे. ४.३९६. अनादौ स्वरसंयुक्तानां कखतथपफां गघदधबभाः। नो नियम बीजा घणा नियमो अने दाखलाओनो विरोधी छे. ते ज प्रमाणे सि. हे. ४. ४४६ शौरसेनीवत् । नो नियम पण उपर प्रमाणे ज अग्यापक छे. " आ उपरांत रूपरचनामां अने स्वरप्रक्रियामां देश्यभाषानी असरवाळां रूप सि. हे. मां दृष्टिगोचर थाय छे. ते जुदां पाडवा प्रो. याकोबी अने तेमने अनुसरी प्रो. गुणेए३७ यत्न करेलो छे. छेवटमां प्रो. गुणे एम अभिप्राय दावे छे के हेमचंद्र महाराष्ट्र अने शौरसेन ए बे अपभ्रंशनी भेगी चर्चा करता होय.८ परंतु आ अभिप्राय एटलो व्याजबी नथी, शौरसेनी असर जेवी लागती असर, केटलांक विचित्र रूपो ए बधी देश्यभाषानी असर छे; ज्यारे स्वरप्रक्रियामां तो अपभ्रंश मोटे भागे आदर्श महाराष्ट्रीने ज अनुसरे छे. ज्यारे आदर्श अपभ्रंशनुं बाकीर्नु घडतर तो शौरसेनी य नहि अने महाराष्ट्री पण नहि एवी त्रीजी कोइ अज्ञात प्राकृतमांथी होय एम लागे छे.३९ __केटलाक विद्वानो अपभ्रंशनी विविधं शाखाओ पाडे छे. खास करीने मार्कण्डेय नागर, उपनागर अने वाचड अपभ्रंशनी मुख्यत्वे चर्चा करे छे. वाचना संबंधे कहे छे के ते सिंधु देशनो अपभ्रंश छे.४° उपनागर" ए तेने अभिप्राये नागर अने वाचडनो योग थतां थएल अपभ्रंश छे. नागर अपभ्रंश ते मूळगत अपभ्रंश छे. आ ज प्रमाणे नमिसाधु उपनागर, आभीर अने प्राम्य ४२. सदर. पा. १७. सू. १. उपर टीका अथापभ्रंशभाषासु मलत्वेन प्रथमं नागरमाह । जुओ आ उपोद्घातनी निम्ननोंध. २०. ३७. Gune: भ. क. Intro. P. 64. ३८. Gune: भ. क. Intro. P. 64. “ Thus side by side with the Maharastra (?) Apabhrans'a, he may be said to be treating partially of S'aursena Aprbhrang'a" ३९. खास करीने हेवर्थ, अव्ययभूत कृदंत इत्यादिनी रचना; नामनां अने क्रियापदनां रूपो; तेम ज निपातोनो अभ्यास आ ज बतावे छे. वळो जुभो Grierson: Art. on 'Prakrit' Encyclo. Brit. XXII P. 251. ४०. मार्कण्डेयः प्रा. स. पा. १८. सूत्र. १. उपर टीकाः सिन्धुदेशोद्भवो वाचडोऽपभ्रंशः। ११. सदर. पा. १८. सू. १८, अनयोर्यत्र सांकर्य तदिष्टमपनागरम् । टीका. अनयो गरजाचडयोः । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० ए त्रण शाखाओने उल्लेखी, तेनो निरास करे छे.४६ टाको ए अपभ्रंशनी शाखा हती, एम मार्कण्डेये नोंघेलो पण नहि स्वीकारेको हरिश्चन्द्र नामे वैयाकरणनो अभिप्राय हतो. राजशेखर टाक प्रदेशने अपभ्रंशनो प्रयोग करनार जणावे छे. आम टाकीने अपभ्रंशनी शाखा तरीके गणवी सयुक्तिक छे." आ प्रमाणे देश्यभाषाओनी असरने लीघे मूळगत अपभ्रंशनी जुदी जुदी शाखाओ पडे, ते स्वाभाविक छे. आथी अपभ्रंशना एकत्वने कोइ रीते बाध आवतो नथी. परंतु प्राचीन देश्यभाषाओने अपभ्रंश तरीके गणवाथी, अपभ्रशनो विशिष्ट अर्थ लक्षित करी शकातो नथी. अपभ्रंशनो बे प्रकारनो प्रवाह आपणी भाषाना इतिहासमां देखा दे छे. एक प्रवाह चारणी भाषामां ऊतयों छे; ज्यारे बीजो प्रवाह आपणी बोलाती अर्वाचीन भाषाओमां ऊतयों छे. जे देश्य बोलीओना प्रतीकरूप अपभ्रंश भाषा हती, तेमांथी हिंदना पश्चिम प्रदेशनी अर्वाचीन देश्यभाषाओ ऊतरी आवेली छे. अने साहित्यमा ते अपभ्रंशनो ज आदर्श लई विकसेली छे. चारणी भाषा अपभ्रंशना स्वरूपने टकाववा यत्न करवा लागी; पण ते भाषा बीजा समजी शके तेवी चारणोने बनाववी तो रही ज. आ प्रमाणे ते विकृत थई. अपभ्रंशनुं आ विकृत स्वरूप ' अवहट' तरीके ओळखावा लाग्यु. मैथिल कवि विद्यापतिए 'कीर्तिलता' नामे काब्य अवहट्ठ' भाषामां लक्ष्यु छे.५५ प्राकृत पिंगलनां दृष्टांतो 'अवहह' भाषामां छे.४६ संदेशकरास नामे पंदरमा सैकानी आसपास लखाएलं काव्य 'अवहह' भाषामां छे. * विद्यापतिनी ‘भाषा पर टीका करता डॉ. सुनीतिकुमार चेटरजी लखे छे. “ The practice of employing this western literary speech in the eastern tracts continued in Mithila at least as late as the time of Vidyapati. Vidyapati's compositions in Avahattha have been mentioned before (See. P. 104.); and in his Avahattha, naturally there is a considerable mingling with contemporary early Braja-bhakha forms, as well as Maithili forms; and frequently the influence of Maithili phonology and orthography is ४३. नमिसाधुः रुद्रटना काव्यालंकार. २. १२. उपर टीका. ४४. जुओ अ. पा. टिप्पण पा. ३५-३८. ४५. कीर्तिलता (सं. बाबुराम सक्सेना) नागरी प्रचारिणी सभा. पा. ७. ४६. Pischel: G. P. Eint, . २८. ४०. जुभो म. पा. संस्कृत निवेदन पा. ७. निम्ननोंध. २३. Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ noticeable, and at times, the influence also of the classical Prakrit as used in the Sanskrit drama. Here, with Vidyapati, the Avahattha dialect is more or less restricted to court poetry of a formal panegyrical character १४८ आ प्रमाणे अव भाषाने राजदरबारमा उत्तर हिंदुस्तान, बंगाळ, अने गूजरातमां साहित्यभाषा तरीके चारणोए टकाववा यत्न कर्यो. आजनी चारणी भाषा ए अवहहनुं ज विकृत रूप छे. जूनां काव्योमां श्रीधरनो 'रणमल्ल छंद', ४९ त्रिभुवनदीपकप्रबंधनो केटलोक भाग, ( अप्रसिद्ध) नो केटलोक भाग आ प्रकारनी विकृत अवहट्ट भाषामा छे. ५० शालिसूरिना 'विराटपव' १ उक्ति प्रधान देश्यभाषाओ अपभ्रंशनो आदर्श सेवी विकसवा लागी जे बोलाय तेने आदर्शस्वरूपे लखवं ए ज आ भाषाओना साहित्यनो मुद्दो होवाथी समयना प्रवाह साधे अपभ्रंशथी ते जुदी पडो अने स्वतंत्र रीते विकसवा लागी. विक्रमना पंदरमा सैकानी आसपास देश्यभाषानुं स्वरूप स्पष्ट थयुं. गुजराती, मारवाडी अने राजस्थानी आ समयनी आसपास ज छूटी पडी. ५२ परंतु अर्वाचीन गूजराती अने बीजी पश्चिमहिन्दुस्ताननी देश्यभाषाओनो आत्मा तो अपभ्रंशनी ज रह्यो. अपभ्रंशे गुजरातीने कडवाबद्ध काव्यशैली आपी; छप्पा, दोहा, चोपाई इत्यादि छंदो आप्या; आख्यानशैलीना रूढिप्रकार आप्या; पोताना अलंकार आया; गद्यनो एक प्रकार आप्यो. गुजरातीनी भाषाबांधणीए पण अपभ्रंश भाषानुं स्तन्यपान कर्यु छे. गूजरातीनो अने अपभ्रंशभाषानो दीकरी अने मानो संबंध छे. आथी ज गूजरातीनी गंगोत्रीनां झरणां अपभ्रंशमां शोधवा साचा भाषाजिज्ञासुने संशोधनना दुर्लघ हिमालय चडया विना बीजो कोइ आरो नथी. ५३ ४८. Chatterji. O. D. B. L. Intro. P. 14. ४९. के. ह. ध्रुव 'पंदरमा सैकानां प्राचीन गुर्जर काव्यो ( गु. व. सो. नुं प्रकाशन) ५०. पं. लालचंद गांधी संपादित त्रिभुवनदीपकप्रबंध' पान. ४५. ५१. आ काव्य 'गुर्जररा सावली' ( GOS ) मां प्रसिद्ध थशे; हजु ए अप्रसिद्ध छे. ५२. Indian Antiquary 1914. Tessitory: Notes on Old Western Rajasthani' Intro. P. 22. ५३. जुओ 'बुद्धिप्रकाश' एप्रील - जुन १९३३. पा. १८८ - १९६; जुलाइ - सप्टेंबर पा. २३३-२४६; जुलाइ - सप्टेंबर १९३४. पा. २६७-२६९. Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंशव्याकरण १. वर्णमाला अपभ्रंशभाषामां नीचे प्रमाणे स्वरो अने व्यंजनो वपराय छे:६१. स्वर-अ, इ, उ, ए, ओ (हस्व) आई ऊ ए ओ (दीर्घ) (क) ऋ-सि. हे. ८ । ४ । ३२९ ।. तृणु, सुकृदु नोंघे छे; परंतु प्रस्तुत ग्रंथमां तेवां उदाहरणो देखा देतां नथी. (ख) - - प्रस्तुत ग्रंथमां अनुस्वारना बे प्रकार मालम पडे छे. एक वर्णात्मक अने बीजो ध्वन्यात्मक. वर्णात्मक. अनुस्वार अपभ्रंशमां अनुनासिकमांधी भाब्या छे. एटले करीने तेवा अनुस्वारयुक्त स्वर द्विमात्रिक गणाय छे; ज्यारे ध्वन्यात्मक अनुस्वारयुक्त स्वर एकमात्रिक होय छे. दा. त. वसंतहो (१.२.१.) भुंभल (१ २२.) गंठिवाल (१.१७.) इ०मां अनुस्वार द्विमात्रिक छे; ज्यारे मिहुणइं, (१.८.) सिहरेहिं (१.१६.) इ०मां एकमात्रिक अनुस्वार छे. सू अने ह् नी पूर्वे आवेला अनुस्वारो, अनुनासिकमांथी ज आवेल होई, वर्णास्मक अनुस्वार गणवा ज योग्य छे, अने ते द्विमात्रिक छे; जो के आवा अनुस्वारोनो उच्चार पछी आवता ऊष्माक्षरना रागथी ऊष्मित थई जाय छे, एटले ध्वन्यात्मक अनुस्वार जेवो तेनो उच्चार लागे छे. (ग) ऍ अने ओ (हस्व), इ अने उ ना उच्चास्नी लढणथोः अस्तिस्वमां आव्या छे अने ते एकमात्रिक छे.संस्कृतमां ए,ऐ केओ,औ होय अने तेना पछी संयुक्त व्यंजन आवे, तो ते ए, ऐ अने ओ औ नो ऍ अने ओ थई जाय छे. दा. त. जंतिऍ, तुरंतिऍ (१. २३.) निउड्डेवि, अवरुडेवि (१. ४६.) घरे, करें ( ३. १८२. परनी निम्ननोंध; २. १२६. परनी निम्ननोंध. ) दुमयहो (३. ५७.) ऍक्क (इक्क पण लखाय छे) सोक्ख, जोव्वण (१. ६२. व्यंजन - क ख, ग, घ. ( कंठ्य ) । च, छ, ज, झ. (तालव्य)। ट, ठ, ड, ढ, ण. (मूर्धन्य)। त, थ, द, ध, न.(दन्त्य)। प, फ, ब, भ, म. (औष्ठ न्य)। य, र, ल, व. ( अंतःस्थ )। स, ह.. (ऊष्माक्षर)। Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) ण अने न अनुनासिको हाथप्रतोमां काई भय नेद वगर. लखाया : छे; उच्चारणदृष्टिए कयो अनुनासिक ते काळे प्रचलित हो, तेजको कर विषम छे. आ पाठावलीमां मुख्यत्वे करीने ण योजवामां आव्यो छे. २. स्वरविकार ६ ३. इस्वस्वर- दीर्धीकरणः (क) र + व्यंजन, खास करीने ऊष्माक्षर; ऊष्माक्षर + य, र, व के ऊष्माक्षर - थी बनता संयुक्त व्यंजन पूर्वे रहेलो ह्रस्व स्वर घणी वार दीर्घ करवामां आवे छे अने संयुक्त व्यंजनने सादा व्यंजनमा फेरवी नाखवामां आवे छे. दा त. पोसारिउ-सं. निःसारित; (१.५) कासु-प्रा. कस्स; (५.९८.) पेक्खोहिमिन्प्रेक्षिष्ये, (११.५) सहोहिमि-सहिष्ये, (११.६),वीसास =विश्वासः ३० (ख) केटलीक वार दीर्धीकरण मात्र भाषाविशिष्टताने ( Dialectal Peculiarity) अंगे ज होय छे. दाहिण-दक्षिण, (६.५३.) धूय-दुहित, (५.२७१.) जीह-जिह्वा. (१.१२२.) पईहर-प्रतिगृह, (१.१३.) सूहव: सुभग. (५.८८.) (ग) अपभ्रंशमां केटलीकवार छंदने अंगे इस्व स्वरतुं दीपीकरण थाव छे; स ज संबोधनविभक्ति एकवचनना अंतनो स्वर दीर्घ कराय छे. दा. त. कुसुमामंजरिधय साहारहिं (१. १७.) रे रे हंसा कि गोविज्जा (११. १९.) .(घ) अनुस्वारयुक्त ह्रस्व स्वर पछी र् म् , श्, ष् के ह भावे तो हस्व स्वरनुं दीधीकरण थाय छे: अनुस्वारनो लोप थाय छे. वीस सं.विंशति, अने (५.२५२.) सीह-सं. सिंह. (२.५७) दीर्धीकरणमा मूळमत सिद्धांत स्वरमात्रानु प्रमाण जाळववानो होय छे. काव्यमा छंदोमेळ खातर मात्रानी तूट पूरी लेवा पण दीर्धीकरण अपभ्रंशमां थाय छे. एटले के उपर जणावेला नियमो उपरांत पण दीर्धीकरण अपभ्रंशमां देखा दे छे. ६ ४. दीर्घस्वरतुं इस्वीकरणः (क) सि. हे. ८ । १ । ६७. मां केटलाक शब्दो गणावे छे जेयां दीर्घस्वरनो ह्रस्व थाय छे:-प्रो. पीशलने अभिप्राये तेनो शास्त्रीय नियम वैदिक स्वरभारने अवलंबे छे. [१] जो स्वरभार दीर्धस्वरनी पूर्वना स्वर पर होय तो Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उक्खय-सं. उत्खात ( सि.हे.८.१.६७. ) विरुअ-सं. विरूप (२.११०) इ. [२] जो पछी आवता स्वर पर स्वरभार होय तो ठविय=सं. स्थापित, (५.१७८) कुमर=सं. कुमार । सि.हे. ८.१.६७ ) गहिय-सं. गृहीत, (४.२२६.) गहिर-सं. गभीर (३.१५२) इ. [ विस्तृत चर्चा माटे जुओ३२.] (ख) केटलीक वार अपभ्रंशमां दर्घ स्वर- इस्वीकरण मात्रामेळ खातर के कोइ अज्ञात उच्चारपरंपराने अनुसरीने पण करवामां आव्यु होय छे. (ग) संयुक्त व्यंजननी पूर्वे आवेला दीर्धस्वरो सामान्य रीते हस्व थाय छ; अने ए नो इ अने ओ नो उ थाय छे. दा.त. रज्ज-सं, राज्य(५.३०) फग्गुण-सं. फाल्गुन ( १.५. ), अप्पा-सं. आत्मा (६.१४.),नरिंद-सं. नरेन्द्र (६.१४६.), अत्थाण= सं. आस्थान (३.१४६.). . (घ) संयुक्त व्यंजन पूर्वेना ए अने ओ इस्व थाय छे. दा. त. लए. प्पिणु (१.१०६) परोप्परु ( ३ ३४ ); परंतु आ हस्व ए अने ओ तेनी पछी आवता संयुक्ताक्षरना अन्वये द्विमात्रिक ज थाय छे. (च) [१] सामान्य रीते स्त्रीलिंग आकारांत अने इकारांत नामोना आ अने ई ह्रस्व थइ जाय छे.दा.त. सीय-सीता (२.२४.), तियड-त्रिजटा (२ ३४.), दोवइ-द्रौपदी (३.६१.), चिंत-चिन्ता (३.६.), कह-कथा (३.८.), वेणिवेणी (३.२४.), समि-शमी (३.३५.), [२) छंदोमेळ खातर कोइ वार आ के ई राखवामां आवे छे; पण आनां दृष्टान्तो ओछां छे. [३] केटलाक निपातोना अंत्य दीर्घ स्वर हस्व करवामां आवे छेः दा. त. मम्मा , (१३.१२.) विण-विना, (९.४.) व=वा (९.४.) इ. (छ) कोइ वार अन्तोदात्त शब्दोमा असंयुक्त व्यंजननो पूर्ववती दीर्घ स्वर ह्रस्व थई जाय छे अने व्यंजन द्वित्व पामे छे. दा. त. जोव्वण-यौवन (१.९७.) पेम्म प्रेमन् , (५.२२.) दिज्जइ दीयते, तेल्ल-तैल. (९.४२.) आ नियमने अनुसरी इक्क के एक-एक समजावी:शकातो नथी. [जुओ $ ३२ ] ६५. इस्वस्वर, सानुस्वारत्वः [$३ (क)] मां दर्शावेला संयोगोमां कोइ वार ह्रस्वस्वर दीर्ध थवाने बदले सानुस्वारत्व प्राप्त करे छे. दसण-दर्शन (७.६०.), फंस-स्पर्श, (६.८०), अंसु-अश्रु (६. १०४.) इ० Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ ६६. सं अ-अपभ्रंश. इ, उ, ए (क) अ-३ । दा. त. किविण-सं. कृपण (१.१२८.) चरिम सं. चरम, पिक्क-सं. पक्व (६.८२.), इंगाल-अङ्गार, मग्गिर (गग्सरगद्गद (२.५५.) [६ २८. (छ)] ईसि ईषत् किह, जिह, तिह-कथा, * यथा, तथा; वरि-वरम् (४.१९४.) (ख) अ-उ । पूर्वे के पश्चात् औष्ठय होय तो दा. त. वुत्त-वक्त* (१. ९५.), मुणइ-मनुते (४.२२३.) झुणि-ध्वनि (४.१२०) (ग) अ-उ । [१] अकारांत नामने तथा केटलांक सर्वनामना षष्ठी एकवचनने अंतेः दा. त. सुअणस्सु, पिअस्सु (सि. हे. ८।४। ३३८, ३५४); तासु, मज्झु, तुज्यु, महु, तहु [२] आज्ञार्थ बीजो पुक्क एकवचन भने बहुवचनः दा. त. एकवचन भणु, लग्गु, छंडः बहुवचन, करहु. [३] तेच प्रमाणे वर्तमानकाळ बीजो पुरुष बहुवचन करहु-कुरुथ [४] केटलांक क्रियाविशेषण अने निपातोने अंते छुडु, पुणु, जेत्थु, तेत्थु, अज्जु, जिमु, तिमु (५, ५९-६०). (घ) अ-ए । आ फेरफारमा अ नो देखीती रीते ए थाय छे; परंतु ए ना मुदतत्त्व तरीके अ नथी. एत्थु-अत्र (खरी रीते इत्था): वेल्लि-वल्ली (४.२६६.) [ खरी रीते विल्लो* (५.९९.) जुओ GP 107 ]; हेट्ठा अधस्तात् (४.१०३) ३०. इ ७. आ-अ, उ, ए. (क) आ-अ । [$ ४ (च) ] (ख) आ-उ। उल्ल-आर्द्र; आमां खरी रीते उ <आ नथी. (सदर ग्रंथ टिप्पणी. १. ८२.) (ग) आ-ए। मेत्त= मात्र, परिहेसमि-परिधास्यामि (१. २२.) देहर दा(२.११); लेइला (१.२). ६८. इ-अ, उ, ए, ऍ. (क) =अ । इच्छउ-इच्छिक (१.७९.) पड्विक्त प्रतिपत्ति (१.१०६) (सि. हे. ८ । १ । ८८-९१) (ख) इ-उ । उच्छु-नक्षु ( १. ९.) (ग) इ-ए । संयुक्त म्यंजननो पूर्वग्त इ. दा. त. चेल्ध-चिह, एत्यु-इत्था (१२.३०), बेल्लु-बित्व (सि.हे. ८.१.८४.) । Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (घ) इ=एँ । लेखनना प्रकार उप ज दा. त. करेवि के करिवि, जयहरे सप्तमी एकवचन, के जयहरि-जगद्गृह ३० ६९. ई-अ, आ, इ, ऊ, ए, एँ (क) ई-अ । हरडइ-हरीतकी (सि हे.८.४.९९) (ख) ई-आ। कम्हार काश्मीर (सि.हे.८.४.१००) (ग) ई-न । [जुओ ६४.] (घ) ई-क। विहीन-वहूण (१. १३१) .....() ई-ए । एरिस, एरिसिअ ईदृश (४.२६८) (छ) ई-एँ । खेडुअ-क्रीडा(३.१९४.) ६ १०. उ-अ, इ, ओ, उ (क) उ-अ । जो शब्दना प्रथम अक्षर अने बोजा अक्षरमां उ स्वर होय तो सामन्यतः प्रथम उ नो अ २३ जाय छे. दा. त. गरुअ-गुरुक (२.१३१), मउड-मुकुट (६.१०३)मउलइ-मुकुलयति (६.४०) सोमाल (सउमार*< सं. सुकुमार (६.९५); (ब) उ-इ। पुरिस-पुरुष (५.९.) (ग) उ=ओं । उ ने अनुवतीं जो संयुक्त व्यंजन होय तो उनो ओं थाय छः दा. त. मोग्गर-मुद्र, पोत्थय-पुस्तक, कोन्त-कुन्त (५.७०.) ६ ११. ऊ-ए, ओ, ओ (क) ऊए । णेउर-नू पुर (१.१४.) ... (ख) ऊओं । मोल्ल-मूल्य (ग) ऊ-ओ। थोर-स्थूर* (सं. स्थूल) (३.१.६) तंबोलताम्बूल (१.५९.) ६ १२. -अ, इ, उ, ए, रि, ऋ (क) अ । कसण-कृष्ण(३.२४), कड्ढ-कृष्ट (१.१३४); वड्ढ= वृद्ध(१.१३५), कय-कृत (५.३४) अच्छइ-ऋच्छति ( २.९३.) ... (ख) ऋद । किय-कृत (१.१.) दिहि-दृष्टा (१.७२.) हिअ दय (१.१०) सिंग-शृंग (४.६०) Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ग) ऋ-उ । पुहवि-पृथ्वी (११.५), कुणइ-कृणोति * (१०.२४) पाउस-प्रावृष् , (६.१५९) मुणाल-मृणाल (१०.५५.) वुड्ढत्त-वृद्धत्व (१.१३१) (घ) -ए । गेह-गृह; गेण्हइ-गृह्णाति (१४.२) (च) ऋरि । रिच्छ-ऋक्ष (२.५८), रिद्धि-ऋद्धि (१.९८)रिसि काष (२.१८३) (छ) ऋऋ । [६ १. (क)] ६ १३. ल-इल ल-इल । किलित्त-क्लप्त (सि. हे. ८ । १ । १४५ ।) किलिन्नक्लन्न * (सि. हे. ८।१ । १४५) ६ १४. ए-इ, ऍ [ जुओ ६ १. (ग)] ई (क) ए-ई । लीह-लेखा (३. १२३.); परन्तु लिह (२.९४) ६ १५. ओ-उ. [जुओं ६ १. (ग)] (क) अपभ्रंशमां शब्दान्तगत ओ नो उ थई जाय छे एटलं ज नहि पण मध्यगत ओ नो उ थई जाय छे. दा. त. रामु< प्रा. रामो <सं. रामः । विउएं-सं. वियोगेन (सि. हे। ८।४ । ४१९ उदाहरण, ५.) ६ १६. ऐ-ऍ [जुओ ६ १. (ग)], ए, अइ (क) ऐ=ऍ । अवरेक-अपरैक (३. ४५.) ___(ख) ऐ-ए । णेमित्तिय नैमित्तिक (५.९२.) पेसुण्णउ-पैशुन्य (५.८२) (ग) ऐ-अइ । दइव-दैव (३. १०२) कइकइ (३.६६) ६ १७ औ=ओ [जुओ ६ १. (ग)], ओ, अउ. (क) औ=ओ । जोव्वण-यौवन, (१.९७)सोक्ख-सौख्य (२.२६) (स) औ=ओ । ओसहि-औषधि (५.११८) (ग) ओ-अउ । पउर-पौर(५. ३८), कउरव-कौरव ( ५.२६७ ) रउद्द-रौद्र (५.५६.) कउल-कौल (५. ६२). सउरो-शौरि (५.२८२.) ६ १८. विप्रकर्षस्वर [Anaptyxis] . (क) अ । दीहर-दीर्घ (५.१८१), समसाण श्मशान (३.३७) सलहड्-श्लाघते Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) इ [१] संयुक्त व्यंजनमां एक अनुनासिक होय तो लिचिण-स्वप्न (५.३३) [२] संयुक्त व्यंजनमां एक य् होय तो दा. त. आरिय= आर्य, अच्छरिय= आश्चर्य [३] संयुक्त व्यंजनमां एक र् होय तो दा. त. किरिया = क्रिया, फरिस - स्पर्श, वरिस = वर्ष ( ५.९१. ), सिरि= श्री (१.१३.), अमरिस = अमर्ष (२.६१.), तम्बिर = ताम्र, (६.३८ ) हरिसिय- हृष्ट (१.४१ ) [४] संयुक्त व्यंजनमां एक लू होय तो दा. त. किलेस - क्लेश (३.४), किलिण्ण = क्लिन्न (५.२२.) अम्बिल =आम्ल (ग) उ । संयुक्त व्यंजनमां एक औष्ठ्य के ब् होय तो दा. त. सुमरह - स्मरति (४.३१५) $ १९. स्वरलोप (क) आदिस्वरलोप [ Aphaeresis ] – [१] स्वरभार विनानो आदि स्वर सामान्यतः लुप्त थाय छे. दा. त. हउं = अहकम् * ( ३.१५.) हिट्ठा = अधस्तात् (४.१०३.), वलग्ग = अवलग्न (१.७५). रण - अरण्ण (५.१८४) रविंद= अरविंद (६.४०) बइसइ = उपविशति (१३.६) वरि= उपरि ( ७.१२३) [२] केटलाक निपातोनो आदिस्वर कुप्त थाय छे. दा. व. सो= अतः ( ३.३४.) वि= अपि (३.६८.), व= इव (६.१०१) [३] संधिने कारणे आदिस्वरनो कोप [जुओ १२३. (छ)] छन्दना कारणे पण तेनो लोप थाय छे. [जुओ. अ.पा. (टि.) १.३६.] (ग) अन्त्यस्वरलोप तृतीया एकवचनना इन = अपभ्रंश एँ थतां अन्तनो अ लप्त थाय छे. रामें= रामेण (घ) मध्यस्वरलोप [ Syncope] मध्यगत स्वरमार बिनाना स्वरविशेषतः प्र- छप्त थई जाय छे. दा. त, पोप्फल-सं. पूगफल [जुओ टिप्पणी १. ३६. सदर ग्रंथ ] समुष्णोष्ण = समुण्णओण्णअ [ ६. ३१] भविसत्त= भविस्सअन्त्त (३.२ ) $ २०. आदिस्वरागम [Prothesis of Vowels] Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इत्थि-स्त्री । आदिस्वरागम जूनी गूजरातीमां अने अर्वाचीन बोळाती गूजरातीमां वधारे प्रमाणमां देखा दे छे. ६ २१. स्वरव्यत्यय [Epenthesis] केर (२.२९.) काइर * -काइरिअ* -कारिअरसं. कार्य । पेरंत (पइरंत-पइरिअंत-परिअंत <सं पर्यन्त । वंभचेर.<बंभचइर* -बंभचरिय (सं. ब्रह्मचर्य । गूजरातीमां 'घर' घरइ नो दाखलो आज प्रकारनो छे. ६ २२. स्वरराग [Umlaut] 'स्वरराग' एटले शब्दमां अग्रे आवेला स्वरने तेनी पछी भावता स्वरनो राग-असर लागे; भा विकारनां दृष्टान्तो जूनी गूजरातीमां बहु मोटा प्रमाणमां छे. अपभ्रंशमां दा.त. करिमि-करमि (११.५१), करिइ-करइ, उच्छु= इक्षु(१.९.) सिविण-स्वप्न ( ५. ३३.) साहार-सहकार ( १. १७) अप्पुणु-आत्मानं (५. ६८.) ६ २३. स्परसंधि (क) बे समान स्वरोनी संधि थतां एक दीर्घ स्वर बने छे दा. त. कल्लोल+आवासहि-कल्लोलावासहिं (१. १८.) केस आवलिउ-केसा. वलिउ-केसाबलिउ (१. ३३) (ख) सामान्यतः अ (इस्व के दीर्घ) + इ=ए; अ (इस्व के दीर्घ) +उ=ओ दा. त. थणोवरि (१. ७३.) अपवादः-परंतु इ के उ पछी संयुक्त व्यंजन आवे तो मनो लोप थाय छे दा. त. कुसुमणह+उज्जलु कुसुमणहजल (१. १२) अध्धुम्मीलिष्ठ (१.४७) सुरिन्दु (१. ४५) वण्णुज्जलु (१. ६५.) । (ग) ए के ओ मां अ नो लोप थाय छे. दा. तु. कीर+ओलिड कीरोलिठ (१. ३८.) (घ) इ, उ (हस्व के दीर्घ) असमान स्वर होय तो सामान्यतः अप. भ्रंशमा संधि थती नथी. (सि. हे. ८।१। ६ ।) दा त. तरंगिणीउ अवर सहर (१.३२.६० Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ अपवाद - उपसर्गनाइ के उनी संधि संस्कृतने अनुसरीने ज थाय छे. पज्जत = पर्याप्त ( १ ८१.) (च) व्यंजनलोप पछी अवशिष्ट स्वरने उद्वृत्त स्वर कहेवामां आवे छे. आ प्रकारना उदवृत्त स्वरनी संधि पूर्वे आवेला स्वर साथे थती नथी. (सि. हे. ८ । १ । ८ ८1) दा त महुअर, बउल, अपवादः - परंतु आवा उदवृत्तस्वरोनी क्वचित् संधि पण थाय छे (सि. हे. ८ ।१ । ८ । टीका) दा. त. साहार < सहआर < सं. सह. कार (१.१७); दवणा < दवणअ < सं. दमनक ( १. १७) मोर < मऊर < सं. मयूर ( ११.५३) अंधार < अंधआर < सं. अंधकार. (२.१२३ ) (छ) अ + असमान स्वर होय तो केटलीक वार अ नो लोप थाय छे दा.त. राउल < राअउल ( राउल (३.१९६.) देउल = देवकुल (७.८३.) (ज) सामान्यतः वाक्यनां मूलगत के उद्दवृत्त स्वरोनी संधि यती नथी. अपवादः - णत्थि <सं. न अस्ति ( ३. १२४ ) (झ) आ बघा संधिना नियमो सामान्य छे; अने अपभ्रंशमां छंद भाषानी कढण, अने एवी अनेक असरोने परिणामे संधिमां शिथिलता व्यापे छे. ९ २४. य अने व श्रुति सि. हे. ८ । १ । १८० । अवर्णो यश्रुतिः टीका उपरथी एम प्रतीत थाय छे के व्यंजनलोप पछी अवशिष्ट अ अने आ नी मध्ये य श्रुति मूकवामां आवती; जो के क्वचिद् भवति कही इ अने अवच्चे पण ते मूकवामां आवे छे. पियइ - पिबति प्राकृतसर्वस्व मां मार्कण्डेय एक अवतरण टांके छे: अनादौ अदितौ वर्णों पठितव्यौ यकारवदिति पाठशिक्षा | परंतु हाथप्रतो भने खास करीने जैनहाथप्रतो सि. हे. ना आदेश करतां य आगळ जाय छे। अने उदवृत्त स्वर देखतां ज लुप्तता (hiatus) ढांकवा य मूकी दे छे. दा. त. उयय ( उ + अय) = उदय (११.), किय (कि+अ) =कृत, (१. १) केयार ( के+आर) = केदार ( १ . १७) चूय (चू+अ) = चूत (१. ३७ ) इत्यादि वळी एम पण नथी के आ नियम नियमित रीते जळवाय छे; कोइ कोइ वार एमने एम उद्वृत्त स्वर श्रुति विना पण मालम पडे छे. अपभ्रंशमां व भ्रति देखा दे छे. सामान्य रीते उ अने ओ पछी अ • Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ आवतां व श्रुति मूकाय छे. स्वरराग (Umlaut) नो सिद्धांत पण व भूतिना आगमनभां कारणभूत होय तो एमां कांइ शंका जेवु नथी. खुबीनी वात ए छे के य के व श्रुतिनो खास मेळ ज रहे तो नथी. लेखकना छंद पर ज ते अवलंबे छे. लायइ (२. १०.) लावइ (३. ५३) रुवंति (२. ५६) सूहव-सुभग (५.१५.) लायणु-लोचन (६५४) सभूव-सभूत (३ ३६), सभुवंगमिय-सभुजंगा (३. ३६) मल्लिव-मल्लिका (१.१०१) धणवालनी भविसत्तकहामां पण आम ज छे. (जुओ भविसत्तकहा G.O.S. XX Intro, P. 12); Les Chants Mystique de Kanha et de Saraha (Ed. Shahidulla Intro. Chapitre III) ३. असंयुक्तव्यंजनविकार ६ २५. सामान्य रीते बधा य आदि व्यंजनो अविकृत रहे छे.. अपवादः-परंतु केटलीक वार भाषानी विशिष्टता तरीके केठलीक वार फेरफार थाय छे. दा. त दिहि-धृति (३. १६) धूय-दुहिता (५.२७१) आदि यनो अपभ्रंशमां ज थाय छे. जाइ-याति(२.६३), जमल-यमल(३.२७.) ६ २६. स्वरीभवन (Vocalization) एक ज शब्दमा स्वरद्वयान्तर्गत क्, ग, च्, ज्, त्, द्, प, ब्, य, व् नो प्रायः लोप थाय छे. (सि. हे। ८ । १ । १७७) गअ-गत, जाइ-याति, णउल-नकुल इ. आ प्रमाणे लुप्त थएल व्यंजननी लुप्तता ढांकवा य, व, अतिनो उपयोग करवामां आवे छे. (जुओ ६ २४.) ६ २७. महाप्राणकरण (Aspiration) . . एक ज शब्दमां स्वरद्वयान्तर्गत खू, घु, थू , ध् , फ, भ् नो प्रायः ह थइ जाय छे. दा. त. साहा-शाखा, जयहरे-जगद्गृहे, पिहुल पृथुल, अहर-अधर, मुत्ताहल-मुक्ताफल, सोह-शोभा. आ प्रमाणे Disaspiration (महाप्राणत्याग) पण क्वचित् दृष्टिगोचर थाय छः दा. त. विच्छोअ <विच्छोह-विक्षोभ (४.१७४;५.७७) उच्चिट्ठ= उच्छिष्ट (६.२.८) ६ २८. मार्दवप्रक्रिया (Softening) .. शब्दमा स्वरद्वयान्तर्गत क्, त्, पू नो ग्, द्, व् थाय छे. (अनादौ Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वरसंयुक्तानां कखतथपफां गदधबभाः । सि. हे. ८ । ४ । ३९६ ।) याज प्रमाणे द् नो इ अने तू नो द् थाय छे. दा. त. मयगल-मरकल, (५.११७) विम्पियगारउ-विप्रियकारक (२.१२१) सावराह-सापराध, पवस्त्रया (१.९), मंडव-मंडप (१.९) इ० (अ) त-द शौरसेनीनी असर होय तो ज देखा दे छे; परंतु साहित्यनुं प्रकृष्ट अपभ्रंश सामान्यत: प्रकृष्ट प्राकृत-महाराष्ट्रीने अनुसरे छे, सि. हे. ८ । ४ । ३९६ । कधिदु-कथित । सि. हे. ८ । ४।४५५, ३७२ । अागदो सि. हे. ८ । ४ । ३६० करदि चिट्ठदि । इ० सि. हे. ना अपभ्रंशना दृष्टांतमां आ प्रकारनी शौरसेनीनौ छाया तेम ज तत्कालीन बोलीनी छाया प्रकृष्ट अपभ्रंशमां भळेली आवे छे तेनुं कारण एज छे के लौकिक प्रचारमा आवेला दुहा इत्यादिमांबी आ उदाहरणो हेमचन्द्रे लीधेलां छे. खुन्छ,-धू, प्रछ, फल्म की बाबतमा तेम ज समजवू. हेमचंद्रे आपेलां उदाहरण सिवाय बीजे धावा विकारनां दृष्टांत दुर्लभ छे. प्रकृष्ट अपभ्रंश शौरसेनी के लौकिक बोली करतां महाराष्ट्रीने वधारे अनुसरे छे; एटले softening (६ २८.) करतां ६ २६. अने २७ ने वधा अनुसरे छे. गूजरातीमां स्वरीभवननी साधे साथे मार्दवप्रक्रिया देखा दे छे; भने एम कहोए तो पण चाले के मादवप्रक्रियानां उदाहरणो कदाच स्वरीभवन करतां वधारे प्रमाणमां नीकळे. (ब) ट्-ड् । सड-तट (१.९२), कवर कफ्ट(५.२८), सुहड सुभट (३.९७.) कडक्ख-कटाक्ष (१.५०), पसिनपहप्रतिजल्पति उद् । मढ-मठ (५. २३०) वीट-पीठ (६.४०.) इत्यादि. (क) प्-व् । दीव-द्वीप (६. २.) पाव-पाप (६. १४.) इत्यादि. ६८. सोपाब्यञ्जनविधान (Aspiration of Mutes) (अ) क् ख् । नोक्खि (नवक्ली -नव+क्क (स्वार्थे) (३.१८४); खेलइ-क्रीडति; खप्पर-कर्पर (६. ४२.) तथ् ा प्रमाणे बनता थ् नो ह थाय छेः भारह (भाग्थ* <भारत, (५.९९)वसाह <वसथि * <वसति । Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्फ । फासुय-स्पार्शक (६.३६.);फंसह-स्पृशति(६.८०); फरसु-परशु (आ) तृतीय व्यजनने बदले चतुर्थ सोमव्यंजन प्रायः मूकातो नथी; अपवादः [१] केटलांक दृष्टांतो ह् व्यंजनना स्वरमारने अंगे थता विचलनने लीधे बने छे. दा. त. धूय (५. २७१.) <दुहिय (३. ९३.) <दुहित; परंतु दिहि <धृति (३.१६.) अथवा बहिणि <भगिनी; घेप्पइ< गृह (१०. ६०.); चिंध-चिह्न (५. ७.) फंदइ-स्पंदते (६. ५४.) घरिणि= गृहिणी (४. ३१५.) [२] फेटलीक वार विस्मृत स्वरभारने लीधे उदभवे छे दा. त. मिसिणि बिसिनी (१. ५३.) ६ ३०. दन्त्य व्यंजनने बदले कोइ वार मूर्धन्य व्यंजन मूकवामां आवे छे. त्-ट्-ड् [६ २८. (ब)] । पडिउ-पतित ( २. १८०.) पायपताका (२. ८९.) पडिवत्त-प्रत्तिपत्ति (१. १०६.) श्-ट् । गंठिवाल-ग्रंथिपाल (१. १५.) । -ड् । डहा-दहति (२. २७.) खुडिय-क्षुदित (इ. १५३.) डोलइ-दालायते (४. २४९.) डुक्कर-दुष्कर (२. ६२.) । धद् । दिवइद-द्वयर्ध (६. ६०.) वियड्ढ-विदग्ध (१. ९१.) वीसढ <विस्सड्ढ * <विस्सिल * =विस्निग्ध (५. ५५.) ६ ३१. नीचे प्रमाणे व्यंजनोना खास फेरफारो ध्यानमा लेवाः (क) छ-च्छ । स्वरद्वयान्तर्गत छ नो च्छ थाय छे; परंतु शन्दनो मादि छ अविकृत रहे छे. दा. त. छण्ण (१. ३.) उत्तिय (५. २२४.) (ख) ज्य् । याणिमो-जानीमः (६. ९४.) मागधीनी असर. ज-ञ् । (सि. हे. · । ४ । ३९२ ।) वुअर-व्रजति; खास बोलीमांथी हेमचंद्रे लीघेलो होवो जोईए; कारण के अपभ्रंश साहित्यमां एनो प्रयोग देखा देतो नथी. (ग) = [६ २८. (ब)]=ल, कडियलि-कुटीतटे (५. २६.) (घ) इल् । क्रीडा-कील (५, ४२.) सोलस-षोडश, तलाउ. तडाग (१. ११८.) नियल-निगड (१. ८.) पोलिय-पीडित (१. ९.) Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४ (च) त्- [६ ३०.]=ल् । अलसी अतसी (सि.हे. ८ । १।२११।) विज्जुल्लिआ = विद्युतिका* (२.१२४), फुल्लइ <फुडा <फुट्टइ-स्फुटति (१३. ५२.) त्-ड्= । सत्तरी-सप्तति (सि. हे. ८ । १ । २१०) (छ) श्- [२८]-ढ [$ २८. (ब)] । सिढिल-शिथिल. (सि. है. ८. १. १२५.) पढम-प्रथम (२. ७१.) (ज) [१] == । एयारह एकादश (३. ५१.) बारह-द्वादश (३. ५२.); (सि. हे. ८। १ । १२०) मां करली-कदली, गग्गर-गद्गद (२. ७९) परन्तु (२. ५४.) मां गग्गिर [$ ६. (क)] (सि. हे. ८।१।२१९।) [२] द ड्=ल । मलिउम्मृदितं (५. १८८) मलइस्मृन्दाति । (३. १००) पलित्त-प्रदीप्त (सि. हे. ८ ।।।२१०।) (६. १०४). पलिप्पंतप्रदीप्यमान ( ५. ५८.) कालं. बिणि कादंबिनी (५. १३.) (झ) प-व [ ६ २८. ] = म् सुमिण< सुविण-स्वप्न; -पामह <प्राप्नोति; मि <वि [$ १९. (क) [१]]=अपि (१. ५५.)... दुमय-द्रुपद (३. ४९). () =म् । बोलीने अनुसरी, सि. हे. ८ । १ । २३९ कमंध-कबंध तमालुर तंबोलु-ताम्बूल (१. ३०.) .. (ठ) म्-व के त् । स्वरद्वयान्तर्गत म नो व थाय छे (कि. हे. ८ । ४ । ३९७१) जिंव <जिव <जिम (३. १०.); सँवारिठ : समारचित (६. १५.) केम्व (५. २१८.) परंतु रवण्ण-रमण्य* (१.३.) दवणा-दमनक (१.१७) पणविवि-प्रणम्य (५.१०७.) सवण-श्रमण (५. २०८.) ध्वन्यात्मक मनुस्वारनी केटलीक हाथप्रतोमां अवगणना थवाने परिणामे व ने बदले व,मालम पडे छे अने आ अनगणना एटले सुधी पहोंचे छे के म् माथी आ प्रमाणे परिणत थएला व् नो उ थई जाय छे दा. त. अवरउहउ% अपरमुखिन्यः (१. ३२.) भउहउ <भ्रमुकाः * (१. ३२.) गाउं नाम (६. १८.) Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपवादः-केटलीक पार आदि म् नो व थई जाय छ: दा. त. वम्मह-मन्मथ (५. १४.) वम्म-मर्मन् (५. १४; १. १९.) (ड) [१] य-जू । शब्दना आदि य् नो ज थाय ले. दा. त. जइ= यदि (२. ३७.) जसु-यस्य (७. ७९.) जूह-यूथ इ. [२] य-ज्ज कर्मणि प्रयोगनो य-ज्ज (पूर्वे जो दीर्घ स्वर होय __ तो इस्व करी) करवामां आवे छे: दा. त. किज्जइ-क्रीयते; (५.३५.) दिज्जइदीयते [३] यव , अ. य् अने व श्रुतिने परिणामे य नी केटलीक वार अ के व जेवी ज प्रक्रिया थाय छः दा. त. आयइं (३.७.) आविज्जइ (३. १३२.) मऊर-मयर (६. ३२.) हियउ -हृदय (२. ५६.) [४] य=इ संप्रसारण प्रक्रियाने लीधे तो आ विकार थाय छे ___ एटलं ज नहि, परंतु उच्चारणनी समानताने लीघे लहियाओ . य ने स्थाने इ मूकतां वचकाता नथी. दा. त. पइंपिउ प्रजल्पितं (२. १९७.) केटलीक वार लहियाभो आवा इने स्याने र पण मूके छे देवए (२. ७०) आणए (५. २६५) (ढ) र-लू । चलण-चरण (६. ५.) सालण-स्मरण (६. ३२.) चालीस-चत्वारिंशत् (५. २५०.) सामिसाल-स्वामिसार . (६. १३९.) (ण) ल्=णू । णिडाल ललाट (१.४८) ल्-र । किर-किल (६. २०.) (त) व-। अने व-म । [$ ३१. (ठ)] ना जणावेली प्रक्रियानी आ प्रतिगामी प्रक्रिया छे. जे हाथप्रत परथी सदर प्रेथमा उद्धरण लेवामां आव्यां छे, तेमां व लखवानी प्रथा नथी. परंतु आ प्रकारखें उच्चारण क्=म् थवानी वच्चे संभवित छे. दा. त.पिहिमि -पृथिवी (१. ५३.), एम (२. १४.) <एव (२. ४२.)= एवम् ; परिमिय-परिवृत ( २. ६५.); जाम (६. ५.) <जाव (२. १८१.)<यावत् ; ताम (६. ६.)<ताव (२. १८२.) <तावत् . Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब-अ, य, । संभउ-संभव; दीउ <दीव-द्वीप (६. २.) जिउ जीव (६.६६.) पयट्ट-प्रवृत्त (२. ४६.) परंतु पइट्टप्रवृत्त (३.८७)पट्ट-प्रविष्ट (२. ७०) (२.६५.) दिअह -दिवस (२. ५१.). आ प्रकारना विकार माटे उच्चारण अने तेने अंगे आवती य अने व श्रुति ज जवाबदार छे. . (थ) शू-हू । एह-ईदृश (२. २१.) ते ज प्रमाणे तेह, जेहा साह शश्वत् (सि. हे.८.४.३६६) शू-स् । आ तो सामान्य ज प्रक्रिया छे. दा. त. देस-देश; उपरनी एटले श-ह् नी प्रक्रियामां मा अवान्तर प्रक्रिया थएक होवी जोईए. महाराष्ट्रीमा इंडशन परिस (४. १६८.) अने तेज प्रमाणे जारिस भने तारिस रूपो छे, अने आ प्रमाणे प्राकृतमांची आगळ आवतां सू नो अपभ्रंशमा ह थयो. . (द) -छ । आ प्रक्रिया पण अवांतर स् थईने थएलो होवी जोईए. पह, पहो, एहु (एसो (एषः । छ । छउहू-षष् (५.२५१.);पाहाण-पाषाण (५.१३७) (घ) सू-हू । दिअह-दिवस (२. ५१.) छाहत्तरिषद्-सप्तति जहि, तहिं <जस्सि, तस्सि (यस्मिन्, तस्मिन् जणहं, जणाहं (<°साम् * षष्ठी बहुवचननो प्रत्यय) -जनानाम् जाणहि-जानासि (न) ह। नी विचलन क्रियाशी केटलाक अल्पप्राण स्पशों(=ज्यंजनो) सोम व्यंजनो बने छे. [६ २९. (ब) [0]] केटलीक वार सू-ह बनी अल्पप्राण स्पर्श सोष्म व्यंजन बने छः दा. त. स्पंदते <इपंदए * व्यत्ययथी 'हंदए-फंदह (६. ५४.) स्पर्शति रहपस्सह * व्यत्ययशी एहस्सा-फंसह (६. ८..) .. केटलीक बार स्पर्शन सोमव वैदिक काळनुं गूजरातीमां मालम पडे थे। दा. त. स्पति (वैदिक घात; संस्कृत पाशः)-I. फांस .. केटीक.वार सोष्म स्पर्शनुं कारण इमां होतुं य नथी; भने ते इंडोभार्यन सोम स्पर्श होय छः दा. त. इध-अहिं, दाघ-दाह [सरखापो निदाघ) पात-पाय [सरखावो हन् , ह, इन् यौगिकरूप] [जुओ Bloch : L'Indo -Aryan. P. 64-61.] Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७ [१] अनुस्वारयुक्त स्वर पछी ह् आवे तो हघ थाय छे; [२] भने ह पछी जो अनुनासिक व्यंजन आवे तो हू नो व्यत्यय थई, जे वर्गना अनुनासिक पछी । भाव्यो होय ते वर्गना चतुर्थ वर्णमां (सोम व्यंजनमां), फेरवाई जाय छे. भावां उदाहरणोमां पण सोष्म व्यंजन ह नो पूर्वकालीन पण कोइ वार होय. दा. त. [१] संघारण-संहारण (४. ३८.) सिंघ-सिंह (सि. हे. ८।१। २६४.) इ० [२] चिंध-चिह्न, बंभ-ब्रह्मन् (५. ७) बंभण ब्राह्मण, (७. ९६.) (स.१३. २४.) आसंघइ (आसंहइ * <आशंसते (५. १४०.), संभरह <सम्हर* < संस्मरति इ. ६ ३२. व्यंजनविर्भाव (Doubling of Consonants) स. हे. ८।२। ९८-९९ मां व्यंजन द्विर्भावनां दृष्टान्तो भापैकी के पर अन्यनी टिप्पणी (१. ५१)मां पण मानी विवेचना करी के. प्रो. पीशलना अभिप्राये केटलांक व्यंजनविर्भावनां दृष्टान्तोमां वैदिक स्वरनी भसर रहेली छः दा. त. जित्त-जित (५. १७१.) केत्यु-कथा, (४. १६४.) फुट्टइ-स्फुटति, उज्जु-ऋजु इ० आ ज नियमने आधारे स्वार्थ तद्धित इल्ल, उल्ल इ. ने ते समजावे छे. केटलीक वार काव्यमा छंदनी आवश्यकताने अनुसरी विर्भाव करवामां आवे छे. केटलीक वार व्यंजनतत्त्व टकाववा तथा शब्दनी मात्रा साच. ववा पण आ प्रकारे द्वित्व करवामां आवे छे. दा. त. अवि (५. २०६.). दीर्घ स्वर पछीना व्यंजनने बेवडावी दीर्घ स्वरने इस्व बनाववानी प्रक्रिया पण रष्टिगोचर थाय छे: दा. त. पुज्ज-पूजा (१. ९०.) जोव्वण-यौवन (१. ९८.) अल्लीण आलीन (१. ३३.) पहुत्त-प्रभूत (१. ७४.) दुका डोकते (१. ४९.) १० केटलाक विद्वानो प्रो. पीशलना अभिप्रायनो अस्वीकार करे छ; अने द्विर्भावने भ्रान्तानुकृति (False Analogy) इत्यादिथी समजावे छ: दा.त. उपरि (उपरि (१. ५१.) प्रान्तानुकृति-परुप्पर-परस्पर जेमा प्प यथास्थान छे. सुकिउ <सुकृत (६. २) भ्रान्तानुकृति-दुकिउ-दुष्कृत जेमा क यथास्थान छे. पविस्समाणरण-प्रविशता (६. ७४.) मां स्स छंदोमेळ खातर अपवा कर्मणि अने कर्तरि प्रयोगनी भ्रान्तिभी उद्भूत छे. बिणि <द्वौ ए तिण्णि <त्रीणि नी भ्रान्तानुकृति छे. प्रो. पीशलना अभिप्राय करतां आ अभिप्राय वधारे ठीक छे. Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. ३३. व्यत्यय (Metathesis) [सि. हे..८ । २ । ११६-१२४ ] इना विचलनथी व्यत्यय केम परिणमे छे ते आपणे जोयु. ते उपरांत नीचेना केटलांक दृष्टान्तोमा व्यत्यय देखा दे छः दा. त. ससिह (सहस्स सहस्र (१. ४९.) णिडाल-ललाट (१. ४८.) दह-हृद (२. १९३.) दीहर-दीर्घ (५. १०१.) ६३४. वर्णप्रक्षेप द। नल-नर दल-न्दर । बिहंदल-बृहन्नला (३. १२) गूजगतीमां वंदर (वानर; पंदर (पण्णरह; अपभ्रंशमा मा प्रक्रिया भाग्ये ज देखा दे छे. प्राकृतमा सि. हे. मां तेने माटे एक्के य सूत्र नथी. छ । 5 >म्ब-म्बिर । (सि. हे. ८ । २ । ५६ ।) (जुओ टिप्पणी. १. ३०.) तम्बिर-ताम्र (६. ३८.) तंब-ताम्र, अंब =आम्र इ० म् । म् संघि व्यंजन तरोके । एकमेक (२. ८.) कंकु मत्थाणयरु (३. १४६.) म् ने संधिव्यंजन तरीके मकवानी पद्धति कोई कोई वार वैदिक संस्कृतमां देखा दे छे, अने अर्धमागधीनां तो घणी वार दृष्टिगोचर थाय छे. .५ र । सि. हे. ८ । ४ । ३९८. मां व्यंजन+र मार विकल्पे त्यसवान जणावे छे ज्यारे ३९९ मां न होय तो पण कोइ वार उमेरवो, एम जणावे छे, आ देश्यमाषानो विशेष छे, जे हेमचंद्रे अपभ्रंशमा अपनाव्यो छे. आपणां उद्घहरणोमां ते देखा देतो नथी; गूजरातीमा ते विपुल प्रमाणमां देखा दे छे (जुओ N. B. Divatia: G. L. & L. Vol. I P. 433) वासु-व्यासः । ह। घूहडु (अ+ड स्वार्थे-धूकः (९. ३२.); ठाहरइ <स्था अइ * (९. ३६.) मुंहडी-भूमि (सि. हे. ८ । ४ । ३९५. उ. ५.); चिहुर-चिकुर (३. ७२.) स्फटिक नो फलिह थवामां सू-हू, क मां नहि भळतां अन्तमां नवळा अ मां भळे . छे फलिह (एफडिअ * < स्फटिक (१. ६९.) ६३५. संप्रसारण यह । तिरिच्छ-तिर्यक्ष *; अच्छेरय < अच्छइरअ * =अच्छ. रिअ-आश्चर्य Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९ व्-उं । णाउ < णाव < नामन् ( ७. ७.) अवर - उहउ < अवरवुह = अपर मुखिन्यः (१. ३२.) भउहउ = भ्रमुकाः * (१.३२.) विउस - विदुष * < विद्वस् (५.१६७.) य अ इ अने तेवी ज रीते व् अने उनुं परस्पर स्थानान्तर अपभ्रंश हाथप्रतमां मळी आवे छे. आ संप्रसारणनी समीपवर्तिनी स्थिति कही शकाय दा. त. मयलिवि (१. १० ) मइलिउ (१. ३१.) दैवल (७. ३३.) देउल (७. ८३.) पयंपिउ ने स्थाने पइंपिउ ( २. १९७) कइवय ने स्थाने कयवय (५. ४६.) इ अने उ ने स्थाने घणीवार ऍ भने ओ हाथप्रतोमां देखा दे छे. दा. त. देवप = देवय (२. ७०.) आणय हाथप्रतमां, जे सुधारी आणए (५.२६७.) अय् >अइ=ए । तेरह, तेइस, एत्तिय ( = अयत् * < अयत्य * ) अव् >अउ=ओ | ओसरिउ ( ३. ७६. ) ओलग्गिउ ( ५. २०० . ) ओयरियउ ( ३. ४०.) ओली = आवली (१. ३८.) । ४. संयुक्त व्यंजनविकार ९. ३६. शब्दमां आदि, अन्तर्गत के अन्तिम संयुक्त व्यंजनो होई शके . आ त्रणे संयुक्त व्यंजनोना प्रकारमांना प्रत्येकनी प्रक्रिया विभिन्न के. ल्ह टकी शफे ३९८-३९९ ६ ३७. आदि संयुक्त व्यंजन कोइ पण अपभ्रंश शब्दमां टकी शकतो नथी; एटले के शब्दना आदिमां तो अपभ्रंशमां असंयुक्त व्यंजन ज होय. नियममां अपवाद ए छे जे शब्दना आदिमां ण्ह, म्ह, छे : अने देश्यतत्त्वप्रकार तरीके सि. हे. ८ । ४ । मां जणावे छे तेम र् विकल्पे टके या न होय तो कोइ वार कमेरवामां पण आवे छे. पह, म्ह, ल्ह ना दृष्टांत तरीके पहाडु = स्नात ( १. ४९ ) ल्हसिउ ( ५. १७.) म्हो = स्मः र् ना दृष्टांत तरीके वासु - व्यासः, देहि-दृष्टि इ० सि. हे. मां मालम पढे छे, पन आपणां उद्धरणोमां ते विशेष नथी, आदि संयुक्त व्यंजनोमां त्रण प्रकारनी प्रक्रिया थाय छे: (१) प्रथम व्यंजन राखी द्वितीयनो लोप करवो ( २ ) संयोजन ( Assimilation) (३) विप्रकर्षस्वरनो प्रक्षेप (Anaptyxis). सामान्यतः आदि संयुक्त व्यंजनो बे प्रकारना दृष्टिगोचर थाय छे: (1) जेनो द्वितीय व्यंजन य्, र्, लू, व् होय ( २ ) जेनो प्रथम व्यंजन स् होथ. Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० (१) जे आदि संयुक्त व्यंजननो द्वितीय व्यंजन य्, र्, लू, वू होय मां प्रथम व्यंजन राखी द्वितीयनो कोप करवामां आवे छे. य् । जोइसिउ-ज्योतिषिन् ( ३. २९) चुक्की = च्युता ( ३. ६९.) वावारउ = व्यापार (१. ७८.) चयइ = त्यजति ( ४.२२४.) वामोह = व्यामोह (१. ६६.) र् । कील = क्रीडा (१- ५६.) सुब्वा = धु+अति (१ पडिवत्त = प्रतिपत्ति (१.१०६ . ) ११०) पेम्म = प्रेमन् (५.२३) इ० यू | जालइ -ज्वालयति (५. ४०.) सर = स्वर (५. १४९.) दीव = द्वीप (६.१.) (२) र् नी पूर्वे सू के कोइ बीजा व्यंजन, व् नी पूर्वे स् तो केटलांक उदाहरणमां विप्रकर्ष स्वरनो प्रक्षेप करवामां आवे छे; अने ऌ नी पूर्वे कोइ पण व्यंजन आव्यो होय तो पण आज प्रक्रिया थाय छे. (जुओ (१८.) (३) संयोजन ( Assimilation ) : सामान्य रीते आदि संयुक्त व्यंजनोना प्रकारोमां आदि सू युक्त संयुक्त व्यंजनोमां संयोजन थाय छे. (क) सु + कोइ पण वर्गनो प्रथमाक्षर ( तालव्य अने मूर्धन्य वर्गना प्रथमाक्षर बिना ) = तेज वर्गनो द्वितीयाक्षर ( आ प्रक्रियामां स=ह थई तेनो व्यत्यय थाय छे अने स्पर्शने सोष्मत्व अर्पे छे) दा. त. खंध = स्कंध ( ३. २०१) खलिय= स्खलित (५. १८. ) थंभ = स्तंभ ( ६. १०६.) थुइ = स्तुति (६. १५६.) थण = स्तन (७४) फंसह = स्पृशति (६.८० ) फंसइ = स्पंदते (६.५४ . ) थोव - स्तोक ( ६. ५५.) [ जुओ § ३० (न) ] (ख) सु + तालव्य अने मूर्धन्य सिवाय कोई पण वर्गनो द्वितीयाक्षर = तेज वर्गनो द्वितीयाक्षर दा. त. खलइ = स्खलित (१. २६) थिअ = स्थित ( ३. ५०.) फार = स्फार (५. ५८ . ) — परंतु सामान्यतः उपरनो नियम होवा छतां कोहक दृष्टांतोमां सहू नी असर सोष्म व्यंजन पर निष्फळ जतां बीजा अक्षरो उपर संक्रमे छे. दा. त. फडिय= स्फटिक भविसयत्तसहामां व्यापृत ; छतां वधारे प्रचलित रूप फलिह - स्फटिक (१. ६०) मां अंतिम अ-ह ते आदि सू ने लीधे. ते ज प्रमाणे थाह < हू+थाअ = स्थात * ( ५. १२२.) चिहुर <श्चिकुर * चिकुर Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१ (ग) स्न्ह । हाइविस्रात्वा (५. ९०.) परन्तु णेह-स्नेह (५. १६.) स्म्स । सरइ-स्मरति (६.१२.) अने सुमरह (४.१३५.) शब्दान्तर्गत संयुक्तव्यंजन. ६ ३८. शब्दान्तर्गत संयुक्त व्यंजन नीचे प्रमाणे अपभ्रंशमां होई शके: [१ बन्ने य क ज प्रकारना व्यजन होय; दा त. वुत्त, मुक्क खग्ग इ० के प्रथम व्यजन + द्वितीय ( ते ज वर्गना) सोष्म व्यंजन = संयुक्त व्यंजन दा. त. अक्खर, वग्घ, अच्छ, वज्झ, अट्ठ, अड्ढ, अत्थ, अद्ध, पुष्फ, सब्भाव इ० [२] पह, म्ह, ल्ह दा. त. कण्ह, पम्ह, पल्हत्थ (सि. हे. ८ । ४। २००; जो के अपभ्रंशमांथी ल्ह अदृश्य थतो जाय छे.) [३] व्यंजन+र (सि. हे. ९।४ । ३९८-९९. जुओ ६ ३७.) केवळ बोलीमां, प्रकृष्ट अपभ्रंशमां नहि. [v] अनुनासिक व्यंजन + व्यंजन, हाथप्रतोमा अनुनासिक व्यंजनने पूर्व स्वर पर अनुस्वार मुकी बताववामां आवे छे दा. त. सिंचइ. छंमुह के छम्मुह ३० ६ ३९. संस्कृतने प्रकृति लेखी, नीचे जणाचेली प्रक्रिया अपभ्रंशमां मालम पडे छः [१] संयोजन (Assimilation) (अ) प्रगामी संयोजन (Progressive Assimilation). (ब) अनुगामी संयोजन (Regressive Assimilation). (क) विशिष्ट संयोजन (Special Assimilation). संयोजन थतां संयुक्त स्वरनी पूर्वे दीर्घ स्वर होय तो ते ह्रस्व थाय छे. [२] प्रतिसंयोजन ( Simplification ) आ प्रक्रिया संयोजनथी उलटी ज छे तेथी तेने प्रतिसंयोजन एवं अभिधान आपलं छे. (अ) संयुक्त व्यंजननी संयुक्तता दूर करवी होय तो तेनी पूर्वेना इस्व स्वरने दीर्घ करवो अने संयुक्त व्यंजनने असंयुक्त करवो; दा. त. सहस्स (सहन (संयोजन); सहास <सहस्स (प्रतिसंयोजन) (३. ६१.) आ Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ + T + F E T + w + w + + + + प्रकारनां दृष्टान्तो अपभ्रंशमा बहले छे. प्राकृतमां आ प्रक्रियानां परिमित स्थानो सि. हे. ८ । २ । ९२ । मां नोभ्यां छे. (ब) संयुक्त व्यंजननी संयुक्तता दूर करवा, पूर्वेना स्वरने अनुस्वार अपी ने दीर्घ बनाववो अने संयुक्त व्यंजनने असंयुक्त करवो. दा. त. मंत (मत्त (१. २१.) जुओ सि. हे. ८ । २ । ९२ । ६४०. (प्रगामी संयोजन) (Progressive Assimilation). क् + त = त्त । जुत्त-युक्त, रत्त-रक्त । क + = प्प । बप्पइराअ-वाक्पतिराज । + ध = द्ध । मुद्ध-मुग्ध । + क = क । छक्क-षट्क । ट् + त = त्त । छत्तीस-पत्रिंशत् । द् + प = प्प । छप्पय-षट्पद । इ + ग = ग्ग । खग्ग-खडग । इ+ ज = ज्ज । सज्जो-षड्ज । इ + व = व्व । छव्वीस-पड्विंशति । त् + क = क । उक-उत्क । त् + = प्प । उप्पल-उत्पल । त् + फ = प्फ । उप्फुल्ल-उत्फुल्ल । द् + ग = ग्ग । उग्गीरइ-उद्गीरति । द् + व = ब्छ । उब्बोह-उद्बोध । द् + अ = ब्भ । सम्भाव-सद्भाव । + त = त । सुच-सुप्त । + ज = ज्ज । खुज्ज-कुब्ज । ब् + द - । सद्द-शब्द । ब् + ध = द्ध । लद्ध-लब्ध । $ ४१. अनुगामी संयोजन. (Regressive Assimilation) - (क) सामान्य व्यंजन+अनुनासिक व्यंजन सामान्य व्यंजन- द्वित्व + + + + AAAAAAA Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + + + + + + + + ग् + न = ग्ग । अग्गि-अग्नि । + न = च । सवत्ति-सपत्नी । ग् + म = ग्ग । जुग्ग-युग्म । क् + म = प्प । रुप्पिणि-रुक्मिणी । त् + म = प्प । अप्पा-आत्मन् । परंतु, ज् + ञ (ज्ञ) = ण्ण । आण< अण्णा आक्षा (५.२६५) साण-संज्ञा (५.५५.) (ख) सामान्य व्यंजन+अन्तःस्थ सामान्य व्यंजन- द्वित्व : क् + य = क । वक-वाक्य । क् + र = क । चक्क-चक्र । प् + ल = प्प । विप्पव-विप्लव । क् + व = क । पिक-पक्व । भपवादः-द् + व = व्व । उविग्ग-उद्विग्न । उव्वरिय = उद्धृत (१.७०.) (क) अनुनासिक व्यंजन+अन्तःस्थ अनुनासिकव्यंजन- द्वित्व. न् + य = पण । कण्ण-कन्या । (३. २..) म्ल अने म्र माटे तो वर्णप्रक्षेप करवामां आवे छे. [$ ३४.] ६ ४२. अन्तस्थमां स्वतः द्वित्वने पामता लू अने व् छे. य् द्वित्वने पामतां ज् मां फरी जाय छे. र नु द्वित्व थतुंब नथी. अन्तस्थनो अंदर अंदर संयुक्तग्यंजन बने, तो द्वित्वप्रक्रियामा प्रधानत्वनो अनुक्रम लू, व् , य छे, दा. त. कल्ल-कल्य (३. ११४.) कव्व-काव्य (४. २.) दुल्ललिय-दुर्ललित (३. २२.) सव्व-सर्व (३. १७६.)इ. ६. ४३. केटलांक संयुक्तव्यंजनोनी विकारप्रक्रिया खास होय छे; जेमांना मुख्यथी मार्गदर्शी प्रक्रियानो उल्लेख ज संक्षेपमां नीचे आपवामां आव्यो छे. (क) -आदिमां ख्, छ, झू, धू । खार-क्षार ( २. ८२.) खवण-क्षपणक (१३. १५.) छण-क्षण (१. १४८.) छार-क्षार (७. १४२.) झिज्जइ-क्षीयते ( ३. ५६.) चित्त-क्षिप्त (५. २०८.) Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दान्तर्वती होय तो, क्ख , च्छ्, ज्झू । कडक्खकटाक्ष (२. ७५.) विक्खेव-विक्षेप (२, ७५.); रिच्छ= ऋक्ष (२. ५८) तच्छ-तक्ष (२. ५८.) विच्छोइअविक्षोभित (५. ७७.); उज्झर-उत्क्षर* (१. १०३.) कोइक वार ह पण थाय छे [क्ख> ख >ह] दा. त. निहित्त-निक्षिप्त (५. ११८.) [सि. हे. ८. २. १७-२०.] (ख) श्च, त्स, प्स-च्छ । मिच्छत्त-मिथ्यात्व (५. १६३.) अच्छेरय-आश्चर्यक (६ ११६.) मच्छर-मत्सर (२. १९३.) उच्छव-उत्सव (४. २८४) अच्छर-अप्सरस् (१. ४५.) इ० [सि. हे. ८. २. २१.] (ग) ऊध्माक्षर+ प्रथम अघोष व्यंजन एम बनेलो संयुक्त व्यंजन आदिमां आवतां द्वितीय सोष्म अघोष व्यंजन थई जाय छे; स्वरद्वयान्तर्गत एवो संयुक्त व्यंज्न आवत प्रथम अशेष अने द्वितीय सोष्म व्यंजननो बनेलो संयुक्त व्यंजन थाय छे. ६३१ न)] घ) दन्त्य व्यंजनने स्थाने तालव्यनो आदेशः-- त्य, थ्य, घ, ध्य% च्च च्छ, ज्ज. ज्झ । अच्चंत अत्यन्त (३. ६) पच्चक्ख प्रत्यक्ष (६. ४१), मिच्छत्त-मिथ्यात्व (५. १६३); अज्जु अद्य ( १. ९५.) उज्जाण-उद्यान (१ १४.); मज्झ-मध्य (१. ३४) जुज्झहो-युध्यत (१. ४७); सि हे. ८. २ १५. त्व-थ्व-द्व-ध्वां च-छ-ज-झाः क्वचित् । नां उदाहरणो भाग्ये ज मळे छे एटले नोध्या नथी. (च) दन्त्य व्यंजनने स्थाने मूर्धन्यनो आदेशः-पइट्ट-प्रवृत्त (३. १८७.) मट्टो-मृत्तिका (१३. १) पट्टण पत्तन (१. ७.) वट्टि-वति (२. ८७.) विच्छड्ड-विच्छर्द (२. १०५ ) छिड्ड-छिद्र(११. ६५) वियड्ढ-विदग्ध (१ ९१.) वढिय-वर्धित (१. १३५.) थड्ढ-स्तब्ध (१०. २४.) गोठवाल-ग्रन्थिपाल (१ १७.) इ [सि. हे. ८. २.. ३५-४१.] (छ) संयोजन (Assimilation) अथवा भाषाविशिष्टता (dialectal peculiarity) थी बनेला त्त, प्प. क केटलीक वार एकबीजाने स्थाने फेरबदल थाय छे. दा. त. चुक (चुत्त <च्युत (३ ६९.); जुप्पइ< जुत्तइ< भूत्कृदंत युक्तमांथी क्रियापद (३ ८२.); लुक (लुत्त (लुप्त (४. २७८.); बुक्क अथवा वुक्क वुत्तरवक्त * (५. २७२-बोक; सि. Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हे. ८. ४. ९८=बुक्कइ); सवक्कि (सवत्ति (सपत्नी (जुओ लक्ष्मणगणिन्-सुपासनाहचरिय, प्रस्तावना. सं. पं. हरगोविंददास. आ शब्द ते ग्रंथमां स्याप्त छे.) कप्पइ <कत्तइ <सं. - कृत् (सि. हे. ८. ४. ३५७) (ज) ष्ण-टु । विट्ठ <विण्हु < विष्णु (५. २१४) (झ) ह्व-म्भ । जिंभा-जिह्वा (३. ८.), जो के जीहा (१. १२२) पण रूप छे. विभिउ <विम्हिउ <विस्मित (६. ६.) रूपरचना १. नामरूप. ६४४. व्यंजनान्त नाम अपभ्रंशमांथी वस्तुतः अदृश्य ज थई गयां छे; तो पण कोइ वार वपरायलां दीठामां आवे छे. त् , न् , सू- व्यंजनान्त नामोना अवशेष कदीक दृष्टिगोचर थाय छे. दा. त. बंभाणब्रह्माणः (२. १०७.) रायाणोराजानः (४. २२५.) वइणो-वतिनः (४. २२८.). आवा अवशेषो अर्धमागधीमां अने तेना पछो प्राकृतमां वधारे छे. अपभ्रंशमां तो लगभग लुप्त ज छे. म्यंजनान्त नामोमां बे प्रकारना फेरफार करवामां आवे छेः [१] केटलीक वार अन्त्य व्यंजन दूर करवामां आवे छे: दा. स. मण=मनस् (२. ९२.) जग-जगत् (६. ४३.) अप्प-आत्मन् (७. ६०.) मणहारि-मनोहारिणी (५. १७९.) [२] केटलीक वार अन्त्य व्यजनमां अ ऊमेरी अकारान्त नाम प्रमाणे तेनी गणना थाय छे; स्त्रीलिंगे आ के इ ऊमेरवामां आवे छे. दा. त. जुवाण-युवन् (५. ११०), आउसआयुष् (२. १९.) अप्पण-आत्मन् (७. ५६.) इ. [३] ऋकारान्त नामना ऋ-अर करवामां आवे छे. दा. त. पियर-पितृ (४. ८९.) भायर भ्रातृ (५. १.) इ.; पण भत्तार-भर्तृ (५. ३१.) सस-स्वस् (३. ६६.); माय, माइ-मातृ (३. १०७); भाइभ्रातृ (३. १४५.) इ. संस्कृतानुसारी विकृति छे. [४] अत्-अन्ती वर्तमानकृदन्तो अने वत्-अन्ती नामना अन्त अन्त अने वन्त थई जाय छे. मत् नो मन्त के वन्त थई जाय छे. कोइ वार प्राकृतने अनुसरी त् एकलो पण त्यजी देवामां आवे छे दा. त. भयव-भगवत् [५] स्त्रीलिंगी आकारान्त भने ईकारान्त नामनो अन्त्य स्वर हस्वित करवामां आवे छे. दा. त. कील= Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्रीडा, सियय-सिकता (१. ८६.) पडिम-प्रतिमा (१. ८५.) पुज्ज =पूजा (१. ९०); वेणि वेणी (३. २४.) मालइ-मालती (३. ३१) सयलिंधि-सैरन्ध्री (३. ३२.) किंकरि-किंकरी (३. ३३.) जवल्ले ज दीर्घ स्वर राखवामां आवे छे. दा. त. जिभा-जिह्वा (३. ८.) कोइ धार कारान्त इस्वित करी तेमां इ ऊमेरी, इकारान्त करवामां आवे छे. दा. त. णिसि-निशा (१. २.) कहि-कथा (३. १८५.). ___ आ प्रमाणे पुल्लिंग, स्त्रीलिंग अने नपुंसकलिंगमां, अ, इ अने उ-भन्तनां ज नाम होय छे.आ, ई, ऊ-अन्तमां स्त्रीलिङ्गी नामो विकल्पे आवे छे. ४५. अपभ्रंशमां बेज वचन होय छे-एकवचन अने अनेकवचन. दो, बे ए बे द्विवचननां रूप सिवाय अपभ्रंशमां द्विवचन नथी. ६४६. सामान्य रीते अपभ्रंशमां जाति संस्कृतने अनुसरे छे. परंतु तेमांय अव्यवस्था तो छे ज. तेटला ज माटे सि. हे. ८. १. ४४५ मां लिंगने अप. भ्रंश विषये अतन्त्र कयुं छे. दा. त. कडक्खइं-कटाक्षान् (६. ९९.), देसा-देशान् (६. १००), आरंभई-आरंभान् (६. १०७.) इ. ४७. संस्कृतनी सरसामणीमां पाली अने प्राकृतमा विभक्तिओनो हास थएलो छे. पालीमां पण चोथी अने छही विभक्तिओनो मेद अदृश्य यतो जाय छे. अपभ्रंशमां तो विभक्तिओनो हास एथी पण अधिक छे. प्राकृतमां देखा देतो चतुर्थी अने छट्ठीनो भेदाभाव (वररुचि. प्राकृतप्रकाश ६. ६४. चंड. २. १३.) अपभ्रंशमां तो छे ज. चतुर्थी भने द्वितीयानो भेद कोइ वार नष्ट थाय छे. (जुओ अ. पा. टिप्पणी. १. ९४-९७-१०७). सप्तमी अने तृतीयानां एकवचन अने अनेकवचननां रूप केटलेक दरज्जे सरखां बनी जाय छे. प्रथमा अने द्वितीयानो भेद पण झाझो रहेतो नथी. कोइवार पंचमी अने षष्ठीनां एक वचन पण सरखां थई जाय छे. आ बधी बाबतो नीचेनां रूप उपरथी स्पष्ट थशे. ६ ४८. अकारान्तनामनां रूप (पुल्लिंग) नीचे एक ज नाम लईने सुगमता खातर रूप आपवामां आवेलां छे. ___पुत्त (पुल्लिंग) एकवचन:प्रथमा. पुत्तु (१. ४.) पुत्त (१. ६.) पुत्तो (५. ५३.) पुत्तउ (१.६१.) पुत्तउं (१. ३.) Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४७ द्वितीया. पुत्तु (१. ८५.) पुत्तं (२. ८.) पुत्तहो (१. १०७.) पुत्तं (६. २९) तृतीया. पुत्तेण (१. १०२.) पुत्तिण (१. ११५.) पुत्ते (१. ८०.) पुत्ते (१. १०.) पुत्ति (६. १६.) पुत्ति (५. ७६.) पुत्ता (५.१००) पुत्तेणं (४. १६९) पंचमी. पुत्तहें (१. ११३) पुत्तहु (५. ३४) पुत्तहो (.. १७५) चतुर्थी-षष्ठी. पुत्तस्स (६. १६४) पुत्तस्सु (१४.गीत.५) पुत्तहो (१.१.४. १०५.) पुत्तहु (९. ३६.) । सप्तमी. पुत्ति (६. ५.) पुत्ते (१. ११४.) पुत्तई (४.२७४.) पुत्तर (७. ____७८.) पुत्तए (१. १.) पुत्तम्मि (६. १५८.) संबोधन, पुत्त (३. १८२.) पुत्ता (७. २८.) अनेकवचन:प्रथमा. पुत्त (१. ७.) पुत्ता (१. ९६.) द्वितीया पुत्त (२.९.) पुत्ता (२. ९.) तृतीया पुत्तहिं (१. ६९) पुत्तहि (१. ५८.) पुत्तेहि (१. ५७.) पुत्तहिं (१. ५७.) पुत्तिहिं (१. १२०.) पुत्तिहि (१. ५८.) । पंचमी [पुत्तहुं], पुत्तहं (९. १९.) चतुर्थी-षष्ठो पुत्ताणं (४. २३१.) पुत्ताण (६. १६५.) पुत्तहं (१. ७३) पुत्तह (७. ६.) पुत्ताहं (७. ९.) । सप्तमी पुत्तहिं (५. १५३.) पुत्तेसु (६. ७८.) पुत्तिहिं (३.२३.) संबोधन पुत्तहो (१. ९४.) पुत्तहु (१३. ३९; ३. १८१.) (क) उपरनां रूपाख्यानोमां पुत्तो, पुत्तं, पुत्ताणं, पुत्तम्मि चोक्खा महाराष्ट्री प्राकृतनां रूप छे. _(ख) पांचमी, षष्ठी विभक्ति वच्चे पण संभ्रम थई गयो छे. विभक्तिव्यापारनी निरंकुशता जोवी होय तो प्रस्तुत ग्रंथमां घणे स्थळे मळी आवशे, दा. त. उद्धरण १. कडवड. १२. वपरायलां रूपाख्यानो पण ते ज बतावे छे. (ग) अनादर षष्ठीना प्रयोगर्नु उदाहरण: पेक्खंतहं रायहं मुच्छ गय । (३. ७२.) सति सप्तमी: विमले विहाणए कियए पयाणर उययइरिसिहरे रवि दीसइ । (१. 1.). बीजे स्थळे पहं जीवंतएण Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ महु एही भइय अवस्था । (३. ९०.) अहिं सप्तमीने स्थाने तृतीया योजी छ, जे बतावे छे के तृतीया अने सप्तमी वच्चे बहु ज संभ्रम थएलो होवो जोईए. (घ) उपरनां रूपाख्यानोमां नासिक्यता (Nasality) प्रत्येना दुर्लक्षथी तथा ऍ अने इ, तेम ज ओ अने उनी भ्रामकताथी नूतन रूपो अस्तित्वमा आव्यां छे. (च) उद्धरण १२. अने १३. अनुक्रमे कण्ह अने सरहना दोहाकोशमाथी लेवामां आन्यां छे. तेमां केटलांक खास रूपाख्यानो देखाय छे. ते मुख्यत्वे करीने बोलो विशेषो (Dialectal Peculiarities) अने अर्वाचीनतानां चिह्न छे. आ संबंधी चर्चा प्रस्तुत उद्धरणनी टिप्पणीमां आपेली प्रस्तावनामां करवामां आवेली छे ते जोवी. (छ) केटलीक वार छंदनी खातर विभक्ति प्रत्ययोनो त्याग करवामां आवे छे. दा. त. जिणजम्मण अमर पराइय (२. १८.) सरिपवाह मिहणइं णासंतइं (१. ८.) वाहि मिच्छ तं जणं दुरक्खसेणं खद्धयं (६. ९१.) इ. ६ ४९. अकारान्त नपुंसकलिंगी नामनां रूप. फल. अनेकवचन प्रथमा-द्वितीया. फलु (१. ३६.) फलाइं-इ (१. १२७.) फल (१३. १९.) फलइं-इ (१. ३७.) अवशिष्ट रूप अकारान्त पुल्लिंगी नामनां रूप प्रमाणे थाय छे. ६ ५०. इकारान्त अने उकारान्त नामनां रूप (पुल्लिंग भने नपुंसकलिंग) पुल्लिंग अने नपुंसकलिंग वच्चे काइ पण फेर नथी. नपुंसकलिंगमा वारिहंवारीइं के महुई-महूइं प्रथमा, द्वितीया अनेकवचनमां शास्त्रीय दृष्टिए होय; परन्तु प्रस्तुत ग्रन्थमां ते प्रयोजित नथी. ___ मूळे य इ अने उ अन्तवाळां नामो ज ओछां वपरायलां दृष्टिगोचर थाय छ; अने वळी तेमां पण ते नामोने घणी वार य <क स्वार्थ प्रस्यय लगाडी अकारान्त नाम जेवां रूपाख्यानो तेनां करवामां आवे छे. दा. त. सम्माइट्ठिउ (५. ५४.) जोइया (७. ५९.) जोइय (७. ६४.) णाणियहं एकवचन Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (७.८१.) अग्गियए (७. १. इकारान्त स्त्रीलिंगी नामना रूपनी प्रान्तानुकृति) जोइसियहिं (५. १०७.). आ उपरांत ए पण मालम पडे छे के रूपाख्यानोना ज्या प्रत्ययो छे, त्यां लगभग सरखा ज प्रत्ययो छे. प्रथमा, द्वितीया अने संबोधन विभकिने तो प्रत्ययो ज नथी. इन् अन्तवाळो नामोमां न घणीवार त्यजी देवामां आवे छे. त्यार पछी तेनां रूपो इकारान्त नाम जेवां ज करवामां आवे छे. एकवचन भनेकवचन प्रथमा गिरि (२. १००) परमेट्टि (३. ५०.) गुरु (८. १.) . .. रविंदु (. २७८.) द्वितीया गिरि (३. ९५.) परमिट्टि (६. ४७.) सिसु (५. २५.) . गुरु (५. ७.) तृतीया करिणा (५. १३..) बहुएं(७.११२) णाणिहिं (५:१४९.) बलिणा (५. १९३.) बहुयई (८.१५) भाइहिं (५. २७७.) पहुणा (५. २९२.) मंतिइं (५. १८४.) बहवि (.. १५.) पंचमी [गिरिहे] महुणो (४. २२९.) गिरिह] चतुर्थी-षष्ठी रहुवइहे (२. २२.) जोइहिं (७. ३७.) करिहो (३. ८७.) णाणिहिं (७. ११२) पंडुहि (३. १४९.) भाईणं (४. २३१.) हरिहि (४. १६२.) रिसिहि (५. २०६) भाणुहिं (४.१८५.) जगवइणो (४.२२८.) । ... कुलसामिहिं (५.४५.) विटुहिं (५.२३१.) सप्तमी सुहिहिं (५. १९६.) गिरिहुं] संबोधन सिहि (२. १२५.) गिरि] ६.११. आकारान्त स्त्रीलिंगी नामनां रूप आगळ आपणे जोई गया ते प्रमाणे आकारान्त स्त्रीलिंगी नामनो मन्तिम मा हस्व करी देवामां आवे छे. आ प्रमाणे प्रत्यय लगाडवा लायक. बे मूळरूप बने छे. दा. त. माल अने माला. Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कचन अनेकवचन प्रथमा माला (१.. ३६.) मालाउ (१. ३२.) माल (१. २२.) मालउ (१. ४०.) द्वितीया [माला माल (१. ५६.) मालाउ (२. १४४.) . मालउ (३. ११) तृतीया मालाइ (१. २३.) [मालाहिं] मालहिं (४.२१८.) मालइ (३.१९४.) मालाए (१.८१.) मालए (१.६५.) मालहे (२.८३.) पंचमी [मालहे-मालाहे] [ मालाहु-मालहु] चतुर्थी-पष्ठी मालहे (२. २४.) मालहं (३. ७७.) मालहे (२.१३७.) मालहि (२.७३.) । मालहिं (३.११०.) मालहो (३.१९५.) सप्तमी मालहे (३. ११४.) । [मालहि-मालाहिं] ... मालए (४. १९१.) संबोधन माल (२. ५२.) [मालउ-मालाउ] ६ ५२. ईकारान्त स्त्रीलिंगी नामनां रूपः केटलांक स्त्रीलिंगी आकारान्त नामनो अन्त्य आ इस्वित करवामां आवे छे ते आपणे जोयु. ($ ५१.) आवां नामोने अन्ते ई कोइवार लगाडवामां आवे छे. दा. त. बाली (१. २२.) णिसि (१. २.) वसुंधरी (२. १४.) परमेसरी (२. ७१.) इ० विशेषणनां स्त्रीलिंगी रूप पण ई लगाडीने करवामां आवे छे. दा. त. जुओं उद्धरण २. कडवक ३. स्रोलिंगी इकारान्त नामनां रूपो ईकारान्त, स्त्रीलिंगी नामनां रूपथी जुदा नथो. ऊकारान्त स्त्रीलिंगी नाम आमेय संस्कृतमां तो ओछी छे ज; प्रस्तुत ग्रंधमां वह (१.४६.) अने वहूहि (२.१४०) ए. वे रूपोज वपरायकां छे. नाकारान्त स्त्रीलिंगो नामनां रूप जेवांज ईकारान्त नामनां रूप छे. Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एकवचन अनेकवचन प्रथमा तरुणि (५. १४.) तरंगिणीउ (१. ३१.) रिद्धी (५. ६६.) -णारिउ (३. ७५.) भडारी (५. ७५.) कुमारिउ (५. १७९.) द्वितीया महि (५. ९३.) जणदिहिउ (५. ८६.) अवक्खडी (७. ७१.) गाहिणीउ (६. १३२.) तृतीया घरिणिए (५. १५७.) विरहंतिहि (५. ३१.) विलासिणिआए (५. १२१.) पंचमी [तरुणिहे] तिरुणिहु] चतुर्थी-षष्ठी महएविहे (३. ४८.) पाणियहारिहु (६. १११.) पुत्तिर्हि (५.१०८.) भूमिहिं (५.२२८.) सप्तमी पहरंतिहिं (५. १६२.) याविहिं (५. ४५.) मुट्ठिए (५. २८७.) कामिणिहिं (१. १२८.) सिद्धिहि (७.२५.) रयणिहे (३.११४.) तुंगिहे (३. ११६.).. संबोधन माइ (३.१०७.) तिरुणिहो] पंचालि (३. १०९.) २. सर्वनामरूप ६५३. प्रथमपुरुषवाचक सर्वनामः एकवचन प्रथमा हउँ (२. २१८.) मइ (२. १७५.) [अम्हे] अम्हइ (२. ५१.) द्वितीया मइ (१.२.) मई(३.६४.) मं (११.११.) [अम्हे,अम्हह तृतीया मई (२. १७१) मह (१ ११६.) [अम्हेहिं] अम्हहिं (६.१४०.) मए (क. १६६.) पंचमी महु (३. १६.) [मझु] [अम्हहं] - - - चतुर्थी-षष्ठो महु (२. ३२.) मज्झु (६. १७.) अम्हाण (६. १६..) महुँ (५. १९५) [भम्हह] सप्तमी [महं] [अम्हासु अनेकवचन Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकवचन ६५४. द्वितीयपुरुषवाचक सर्वनामः... एकवचन भनेकवचन प्रथमा तुहुँ (३. १९६.) तुहु (२. २१.) तुम्हई, तुम्हे] द्वितीया पई (३. ६..) [तुम्हई, तुम्हे] तृतीया पह (२. ८९.) पई (३. १२.) . तुम्हेहिं] तई (३. १४५.) तुम्हई (५.२७४.) पंचमी [तउ, तुझु, तुध्र *] [तुम्हहं] चतुर्थी-षष्ठी तउ (२. १६८.) तुम्ह (३. ९४.) तुह (४. १५१.) तुम्हइ (२. ६३.) तुज्झ (४. २७०.) तम्हाण (३. १६६.). तुज्झु (५. ४७.) [तुध्र *] तुम्हह-हं (३.४६.) सप्तमी तुह (५. ४८.) [तई [तुम्हासु) ५५. दर्शक सर्वनामः एकवचन प्रथमा [पु] सो (१. २९.) सु (६. ८९.) [पु.] ते (१. २४.). स (५.१४८.) [स्त्री.] सा (१. १०९.) स (३. ६८.) [स्त्री.] ताउ (१. ११.) ति (२. ७६.) न] तं (१. ३६.) तं तु (११.६.) न.] ताइं (१. २५.) द्वितीया [पु.] तं (१. ५०.) [पु.] [ते] , [स्त्री.] तं (१. ७६.) . . [खी.] [ताउ] , [न.] तं (१.१३४.) न.] [ताई तृतीया [पु.] तेण (१.११३.). ते (२. २०१.) [पु.] तेहिं (१. १३३.) तई (३. १८.) तेणं (६. १६६.) ताहं (२. १७.) ति (९.८.) तेहि (३. ५१.) [स्त्री.] ताई (२. १७८.) तिए, [स्त्री.] तेहि (२. ५०.) तीए, ताए, तए] पंचमी [पु] तहे (४.१९८) तउ (४.१७६) [पु.] [तहु " [त्री.] [ताहे-तहे] [स्त्री.] [ताहिं] Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ षष्ठी (पु.] तासु (१.१११.) तहो (१.६०.) [पु.] तहु (१. १५.) तहि (२. ८४.) तसु (७. ७९) तहु (५. ९.) तहिं (५.१८.) [स्त्री.] तिह (२. १४४.) [स्त्री.] ताहि (१. १३२.) ताहि (५. २६६.) सप्तमी [पु] तहिं (१. १०६.) [पु.] तहिं तहि (२. ११२.) [स्त्री.] तहि (२. १४१.) [स्त्री.] [ताहि] तहिं (७. १०१) ६ ५६. संबंधी सर्वनामः अनेकवचन प्रथमा [पु] जो (१.२९.) जु (७.१३५.) [3] जे (१. २४.) [स्त्री.] जा (१. १०९) [स्त्री ] जाउ (१. ३२.) ___ [न.] जं (१. २६.) [न.] जाइं (७. १०६.) द्वितीया [पु.] [ज] [3] [] [स्त्री.] [] [स्त्री.] [जाउ) न.जं जु (११. ६.) [न.] [जाइं] तृतीया [पु.] जेण (१.५.) जिं (४.२६९.) [3] जेहिं (४. ११०.) ... एकवचन - [स्त्री.] [जाइं, जाएँ, जिए इ.] : [स्त्री.] जेहिं (१. ४९.) पंचमी [पु.] जउ (३. ५७.) [जहे] [पु.] जहु . [स्त्री.] [जाहे] - -- [स्त्री.] [जाहिं] चतुर्थी-षष्ठी [पु.] जासु (१.१०.) जसु (१.८०.) [पु.] जाहं-जाह(४.१०.) जस्स (६. ६२.) [जहो] - . श्री.] जाहि (२. ४४.) [स्त्री.] [जाहिं] सप्तमी [पु.] जहिं (७. १०४.) [3] [हिं] ____जम्मि (५.२६.) [बी] [जहि [स्त्री.] [जाहि Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६ ५७. प्रश्नार्थ अने अनिश्चित सर्वनामःएकवचन अनेकवचन प्रथमा- [पु.] को (२. १३.) कु (७. ६९.) [पु.] के (१. ५४.) द्वितीया. [स्त्री का (१.६६.) क (५. ११) [स्त्री.] कायउ(९.१८)[काउ [न.] किं (१. ९५.) [न.] काइं (५. २६८.) तृतीया. [पु.] केण (१.११६.) कई (११.२१.) [पु.] केहिं (४. २२५.) [स्त्री.] काइं (२. ११) [काए] [स्त्री.] केहि(४.२३४.)[काहि] पंचमी. [3] कउ (४. १९७.) [कहे] [पु.] [कहु] [स्त्री.] | काहे] [स्त्री.] काहिं] चतुर्थी-षष्ठी. [पु.] कहो (३.९२.) कहु (४.१५९.) [पु.] काहं-ह (४. १९३.) कस्स (६. ९५.) कासु (५. ९८.) । [स्त्री.] काहिं (५. १४.) काहि (५.१५.) [स्त्री.] काहि (४. २९३) सप्तमी [पु.] कहि (३.१७२.) कहिं (६.२८.) [पु.] [कहिं] स्त्री.] [काहि [स्त्री.] [काहि (क) अनिश्चित सर्वनाम पि, वि, मि, इ (सं. अपि, चि <सं. चित् लगाडवाथी बने छे. दा. त. १. ६६ १.५७.;७.११; ६. २६-२८. इ. (ख) किं अने काई (५. २६८.) अव्यय तरीके पण वपराय छे. (ग) कवण (गू. कोण) प्रश्नार्थ सर्वनाम तरीके वपराय छे. दा. त. कवणु (३. ११०) कवण [स्त्री.] (२. १२२.) इ. ६५८. 'ए, एम (सं. एतद् एह <सं. एषः ।' नां रूप:एकवचन अनेकवचन प्रथमा- [पु.] एउ (१.१३३.) इउ (२.१६९.) [पु.] एहा द्वितीया पहु (२.१२६.) एहउ (५.१४९.) [स्त्री.] [एहीर] __ एह (२.८९.) एउ (२. १७८.) [न.] [एहइं, एयइं, [स्त्री.] पहो (३. ९०.) एहाई, एयाइं] तृतीया [पु.] एण (१. ११५.) [पु.] [एहि, एएहिं, एएँ (५. १९४.) एँ (११. १४.) एणहिं] एमा (इ. १२. [स्त्री.] [पयाहि] Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५ पंचमी [पय] चतुर्थी - षष्ठी [पु.] यहो ( ४. १७४.) [स्त्री.] [हे] बप्तमी [पु.] पहs (६.४५.) [पु.] [ एयहं ] [स्त्री.] [पयाहिं] [पु.] [पयाहं] [त्री.] [एयाहिं] [पु] [ यहि ] [स्त्री.] [पयाहिं] ६५९, आअ, अ=इदम् • सर्वनामनां थोडांक रूप प्रस्तुत प्रन्थमां तृतीया आएं (४. १७१.) ; षष्ठी - आयहो ( ३. ३६.) - अनेकवचन आयहं [पु.] ( आयइं (१. २१० ). ६ ६०. स्ववाचक सर्वनाम अप्पण, अप्प < सं. आत्मन् मांधी बने छे; अने तेमां रूप अकारान्त नामना जेवां थाय छे. वपरायलां छे. दा. त. [पु.] ( २. ३०); आयहे [स्त्री.] १०. ); द्वितीया अनेकवचन [न. ] बीजां सर्वनाम जेवां के सव्व, अण्ण, एक्क इ०नां रूप सामान्यतः ज (यक्ष्) अने त ( तद् ) ना जेवां ज थाय छे. $ ६१. सर्वनाममांथी बनतां विशेषणो अने अव्ययोना प्रकारो नीचे प्रमाणे छे. [१] परिमाणवाचक विशेषणः (अ) एत्तिउ (१.१०७), तेत्तिउ, जेत्तिउ, केन्तिउ ( ३.१०८ . ) (आ) एत्तडउ (१. १०७ ) तेत्तडउ, जेत्तडउ, केत्तर (३. १२९.) २१४) (इ) एवडउ (= एवड्डु २. १३१.) तेडवउ (= तेवड्डु ५. जेवडर, केवडर (सि. हे. ८. ४. ४०७ ) (ई) पत्तुल, तेत्तुल, जेल, केत्तुल (सि. हे. ८. ४. ४०७.) [२.] गुणवाचक विशेषणः -- (अ) अइसउ (१२. १३.) तइसउ, जइसउ ( १०. ९. ) कइसउ (१७. ९.) (आ) एहउ (५. १४९.) तेहउ, (७.२६.) जेहउ (५.९४.) हर (५. ९४.) (इ) एरिस (४. २६८), अम्हारिस (४.१९९.) तुम्हा रिस (३.१२.) Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (ख) [१.] स्थलवाचक अव्ययः (अ) इत्थु (९. १८.), जित्थु, जेत्थु, तित्थु (६. ६.) तेत्थु, केत्थु; वळो जेत्थहो (=जत्थहो २.-.६५.) तेत्थहो (३. १३३.) (आ) इह (षष्ठी- रूप; २.१९०. ) जहि, तहि, कहिं जे ___ सर्वनामनां सप्तमीनांरूप छे ते पण अव्ययो तरीके वपराय छे. (इ) जउ (३.५७.) तउ (३.५७.) कउ (सि. हे. ८. ४. ४१६.) (ई) एत्तहे, जेत्तहे (१. ४२), तेत्तहे (१. १४२.), केत्तहे अण्णेत्तहे (३. १७३.) [२] समयवाचक अव्ययः(अ) जाम (इ. ५.) ताम (६. ५१.) जाव (२. १८१.) ताव (२. १८२.) जा, ता (१३. ११.) जावहिं (१.९०.) तावहिं (१. ९०.) जव्वे (१३. २३.) तव्वे (१२. २४.) (आ) तो (ततः १. ४२.) जो (१३. ११.) - - - [३] रीतिवाचक अव्ययः (अ) अह (९. ४.), किह (३. १९२), जिह (३. १९२.), तिह (२. २०१.) (आ) एम्व (१. २०), केम्व (२. ७८.) जेम्व (२. ५३.), तेम्व (४. १३५.) आ रूपोमां ए नो विकल्पे इ याय म्व, म, व नो पण विकल्प छे. (इ) जह ( २. २०० ), तह कह (१. ५.) (ग.) अस्मद् अने युष्मद् नां षष्ठोनां रूपने आर <कार लगाही संबंध साधित करवामां आवे छे. महार, अम्हार, तुहार (५. २३०), तुम्हार. तणउ अने केरउ नो प्रयोग नाम के सर्वनामना षष्ठीना रूप साथे करीने पण संबंध दर्शावाय छे. . .. ६ ६२. तद्धितप्रत्ययः अ-कड्ढियउं (१. १३४.), वड्ढियउं (१. १३५.) इ० अण-चिराण (५. १८०.) विशेषण. Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अण-बुज्झण (३. १८.) जुज्झण (३. १८.) जणण (५. २११.) क्रियापदमांथी नाम. अल्ल-नवल्ल (१. ४०) स्वार्थप्रत्यय आर-गरुयार (५. ३६.) लहुगार (५. १८३.) उच्चार २ ९२ स्वार्थ प्रत्यय. आल-सोहाल (५. १५) भुक्खाल (३ १८.) नाममाथी विशेषण. आवण-भयावण (४. २६४.) विशेषण. इक्क-तिडिक (९. १२.), पाइक्क (५. २४६.). इर-विवरेर (२. १२.) (स्वार्थ प्रत्यय) नमिर (३. १५५.) पसाहिर (५. १६३) भमिर (६. ८४.) क्रियापदमांथी विशेषण. इल्ल-सोहिल्ल (१. ४७.) कडिल्ल (६. २४९.) खडिल्ल (७. १३६) पहिल्ल (२. ७२.) कुंभिल्ल (१. २८.) नामाथी विशेषण. ईल-समील (६. ४३.) स्वार्थप्रत्यय. उण-अज्जोणिय (=अद्यतन ३. ११४.) कल्लोणिय (=कल्यतन ३. ११०) उल्ल मडउल्ल (५. ६४.) कडउल्ल (१. ५२.) अहरुल्ल (२. ११.) सुणहुल्ल (४. २२९.) हियउल्ल (५.२३८.) स्वार्थप्रत्यय. एर-जणेरी (जननी २. २९) क-गुरुक्क (७. ३२.) स्वार्थप्रत्यय. क्ख-नोक्ख (३. १८४.) स्वार्थप्रत्यय, ड, डिय [स्त्री.]-अवक्खडी (७. ७२.) जालडिय (२. १११.) दिवहडा (५. १३३.) धादडिय (२. ११२.) हियवड (७. ७९.) स्वार्थप्रत्यय. त्त-थिरत्त (४. १९८.) वुड्ढत्त (१. १३१.) भाववाचक नाम. त्तण-नीयत्तण (५.१००.) खलत्तण (५.१९६.) सुहित्तण (५.१९६.) ल, लिय-अंधल ( ५. ४८.) असमल ( १३. २०.) एक्कलिय (१४. ३) जमल (३. २७.) नग्गल (१३. ९.) विज्जुल (२. १२४.) स्वार्थप्रत्यय. Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६३. संख्यावाचक शब्दो बे-सं. द्वे (१. २४.) एकलं ज द्विवचन- रूप अपभ्रंशमां छे. छतां य तिण्णि (७. ६.) नी भ्रान्तानुकृतिए करीने विष्णि ( १. २६.) बेण्णे (१. ११२)=सं. द्विनि* संख्याक्रमपूरक शब्द-पढम (२. ७१.) पहिल्ल ( २. ७२.) बीय (२. ६.) तइय (५. २३३.), चउत्थ (६. १५८.) पंचम इ० क्रियासंख्यावाचक शब्दः-एकवार, दुवार, तिवार, बहुवार क्रियारीतिसंख्यावाचक शब्दः-एक्कविह, दुविह, तिविह इ० एक्कसि (एकशः टि. पान, ११२. उपर शीलांकमांथी उदाहरण) ६६४. विशेषणनां तुलनावाचक रूप संस्कृतनी माफक तर अने तम लगाडवाथी थाय छे. केटलोक वार सादां ज विशेषणो तुलना माटे वपराय छे. केटलीक वार तुलनावाचक रूप सीधां ज संस्कृतमांथी लेवामां आवे छे. दा. त. कणि? (४.१७२), पाविट्ठ (५.२०३) इ० ३. क्रियापदरूप ६६५. संस्कृतमां दृष्टिगोचर थता क्रियापदना सूक्ष्म अने बहुविध रूप. भेदो अपभ्रंशमां अदृश्य थाय छे. आपणे नामनां रूपोमां जोयु के अकारान्त नाम ज अपभ्रंशमां प्राधान्य भोगवे छे, ज्यारे बीजा स्वर के व्यंजनना अन्त. वाळां, संस्कृतमां भिन्न भिन्न विभक्तिरूपो धारण करतां नामो अपभ्रंशमां लगभग अदृश्य ज थाय छे अने रह्यांसह्यां अकारान्तने ज अनुवर्ते छे. ते ज प्रमाणे अपभ्रंशमा अ विकरणप्रत्यययुक्त प्रथमगण प्राधान्य भोगवे छे, ज्यारे क्रियापदना बीजा गण अदृश्य थाय छे. आत्मनेपद लुप्त थई जाय छे; कोइ वार संस्कृतना अनुकरणमां वपराय ए वात जुदी. दा. त. पिच्छए, लुब्भए, लक्खए इ० (६. ७४-८८.). ते ज प्रमाणे कृदंतोमां कोइ वार आत्मनेपद देखा दे छे. दा. त. वट्टमाण (६. १५८.) पविस्समाण (६. ७४.) इ. उपरना दाखलाओ परथी ए पण जणाशे के केटलोक वार भात्मनेपदनी भ्रान्तानुकृति पण भावां रूपोमां देखाय छे. ६६६. अपभ्रंशमां केटलाक काळ पण देखा देता नथी. भूतकाळ-अद्यतन, बस्तन अने श्वस्तन त्रणे य गूम थाय छे. क्रियातिपत्त्यर्थ (conditional) पण Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अदृश्य थाय छे. आसि (आसीत् (६. ९३.) एकलो देखा दे छे. त्रणे य पुरुषमां आसि नो ज प्रयोग थाय छे. दा. त. हउं आसि घित्तु विवाए जिणेप्पिणु । (५. १९४.); णउ जक्खहं रक्खहं किन्नराहं लइ इत्थु आसि संचरु नराह । (६. ५७.) इ. भूतकाळ कर्मणि भूतकृदंतनी मददथी दर्शावाय छे, जेनां दृष्टांतो तो सामान्य छे... ६६७. क्रियापदना गणोना अवशेष क्यांक क्यांक अपभ्रंशमा रह्या छे. दा. त. जिणइ (५. १९४.) कुणइ (१०. ४०.) थुणइ (स्तुनोति * ६. १६८.) बिहेइ (१०.७.) णासइ (५. २१८.) णच्चइ (१. १०२)इ० केटलीक वार भूतकृदंतने ज बारोबार धातु बनाववामां आवे छे. दा. त. कड्ढा (३. ११०.) ओलग्गइ (५. २०.) उलुका (१.४९.) इ. ६ ६८. प्रत्ययान्त धातु (Derivative Roots) अपभ्रंशमा अस्तित्व धरावे छे. प्रेरकरूप (णिजन्तः), पौनःपुन्यदर्शक धातुरूप (यङन्तः) अने नामधातु अपभ्रंशमां मालम पडे छे. ते उपरांत ध्वनिक्रियापदो पण देखा दे छे. इच्छादर्शकधातुओ खास मालम पडता नथी, [१] प्रेरकधातुओ-पइसारइ (२. १.) विउज्झावइ (३. ८८.) पहा. वइ (२. १३१.) नच्चावइ (३. २१.) इ० । [२] पौनःपुन्यदर्शक धातु-मरुमारइ (३. ७४; ३. १४९.); जाजाहि (३. १९६); मुसुमूरइ (४. १२३.) ३० [३] नामधातु-सुहावइ ( ६. ७.); धंधइ (१३. ७.); जगडइ (१३. २०.); हकारइ (३. १४९.); जयजयकारइ (२. ५.) बहिरइ (६. ६७.) इ० । [v] चि-प्रकारना नामधातु-समरसिहूवाहं (७. ८६.) बंधिकिउ (१३. ४८.) गोअरिहोइ (१४. गीत. ५.) [५] ध्वनिधातु-किलिकिंचइ (६. ५३.) खुसखुसइ (१३. ७.) गिणगिणइ (१०. ३२.) गुमगुमइ (२. १३५.) घवघवह (१. २४.) रुहवुहइ (५. ११५.) रुहुरुहइ (६. ५२.) कुलु कुलइ (६. ५२.) करयरइ (१२. १३.) इ. ६ ६९. सामान्यतः धातुना जुदा जुदा कालनां रूप नीचे प्रमाणे छे: Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (क) वर्तमानकाल एकवचन अनेकवचन प्रथम पुरुष. करडं (७. ३.) करमि (२. २४.) करहुं (३. १३२.) करिमि (३. ८१.) करेमि (२. १९६.) करिमो (६. ९४.) करेवि (७. १४.) द्वितीय पुरुष. करसि (४. १७४.) करहि (३. १०७.) करहु (१. १३.) करहिं (५. ४१.) [करेसि] तृतीय पुरुष. करइ (१. २.) करेइ (७. ३२.) करन्ति (१. २४.) करहिं (५. ४.) (ख) भूतकाल (जुओ ६६६.) (ग) भविष्यत्काल एकवचन अनेकवचन प्र. पु करेसमि (३. २२.) करिसु (३. १४५.) करेसहुँ (३. १४.) करीहिमि (११. ५.) । द्वि. पु. [ करेसहि, करेससि ] करेसहु (३. १९९.) करीहिसि (११, १४.) करेसहो (३. २००.) तृ. पु. करेसइ (३. १४.) करेहिइ (१४. गीत २.) [करेसहि, करेहिन्ति] उपरनां रूप उपरथी जणाशे के संस्कृतनी माफक अपभ्रंशमां भविष्यत्काल, वर्तमानकाल पर ज अवलंबे छे. (घ) आज्ञार्थः अनेकवचन प्र. पु. [0] द्वि. पु. करहि (२. २३.) करिहि (५. ४२.) । करहो (१. ४९.) करि (२. १२६.) कर (२. ४८.) करहु (१. ४९) करु (२. ५२.) करह (१३. २०.) करह (८. १४.) . तृ. पु. करउ (२. ९०.) आज्ञार्थनां प्र. पु. नां रूप वर्तमानकाळ जेवां ज समजवां, जो के वैया. करणो करमु अने करिमो एम प्र. पु. नां एकवचन अने अनेकवचननां एकवचन [0] Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रूप बतावे छे. वे ज प्रमाणे तृ. पु. ना अनेकवचनमां करंतु, करहुं एम रूप समजवा; परंतु वपराशमां तो वर्तमानकालना रूप ज प्राधान्य भोगवे छे. (च) विध्यर्थःएकवचन अनेकवचन प्र. पु. करिज्जउ (५.२२६.) किज्जउं (७.१३५.) [.] द्वि. पु. करिजहि (२.१००) करिजइ (३.१३२.) करिजहु (२. १०९) करेज्ज (४. २७५.) करेज्जसु (५. ९०.) तृ. पु. [करिज्जउ [करिजंतु, करिजहुं] उपरनां रूपोमा देखाशे के ज्ज (सं. याम् , याव इ. विध्यर्थना प्रत्ययोना या समान ज्ज छे)+आज्ञार्थना प्रत्ययोना मेळथी विध्यर्थना प्रत्ययो बनेला छे. सामान्य रीते विध्यर्थनो अर्थ दर्शाववा विध्यर्थ कृदंत, वर्तमानकाळजें रूप अथवा हो प्रयुक्त होय तो तेनुं वर्तमान कृदंत वापरवामां आवे छे. दा. त. जइ पंचहं इक्कु वि होन्तु पुरि तो जुप्पइ रणभरधरणधुरि (३. ८२.); जइ एवहिं घल्लिय कह वि पइं तो पुरु घाएवउ सयलु मइं (३. १९८.) प्राकृतमा पण हो धातुनुं वर्तमान कृदंतनुं रूप वपराय छे. (छ.) कर्मणिप्रयोगः-[१] इज्ज लगाडी परस्मैपदना प्रत्यय दा. त. तृतीय पुरुष एकवचन गणिज्जइ (२. ८३.) ण्हाइज्जइ (२. ८३.) [२.] इय लगाडवाथी पिट्टियइ (७. १२२.) [३] संस्कृतनी अनुकृति वुच्चइ (८.४०.) किज्जइ (२.५५.) दीसइ (१.१.) ६७०. कृदंतविचारः[9] वर्तमानकृदंत-पइसंत (१. ४.) णासंत (१. ८.) एंत (१. २१.) जंत (१. २३.) उग्गमंत (१. ४७.) करंत (२. १४.) वज्जंत (२. ४.) संत (२. ९.) पविस्लमाण (इ. ७४.) वट्टमाण (६. १५८.) आसीण (५. १०१.) इ. [२] भूतकृदंत-गय (१. २.) किय (१. १.) धूमाविय (१. ७.) पइड (१. १३.) दिण्ण (१. १३.) लइअ (१. २३.) ३० [३] विध्यर्थ कृदंत -वंचेवाइं (३. १०.) खंचेवाइ (३. १०) अच्छे वउ (३. ५.) करिव्वउ (६. १९.) होइव्वउ (६. १९.) इ. Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [४] संबंधक भूतकृदंतः पि-गंपि (५. १७२.) एप्पि-गेण्हेप्पि (१४. गीत.१.) एप्पिणु-मेल्लेप्पिणु (१. २.) लेप्पिणु (१. २.) ३० इवि-अहिसिंचिवि (१. ८८.) अविवि (१. ८८.) मयलिवि (१. १०) इ० एवि-पेक्षेवि (१. २२.) निउड्डेवि (१. ४६.) १० एषिणु-करेविणु (७. ८.) मारेविणु (१४. गीत. २.) १० इ-छडि (१३. १५.) कप्पि (१४. गीत. १.) इ. इय-थिय (१. ४३.) आरक्खिय (१. ४३.) इ. ई-बइसी (६. १९.) इ० ऊण-पुज्जिऊण (६. ७९.) गिहिऊणं (६. ८१.) नाम ऊणं (४. २२२.) इ० उ-खरी रीते आ प्रत्यय हेत्वर्थ कृदंतनो छे, छतां पण संबंधक भूत कृदंतनो अर्थ बताववा तेने वापरवामां आवे छे, दा. त. सोउं (४. २२२.) तोडिउं (६. ८७.) इ० [५] हेत्वर्थ कृदंतः-- इउं-संस्कृतनी अनुकृतिथी देसिङ (६. १६५.) णिएउं (६. २९.) विहावडे (३. १२०.) . इवि-संबंधक भूतकृदंत हेत्वर्थ कृदंत तरीके वापरवामां आवे छे. दा. त. डहिवि (२. १३३.) आ कृदंत, अण तद्भितथी क्रियापदाथी बनेला नामने षष्ठीनो प्रत्यय लगाडवाथी बने छः दा. त. अच्छणहं (४, २६८.) मुणहु (५. २१.) णासणहं (२. १००.) Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसंहार प्रस्तुत ग्रन्थ अपभ्रंश-पाठावलीनो प्रथम अंश छे. तेमां आशरे इ. स. सातमाथी ते अगीआरमा सैका सुधीना अपभ्रंश-साहित्यमांथी उद्धरणो लेवामां आव्यां छे. आ ग्रन्थमां कुल चौद उद्धरणो छे. तेमांथी छ उद्धरणो अप्रसिद्ध प्रन्थोमांथी लेवामां आव्यां छे. आ अप्रसिद्ध ग्रन्थोनी बधी हाथप्रतो भांडारकर प्राच्यविद्यामंदिरमांथी मेळववामां आवी हती. ते माटे ते संस्थानो, हुं ऋणी छु. तेम ज गुजरात वर्नाक्युलर सोसाइटीए आ ग्रन्थना संपादनने उत्तेजन आपी, ते हाथप्रतो मेळवी आपवा प्रबंध कयों हतो; ते माटे ते संस्थाना प्रमुख अने संचालकनो हुँ आभार मानुं छु. बाकीनां उद्धरणो लेवामां, एक या बीजी रीते मुद्रित प्रन्थो ज उपयोगमां आव्या छे. आ बधा य मुद्रित अने अमुद्रित ग्रन्थोनो सविस्तर उल्लेख प्रत्येक उद्धरणनी टिप्पणीमां आपेली प्रस्तावनामां करवामां आवेलो छे. आ उद्धरणोनी समज माटे मूलपाठनी साथे तेनी संस्कृतछाया आपवामां आलेली छे. केटलाक विद्वानो संस्कृतछाया आपवानी पद्धतिथी विरुद्ध छे. तेमनी दलीक ए होय छे जे संस्कृतछायाथी अभ्यासक संस्कृतछायाने प्रधान गणी अपभ्रंशमूलपाठने गौण गणे छे तेथी अपभ्रंशनुं प्रधानत्व लुप्त थाय छे. परंतु आ दलील भ्रान्तिमूलक छे; कारण के अभ्यासक अपभ्रंशनी ज जिज्ञासाथी अभ्यासमां प्रवर्ते छे, ते कारणे तेनी दृष्टि आगळथी अपभ्रंशन प्रधानत्व लुप्त थतुं ज नथी. बीजं, वाक्यसंकलना (Syntax ) अन्य कोइ भाषा करतां संस्कृतमां संपादक सुस्पष्ट रीते बतावी शके छे, अने वाचक सरल अने स्पष्ट रीते तेने समजी पण शके छे.प्रस्तुत पाठावलीनी संस्कृतछाया अपभ्रंशनी वाक्य-संकलनाने बहुधा अनुसरे छे. अपभ्रंशनी वाक्यसकलना शिथिल अने स्वच्छंदी होवाथी तेनी छायानी संस्कृतभाषा एटली सुदृढ अने चोटदार न होय ए स्वाभाविक छे. अपभ्रंशमूलमां समासना पदनो विग्रह बताववा विग्रहचिह्न (dash) नो प्रयोग करवामां आव्यो छे; ज्यारे उपसमासना पदोनो विग्रह बताववा पूर्णविराम जेवु चिह्न योजवामां आव्यु छे. प्रत्येक उद्धरणनो टिप्पणीनी प्रस्तावनामां कर्ता, कृति, छंद, वस्तुनो सार इत्यादि बाबतोनो विचार करवामां आम्यो छे. टिप्पणीमां पाठपाठान्तरो, शुद्धि ईत्यादिनी खास चर्चा करवामां आवी छे. शब्दकोशनी रचना अर्वाचीन देश्यभाषाओ जेवी के गूजराती, हिंदी, मराठी इ. ने अनुलक्षी करवामां आवी छे. देश्यशब्दोनी खास नोंध लेवामां आवी छे. अपभ्रंशव्याकरणनी रचना तारण Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्धति (Inductive Method) प्रमाणे करवामां आवी छे छतां य तेनी सुश्लिष्टता अने उपयोगिता साचववा बीजा व्याकरणप्रन्थो के साहित्यमांथी निर्देश करी अथवा [ ] चिह्न करी रूप लेवामां आव्यां छे. आवां स्थानो अल्प छे. आदिनुं निवेदन संस्कृतमां आपवामां आव्युं छे. तेनुं कारण ए ज छे के परप्रान्तीय विद्वानोने प्रस्तुत ग्रन्थ उपयोगी थाय. गूजराती उपोद्घात पण अपभ्रंशसंबंधी मारुं मन्तव्य विद्वानो अने अभ्यासको समक्ष व्यक्त करी शकशे. दि. बा. केशवलाल हर्षदराय ध्रुवे तेम ज महाराजश्री पुण्यविजजीए आ कार्यमां पगले पगले साहाय्य करी, तेमना अगाध ज्ञाननो निरर्गल लाभ मने आप्यो छे. ते माटे हुं तेमनो अत्यन्त ऋणी छु. डॉ. पी. एल. वैद्य एम. ए. डी. लीट. एमणे त्रीजा अने पांचमा उद्धरण माटे पाठान्तरो अने सूचनो करी मने उपकृत को छे. पांचमा अने बारमा उद्धरणने माटे पुष्पदन्तना महापुराणनी भांडारकर इन्स्टीटयुटनी प्रत उपरथी करेली नकल, तेम ज तेमना तरफथी संपादित थती उद्योतननी कुवलयमालानुं आदिनुं फॉर्म तथा भांडारकर इन्स्टीटयुटनी ते प्रन्थनी प्रतनो लाभ, श्री. जिनविजयजीए मने आप्यो हतो. तेने माटे तेमनो हुँ उपकार मान छु. आ उपरांत, प्रो. ए. एन. उपाध्येनो 'जोइंदु' परनो लेख, तेम ज प्रो. हिरालाल जैननां अपभ्रंशप्रकाशनो मने उपयोगी थयां हता. तेम ज रायचंद्रग्रन्थमालामां प्रकाशित थएलो ‘परमात्मप्रकाश' ग्रन्थ पण मने खास उपयोगी थई पडयो हतो. स्व. डा. हरप्रसाद शास्त्री तेम ज डॉ. शहिदुल्लानां कण्ह अने सरहना दोहाकोशनां संपादननो पण उपयोग करवामां आव्यो छे. श्री. भोगीलाल सांडेसराए शब्दकोश बनाववामां मने मदद करी हती. ते माटे ते सर्वेनो हुँ उपकार मार्नु छु. गूजरातीना शास्त्रीय अभ्यासमां आ प्रन्थ उपयोगी थई पडशे, तो मारो श्रम हुं सफल थएलो मानीश. ननु वक्तृविशेषनिःस्पृहा गुणगृह्या वचने विपश्चितः । मधुसूदन चिमनलाल मोदी. Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अपभ्रंशपाठावली ॥ । संस्कृतछायासमेतं मूलमै । Page #75 --------------------------------------------------------------------------  Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथममुहरणम् ॥ [ चउमुहु सयंभु ।] ॥ जल-कोला-चण्णणु ॥ विमले विहाणए कियए पयाणए 'उयय इरि-सिहरे रवि दीसह "मइ मेल्लेप्पिणु निसियरु लेप्पिणु कहि गय णिसि" णाइ गवेसइ॥ सु.प्पहाय-दहि अंस-रवण्णउं कोमल-कमल-किरण-दल-छण्णउं जय-हरे पइसारिउ पइसंते णावइ मंगल-कलसु वसंते। फग्गुण-खलहो दूउ णीसारिउ जेण विरहि-जणु कह व ण मारिउ ५ जेण वण-प्फइ-पय विब्भाडिय फल-दल-रिद्धि-मडप्फर साडिय गिरि-वर गाम जेण' धूमाविय वण-पट्टण-णिहाय संताविय १ उयइरिसिहरे । २ जेम। [ चतुर्मुखः स्वयंभूः।] ॥ जलक्रीडावर्णनम् ॥ विमलेन विभानकेन कृते प्रयाणे उदयगिरिशिखरे रविः दृश्यते 'मां मुक्त्वा निशाकरं लात्वा कुत्र गता निशा'यथा गवेषयति ॥ सुप्रभातदधिअंशरमणीयः कोमलकमलकिरणदलछन्नः जगद्गृहे प्रवेशितः प्रविशता यथा मंगलकलशः वसंतेन फाल्गुनखलस्य शासनं निःसारितं येन विरहिजनः कथमपि न मारितः येन वनस्पतिपयः नाशितं फलदलऋद्धिअभिमानः शाटितः गिरिवरा ग्रामाः येन धूमापिताः वनपट्टनसमुदायः संतापितः . • आ छाया नीचे नोंधेली टीप, ते मूळ हाथप्रतना हांसियामां कोई वाचके नोंधेली टिप्पणी जे अभ्यासकना तटस्थ विचार माटे जेमने तेम ज आपवामां आवी छे. आ टिप्पणी अपभ्रंश मूळ साथे सरखाववी. १ शोभनप्रभसैवातिशयेन दधिस्थंसक आदित्यकलशश्चाभूत् । २ जगद्गृहे । ३ पालयः । ४ समुदायः । Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जल-कोला-वण्णणु सरि-पवाह मिहुणइं णासंतई जेण वरुण-घण णियलेहिं घित्तइं जेण उच्छु-विड जंतेहिं पीलिय पव-मंडव-णिरिक्क आचेलिय जासु रजि' पर-रिद्धि पलासहो तहो मुहु मयलिवि फ़ग्गुण-मासहो ॥ घत्ता ॥ पंकय-वयणउ कुवलय-णयणउ केयइ-केसर-सिर सेहरु पल्लव-कर यलु कुसुम-णहुज्जलु पइसरइ वसंत-णरेसरु ॥१२ (२) दोला-तोरण-वारे पई-हरे पइट्ठ वसंतु वसंत-सिरि-हरे सर रुह-वासाहरेहिं रव-णेउरु आवासिउ महु-अरि-अंते उरु कोइल-कामिणीउ उज्जाणेहिं सुय-सामंत लया-हर-थाणेहिं पंकय-छत्तदंड सर-नियरेहि सिहि-साहुलउ मही हर-सिहरेहिं कुसुमा मंजरि-घय साहारहिं दवणा-गंठिवाल केयारिहि , रज्जु । २ -सिराहरे ३ नेउरु ४-मासंत सरित्प्रवाहं मिथुनानि धावन्ति येन वरुणघननिगडेषु' क्षिप्तानि येन इक्षुसमूहः यत्रैः पीडितः प्रपामंडपचौराः निर्वस्त्रायिताः यस्य राज्ये परऋद्धिः पलाशस्य तस्य मुखं मलिनयित्वा फाल्गुनमासस्य ॥त्ता॥ पंकजवदनः कुवलयनयनः केतकीकेसरशिरःशेखरः पल्लवकरतलः कुसुमनखोज्ज्वलः प्रविशति वसंतनरेश्वरः ।। (२) दोलातोरणद्वारे प्रतिगृहे प्रविष्टः वसंतः वसंतश्रीगृहे सरोरुहवासगृहेषु वनू पुरं आवासितं मधुकरी-अंतःपुरं कोकिलाकामिन्यः उद्यानेषु शुकसामंताः लतागृहास्थानेषु पंकजछत्रदण्डाः सरोनिकरेषु शिखिअवचूलं महीधरशिखरेषु कुसुम-मञ्जरीध्वजाः सहकारेषु दमनकैग्रंथिपालाः केदारेषु १ नदी । मेघ । जलबन्धः ॥ २ रिक्कनी नीचे नीशानी करी चौराः नोंध हांसियामां छे. ३ सिगिरिका। ४ भंडारपलकाः। Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु] वाणर-मालिय साहा-वंदिहिं' महुअर-मत्त-माल-मयरंदिहिं । मंतोल्लव-कल्लोलावासहिं भुंजा अहिणव-फल-महणासहिं एम पइट्ठउ विरहि विद्धंतउ गयावइ-वम्मेहि अंदोलंतउ ॥ घत्ता ॥ पेक्खेवि एंतहो रिद्धि वसंतहो महु-ईषु-सुरा रस-मंती णम्मय बाली भुंभल भोली णं भभइ सालोणी ऽहो रत्ती ॥२२ णम्मयाइ मयर हरहो जंतिए णाइ पसाहणु लइउ तुरंतिए घवघवंति जे जल-पब्भारा ते जि णाइ णेउर-झंकारा पुलिणइ बे वि जासु सच्छायइं ताई जि ऊढणाइ णं जायइं जं जलु खलइ वलइ उल्लोलइ रसणा-दाम-भंति' णं घोलइ १ पानानां वाजुमां नोंघेलु पाठांतर:-वंदरसाहियमालावंदेहि पाठे । मूळ प्रतनो पाठ स्वीकार्यों छे. २ मयरंदिहि ३ मंतोलकल्लोलावासाहि। ४. उढणाइ । आ पाठनी चर्चा माटे टीकामां जुओ. ५ रसणादामुभंति इ० वन्दनमालिकाः शाखावृन्देषु मधुकरमत्तमालामकरन्देषु मंत्रोल्लापकल्लोलावासेषु अग्रेभोजको अभिनवफलमहानसेषु एवं प्रविष्टः विरहेन विध्यन् मन्मथगजपतौ आंदोल्यमानः आत्ता॥ प्रेक्ष्य आयातः ऋद्धिं वसंतस्य ईषन्मधुसुरारसमत्ता ___ नर्मदा बाला विह्वला मुग्धा इव भ्रमति सलावण्या अहोरात्रं ॥ नर्मदया मकरधरं यान्त्या इव प्रसाधनं लातं त्वरयन्त्या ........! घवघवरवं कुर्वन्ति ये जलसमूहाः ते एव यथा नूपुरझंकाराः पुलिने द्वे अपि यस्याः सच्छाये ते एव उपरितनवस्त्रे इव जाते यजलं स्खलति वलति उल्लोलयति रसनादामभ्रांति इव घूर्णयति : .... १ बंदरसाहियतालावंदेहि पाठे। २ अप्रेभोजकाः स्तितिषुः । ३ अभिनवाः। ४ अकुटिला । Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ [ जल-कीला - वण्णणु जे आवत्त समुट्ठिय चंगा ते जि णाइ तणु-तिवलि - तरंगा जे जल - हत्थि स यल- कुंभिल्ला ते जि णाई थण अध्धुम्मिल्ला जो डिंडीर - णिरु' अंदोलइ णावइ सो जि हारु रंखोलइ जं जल यर - रण - रंगिउ पाणिउं तं जि णाइ तंमोलु स - वाणिउ मत्त हत्थ - मय-मइलिउ जं जलु तं जिणाइ किउ अक्खिहु कज्जलु जाउ तरंगिणीउ अवर - उहउ ताउ जि भंगुराउ णं भउहउं जाउ भमर - पंति अल्लीणउ केसावलिउ ताउ णं दिण्णउ ॥घता ॥ मज्झे जंतिए मुहु दरिसंतिए माहेसर-लंक -पईयहु मोहु - पाइ मणे जरु लाइउ तहु सहस- किरण - दस •गीवहु ॥ ३५ ( ४ ) सो वसंतु सा रेवा तं जलु सो दाहिण- माउ मिय-सीयलु ताइं असोय - णाय - चूय-वणई महुअरि महुर- सरइ लय-भवणइ १. डिंडीरुणियरू । २. तरंगिणिउ । ३. नं । ४. मोहु उप्पाइड । ५. किरण | ये आवर्ताः समुत्थिताः चंगाः ते एव यथा तनुत्रिवलितरंगाः जहस्तिसकलकुंभौ तौ एव यथा स्तनौ अर्धोन्मीलितौ यः डिंडिरनिकरः आन्दोलयति यथा स एव हार: दोलायेते यज्जलचरवर्णरंजित पानीयं तदेव यथा तबूलं सवर्णकं मत्तहस्तिमदमलिनितं यज्जलं तदेव यथा कृतं अक्ष्णोः कज्जलं याः तरंगिण्यः अवर-मुखिन्यः ताः एव भंगुराः यथा भ्रुवः याः भ्रमर-पंक्तयः मत्ताः केशावल्यः ताः यथा उक्ताः ॥घत्ता ॥ मध्ये यान्त्या मुखं दर्शयन्त्या माहेश्वरलंकापतिभ्यां मोहः उत्पादितः मनसिजः लायितः ताभ्यां सहस्त्रकिरण- दशग्रीवाभ्यां ॥ २७ ( ४ ) सः वसंतः सा रेवा तद् जलं सः दक्षिण-मारुतः अमृतशीतलः तानि अशोक नागचूतवनानि मधुकरेण मधुरस्वराणि लताभवनानि १ विलसति. Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चमुहु सयंभु] ते धुयगाय ताउ कीरोलिउ ताउ कुसुम-मंजरि-रिंछोलिउ... ते पल्लव सो कोइल-कलयलु सो केयइ-केसर-रय-परिमलु ताउ णवल्लउ मल्लिय-कलियउ दवणा-मंजरियउ णव-फलियउ ४० ते अंदोला सो' जुवइ-यणु पेक्षेवि सहस-किरणु हरिसिय-मणु सहु अंते उरेण गउ तेत्तहे णम्मय पवर महा-णइ जेत्तहे। दूरे थिय आरक्खिय णिय-बलु जलु जंतिअहि णिरुद्धउ णिम्मलु ॥ घत्ता ॥ वड़िय-हरिसिउ जुवइहिं सरिसउ माहेसर पुर-परमेसरु सलिल-ऽब्भंतरे माणस-सर-वरे णं पइट्ठ सुरिंदु स-अच्छरु ॥४५ (५) सहस किरणु सहसत्ति निउड्डेवि आउ णाइ महि-वहु अवरुडेवि दिहु मउडु छुडु अधुम्मोलिउ रवि व दरुग्गमंतु सोहिल्लउ दिहु पिडालु वयणु वच्छ-स्थलु णं चंदडु कमल णह-मंडलु १. तं । २. नइ । ३. जंतिअए। ते भ्रमराः ताः कोरपंक्तयः ताः कुसुममंजरीपंक्तयः ते पल्लवाः सः कोकिलकलकलः स केतकीकेसररजःपरिमल: ताः नवाः मल्लिकाकलिकाः दमनकमंजर्यः नवफलिताः ते आन्दोलाः सो युवतिजनः [एतानि] प्रक्ष्य सहस्रकिरणः हृष्ट-मनाः सह अंतःपुरेण गतः तावत् नर्मदा प्रवरा महानदी यावत् दूरे स्थित्वा आरक्ष्य निजबलं जलं यान्त्रिकैः निरुद्धं निर्मलं ॥पत्ता॥ वर्धित-हर्षः युवतिभिः संहितः माहेश्वरपुर-परमेश्वरः सलिलाभ्यंतरे मानस-सरोवरे यथा प्रविष्टः सुरेन्द्रः साप्सराः ॥ (५) . सहस्रकिरणः सहसा निमज्ज्य आयातः यथा महोवधू आश्लिष्य दृष्टः मुकुटः शीघ्रं अर्धोन्मीलितः रविः इव ईषेत्उद्गच्छन् शोभावान्.. दृष्टं ललाटं वदनं वक्षःस्थलं यथा चंद्रार्धः कमलं नभोमंडलं १. अले बुडयित्वा । २. ईषत् । . . . . . . . ....... ... Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जल-कोला-वण्णणु पभणइ ससिह-रासि "लइ दुक्कहो जुज्झहो रमहो ण्हाहु उलुक्कहो" तं णिसुणेवि कडक्ख-विक्खेवउ बुड्डउ उक्क 'राय-मह-एविउ ५० उप्पर कर-यल-नियरु परिट्ठिउ णं रत्तुप्पल-संडु समुहिउ णं केयइ-आरामु मणो हरु णक्ख-सूइ कडउल्ला-केसरू महुअर सर-भरेण अल्लीणा कामिणि भिसिणि भणेवि णं लीणा ॥घत्ता॥ सलिल तरंतहु उम्मीलंतहु मुह-कमलहु केइ पधाइय "आयइ सारसइ किय तामरसइ" नर-वइहे भंति उपाइय ॥ ५५ अवरोप्परु जल-कोल करंतहु घण-पाणिय-पहयर मेल्लंतहुं कहि मि चंद-कुंदुज्जल-तारेहिं धवलिउ जलु तुटुंतिहि हारेहि कहि मि रसिउ णेउरहिं रसंतिहि कहि मि फुरिउ कुंडलहि फुरंतहि कहि मि सरस-तंबोलारत्तउ कहि मि बउल कायंबरि-मत्तउ १. राउ । २ उप्परे । ३ प्पहर । ४ तदंतिहे। प्रभणति सहस्ररश्मिः " ननु ढौकध्वं, युध्यत, स्नात, उल्लिनीत" तं निश्रुत्य कटाक्षविक्षेपकाः निमग्नाः उत्काः राजमहादेव्यः उपरि करतलनिकरः परिस्थितः यथा रक्तोत्पलखंडः समुत्थितः यथा केतकीआरामः मनोहरः नखसूचिः कटककेसरैः मधुकराः स्वरभरेण मत्ताः कामिन्यः बिसिन्यः भणित्वा यथा लोनाः ॥घत्ता। सलिले तरत्सु उन्मीलसु मुखकमलेषु केचित् प्रधाविताः 'आगतानि सरसानि किं तामरसानि नरपतये भ्रान्तिः उत्पादिता ॥ . ... (६). परस्परं जल-क्रीडां कुर्वतां घन-पानीय-प्रकरीन् मुञ्चतां कुत्र अपि चंद्रकुन्दोज्ज्वलतारैः धवलितं जलं त्रुट्यद्भिः हारैः कुत्र अपि रसितं नू पुरैः रसद्भिः कुत्र अपि स्फुरितं कुण्डलैः स्फुरद्भिः कुत्र अपि सरसताम्बूलारक्तं कुत्र अपि बकुलकादंबरीमत्तं १ रश्मयः। २ आमस्तकः । समस्ताः ३ सेहरु पाठे । ४ जलच्छटा । ५. शुभैः। 6. शब्दं कृतं जलेन । ७ मदिरा । Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु] कहि मि फलिह-कप्पुरेहिं वासिउ कहि मि सुरहि-मिग-मय-वामोसिउ ६० कहि मि विविह-मणि-रयणुज्जलियउ कहि मि धोय-कज्जल-संवलियउ कहि मि बहल कुंकुम-पंजरिअउ कहि मि मलय-चंदण-रस-भरिअउ कहि मि जक्ख-कदमेण करंबिउ कहि मि भमर-रिंछोलिहिं चुंबिउ ॥ घत्ता ॥ विद्दम-मरगय-इंदणील-सय चामियर-हार-संघायहिं' बहु-वण्णुज्जलु णावइ णह-यलु सुर धणु-घण-विज्ज-बलायहिं ॥६५ (७) का वि करंति केलि सहु राएहिं पहणइ कोमल-कुवलय-धाएहिं का वि मुद्ध-दिहिए सुःविसालए का वि णवल्लए मालइ-मालए का वि सुयंधेहिं पायड हुल्लेहि का वि सु पूय-फलेहिं वउल्लेहिं का वि जजण-पण्णाहं पद्रवियहि कावि रयण-मणि-अबलंबियहि का वि विलेवणेहिं उवरियहिं का वि सुरहि दवणामंजरियहिं ७० १. विद्दममरगयई इंदणीलसयइचामीयरहारसंघाहिं २ घणु । ३ सुविसालई । ४ उजुण्णपण्णहिं पट्टणिहिं ।। कुत्र अपि स्फटिककर्पूरैः वासितं कुत्र अपि सुरभिमृगमद-व्यामिश्रितं कुत्र अपि विविधमणिरत्नोज्ज्वलितं कुत्र अपि धौतकज्जलसंवलितं कुत्र अपि बहलकुंकुमपिञ्जरितं कुत्र अपि मलयचंदनरसभरितं कुत्र अपि यक्षकर्दमेन कबूंरितं कुत्र अपि भ्रमरपंक्तिभिः चुंबितं ॥ घत्ता ॥ विद्रुममरकतइन्द्रनीलशतचामीकरहारसंघातैः . बहुवर्णोज्ज्वलं यथा नभस्तलं सुरधनुःघनवियुबलाहकैः ॥ का अपि करोति केली सह राज्ञा प्रहन्ति कोमलकुवलयघातैः का अपि मुग्धदृष्टया सुविशालया का अपि नवीनया मालतीमालया का अपि सुगन्धैः पाटलपुष्पैः का अपि सुपूगफलैः वर्तुलैः । का अपि अर्जुनपर्णैः प्रस्थापितैः का अपि रत्नमणिअवलंबितैः का अपि विलेपनः उवृत्तैः का अपि सुरभिदमनकमञ्जरीभिः .. १ Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० [ जल-कीला-वण्णणु कहि वि गुज्झु जले अधुम्मोलउ' णं मयर हर-सिहरु सोहिल्लउ कहि वि कसण-रोमावलि दिट्ठी काम-वेणि णं गलेवि पइट्ठी कहि वि थणोवरि ललइ अहोरणु णाइ अणंगहो केरउ तोरणु । ॥घत्ता॥ कहि वि स-रुहिरइं दट्टइं णहरई थण-सिहरोवरि सुःपहुत्तइ वेग्गि वलग्गहो मयण-तुरंगहो णं पयइ छुडु छुड्डु खित्तई ॥ ७ (८) तं जल-कील णिएवि पहाणहु जाय बोल्ल णह-यले गिब्वाणहं पभणइ एक्कु हरिस-संपण्णउ “ति हुअणे सहसकिरणु पर-धण्णउ जुवइ स हासु जासु सवियारउ विन्भम-हाव-भाव-वावारउ णलिणि-वण व दिण यर-कर-इच्छउ कुमुय-वणुव ससहर-किरणिच्छउ' कालु जाइ जसु मयण-विलासे माणिणि-पत्तिज्जवणायासे । ८० १. आदमिल्लउ -२. वेणी ३. कहे वि; कहे वि राख्यु होत तो चालत; परंतु उपरना प्रयोग साये मेळ लाववाना हेतुए संस्कार कयों छे. ४ वेग्गेण ५. तण्णिच्छउ ६ पत्तेज्जवणायासें । कस्याः अपि गुह्यं जले अर्धमोलितं यथा मकरधरशेखरं शोभायुक्तं कस्याः अपि कृष्णरोमावलिः दृष्टा कामवेणी यथा गलित्वा प्रविष्टा कस्याः अपि स्तनोपरि ललति उपरितनवस्त्रं यथा अनंगस्य तोरणं ॥घत्ता।कस्याःअपि सरुधिराणि दृष्टानि नखराणि स्तनशिखरोपरि सुप्रभूतानि वेगेन विलग्नस्य मदनतुरंगस्य यथा पदानि ईषत् ईषत् क्षुण्णानि ।। तां जलक्रीडां दृष्टा प्रधानानां जातः शब्दः नभस्तले गोर्वाणानां प्रभणति एकः हर्षसंपन्नः “त्रिभुवने सहस्रकिरणः परमधन्यः युवत्यः यस्य सहासाः सविकाराः विभ्रमहावभावव्यापारिताः नलिनोवनं इव दिनकरकरइच्छिन्यः कुमुदवनं इव शशधरकिरणेच्छिन्यः कालः याति यस्य मदनविलासेन मानिनीप्रतायनायासेन १ कामस्य २ उपरितनवरे........... . ... Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुहु सयंभु ] अच्छउ सु-रउ जेण जगु मत्तउ जल - कीलाए किन्न पज्जत्तउ तं णिसुणेवि अवरेक्कु पबोल्लिउ " सहस-किरणु केवल सलिलोल्लिउ इत्थु पवाहु' मणो·हर - वत्तउ जो जुवइहिं' गुज्झंतु वि पत्त ॥घता ॥ जेण खणंतरे सलिल-ब्भंतरे गलियंसु-' - धरण - वावार ए स·हरसु ढुक्कउ माणेवि मुक्कर अंते उरु एक्कए वारए ॥ ११ अच्छं सुरतं येन जगत् मत्तं जलक्रीडया किं न पर्याप्तम् " तत् निश्रुत्य अपरः एक उक्तवान् सहस्रकिरणः केवलं सलिलाई : अत्र प्रवाहः मनोहरवृत्तः यः युवतीनां गुह्यान्तः अपि प्रविष्टः ॥ धत्ता ॥ येन क्षणांतरे सलिलाभ्यन्तरे गलितांशुकंधरणव्यापारे सहर्ष ढौकितं भुक्त्वा मुक्तं अंतःपुरं एकस्मिन् वारे || ( ९ ) रावणः अपि जलक्रीडां कृत्वा सुंदरां सिकतावेर्दी विरव्य उपरि जिनवरप्रतिमां आरोह्य विविधविताननिवहं बन्धयित्वा घृतक्षीरदधिभिः अभिसिंच्य नानाविधमणिरत्नैः अर्चित्वा नानाविधैः विलेपनभेदैः दीपधूपबलिपुष्पनैवेद्यैः पुजां कृत्वा किल गायति यावत् यान्त्रिकैः जलं मुक्तं तावत् १. प्रवाहः २. शिथिलितवस्त्राणां ३. वालुकावेदि " ( ९ ) रावणो वि जल - कील करेपिणु सुंदर सियय- वेइ विरप्पिणु उपरि जिण- वर पडिम चडावेवि विविह विताण - णिवहु बंधावेवि तुप- खीर- सिसिरेहिं अहिसिंचिवि णाणा विह-मणि-रयणिहि अंचिवि णाणा विहहिं विलेवण- भेयहिं दीव धूव-बलि-पुष्क- णिवेयहिं पुज्ज करेवि किर गायइ जावहिं जंतिएहिं जलु मेल्लिउ 'तावहिं ९० १ अछउ २ पहांउ ३ जुवईहिं ४ अंचेर्हि ५-६ जावेहिं - तावेहिं ८५ Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ [जल-कीला-वण्णणु पर कलत्तु संकेयहो दुक्कउ णाइ वियड्ढहिं मण्णेवि मुक्कउ धाइउ उभय-तडई धोवंतउ जिण-वर-पवर पुज्ज रेल्लं तर दह मुहु पडिम लेवि विहडफड कह वि कह वि णीसरिउ विवावड ॥घत्ता। भणइ “णरेसहो, तुरिय गवेसहो किउ जेण एउ पिसुणत्तणु किं बहु वृत्त तासु णिरुत्ते' दक्खवमि अज्जु जम-सासणु"। ९५ (१०) तो एत्थंतरे लद्धाएसा गय मण-गमणा ऽणेय गवेसा रावणेण सरि दिढ वहती मुय-महु-यर-दुक्खेण व विजंती' चंदण-रसेण व बहल-विलित्ती जल-रिद्धिए णं जाव्वण-इत्ति मंथर-वाहेण व विस्तत्थी जं च पट्ट-वत्थई व णियत्थी पुलिणाहोरणाई व पगुत्ती वालाहिव-णिदाए व सुत्ती १०० १. वुत्तेण-णिरुत्तेण । २. दुक्खेणवजंती । ३. वोसत्थी । ४. वीणाहोरणाईवपंगुत्ती। परकलत्रं संकेताय ढौकितं यथा विदग्धैः भुक्त्वा मुक्तं धावितं उभय-तटे धावत् जिनवरप्रवरपूजां प्लावयत् दशमुखः प्रतिमा लात्वा झटिति कथमपि कथमपि निःसतः व्याकुलः' ॥त्ता ॥ भणति "नरेशाः त्वरया गवेषयत कृतं येन एतत् पिशुनत्वं । किं बहु उक्तेन तस्मै निश्चयेन दर्शयामि अद्य यमशासनं "॥ ... (१०) तावत् अत्रान्तरे लब्धादेशाः गताः मनोगमनाः अनेके गवेषकाः......... रावणेन सरित् दृष्टा वहन्ती मृतमधुकरदुःखेन इव विज्यमाना । चन्दनरसेन यथा बहलं विलिता जलऋध्या यथा यौवनवृत्ताः ... .. मन्थरवाहेन यथा विश्वस्ता यत् च पट्ट-वस्त्रेण यथा निर्वासिता . . पुलिनउपरितनवस्त्रेण यथा प्रावृता व्यालाधिपनिद्रया यथा सुप्ता . . १. जलप्रवाहेन व्याकुलीकृतचित्तः। २. साटिकायुक्ता। ३. उपरितनवस्त्रेण । Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु]. मल्लिव-दंतेहि व विहसंती णीलुप्पल-णयणहिं व णिएंती.... बउल सुरा-गंधेण व मत्ती केयइ-हत्थेहि व णच्चंती महुअर-महुर-सरिं' व गायंती उज्झर-मुरयाई व वायंति ॥घत्ता॥ अ-रमिय-रामहो णिरु णिक्कामहो आरुसेवि परम-जिणिदहो पुज्ज हरेप्पिणु पाहुडु लेप्पिणु गय णावइ पासु समुद्दहो ॥ १०५ (११) तहिं अवसरे जे किंकर धाइय ते पडिवत्त लएप्पिणु आइय कहिय सुणंतह खंधावारहो “ लइ एत्तडउ सारु संचारहो माहेसर-णर वइ परमेसरु सहस-किरणु नामेण नरेसरु जा जल-कील तेण उप्पाइय सा अमरेहिं मि रमिवि ण णाइय सुब्वइ कासु को वि किर सुंदरु सुर-वइ भरहु सयरु चक्केसरु ११० भदउ सण कुमार ते सयल वि णउ पावंति तासु एक-यल वि १. सरू । २. मुखाइ । ३. संसारहो । ४. हाथपोथीमां मय्यउ जेवू वंचाय छे; शालिभद्रने उल्लेखी भद्दउ सुधारो कयों छे. मल्लिकादन्तैः इव विहसंती नीलोत्पलनयनैः इव पश्यन्ती बकुलसुरागंधेन इव मत्ता केतकीहस्तैः इव नृत्यन्ती मधुकरमधुरस्वरेण इव गायन्ती निझरमुरजान् इव वादयन्ती ॥घत्ता॥ अरमितरामाये खलु निष्कामाय आरुष्य परमजिनेन्द्राय पूजां हृत्वा प्रामृतं लात्वा गता यथा पार्श्व समुद्रस्य ॥ (११) सस्मिन् अवसरे ये किंकराः धाविताः ते प्रतिपत्तिं लात्वा आयाताः कथितं श्रुण्वते स्कन्धावाराय " ननु एतावान् सारः संचारस्य माहेश्वरः नरपतिः परमेश्वरः सहस्रकिरणः नाम्ना नरेश्वरः या जलक्रीडा तेन उत्पादिता सा अमरैः अपि रन्तुं न ज्ञाता श्रूयते कस्य कः अपि किल सुन्दरः सुरपतिः भरतः सगरः चक्रेश्वरः । भद्रः सनत्कुमारः ते सकलाः अपि न खलु प्राप्नुवन्ति तस्य एककलों अपि १. न रमिताः रामाः येन सः परमेश्वरेण । २ खंडमेकं । Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [जल-कीला-वणाणु का वि अ-उव्व लील विम्माणिय धम्मु अत्थु बेणे वि परिणामिय काम-तत्त पुणु तेण जि णिम्मिउ अण्ण रमंति पसव कोदूमिउ आत्ता॥ 'मइ पवहंतिण भुयणे तवंतिण' गयण-स्थ पयंगु ण णावह' एण पयारिण पिय-वावारिण' थिउ सलिले पइसेवि णावइ "॥११५ (१२) अवरि वुत्तु केण "मइ लक्खिउ सव्वउ सम्वु एण जं अक्खिउ जं पुणु तहो केरउ अंते उरु णं पच्चकवु जि मयर द्धय-पुरु णेउर-मुयरहु पेक्खणया-हरु लावण्णं म-तलाउ मणो हरु सिर मुह कर कमल महा-सरु मेहल-तोरणाहं छण-वासरु थण-हत्थिर्हि साहारण-काणणु हार-सग्ग-वच्छहो गयणंगणु १२० अहर-पवाल-पवाला आयरु दंतपंति-मोत्तिय-सइंण यरु जीहा-कल-यंठिणिहि णंदणवणु कण्णंदोलयाहं चित्तत्तणु १. महिपवतएणभुयणेतवंतएण २. एणपयारेणपियवावारेण ३. यायरू ४. यहिणिहिं । का अपि अपूर्वा लीला विभुक्ता धर्मः अथः द्वौ अपि परिणामिताः काम-तत्त्वं पुनः तेन एव निर्मितं अन्ये रमन्ते पशवः सुरतं ॥त्ता।। 'मया प्रवहता भुवने तपता गगनस्थः पतंगः न ज्ञायते' एतेन प्रकारेण प्रियव्यापारेण स्थितः सलिले प्रविश्य इव" ॥ (१२) अपरेण उक्तं केन " मया लक्षितं श्रव्यं सर्वं अनेन यद्आख्यातं यत् पुनः तस्य अन्तःपुरं यथा प्रत्यक्षं एव मकरध्वजपुरं नू पुरमुरजैः प्रेक्षनकगृहं लावण्यांभःतडागं सुमनोहरम् शिरःमुखकरक्रमकमलं महासरः मेखलातोरणैः क्षणवासरः स्तनहस्तिभिः साधारणकाननं हारस्वर्गवृक्षस्य गगनांगनं अधरप्रवालप्रवालाकरः दंतपंक्तिमौक्तिकस्यंदनकरः जिह्वाकलकंठिनीभिः नंदनवनं कर्णआन्दोलकैः चित्रत्वं १. सुरतं । २. न शोभते । ३. साधारण नाम देशः । Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सयंभु ] लोयण - भमरहुं केसर सेहरु स-मुहाभंगउ णट्टव्वय हरु धत्ता॥ काई बहुतेण पुणुरुत्तेन मयणग्गि - डमरु संपण्णउं रहुं अनंतहुं मण-धणवंतहु धुउ चोरु चंड उप्पण्णउं ॥ १२५ १५ ( १३ ) ર १३० "" अवरेकेण त् मइ जंतर aिss णिम्मल - सलिले खंतइ अइ- सुंदरइ सु-किय-कम्माइ व सुघडियाइ अहिणव-पेम्माई व णिग्गलाई सु-कवि - हिययाइ व णिउण- समासिय सु· कइ - पयाइ व संचारिमई कु पुरिस-धणाई व कारिमाई कुट्टणि वयणाई व पइरिक्कई सज्जण-चित्ताइ व बद्धइ अत्थ - इत्ति वृत्ताइ व दुल्लंघणियई सु-कलत्ताई व चेट्ठ-विह्नणई बुड्ढत्ताइ व वारि वमंति ताहि सिर-णासेहिं उरु-कर-चरण - कण्ण-णयणासेहिं तेहिं उ जलु भिवि मुक्कउ तेण पुज्ज लोहंतु पदुक्कउ १. णवय्य । २ किविण्ण । ३ अच्छ । ४ करण लोचनभ्रमराणां केसरशेखरं सहमुखभंगं नाट्यगृहं | घत्ता ॥ किं प्रभूतेन पुनरुक्तेन मदनाग्निडमरः संपन्नः नरेभ्यः अनंतेभ्यः मनोधनवयः धूर्तः चौर: चंडः उत्पन्नः ( १३ ) अपरेण एकेन उक्तं " 'मया यन्त्राणि दृष्टानि निर्मलसलिले खातानि अतिसुंदराणि सुकृतकर्माणि इव सुघटितानि अभिनवप्रेमाणि इव निर्गलानि सुकृपणहृदयानि इव निपुणसमासितानि सुकविपदानि इव संचारीणि कुपुरुषधनानि इव कृत्रिमानि कुट्टिनीवदनानि इव प्रगुणानि सज्जनचितानि इव बद्धानि अर्थचित्रेण वृत्तानि इव दुर्लघनीयानि सुकलत्राणि इव चेष्टाविहोनानि वृद्धत्वानि इव वारि वमन्ति तासां शिरः नासिकाभ्यां उरुचरणकर्णनयनास्यैः तैः एतज्जलं स्तब्ध्वा मुक्तं तेन पूजां लुव्यता प्रढौकितं " १ काष्टानां परस्परकलशिका अन्यत्र विशिष्टपदन्यासः । २ कोचनमुखे च । 66 Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ जल-कीला - वण्णणुः १६ ॥घत्ता ॥ तं णिसुणेपिणु लेहु भणेपिणु असि वरु सयं भुई कड्ढियाउं' सहइ समुज्जलु ससि. किरणुज्जलु णं पत्त- दाण- फलु वड्डियउं ॥ १३५ १ असिवरू सयंभुवेणए कड्ढयउ । २. दाणु आ संधिने छेडे मूळ हाथ-प्रतमां संधिनो अंक भूकी नीचेनी गाथा लखी छे: जल - कीलाए सयंभू - चउमुह पवंग गो-ग्गह- कहाए भद्दं च मच्छ - वेहें अज्ज वि कइणो ण पावति ॥ आ पछी तरत ज नवी संधिनी शरुआत थाय छे. ॥घत्ता ॥ तत् निश्रव्य 'लात' भणित्वा असिवरः स्वयं भुजेन कृष्टः शोभते समुज्ज्वलः शशिकिरणोज्ज्वलः यथा पात्रदानफलं वर्धितं ॥ पुष्पिकानी छाया जलक्रीडायां स्वयंभुवं चतुर्मुखं पतंगं गोग्रहकथायां भद्रं च मत्स्यवेधे अद्यापि कवयो न प्राप्नुवन्ति ॥ Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वितीयमुहरणम् ॥ [तिहुयण सयंभु । ॥ सोयदिव्चकहाणउ ॥ (१) लवणंकुसु पुरे पइसारेवि जिय-रयणि यर-महाहवेण वइदेहिहे दुःजस'-भीअएण दीउ समोडिउ राहवेण ॥ लवणंकुस-कुमार बलहदें पुरि पइसारिय जय जय-सदें झल्लरि-पडह-भेरि-दडि-संखेहि वजंतेहिं अवरेहिं असंखेहि रामु अणंगलवणु रहे एकहिं लक्खणु मयणंकुसु अण्णेकहिं वज्ज जंघु थिउ दुदम-वारणे बीया-यंदु णाइ गयणंगणे जय जय-कारिउ भड-संघाएं रामहो सुअ-मेलावि अ आएं जण वउ रहसे अंगे न माइउ एकमेक चूरंतु पधाइउ ५ १. दुजस [त्रिभुवनः स्वयंभूः। ॥ सीतादिव्यकथानकम् ॥ (१) लवणांकुशौ पुरे प्रवेश्य जितरजनिचरमहाहवेन वैदेह्याः दुर्यर्शोभीतकेन दिव्यं संव्यूढं राघवेण ॥ लवणांकुशकुमारौ बलभद्रेण पुरे प्रवेशितौ जयजयशब्देन झल्लरीपटहभेरिदडिशंखैः वाद्यमानैः अपरैः असंख्यैः रामः अनंगलवणः रथे एकस्मिन् लक्ष्मणः मदनांकुशः अन्यदेकस्मिन् . वज्रजंघः स्थितः दुर्दमवारणे द्वितीयाचन्द्रः इव गगनांगने जयजयकारितं भटसंघातेन रामस्य सुतमेलापे च आयातेन जनपदः रभसा अंगे न मायितः एकैकं चूरयन् प्रधावितः Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सीयदिव्वकहाणउ पेक्खेवि ते कुमार पइसंता णारिउ णवि गणंति पइ सन्ता सीया णंदण-रूवालोयणे लायइ का वि अलत्तउ' लोयणे का वि देइ अहरुल्लए कज्जलु काई वि घत्तिउ वच्छए अंचल ॥घत्ता॥ विवरेरउ नायरिया-यणु किउ लवणंकुस-दसणेण जगे कामें को वि न विद्धउ स-सर कुसुम-सरासणेण ॥ १३ (२) आयल्लउ करत तरुणी-यणे लवणंकुस पइसारिय पट्टणे तहि तेहए पमाणे विज्जा-हर लंकाहिव-किकिंध-पुरेसर भा-मंडल-नल-नीलंगंगय-जणय-कणय-मरु-तणय समागय जे पट्टविय गाम-पुर-देसहु गय हक्कार ताहं असेसहं णाणा-जाण विमाणेहि आइय णं जिण-जम्मण अमर पराइय १८ दिट्ठ रामु सोमित्ति महाउसु दिछ अणंगलवणु मयणंकुसु १. अलित्तउ. २. काय...पच्छए. प्रेक्ष्य तौ कुमारौ प्रविशन्तौ नार्यः नापि गणयन्ति पतीन् सतैः सीतानंदनरूपालोकनेन लाययति कापि अलक्तकं लोचने कापि ददाति अधरे कज्जलं कया अपि क्षिप्तं वक्षसि अञ्चलं ॥धत्ता। विपरीतः नागरिकाजनः कृतः लवणांकुशदर्शनेन जगति कामेन कः अपि न विद्वः स्वशरेण कुसुमशरासनेन ॥ व्यग्रतां कुर्वन्तौ तरुणीजने लवणांकुशौ प्रवेशितौ पट्टने तत्र तादृशाः प्रमाणभूताः विद्याधराः लंकाधिपकिष्किन्धापुरेश्वरौ भामंडल-नल-नीलांग-अंगद-जनक-कनक-मरुत्तनयाः समागताः ये प्रस्थापिताः ग्रामपुरदेशेभ्यः गतं आकरणं तेषां अशेषानां नानायानविमानैः आयाताः यथा जिनजन्मनि अमराः आगताः दृष्टः रामः सौमित्रिः महायुः दृष्टः अनंगलवणः मदनांकुशः हाथप्रतनां टिप्पण नीचे नोंध्यां छे. १. पतयः विद्यमानाः । २. परिधानवस्त्रं । ३. आरार्तिकं । कामपीडा वा। ४. प्रघघके (?) ५ प्रेषिताः । Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तियण सयंभु ] • विदितर्हि सुन्दर एक्कहिं मिलिय पंच णं मंदर पुणरवि रामहो किय अहिणंदण' "धण्णउ तुहु जसु एहा णंदण ॥घत्ता ॥ एत्तडउ दोसु पर रहु वइहे जं परमेसरि णाहि घरि म पमायहि लोयहु छंदेण आणेवि का वि परिक्ख करि” ॥ २३ ( ३ ) तं णिसुणेवि चवइ रहु-णंदणु " जाणमि सीयहे तणउ सरत्तणु जाणमि जिह हरिवंसुप्पण्णी जाणमि जिह वय· गुण-संपण्णी जाणमि जिह जिण - सासणे भत्ती जाणमि जिह महु सोक्खुप्पत्ती जाणमि अणुगुण · सिक्खा - धारी जाणमि संम· रयणमणि-धारो जाणमि जिह सायर-गंभीरी जाणमि जिह सुर· महीहर- धीरी जाणमि अंकुश लवण - जगेरी जाणमि जिह सुय जणयहो केरी जामि स. सहा.मंडल - रायहो जाणमि सामिणि रज्जहों आयहो १. अहिवंदण २ धन्नउ. ३. सभा. २८ शत्रुघ्नः अपि दृष्टः तत्र सुंदरः एकत्र मीलिताः पंच यथा मंदराः पुनः अपि रामाय कृतं अभिनन्दनं "धन्यः त्वं यस्य इदृशौ नंदनौ ॥घत्ता॥ एतावान् दोषः परं रघुपतेः यत्परमेश्वरी नास्ति गृहे मा प्रमाद्यै लोकानां छंदेन आनीय कामपि परीक्षां कुरु" ॥ ( ३ ) तद् निश्रुत्य वदति रघुनंदनः " जानामि सीतायाः सतीत्वं जानामि यथा हरिवंशोत्पन्ना जानामि यथा व्रतगुणसंपन्ना जानामि यथा जिनशासने भक्ता जानामि यथा मम सौख्योत्पत्तिः जानामि अनुगुणशिक्षाधारिणी जानामि सम्यक्त्वैरत्नमणिधारिणी जानामि यथा सागरगंभीरा जानामि यथा सुरमहीधरधीरा जानामि अंकुशलवणजनयित्री जानामि यथा सुता जनकस्य जानामि ससभामंडलराजस्य जानामि स्वामिनी राज्यस्य अमुष्य १.९ १. मा त्यज । २. सम्यक्त्व Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सीयविकहाणउ जाणमि जिह अंते उर-सारी जाणमि जिह महु पेसण-गारी ॥घत्ता ॥ मेल्लेप्पिणु णायर-लोइण' महु घरे उभा करेवि कर जो दुःज्जसु उप्परे चित्तउ एउ ण जाणमि एक्कु पर" ॥ ३३ (४) तहि अवसरे रयणासव जाएं कोक्किय तियड विहीसण-राएं बोल्लाविय एत्तहे वि तुरंते लंका सुन्दरि तो हणुवंतें बिन्नि वि विनवंति पणमंतिउ सीय-सइत्तण-गवु वहंतिउ " देव देव जइ हुअ वहु डज्झइ जइ मारुउ पड पोट्टले बज्झइ जइ पायाले णहंगणु लोट्टइ कालंतरे कालु जइ तिट्ठइ ३८ जइ उप्पज्जइ मरणु कियंतहो जइ णासइ सासणु अरहंतहो जइ अवरें उग्गमइ दिवा-यरु मेरु-सिहरे जइ णिवसइ सायरु एउ असेसु वि संभाविज्जइ सीअहे सीलु ण पुणु मइलिज्जइ १. लोएण । २. कोत्थिय । जानामि यथा अंतःपुरमारभूता जानामि यथा मम प्रेषणकारिणी ॥धत्ता। मिलित्वा नागरलोकेन मम गृहे ऊर्ध्वं कृत्वा करान् यद् दुर्यशः उपरि क्षिप्तं एतद् न जानामि एकं परं" । (४) तस्मिन् अवसरे रत्नास्रवजातेन आहूता त्रिजटो विभीषणराजेन आहूता अत्रान्तरे अपि त्वरमाणेन लंकासुंदरी ततः हनुमता द्वे अपि विज्ञापयतः प्रणमन्त्यौ सीतासतीत्वगर्व वहन्यौ "देव देव यदि हुतवहः दह्यते यदि मारुतः पटपिण्डके बध्यते यदि पाताले नभःअंगनं लुट्यति कालांतरे कालः यदि तिष्ठति यदि उत्पद्यते मरणं कृतान्तस्य यदि नाश्यते शासनं अर्हतः यदि अपरदिशि उद्गच्छति दिवाकरः मेरुशिखरे यदि निवसति सागरः एतद् अशेष अपि संभाव्यते सीतायाः शीलं न पुनः मलिनीक्रियते १. तृजट ( ? त्रिजटा ) । २. पश्चिमदिशायां । Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण. सयंभु]. ॥घत्त॥ जइ एव वि णउ पत्तिज्जहि तो परमेसर एउ करि तुल चावल विस-जल जलणहं पंचहं एक्कु जि दिन्चु धरि" ॥४३ तं णिसुणेवि रहावइ परिओसिउ 'एम होउ' हकारउ पेसिउ गउ सुग्गीउ विहीसण अंगउ चंदोयर-गंदणु पवणंगउ पेसिउ पुप्फ-विमाणु पयट्टउ णं णह-यले सर-कमलु विसट्टउ पुंडरीयापुर-वर संपाइय दिट्ट देवि रहसेण न माइय "णंद व जय होहि चिराउस बिण्णि वि जाहि पुत्त लवणंकुश ४८ लक्खण राम जेहि आयामिय सीहहिं जिह गयंद ओहामिय रक्खिय णारएण समरंगणे तेहि मि ते पइसारिय पट्टणे अम्ह इ आया तुम्ह हक्कारा दिअहा होन्तु मणोरह गारा ॥घत्ता। चडु पुप्फ-विमाणे भडारिए मिलु पुत्तहं पइ देवरहं सुह अच्छणि' मज्झे परिट्ठिय पिहिमि जेम चउ.सायरह"।। ५३ १. सुहं अच्छामि. ॥त्ता। यदि एवं अपि न खलु प्रतीयते तर्हि परमेश्वर एतत् कुरु तुलं-तण्डुल-विष-जल-ज्वलनानां पंचानां एकमेव दिव्यं धर" ॥ एतद् निश्रृत्य रघुपतिः परितुष्टः ‘एवं भवतु' आकरणं प्रेषितं गतः सुग्रीवः विभीषणः अंगदः चंद्रोदरनन्दनः पवन-अंगजः प्रेषितं पुष्पविमानं प्रवृत्तं यथा नभस्तले सरःकमलं विकसितं पुंडरीकपुरवरं संप्राप्ताः दृष्टा देवी हर्षेण न मायिताः "नंद वर्धस्व जय भव चिरायुः द्वौ अपि यस्याः पुत्रौ लवण-अंकुशौ राम-लक्ष्मणौ याभ्यां आयामितौ सिंहाभ्यां यथा गजेन्द्रौ आक्रान्तौ रक्षितौ नारदेन समरांगणे ताभ्यामपि तौ प्रवेशितौ पट्टने वयं अपि अयाता युष्माकं आकारकाः दिवसाः भवन्तु मनोरथकाराः घत्ता॥ आरोह पुप्पविमाने भट्टारिके मीलय पुत्राभ्यां पतिदेवृभ्यां सुखासने मध्ये परिस्थिता पृथिवी यथा चतुःसागराणां"। १. विराहोः । २. हनूमंतु । Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सीयदिव्वकहाणउ तं णिसुणेवि लवणंकुस-मायए वुत्तु विहीसणु गग्गिर-वायए "णिट्ठर-हिययहो अ-लइय-णामहो जाणमि तत्ति न किज्जइ रामहो घल्लिय जेण रुवंति वणंतरे डाइणि रक्खस भूय-भयंकरे जहिं सद्दल-सीह-गय-गंडा बब्बर-सबर-पुलिंद पयंडा जहिं बहु-तच्छ-रिच्छ रुरु संवर स-उरग-खग विग जहिं सिव-सूयर ५८ जर्हि माणुसु जोवंतु वि लुचई' विहि कलि-कालु वि पाणह मुंचइ तहिं वणे घल्लाविय अण्णाणे एवहि किं तहो तणेण विमाणे ॥घत्ता॥ जो तेहिं डाहु उप्पाइउ पिसुणा-भावामरिसिइण' सो डु-करु उल्हाविज्जइ मेहःसएण वि वरिसिएण ॥ ६२ जइ वि ण कारणु राहव-चंदें तो वि जामि लइ तुम्हइ छंदें" एम भणेवि देवि जय-सुन्दरि कम-कमलहिं अचंति वसुंधरि १. जि वधारानो छोडी दीधो छे. २. पिसुणाभावमरिसिएण । तद् निश्रुप्य लवणांकुशमात्रा उक्तः विभीषणः गद्दवाचा "निष्ठुरहृदयस्य अगृहीतनाम्नः जानामि चिन्ता न क्रियते रामस्य क्षिप्ता येन रुदती वनांतरे डाकिनीराक्षसभूतभयंकरे यत्र शार्दूलसिंहगजगण्डाः बर्बरशबरपुलिंदाः प्रचंडाः यत्र बहुतक्षकक्षहरुसंघराः सहउरगखगवृकाः यत्र शिवाशूकराः यत्र मानुषः जीवन् अपि लुच्यते' विधि : कलिकालः अपि प्राणेभ्यः मुच्यते तत्र वने क्षेपिता अज्ञानेन एतादृशस्य किं तस्य विमानेन ॥घत्ता।। यः तैः दाहः उत्पादितः पिशुनभावामर्षितेन सः दुष्करं आद्यते मेघशतेन अपि वर्षितेन ॥ यदि अपि कारणं न राघवचन्द्रेण तद्यपि यामि खलु युष्माकं छंदेन" एवं णित्वा देवो जगत्सुंदरी क्रमकमलाभ्यां अर्चन्ती वसुन्धरां १. लुच्यते । २. विधिः । ३. भवतां दाक्षिण्येन । Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] २३ पुप्फ-विमाणे चडिय अणुराएं परिमिय विज्जाहर-संघाएं कोसल-णयरि पराइय जावहिं दिण मणि गउ अत्थ-वणहो तावहिं जत्थहो पिययमेण णिव्वासिय तहो उववणहो मज्झे आवासिय ६७ कह वि विहाणु भाणु णहे उग्गउ अहि मुहु सज्जण-लोउ समागउ दिण्णइ तूरइ मंगलु घोसिउ पट्टणु णिरवसेसु परिओसिउ सीय पइट्ट णिविट्ठ वरासणे सासण-देवए णं जिण-सासणे ॥घत्ता॥ परमेसरि पढम-समागमे झत्ति णिहालिय हल हरेण सिय-पक्खहो दिवसे पहिल्लए चंद-लेह णं सायरेण ॥ ७२ कंतहि तणिय कंति पेक्खेप्पिणु पभणइ पोमणाहु विहसेप्पिणु "जइ वि कुलग्गयाउ णिरवज्जउ महिलउ होंति असुद्ध' णि लज्जउ दर दाविय-कडक्ख विक्खेवउ कुडिल-मइउ वडिअ-अवलेवउ बाहिर- घिउ गुण-परिहीणउ किह सय-खंड न जंति ति हीणउ णउ गणंति णिय-कुलु मइलंतउ ति हुअणे अयस-पडहु वज्जंतउ ७७ १. सुद्धु. पुष्पविमाने आरूढा अनुरागेण परिमिता विद्याधरसंघातेन कोशलनगरी प्रयाता यावत् दिनमणिः गतः अस्तमनि तावत् यस्मात् प्रियतमेन निर्वासिता तस्य उपवनस्य मध्ये आवासिता कथमपि विभातः भानुः नभसि उद्गतः अभिमुखं सज्जनलोकः समागतः दत्तानि तूराणि मंगलं घोषितं पट्टनं निरवशेषं परितोषितं सीता प्रविष्टा निवेशिता वरासने शासनदेवता इव जिनशासने ॥धत्ता॥ परमेश्वरी प्रथमसमागमे झटिति निभालिता हलधरेण ___सितपक्षस्य दिवसे प्रथमे चंद्रलेखा यथा सागरेण ॥ कांतायाः कांति प्रेक्ष्य प्रभणति पद्मनाथः विहस्य "यद्यपि कुलाग्रकाः निरवद्याः महिलाः भवन्ति अशुद्धाः निर्लज्जाः ईषद्दापितकटाक्षविक्षेपाः कुटिलमतयः वर्धितावलेपाः बहिर्धष्टा गुणपरिहीणाः कथं शतखंडं न यान्ति ताः हीनाः न खलु गणर्यान्त निजकुलं मलिनीभवत् त्रिभुवने अयशःपटहं वाद्यमानं Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [सीयदिव्वकहाणउ अंगु समोडेवि घिद्धिकारहो वयणु णिएति केम भत्तारहो" सीय ण भोय सइत्तण-गवें बलेवि पबोल्लिय गग्गर-सद "पुरिस णिहीण होति गुणवंत वि तियहे ण पत्तिज्जति मरंत वि ॥घत्ता।। खडु लक्कडु सलिलु वहंतिहे' पउणियहे कुलगायहे। रयणायरु खार इ देतउ तो वि ण थक्कइ णं णइहे ॥ ८२ साणु ण केण वि जण गणिज्जइ गंगा-णइहे तं जि पहाइज्जइ ससि साकलंकु तहि जि पह णिम्मल कालउ मेहु तहि जि तडि उजल उवलु' अपुज्जु ण केण विछिप्पइ तहि पडिम चंदणेण वि लिप्पड़ घुज्जइ पाउ पंकु जइ लग्गइ कमल-माल पुण जिणहो वलग्गइ दीवउ होइ साहावें कालउ वट्टि-सिहए मंडिज्जइ आलउ णर-णारिहिं एवउ अंतरु मरणे वि वेल्लि ण मेल्लइ तरु-वरु १. वहंतेअहे. २. मयहे. ३. उव्वलु. अंगं समावृत्य धिक् धिक कुवतः वदन पश्यन्ति कथं भर्तुः " सीता न भीता सतीत्वैगर्वेण वलित्वा उक्तवती गद्गदशब्देने "पुरुषाः निहीनाः भवन्ति गुणवन्तः अपि स्त्रोषु न प्रतियन्ति म्रियमाणाः अपि ॥त्ता।। तृणं काष्टं सलिलं वहन्तीभ्यः पौराणिकाभ्य कुलागताभ्यः रत्नाकरः क्षारं अपि ददन् तदपि न विरमति इव नदीभ्यः ।। श्वा न केन अपि जनेन गण्यते गंगा-नद्या स एव स्नाप्यते शशी सकलंकः तस्य एव प्रभा निर्मला श्यामः मेघः तस्य एव तडित् उज्ज्वला उपले: अपूज्यः न केन अपि स्पृश्यते तस्य प्रतिमा चंदनेन अपि लिप्यते ग्रस्यते पादः पंकः यदि लगति कमलमाला पुनः जिनं विलगति दोपकः भवति स्वभावेन श्यामः वर्तिशिखया शुभ्यते आलयं नरनार्योः एतावदन्तरं मरणे अपि वल्लो न मुञ्चति तरुवरं १. सतीत्वमहत्त्वेन । २ मूळ हाथप्रतमां पाठ मच्छरगव्वें । हतो; परन्तु हांसियामां लखेलो पाठ स्वीकार्यों छे. ३. पवित्राभिः चिरंतनाभिर्वा । ४. नद्यां। ५. पाषाणा:-पंकजाः। Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] एह पइ कवण बोल्ल पारंभिय सइ-वडाय मइ अज्जु समुब्भिय तुहु पेक्खंतउ अच्छु विसत्थउ' डहउ जलणु जइ डहिवि समत्थउ ॥घत्ता॥ किं किन्जइ अण्णइं दिव्वे जेण विसुज्झहो महु मणहो । जिह कणय-लोलि डाहुत्तर अच्छमि मज्झे हुआसणहो ॥ ९२ (१०) सियहे वयणु सुणेवि जणु हरिसिउ उच्चारउ रोमंचु परिसिउ महुर-णराहिव-जस लिह-लुहणे हरिसिउ लक्खणु सहु सत्तु हणे तिण्णि वि विप्फुरंत-मणि कुंडल हरिसिय जणय-कणय-भा मंडल हरिसिय लवणंकुस दु-स्सील वि हरिसिय वज्ज-जंघु णल णीलु वि तार-तरंग-रंभ-विस सेण वि दहि मुह-कुमुय-महिंद-सु-सेणु वि ९७ गवय-गवक्ख-संख-सक्कंदणुचंदारासि चंदोयर-णंदणु लंकाहिय-सुग्गीवंगंगय जंबव-पवणंजय-पवणंगय १. वीसत्थउ। एषः त्वया कः शब्दः प्रारब्धः सतीपताको मया अद्य समुद्भाविता त्वं प्रेक्षमाणः आस्स्व विश्वस्तः दहतु ज्वलनः यदि दग्धुं समर्थः ॥धत्ता।। किं क्रियते अन्येन दिव्येन येन विशुद्धस्य मम मनसः यथा कनकलोष्ठिका दाहोत्तरं भवामि मध्ये हुताशनस्य" ॥ (१०) सीतायाः वचनं श्रुत्वा उच्चत्तरः रोमाञ्चः प्रदर्शितः मधुरनराधिपयश:लेखामार्जनेन हर्षितः लक्ष्मणः सह शत्रुध्नेन त्रयः अपि विस्फुरन्मणिकुण्डलाः हर्षिताः जनक-कनक-भामंडलाः हर्षितौ लवणांकुशौ दुःशीलौ अपि हर्षिताः वज्रजंघः नलः नीलः अपि तारतरंगरंभविश्वसेनाः अपि दधिमुख-कुमुद-महेन्द्र-सुषेणाः अपि गवय-गवाक्ष-शंख-शक्रार्दनाः चंद्ररश्मिः चंद्रोदरनंदनः लंकाधिप-सुग्रीव-अंग-अंगदाः जाम्बवत्-पवनंजय-पवनांगजाः १. सतीपताका । २. विस्रब्धः । ३. उर्ध्वाकारः । Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६ [सीयदिव्वकहाणउ लोय वाल गिरि णइउ समुद्द वि विस हरिंद अमरिंद गरिंद वि ॥घत्ता॥ तइ.लोकह भंतरि' वत्तिउ सयल वि हरिसियउ पर हिअवए कलुसु वहंतउ रहुवइ एक्कु ण हरिसिअउ ॥ १०२ सीअए वुत्त जं जि अवलेवें तं जि समत्थिउ पुणु बल एवं कोक्किय खणय खणाविय खोणी हत्थःसयाइं तिष्णि चउ-कोणी पूरिय खड-लक्कड-विच्छड्डेहि कालागरु-चंदण सिरि खंडहिं देवदारु कप्पूर-सहासेहिं कंचण-मंच रइय चउ-पासेहि चडिय-राय आया गिव्वाण वि इंद-चंद-रवि-हरि-बंभाण वि १०७ इंधण-पुंजे चडिय परमेसरि णं संठिय वय-सीलह उप्परि "अहो देवहो महु तणउ सइत्तणु जोइज्जहुरहु-वइ-दुहृत्तणु अहो वइसा णर तुहु मि डहिज्जहि जइ विरुआरी तो म खमिज्जहि" १. भंतरि । २. वत्तियउ। ३. जोएज्जहु । एनी पछीनी पं. ११०मां डहेज्जहि; खमेज्जहि. लोकपालाः गिरयः नद्यः समुद्रः अपि विषधरेन्द्राः अमरेन्द्राः नरेन्द्राः अपि ॥त्ता।। त्रिलोकस्याभ्यंतरे वृत्तं सकलं अपि हर्षितं परं हृदये कलुशं वहन् रघुपतिः एकः न हर्षितः ॥ (११) सीतया यदेव उक्तं अवलेपेने तदेव समर्थितं पुन: बलदेवेन आहूताः खनकाः खनिता क्षोगी हस्तशतानि त्रीणि चतुष्कोणा पूरिता तृणकाष्टसमूहै: कालागुरुचंदनश्रीखंडैः देवदारुकर्पूरसहस्त्रैः काञ्चनमञ्चः रचितः चतुष्पार्वैः गृहीतरागाः आयाताः गिर्वाणाः अपि इन्द्रचन्द्ररविहरिब्रह्माणः अपि इन्धनपुञ्ज आरूढा परमेश्वरी यथा संस्थिता व्रतशीलस्योपरि " अहो देवाः मम सतीत्वं पश्यत रघुपतिदुष्टत्वं अहो वैश्वानर त्वम् अपि दहेः यदि विरूपकारिणी त्वं मा क्षाम्येः " १. गर्वेण। २. काष्ट समूहैः । Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] ॥घत्ता॥ किउ कलयलु दिण्णु हुआसणु महि जि' जाय सम जालडिय सो णाहि को वि तहि अवसरे जेण ण मुक्की धाहडिय॥ ११२ (१२) खड लकड-विच्छड्ड पलित्तइ धाहाविउ कोसलइ सुमित्तइ धाहाविउ सोिित्त-कुमार " अज्जु माय मुअ महु अविआरें" धाहाविउ लंकालंकारेहि धाहाविउ हणु-वंत-कुमारेहि धाहाविउ सुग्गीव-रिंदहिं धाहाविउ णल-णील-महिंदहिं ११७ धाहाविउ सव्वहिं सामंतिहिं रामहो धिद्धिक्कार करतेहिं धाहाविउ वइदेहि-कएहिं वि लंका सुन्दरि-तियडा एविहि उद्ध-मुहेण पवड्ढिय-सोएं धाहाविउ णायरिएं लोएं ॥घत्ता॥ "णिट्ठरु दुरासु माया-रउ दुःक्विय-गारउ कूर-मइ णउ जाणमि सीअ वहेविणु रामु लहेसइ कवण गइ" ॥ १२२ १. जे। २. विछड्ड। ३. पलित्तए...कोसलए सुमित्तए। ४. अविचारे । ॥घत्ता।। कृतः कलकलः दत्तः हुताशनः महती एव जाता समं ज्वाला सः नास्ति कः अपि तस्मिन् अवसरे येन न मुक्तः आर्तनादः ॥ (१२) तृणकाष्ठसमूहे प्रदीप्ते आर्तनादः कृतः कौशल्यया सुमित्रया आर्तनादः कृतः सौमित्रिकुमारेण "अद्य माता मृता मम अविचारेण" आर्तनादः कृतः भामंडलजनकाभ्यां आर्तनादः कृतः लवणांकुशतनयाभ्यां आर्तनादः कृतः लंकालंकारेण आर्तनादः कृतः हनुमत्कुमारेण आर्तनादः कृतः सुग्रोवनरेन्द्रः आर्तनादः कृतः नलनीलमहेन्द्रैः आर्तनादः कृतः सर्वैः सामन्तैः राघवस्य धिक्-धिक्-कारं कुर्वद्भिः आर्तनादः कृतः 'वैदेहोकृते अपि लंकासुंदरीत्रिजटादेवीभ्यां ऊर्ध्वमुखेन प्रवर्धितशोकेन आर्तनादः कृतः नागरिकेन लोकेन ॥घत्ता॥ “निष्ठुरः दुराश: मयारतः दुष्कृतकरः क्रूरमतिः न खलु जानामि सीतां वधित्वा रामः लप्स्यते कां गतिं" ॥ १. सीतानिमित्ते. Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सीयदिव्वकहाणउ (१३) थिउ एत्यंतरे कारणु भारिउ णिरवसेसु जगु धूमधारिउ । जालउ विप्फुरंति तहि अबसरे णं विज्जुलउ जलण-जालंतरे सीय सइत्तणेण णउ कंपिय “दुक्कु दुक्कु लिहि" एम पजंपिय "एहु देहु गुण-गहण-णिवासणु डहि' डहि जइ सञ्चउ जिहुआसणु डहि डहि जइ जिण-सासणु छड्डिउडहि डहि जइणिय-गोत्तु ण मंडिउ डहि डहि जइ हउं केण विऊणी डहि डहि जइ चारित्त-विहूणी डहि डहि जइ भत्तारहो दोही डहि डहि जइ पर लोय-विरोही उहि डहि सयल-भुवण-संतावणु जइ मइ मणिण वि इच्छिउ रावणु" तं एवड्ड धीरु को पावइ सिहि सीयलउ होइ ण पहावइ पित्ता॥ तहि अवसरि मणि परितुद्वउ कहइ पुरंदरु सुर-यणहो "सिहि संकइ डहिवि ण सक्कइ पेक्खु पहाउ सइत्तणहो"॥ १३३ १. मूळ हाथप्रतमां आ तेम ज नीचेनी केटलीक पंक्तिमा डहे अने डहि विकल्पे वापया छे. डहे ए पाछळनो उच्चारविकारात्मक फेरफार छे अने तेनो डहि उच्चार तो करवो ज पडे छे; एटले में सरखो डहि ज स्वीकारी डहे ने बहिष्कृत करेलो छे. २ जे। स्थितं अत्रान्तरे कारणं भारि निरवशेषं जगत् धूमांधकारितं ज्वालाः विस्फुरन्ति तस्मिन्नवसरे यथा विद्युतः ज्वलनज्वालान्तरे सीता सतीत्वेन न कंपिता "ढौकस्व ढौकस्व शिखिन्"एवं उक्तवती "एषः देहः गुणगहननिवासनं दह दह यदि सत्यः एव हुताशनः दह दह यदि जिनशासनं त्यक्तं दह दह यदि निजगोत्रं न मंडितं दह दह यदि अहं केनापि ऊना दह दह यदि चारित्रविहीना दह दह यदि भत्रै द्रोहिनी दह दह यदि परलोकविरोधिनी दह दह सकलभुवनसंतापनः यदि मया मनसा अपि इच्छितः रावणः" तद् एतावद् धैर्य कः प्राप्नोति शिखी शीतलः भवति न प्रभवति ॥घत्ता॥ तस्मिन् अवसरे मनसि परितुष्टः कथयति पुरंदरः सुरजनेभ्यः " शिखी शंकते दग्धुं न शक्नोति प्रेक्ष्वध्वं प्रभावं सतोत्वस्य ।। Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु ] ताम तरुण-तामरसिहि छण्णउ सो जि जलणु सर-वरु उप्पण्णउ सारस-हंस-कोंच-कारंडिहि गुमगुमंत-छप्पय विच्छंडिहि जलु अस्थक्कु पुणु कहि मि ण माइउ मंच-सयई रेल्लंतु पधाइउ णासइ सव्वु लोउ सहु रामें सलिलु पवंदिउ सीयहें जामें अण्णु वि सहस पत्तु उप्पण्णउ देवहिं' आसणु णं अवइण्णउ १३८ तासु मज्झि मणि-कणय-रवण्णउ दिव्वासणु समुच्चु उप्पण्णउ तहि जाणय जण-साहुक्कारिय सइ सुर वर-वहूहि बइसारिय तहि वेलहिं सोहइ परमेसरि णं पञ्चक्ख लच्छि कमलोवरि आहय दुंदुहि सुर-वइ-सत्थे मेल्लिउ कुसुम-वासु सइ हत्थे ॥ घत्ता ॥ तहिं 'जय जय-कारु पवुडउ सुहावयणावण्णण-भरिउ णाणा विह-तूर-महारउ जाणइ तिह जसु वित्थरिउ ॥ १४४ १. देवए। २ जाणइ । ३. घत्ता आखीमां फेरफार करेवो पड्यो छे; कारण के मात्राओ तुटे छ: मूळमां १२४१४ (पं. १) तेम १४४१२ (पं.२ ) छे. सलंग पत्ता जोतां, १४४१३नी मालम पडे छे; एटले ते प्रमाणे मारे फेरफार करवो पडयो छे. मूळ जयजयकारु पवुड्ढउ सुहवयणावणणभरियउ। णाणाविहतुरमहारउ जाणइ जसु वित्थरिअउ ॥ (१४) तावत् तरुणतामरसैः' छन्नं स एव ज्वलनः सरोवरं उत्पन्न सारसहंसक्रौञ्चकारण्डैः गुञ्जत्पट्पदसमूहैः जलं अस्ताचं पुनः कुत्रापि न मायितं मंचशतानि प्लावयत् प्रधावितं विद्रवति सकलः लोकः सह रामेण सलिलं प्रवंदितं सीतायाः नाम्ना अन्यद् अपि सहस्रपत्रं उत्पन्नं देवैः आसनं यथा अवतारितं तस्य मध्ये मणिकनकरम्यं दिव्यासनं उच्चं उत्पन्न तत्र जानपदजनसाधूकृता सती सुरवरवधूभिः उपवेशिता तस्यां वेलायां शोभते परमेश्वरी यथा प्रत्यक्षा लक्ष्मी कमलस्य उपरि आहता दुंदुभिः सुरवरसार्थेन मुक्तः कुसुमवर्षः स्वयंहस्तेन ॥त्ता॥ तत्र जयजयकारः प्रवृद्धः शुभवचनावर्णनभरितः __ नानाविधतूरमहारवः यथा तस्याः यशः विस्तृतं ॥ १. कमलैः । Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ सीयदिव्वकहाणउ तो एत्थंतरे निरु दीहाउस सीयहे पासु दुक्क लवर्णकुस जिह ते तिह बिण्णि वि हरि बल-हर तिह भा मंडल णव-वेलंधर तिह सुग्गीव णील मिय-सायर' तिह सुसेण विससेण जसायर तिह साविहीसण कुमयंगंगय जणय-कणय-मारुइ-पवणंजय तिह गय गवय गवक्ख विराहि य वज्ज जंघु सत्तु हणु गुणाहिय १४९ तिह महिंदि माहिंद सदहिमुह तार तरंग रंभ पहु दुम्मह तिह मह-कंत वसंत रवि-प्पह चंद-मरीचि हंस-प्पहु दिढ-रह चंदरासि संताण णरेसर रयण-केसि पीयं कर खेयर तिह जंबव जंबवि इंदाउह मंद-हत्थि ससि पह ताराउह तिह ससि-वद्धण सेय-समुद्द वि रइ-वद्धण णंदण कुंदेंदु वि लच्छि भूय कोलाहल सरल वि गहुस-कियंत-वत्त-बल-तरल वि ॥घत्ता॥ अवर वि एक्केक-पहाणा उर-रोमंच-समुच्छलिय ___ अहिसेय-समए णं लच्छिहे सयल दिसा-गयंद मिलिय ॥ १५७ २. मइसागर । २. मे प्रतमां मइ वांच्यु हतुं; पण इह घणी फेरो सरखा थइ जाय छे; एटले सुधारो. ३. भुत्त । तावत् अत्रान्तरे खलु दीर्घायुः सीतायाः पाश्चं ढौकितौ लवणांकुशौ यथा ते तथा द्वौ अपि हरिः बलधरः तथा भामंडलः नववेलंधरः तथा सुग्रीवः नीलः मितसागरः तथा सुषेणः विश्वसेनः यशःआकरः तथा सविभीषणौ कुमुदांगदौ जनककनकमारुतिपवनंजयाः तथा गजः गवयः गवाक्षः विराधिः च वज्रजंघः शत्रुघ्नः गुणाधिकः तथा महा-इन्द्रियः महेन्द्रः सदधिमुखः तारः तरंगः रंभः प्रभुः द्रुमाणां तथा महाकान्तः वसंतः रविप्रभः चंद्रमरीचिः हंसप्रभः दृढरथः चंद्ररश्मिः संतानः नरेश्वरः रत्नकेशी प्रोतिंकरः खेचरः तथा जाम्बवान् जाम्बवतिः इन्द्रायुधः मंदहस्ती शशिप्रभः तारायुधः तथा शशिवर्धनः श्वेतसमुद्रः अपि रतिवर्धनः नंदनः कुन्देन्दुः अपि लक्ष्यीभूतः कोलाहलः सरलः अपि नहूषकृतांतवृत्रबलतरलः अपि ॥घत्ता॥ अपरे अपि एकैकेभ्यः प्रधानाः समुन्नतउरःरोमाञ्चाः अभिषेकसमये इव लक्ष्म्याः सकलाः दिशागजेन्द्राः मीलिताः ॥ Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु ] ३१ ( १६ ) तो बोलिज्जइ राहव चंदें " णिक्कारणें खल-1 - पिसुणहं छंदें जइ अवियों मइ अवमाणिय अण्णु वि दुहु एवड्डु पराणिय तं परमेसरि महु मरुसिज्जहि एक वार अवराहु खमिज्जहि आउ जाहु घर-वासु णिहालहि सयलु वि णिय परियणु परिपालहि पुष्क- विमाणि चडहि सुर-सुंदरि [ ]१९२ उववण-णइउ-मह·द्दह- सर वरे खेत्तर कप्प· दुम्म' - कुल · गिरिवरे णंदण-वण-काणणइ महायर जण वय' वेहि' दीव रयणायर ॥घत्ता ॥ मणि धरहि एउ महु वुत्तउ मच्छरु सयलु वि परिहरहि सइ जिह सुरवइ- संसग्र्गे णिःस्सावण्णु रज्जु करहि " ॥ १९६ ( १७ ) तं णिसुणेवि परिवत्त - सोहिए एव परंपिउ पुणु वइदेहिए १. दुम । २. जणवइ । ३. वेई । ४. संसग्गीए । मरीचि प्रत लखनारना मनमां संस्कृत रमतुं होवुं जोइए; दा. त. पं. १५१ सं. = अप० मरिह, पं. १६२ सं. पुष्प = अप० पुप्फ. ( १६ ) तावत् ब्रूयते राघवचन्द्रेण “ निष्कारणेन खलपिशुनानां चंदेन यद्यपि विकल्पेन मया अवमानिता अन्यत् अपि एतावत् दुःखं परानीतं तद् परमेश्वरि मां मर्षयेः एकवारं अपराधं क्षाम्येः आयाहि गच्छ गृहवासं निभालय सकलं अपि निजपरिजनं परिपालय पुष्पविमाने आरोह सुरसुंदरि [ } उपवन-नदी- महाहृद-सरोवराणि क्षेत्राणि कल्पद्रुमकुलगिरिवरान् नंदनवनकाननानि महाकरान् जनपदान् प्रेक्षस्व द्वीपान् रत्नाकरं ||घत्ता||| मनसि धर एतद् मम उक्तं मात्सर्यं सकलं अपि परिहर शचिः इव सुरपतिसंसर्गेण निःसापन्यं राज्यं कुरु ॥ ( १७ ) तद् निश्रुत्य परित्यक्तस्नेहया एवं उक्तं पुनः वैदेह्याः १. समस्तं . Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ [ सीयदिव्व कहाण "अहो राहव में जाहि विसायहो ण वि तउ दोसु ण जण संघायहो भव भव सरहिं विणासिय धम्महो सबु दोसु इउ दु-क्किय-कम्महो को सक्कर णासहं पुराइउ जं अणुलग्गउ जीवहु आइउ बल मई बहु - विह- देस णिउत्ती तुज्झु पसाएं वसु-मइ भुत्ती १७१ बहु-वारउ तंबोलु समाणिउ इह- लोइउ सुहु सयलु वि माणिउ बहु- वारउ पडिय बहु· भोग्गी पर सहु पुप्फ-विमाणि वलग्गी बहु-वारउ भवणंतरे हिंडिउ अप्पर बहु-मंडणेहिं पमंडि महि तह करेमि पुणु रहु-वर जिहण होमि पडिवारें 'तिय मइ ॥घत्ता ॥ महु विसय- सुहेहि पज्जत्तउ छिंदम जाइ-जरा-मरणु णिविण्णी भव-संसारहो लेमि अज्जु धुअ तव चरणु" ॥ १७७ ( १८ ) एम ताई एउ वयणु चवेष्पिणु दाहिण - करेण समुप्पाडे प्पिणु णिय- सिर-चिरति. लोयाणंदही पुरउ पधल्लिय राहव - चंदहो १. पडिवारो "अहो राघव मा गच्छ विषादं नापि तव दोषः न जनसंघातस्य भवभवशतैः विनाशितधर्मस्य सर्वः दोषः अयं दुष्कृतकर्मणः कः शक्नोति नाशयितुं पुराकृतं यद् अनुलग्नं जीवस्य आयातं बले मया बहुविधदेशनियुक्ता तव प्रसादेन वसुमती भुक्ता बहुवारं ताम्बूलं भुक्तं इह - छौकिकं सुखं सकलं अपि भुक्तं बहुवारं प्रकटितबहुभोग्या त्वया सह पुष्प विमाने विलग्ना बहुवारं भवनान्तरे हिंडितं आत्मा बहुमंडनैः प्रमंडितः एवं तथा करोमि पुनः रघुपते, यथा न भवामि प्रतिवारं स्त्रीः अहं' ॥धत्ता॥ मम विषयसुखैः पर्याप्त छिन जातिजरामरणं निर्विण्णा भवसंसारात् लामि अद्य ध्रुवं तपः चरणं ( १८ ) एवं एतद्वचनं उक्त्वा दक्षिणकरेण समुत्पाटय निजशिरः चिकुरः त्रिलोकानन्दस्य पुरः प्रक्षिप्त: रोघवचन्द्रस्य १. हे, रामचंद्र । २. पुनः स्त्री न भवामि । ३. पूर्यतां । ܕܕ ll Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु ] ૮૨ केस णिएवि सो वि मुच्छं गउ. । पडिउ णाइ तरु॰वरु मरु•आहउ महिहि णिसण्णु सुठु णिच्चेयणु जाव कह वि किर होइ सन्चयणु ताव नियंतहं जिण पय- सेवहं विज्जा हर-भू. गोयर - देवहं सीए सील तरंड थाइवि लइअ दिक्ख रिसि-आसमि जाइवि पासि सच्च भूसण - मुणि- णाहहो णि-म्मल - केवल णाण-सहावहो जाय तुरिउ तव - भूसिअ - विग्गहु मुक्क - सव्व - परवत्थु - परिग्गहु ॥ धत्ता ॥ एत्थंतरि बलु उम्मुच्छिउ' जो रहु-कुल- आयास·रवि तं आणु जाव णिहालइ जणय-तणय तहि ताव ण वि ॥ १८७ ( १९ ) पुणु सव्वाउ दिसाउ णियंतउ उट्ठिउ ' केत्तहे सीय' भणतउ केण वि स विणण तो सीसइ " पवरुज्जाणु एउ जं दीसइ इह णिय सुरिहिं सुसीलालंकिय मुणि- पुं· गमहो पासु दिक्खंकिय तं णिसुणेवि रहु-णंदणु कुद्धउ जुअ-खए णाइ कियंतु विरुद्धउ रत्त - णेण्णु भउहा· भंगुर - मुहु गउ तहो उज्जाणहो सवड • मुहु १९२ १. उम्मुच्छियउ । केशं दृष्ट्वा सः अपि मूच्छीं गतः पतितः यथा तरुवरः मरुदाहतः मां निषण्णः नितरां निश्चेतनः यावत् कथमपि किल भवति सचेतनः तावत् पश्यतां जिनपदसेवकानां विद्याधर भूगोचरदेवानाम् सीतया शीलतरंड स्थित्वा लाता दीक्षा ऋषिआश्रमे गत्वा पार्श्वे सत्यभूषणमुनिनाथस्य निर्मलकेवलज्ञानस्वभावस्य जाता त्वरितं तपःभूषितविग्रहा मुक्तसर्वपरवस्तुपरिग्रहा ॥घत्ता ॥ अत्रान्तरे बलः उन्मूर्च्छितः यः रघुकुलाकाशरविः तद् आसनं यावत् निभालयति जनकतनया तत्र तावत् नापि ॥ ( १९ ) पुनः सर्वाः दिशाः पश्यन् उत्थितः ' कुत्र सीता ' भणन् केनापि सविनयेन ततः शिष्यते " प्रवरोद्यानं एतद् यद् दृश्यते इह नीता सुरैः सुशीलालंकृता मुनिपुंगवस्य पार्श्वे दीक्षांकिता " तद् निश्रुत्य रघुनंदनः क्रुद्धः युगक्षये यथा कृतांतः विरुद्धः रक्तनयनः भ्रभंगुरमुखः गतः तस्य उद्यानस्य सम्मुखं ३ ३३ " Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - [सीयदिव्वकहाणउ गइ आरूढउ मच्छर-भरियउ बहु-विज्जा-हरेहिं परियरिउ उब्भिय-ससि धवलायव वारणु दाहिण करि कय-सीर विपहरेणु' "जं किउ चिरु मायइ सुग्गीवहो जं लक्खणिण समरि दहगीवहो तं करेमि वड़िय-अवलेवहं वासव-पमुह असेसहं देवहं" सहु णिय-भिच्चिहिं एव चवंतउ तं महिंद-गंदण वणु पसउ पेक्खिवि णाणुप्पण्णु मुणिदहो वियलिउ मच्छर सयलु णरिक्हो ॥घत्ता॥ ओयरेवि महा गय-खंधहो पायहिण देवि स गर वरेण कर मउलि करेवि मुणि वंदिउ णय सिरेण सिरि-हल-हरेण ॥ २०० (२०) जिह ते तिह बंदिउ साणंदिहि लक्खण-पमुह-असेस णरिंदेहिं दिट्ठ सीय तहि राहव-चंदे गं ति हुयण-सिरि परमाणंदें ससि-धवलांबर जुवलालंकिय महि णिविट्ठ छुडु छुडु दिक्खंकिय पुणु णिय जस-भुवण त्तय-धवलें सिर-सिहरोवरि किय-कर-कमले १. विप्पहरणु । २. माया । ३ सिहरोवल । गजे आरूढः मत्सरभृतः बहुविद्याधरैः परिवृतः ऊर्वीकृतशशिधवलातपवारणः दक्षिणकरे कृतसीरविप्रहरणः " यत् कृतं चिरं माययां सुग्रीवस्य यत् लक्ष्मणेन समरे दशग्रीवस्य तत् करोमि वर्धितावलेपानां वासवप्रमुखाणां अशेषाणां देवानां" सह निजभृत्यैः एवं वदन् सः महेन्द्रनंदनवन प्राप्तः प्रेक्ष्य ज्ञानं उत्पन्नं मुनीन्द्र विगलितः मत्सरः संकलः नरेन्द्रस्य । ॥घत्ता।। अवतीर्य महागजस्कन्धात् प्रदक्षिणां दत्त्वा सः नरवरेण करौ मौली कृत्वा मुनिः वंदितः नतंशिरसी श्रीहलंधरैण || (२०) यथा तेन तथा वंदितः सानन्दैः लक्ष्मणप्रमुखाशेषनरेन्द्र दृष्टा सीता तत्र राधवचन्द्रेण यथा त्रिभुवनश्रीः परमानन्दैन शशिधवलांबरयुगलालंकृता मह्यां निविष्टा बाढं बाढं दीक्षांकिता पुनः निजयशःभुवनत्रयधवलेन शिरःशिखरोपरि कृतकरकमलेन Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] पुच्छिउ बलिण "अणंग-वियारा परम-धम्मु वज्जरहि भडारा" २०५ तेण वि कहिउ सव्वु संखेवें भरहेसरहु जेव पुर एवं तव-चरित्त'-वर-दंसण-णाणइं पंच वि गइउ जीव-गुण-थाणइं खम-दम-धम्माहम्म-पुराणइं जगजीवाउच्छे-पमाणइं समय-पल्ल-रयणायर-पुवई बंध-मोक्खु लेसाउ अणुव्वा ॥घत्ता॥ आयइं अवरइं वि असेसई कहियइ मुणि-वरि सारइण' परमागमि जह उद्दिट्टइ आसि सयंभु-भडारइण ॥ .. २११ १. चरितु । २. च्छेउ। ३.सारएण...भडारएण । आ संधि-परिच्छेदने अंते नीचे प्रमाणे पुष्पिका आपी छे. इयं पउमचरियसेसे सयंभु-एवस्स कह वि उव्वरिए तिहुवण-सयंभु-रइयं समाणियं सीय-दिव्व -पन्यमिण ॥ वंदई-आसिय तिहुअण-सयंभु-कई-कहिय-पोम-चरिअस्स सेसे भुवण-पगासे तेआसीमो इमो सग्गों ॥ कइ-रायस्स विजय-सेसियस्स वित्यारिओ जसो भुवणे तिहुअण-सयभुणा पोम-चरिय-सेसेग णिस्सेसो ॥ ५. दीव। ६.वित्थारिउ । पृष्टः बलेन " अनंगविदारक, परमधर्म वद भट्टारक" तेन अपि कथितः सर्वः संक्षेपेण भरतेश्वराय यथा पुरोदेवेन तपःचारित्रवरदर्शनज्ञानानि पंच अपि गतयः जीवगुणस्थानानि क्षमादमधर्माधर्मपुराणानि जगज्जीवायुःछेदप्रमाणानि समयपल्यरत्नाकरपूर्वाणि बंधमोक्षौ लेश्याः अणुव्रतानि आत्ता॥ एतानि अवराणि अपि अशेषाणि कथितानि मुनिवरेण सारकेण परमागमे यथा उद्दिष्टानि आसीत् स्वयंभूभट्टारकेण ॥ पुष्पिकानी संस्कृताया, इति पद्मचरितशेषे स्वयंभूदेवस्य कथमपि उबृत्ते त्रिभुवनस्वयंभूरचित समाप्त सीतादिव्यपर्व इदं ॥ 'वन्दइ-आश्रितत्रिभुवनयमूकविकथितपचरितस्य' शेषे भुवन-प्रकाशे ध्यशीतितमः अय' सर्गः ॥ . .. कविराजस्य विजय-शेषितस्य विस्तारितं यशः भुवने त्रिभुवनस्वयंभुवा पद्मचरितशेषेण निःशेष ॥ Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयमुद्धरणम् ॥ [चउमुहु सयंभु । ] ॥ विराड-नयरि पंडवहं अण्णाय-वासु ॥ (१) हिंडिवि वण-गहणे पडिवक्ख-मडप्फर-सारहो जण्णसेण-सहिय गय पंडव णयरु विराडहो ॥ तो भणइ जुहिडिलु भायरहो सब्भाव'•णेह-गुण-सायरहो "बहु-दुक्ख किलेसुप्पायणई वणि गमियइं बारह हायणइं अज्ज वि भमरेहि व कमल-सरे अच्छेवउ वरिसु विराड-घरे ५ अच्चंत महंत चिंत तहि मि पहु-सेव सुदुःकर सव्वह मि आयइं लहुयाई णिकारणई णिट्ठीवण-पाय पसारणइं कर-मोडण-जिभा मेलणइं कह कहण-परासण पेल्लणइं अंतेउर-रूव-णिहालणइं उवहसियइं हत्थुप्फालणइं १. सन्भाय । २. णकारणइं । [चतुर्मुखः स्वयंभूः ] ॥ विराटनगरे पाण्डवानामज्ञातवासः ॥ हिंडित्वा गहनवने प्रतिपक्षगर्वदलनस्य याज्ञसेनीसहिताः गताः पाण्डवा नगरं विराटस्य ॥ ततो भणति युधिष्ठिरो भ्रातॄन् सद्भावस्नेहगुणसागरान् " बहुदुःखक्लेशोत्पादनानि वने गमितानि द्वादश हायनानि अद्यापि भ्रमरैरिव कमलसरसि आसितव्यं वर्ष विराटगृहे अत्यंता महती चिंता तस्मिन्नपि प्रभुसेवा सुदुष्करा सर्वेषामपि आयान्ति लघुकानि निकारणानि निष्ठीवनपादप्रसारणानि करमोटनजिह्वामीलनानि कथाकथनपराशनपीडनानि अंतःपुररूपनिभालनानि उपहसितानि हस्तास्फालनानि Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चहुमुहु सयंभु ] आयइं सव्व वंचेवाइं इंदियां पंच खंचवाई ॥घता | वड्डी चिंत महु जो जोगि गणहो वि अगम्मु कि तुम्हारिसिहि सो सेवउ सेवा-धम्मु ॥ ( २ ) १५ जं जाणहुं तं चितवहु लहु नियणिय - विष्णाण कहहु महु को कवणु करेसइ रूउ तहिं अच्छेसहुं पुरे पछष्ण जहिं हउं होमि पुरोहिउ सासणिउ णामेणं कंकु अग्गासणिउ जूवारिउ जाणमि जून - विहि तिह रमणि तासु जिह देइ दिहि " तो बग - हिडंब - जम - गोयरहो वयणुग्गय वाय विओयरहो "भुक्खालउ भोयण - बुज्झणउ जो जुज्झइ तई सहु जुज्झणउ बल्लव - अहिहाणु अणालसिउ दव्वी हरु होमि महाणसिउ ॥ धत्ता ॥ अज्जुणु विण्णवर मणहरउ लडह - लायण्णउ हउं णट्टायरिंउ णच्चावमि णरवइ - कण्णउ ॥ "" << आयान्ति सर्वाणि वंचितव्यानि इंद्रियाणि पंच कर्षितव्यानि | घत्ता । महती चिंता मम यः योगिगणस्याप्यगम्यः कथं युष्मादृशैः स सेव्यः सेवाधर्मः ॥ ( २ ) यज्जानीथ तचिंतयत लघु निजनिजविज्ञानानि कथयत मह्यम् कः किं करिष्यति रूपं तत्र आसिष्यामहे पुरे प्रच्छन्ना यत्र अहं भवामि पुरोहितः शासनिको नाम्ना कङ्कोऽग्रासनिकः द्यूतकारो जानामि द्यूतविधिं तथा रमणे तस्य यथा दीयते धृतिः ततो यमगोचरीकृतबकहिडंबस्य वदनोद्गता वाग् वृकोदरस्य " बुभुक्षितो भोजनबोधको यः युध्यते तेन सह योधनशीलः बल्लवाभिधानोऽनलसो दर्वीधरो भवामि महानसिकः " ॥घत्ता अर्जुनो विज्ञापयति मनोहरो लटभलावण्यः 66 अहं नाट्याचार्यो नर्तयामि नरपतिकन्यकाः ॥ ३७ १० 99 २० Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पंडवहं अण्णास्वानु (३) णामेण बिहंदल दुल्ललिय परिहेसमि कंबल कंचुलिय करि वलयइं कण्णिहिं कुंडलई णं चंद दिवायर-मंडलइं गुंथेवइ वेणि पई हरिय जा कसण-भुवंगिहि अणुहरिय णच्चेवइ सई णट्टायरिउ अवरेहि मि गुणहिं अलंकरिउ २५ गाएवइ किंणरु किं पुरिसु वाएवई को वि ण मई सरिसु" तहि अवसरि जमल-जेट्ठ चवइ “हउं होमि महंतु महास-वइ जे णिरु विसम-सील दप्पुर्धर ते वि करेमि तुरंगम पद्धर ॥घत्ता॥ पभणइ जोइसिउ "हउं गोउलु णाह णिहालमि गो-रस-रिद्धि करु धण पालु होवि धणु पालमि" ॥ ३० (४) ता मालइ-माला-ललिय-भुय स-भावे पभणइ दुमय-सुय "जाणमि विण्णाणु अणुत्तमउं सयलिंधि भडारा होमि हडं १. गुंथेवी । २. गाएवए । ३. वाएवए । ४. पध्धर । ५. पभणई । नाम्ना बृहन्नला दुर्ललिता परिधास्यामि कंबलं कंचुलिकाम् करे वलयानि कर्णयोः कुंडलानि यथा चंद्रदिवाकरमंडलानि प्रथितव्ये वेण्याः प्रतिगृहिका या [ वेणी ] कृष्णभुजंगैरनुहृता नर्तितव्ये स्वयं नृत्याचार्यः अपरैः अपि गुणैः अलंकृतः गातव्ये किन्नरः किंपुरुषः वादितव्ये कोऽपि न मम सदृशः " तस्मिन्नवसरे यमलज्येष्ठो वदति “ अहं भवामि महान्महाश्वपतिः ये खलु विषमशीला दर्पोद्धरास्तानपि करोमि तुरंगमान् सरलान् आत्ता॥ प्रभणति ज्योतिषी अहं गोकुलं नाथ निभालयामि गोरसऋद्धिकरः धनपालः भूत्वा धनं पालयामि ॥ (४) ततः मालतीमालाललितभुजा सद्भावेन प्रभणति द्रुपदसुता " जानामि विज्ञानं अनुत्तमं सैरन्ध्री भट्टारक भवामि अहम् Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समुहु सयंभु] किंकरि कल कोइल-वाणियहे कमलच्छहे मच्छहो राणियहे " तो एव प्ररोष्परु संगयई पुर-वर-सीमंतर ववगयइं समि दोसइ ताम सकोडरिय जिग्गय-बहु-दल-बहुसंगरिय ३५ सग्गह स-भूव स.भुवंगमिय स-मडय स-सूल स-विहंगमिय तहि' जंबुय-निवह-भयंकरिय समसाण जमेण वि परिहरिय ढुहम दणु देह-वियारणई तर्हि णउले णिहियइं पहरणइं ॥घत्ता॥ पट्टणु पइसरिय' ज धवल घरालंकरियर केण वि कारणेणं णं सग्ग-खंड ओयरियउ॥ जो वइयरु पुव्वालोइयउ सो दउवारियहो णिवेइयउ तेण वि जाणाविउ राणाहो तहो मच्छहो मच्छ-पहाणाहो "अच्छति बारि के वि कप्पडिय णं सग्गहो पंच इंद पडिय उज्जाल-झुलुक्लिय-खंडवहं तहिं इक्कु पुरोहिउ पंडवह १ कहिं । २ पइसारिय । ३ उजाणाविउ । किंकरी कलकोकिलवाण्याः कमलाक्ष्याः मत्स्यस्य राश्याः " ततः एवं परस्परं संगताः पुरवरसीमान्तरं व्यपगताः शमी दृश्यते तावत्सकोटरा निर्गतबहुदलबहुफलिका सग्रहा सभूता सभुजंगा समृतका सशूला सविहंगमा तत्र जंबूकनिवहभयंकरं श्मशानं यमेनापि परिहृतं दुर्दमदनु[ज]देहविदारणानि तत्र नकुलेन निहितानि प्रहरणानि ॥घत्ता।। पट्टनं प्रविष्टाः यद्धवलगृहालंकृतं केनापि कारणेन यथा स्वर्गखंडोऽवतीर्णः । यो व्यतिकरः पूर्वालोचितः स दौवारिकाय निवेदितः तेनापि ज्ञापितो राज्ञे तस्मै मत्स्याय मत्स्यप्रधानाय " आसते द्वारि केऽपि कार्यटिकाः यथा स्वर्गात्पञ्च इन्द्राः पतिताः उज्ज्वालज्वलत्कृतखांडवानां तत्रैकः पुरोहितः पांडवानां Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४० [पंडवहं अण्णायवासु सूयारु अवरु विक्कम-चरिउ अवरेक्कु तेत्थु णट्टायरिउ अवरेक्कु' चलत्थु महासवइ धण पालु अवरु तुम्हह हवइ अवरेक णारि सु-मणोहरिय पच्चक्ख लच्छि णं अवयरिय महाएविहे राय हंस-गइहे सयलिंधि हवइ सा कइकइहे ॥घत्ता॥ सहुँ दुमय-सुयाए कोकाविय ते वि पइट्ठा जीव-दयाए सहिय परमेट्ठि पंच णं दिट्ठा ॥ सयल वि णिय-णिय-णिओयणि य तेहि मि एयारह मास णिय' बारहमउ मासु समावडिउ णं कीयइं काल-दंडु पडिउ तणु तावइ लावइ पेम्म-जरु आयल्लय'-सल्लइ कुसुम-सरु विधंति काम-उक्कोवणइ दोवइ-उज्जंगल-लोयणई थण-यल सुमणोहर दिति दिहि पज्जलथइ अंगु अणंग-सिहि ५५ झिज्जइ कुमारु सुसियाणणउं णं करिणि-विरहे वण-वारणउं १. अवरेकु । २. सा कइहे । ३. मि य । ४ णीय। ५. आयल्लइ । ६. दिह ।७. पजलह । सूपकारोऽपरो विक्रमचरितोऽपर एकस्तत्र नाट्याचार्यः अपर एकश्चलार्थो महाश्वपतिर्धनपालोऽपरो युष्माकं भवति अपरैका नारी सुमनोहरा प्रत्यक्षा लक्ष्मीर्यथाऽवतीर्णा महादेव्या राजहंसगत्याः सैरन्ध्री भवति सा कैकेय्याः " ॥त्ता॥ साधं द्रुपदसुतया आहूतास्तेऽपि प्रविष्टाः जीवदयया सहिताः परमेष्ठिनः पञ्च यथा दृष्टाः ॥ सकला अपि निजनिजनियोजने च तैरप्येकादश मासा नीताः द्वादशः मासः समापतितो यथा कीचके कालदण्डः पतितः तनुं तापयत्यानयति प्रेमज्वरं कामपीडाशल्येन कुसुमशरः विध्यतः कामोत्कोचे द्रौपदीदीर्घलोचने स्तनतले सुमनोहरे ददतो धृतिं प्रज्वलयत्यंगमनंगशिखी क्षीयते कुमारः शुष्काननो यथा करिणीविरहे वनवारणः Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु ] जउ जउ सीमंतिणि संचरइ तर तउ चडुयार सयई करइ एक्कहिं दिणि' णयणानंदणिए णिन्भच्छिउ दुमयहो णंदणिए ॥घत्ता ॥ " जे एत्थु करंति पुरि गंधव्व पंच महु पेसण जइ जाणंति परं ते ति पाव जम- सासण 11 " यत्र यत्र सीमंतिनी संचरति तत्र तत्र चाटुकारशतानि करोति एकस्मिन्दिने नयनानंदिन्या निभर्सितो द्रुपदस्य नंदिन्या ॥घत्ता ॥ “ येऽत्र कुर्वन्ति पुरि गान्धर्वाः पञ्च मम प्रेषणं यदि जानन्ति त्वां ते नयन्ति पाप, यमशासनं ॥ ४१ ( ७ ) जोएप्पिणु दोवइ - मुह· कमलु पभणइ णव णाय सहास - बलु "हउं सुहड - सरहिं पडिवज्जियउ पई सुंदरि णवर परज्जियउ पडिमल्ल ण हरि-हर - चउ वयण पंचाहिं गंधविवहिं का गणण छु करि पसाउ जीवावि मई भुंजावमि वसुमइ' - अध्धु पई " अवहेरि करिवि गय दुमय सुय तहो णवमी कामावत्थ हुय ६५ णिय-सस कहिज्जइ कइकइहे " मणु रंजहि आहे तीमइहे जहिं अच्छमि हउं एयग्ग- मणु तर्हि पट्ठवि लेवि समालहणु” स वि पेसिय तेण वि धरिय करे रइ-लालसेण एक्कंत - घरे १ दिह । २. पभणई । ३. बसुमई । ४. पइ । ( ७ ) दृष्ट्वा द्रौपदीमुखकमलं प्रभणति नवनागसहस्रबलः अहं सुभटशतैः प्रतिपन्नस्त्वया सुंदरि केवलं पराजितः प्रतिमल्ला न हरिहरचतुर्मुखाः पंचानां गांधर्वाणां का गणना शीघ्रं कृत्वा प्रसादं जीवय मां भोजयामि वसुमत्यर्थं त्वां " अवधीरणां कृत्वा गता द्रुपदसुता तस्य नवमी कामावस्था भूता निजस्वत्रे कथ्यते कैकेय्यै "मनो रञ्जय अस्याः स्त्रियः यत्राऽस्म्यहमेतद्गमनास्तत्र प्रेषय लात्वा समालभनं " साऽपि प्रेषिता तेनाऽपि धृता करे रतिलालसेनैकान्तगृहे ६० Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ [पंडवहं अण्णायवासु. ॥घत्ता॥ सीहहो हरिणि जिहं णिय पुण्णेहिं केम वि चुक्की कंक विराड जहिं कलुणु रुवंति पदुक्की ॥ ७०. (८) तो तेण विलक्खीहूवएण अणुलग्गे जिहं जम-दूयएण चिहुरेहिं धरेवि चलणेहि हय पेक्खंतह रायहं मुच्छ गय मणि' रोसु पवट्टिउ बल्लवहो किर देइ दिट्ठ तरु-पल्लवहो "मरु मारमि मच्छु सामेहुणउं पट्टवमि कयंतहो पाहुणउ" तो तव-सुपण आयडएण विणिवारिउ चलणंगुट्ठएण ७५ ओसरिउ विओयरु सण्णियउ पुर-वर-णारिउ आदण्णियउ "घि घि दड्ड-सरीरे काई किउं कुल-जायहं जायहं मरणु थिउ जहिं पहु दुच्चरिउ समायरइ तहिं जणु सामण्णु काई करई" ॥घत्ता॥ ताम स-वेणिय पंचालि स-दुक्खउ रोवह " जइ गंधव्व पुरे तो कि मई विडु विग्गोवइ" ॥ ८० १. मणे. । २. दुच्चारिउ । ॥घत्ता॥ सिंहाद् हरिणी यथा निजपुण्यैः कथमपि मुक्ता कंको विराटो यत्र करुणं रुदती प्रढौकिता ॥ (८) ततस्तेन विलक्षीभूतकेन अनुलग्नेन यथा यमदूतकेन चिकुरै त्वा चरणैर्हता प्रेक्षमाणानां राज्ञां मूछा गता मनसि रोषः प्रवृत्तो बल्लवस्य किल ददाति दृष्टिं तरुपल्लवाय "म्रिये मारयामि मत्स्यं सश्यालकं प्रस्थापयामि कृतांताय प्राघूर्णकं" ततः तपःसुतेन आकृष्टकेन विनिवारितश्चरणांगुष्ठकेन अपसृतः वृकोदरः संज्ञितः पुरवरनार्यो व्याकुलिताः " धिग् धिग् दग्धशरीरेण किं कृतं कुलजातानां जायानां मरणं भूतम् यत्र प्रभुर्दुश्चरितं समाचरति तत्र जनः सामान्यः किमपि करोति" ॥घत्ता॥ तावत्सवेदना पांचाली सदुःखं रोदिति "यदि गांधर्वाः पुरे तर्हि किं मां विटो विगोपयति ॥ Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सामुह संभु] ४३ णिय-कीलई मच्छुडु कहि मि गय हउं ते विसूसिमि उड्ढ-हय जइ पंचहं हाकु' वि होंतु पुरि तो जुप्पइ रण-भर-भरण-धुरि" एत्तडउ जाम जंपइ वयणु गउ ताम दिवायरु अथवणु पडिवपण रयणि वित्थरिउ तमु कउहंतर-कसणी करण-खमु किम्मीर-बीर-जम गोयरहो गय दोबइ पास विओयरहो ८५ णं गंग महा-णइ सायरहो णं सस-हर-पडिम दिवायरहो। एणं करिणि करिहो करडुज्झरहो' णं वल्लर-वल्लरि तरुवरहो विणएण विउज्झाविउ समुहं णं सीह-किसोयरि पंच मुहूं ॥धत्ता॥ रोवइ दुमय-सुय दरिसंति किणंकिय-हत्था __ “पइं जीवंतएण महु एही भइय अवस्था " ॥ तो भणइ विओयरु अरि-दमणु “कहि काहं साए किउ आगमणु परिभविय केण कहो तणउं दुहु पक्खालहि लोयण लुहहि मुहूं" १. एकु । २. पुरे। ३. धुरे। ४. करडज्झरहो। निजक्रीडया मंक्षु कुत्रापि गताः अहं तेन खिद्यामि दग्धहृदया यदि पंचानामेकोऽपि भवेत्पुरे तर्हि युज्यते रणभरधरणचरि" एतावद् यावद् वदति वचनं गतस्तावद् दिवाकरोऽस्तं प्रतिपन्ना रजनी विस्तृतं तमः ककुबंतरकृष्णीकरणक्षम किर्मीरवीरयमगोचरस्य गता द्रौपदी पार्श्वे वृकोदरस्य यथा गंगा सहानही सागरस्य यथा शशधर प्रतिमा दिवाकरस्य यथा करिणी करिणः द्रवत्करटस्य यथा वनवल्लरी तरुवरस्य विनयेन विबोधितः संमुखं ,यथा सिंह कृशोदर्या पंचमुखः ॥घत्ता॥ रोदिति द्रुपदसुता दर्शयन्ती किणांकितहस्ता “त्वयि जीवति, मम एषा भूताऽवस्था' ॥ ततो भणति वृकोदरोऽरिदमनः "कथय, किं मात्रा कृतमागमनं परिभूता केन कस्य सत्कं दुःखं, प्रक्षालय लोचने मृति मुखं" Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ [पंडवहं अण्णायवासु तं णिसुणिवि दुमय-राय-दुहिय पभणइ छण-छुद्ध'हीर मुहिय "महु कवणु सुह च्छइ२ कवण दिहि जहिं तुम्ह वि वट्टइ एह विहि जो सामि सालु महि-मंडलहो थिउ हरिवि लच्छि आहंडलहो ९५ सो विहि-परिणामें संचरइ घरि मच्छहो णिच्च सेव करइ जो मुद्वि पहारे दलइ गिरि जं खणु वि ण मेल्लइ सुहड-सिरि जे बगु हिडिंबु५ किम्मीरु जिउ सो हुउ विहि-वसिण महोणसिउ ॥घत्ता॥ जो बहु-लद्ध-वरु खंडव-डह-डामर-वीरु । कम्महं विहिवसिण सो जायहं मलइ सरीरु ॥ १०० (११) जमलाऽसवाल-धण वाल जहिं सइलिंधि हउं मि सुहु कवणु तहिं महि-मंडलि सयलि गविट्ठाइं केम वि खल-दइवें दिवाइं। देसे देसंतरु भमियाइं वणि बारह वरिसइं गमियाई १. च्छणच्छुद्ध । २. सुहच्छी। ३. हरेवि । ४. घरे। ५ हिडिंब । ६. जो। ७. सरीरउ। ८. महिमंडले सयले । तन्निश्रुत्य द्रुपदराजदुहिता प्रभणति क्षणक्षुब्धधीरमुखी " मम किं सुखं अस्ति का धृतिर्यत्र युष्माकं वर्तते एष विधिः यः स्वामिवरो महीमंडलस्य स्थितो हृत्वा लक्ष्मीमाखंडलस्य स विधिपरिणामेन संचरति गृहे मत्स्यस्य नित्यं सेवां करोति यो मुष्टिप्रहारेण दलति गिरिं यं क्षणमपि न मुञ्चति सुभटश्रीः येन बको हिडिम्बः किर्मीरो जितः स भूतो विधिवशेन महानसिकः ॥धत्ता॥ यो बहुलब्धवरः खाण्डवदाहडामरवीरः कर्मणां विधिवशेन स जायानां मृगाति शरीरम् ॥ (११) यमलौ अश्वपाल-धनपालौ यत्र सैरन्ध्री अहमपि सुखं किं तत्र महीमंडले सकले गवेषितानि कथमपि खलदैवेन दृष्टानि देशाद् देशांतरं भ्रामितानि वने द्वादश वर्षाणि गमितानि Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु] ४५ . अहियई मासिहि प्यारहिहि अवरहिं वासर-पण्णारहिहिं तोवि दुक्ख किलेसहो छेउ'ण विवरिमरणुन जीविए सु-हल कवि"१०५ तो भणइ भीम अ-पमेय-बलु थोरंसु-जलोल्लिय-मुह कमलु “किं रुवहि मोइ लुहि लोयणइं गय-दुक्ख किलेसहो भायणइं संसार-धम्मु ण णिरिक्खियउ सुहु केत्तिउ केत्तिउ'दुक्खियउ ॥घत्ता॥ देइ दुवि वि फलई पंचालि पुराइय-रुक्खु जहिं णिय रावणिण किं सीयहिं थोडउ दुक्खु ॥ (१२) अइकंत-दिवसि" अविणीयएण परिभविय माइ जं कीयएण तं तहिं जि कालि किर णिवमि पाहुणउं कयंतहो पट्ठवमि हर ताम णरिंदहे सण्णियउ णिय-रोसु तेण अवगणियउ जइ कह विचुक्कु अज्जोणियहे मारमि रयणिहे कल्लोणियहे छुडु तेण समउ संकेउ करि पइसारहि णच्चण साल-घरि ११५ १. च्छेउ । २. सहल । ३. भणइ । ४. सुहि केतिउ केतिउ । ५.दिवसे । ६. हउ । ७. अवगणियउ। ८. कहह । ९ णच्चल । अधिकानि मासैरेकादशभिरपरस्य पञ्चदशवासरैः तदपि दुःखक्लेशस्य छेदो नापि वरं मरणं न जीविते सुफलं कदापि " तावद्भणति भीमोऽप्रमेयबलो स्थूलाश्रुजलातिमुखकमल: " किं रोदिषि मातः मृड्ढि लोचने गतदुःखक्लेशस्य भाजने संसारधर्मः न निरीक्षितः सुखं कियत् कियत् दुःखितं ॥घत्ता॥ ददाति द्वे अपि फले पाश्चालि पुराकृतवृक्षः यथा नीतं रावणेन किं सीतायै स्तोकं दुःखम् ॥ .... (१२) अतिक्रान्तदिवसेऽविनीतकेन परिभूता मातर्यत्कोचकेन तं तस्मिन्नेव काले किल निष्ठापयामि प्राघूर्णकं कृतान्ताय प्रस्थापयामि अहं तावन्नरेन्द्रासंज्ञितो निजरोषस्तेनावगणितः यदि कथमपि च्युतोऽद्यतनायां मारयामि रजन्यां कल्यतनायां . . शीघ्रं तेन समं संकेतं कृत्वा प्रवेशय नृत्यशालागृहे Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पंडवहं अण्णायवासु जहिं तुंगिहें को वि ण संचरई तहि कल्लई कीयउ महु मरई" तं णिसुणि' पुलउ उभिण्ण भुय गय णिय-थणि हेलणु दुमय-सुथ थिउ ताम भीमु परियलिय णिसि अरुणेणालंकिय पुव्व-दिसिं ॥ उत्ता ॥ ‘कल्लई दोषरहे जं कङ्कित केस कलावउ सो मउ किं णे मउ ' णं दिण-मणि आउ विहावउं ॥ १२० (१३) पडिवण्णइं वासरे वियड-पय पंचालि कुमारहो पासु गय बोल्लाविय तेण मराल-गइ कुल-जाय पइ-व्वय विमल-मई " सुंदिर समुद्द-णवणीय-मुहि गंधवह केरी लीह लुहि कहि काइं न इच्छहि सु-यणुः मइं किं णस्थि हत्थि हय-साहणई किं ण विणवणाय सहास-बलु किं कमल-समाणु ण मुह-कमलु १२५ किं ण वि जवाणुः किं ण वि.सुहउ किं ण वि पहु किण वि अत्थमड लइ अट्ठवीस मणि-कंठाहं बाहत्तरि अवरह मंठाह १. निसुणिवि । २. गई। यत्र रात्र्यां कोऽपि न संचरति तत्र कल्ये कीचको मत् म्रियते तं निश्रुत्य पुलकाः उद्भिन्नाः भूताः गता निजस्तने हेलनं द्रुप्रदसुता स्थितस्तावद्भीमः परिगलिता निशी अरुणेनालंकृता पूर्वदिशा ॥घत्ता॥ ' कल्ये द्रौपद्याः येन कृष्टः केशकलापः स मृतः किं न मृतः । इव दिनमणिरायांतो विभावयितुम् ॥ प्रतिपन्ने वासरे विकटपदी पांचाली कुमारय पश्चि गती । आहूता तेन मरालगतिः कुलजायां पतिव्रता विमलमतिः " सौन्दर्यसमुद्रनवनीतमुखि गांधर्वाणां सम्बन्धिी लेखी मूढि कथय किं नेच्छसि सुतनी मां कि नास्ति हस्तिहथसाधनानि किं नापि नवनागसहस्रबलः किं कमलसमान न मुखकमले किं नापि युवा किं नापि सुभगः किं नापि प्रभुः किं नाप्यर्थवाम्। लाहि अष्टाविंशतिं मणिकण्ठिकानां द्वासप्ततिमपराणां बन्धानां Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुटु सयंभु ] ४७ लइ भामिणि जण मण-भामिणिहि मह एवि-पट्ट महु कामिणिहि ॥घत्ता॥ अक्खमि केत्तडउ लइ सच्चु देमि जं मग्गहि कोमल-बाहुएहिं छुडु एक मि सई आलिंगहि " ॥ १३० पडिवण्णु सव्वु जं दोवइए दु-व्वार-जार-मारण-मइए " आविज्जइ नच्चण-साल तुहु तं माणहु बिण्णि वि सुरय-सुहु" गय तेत्थहो कहिउ विओयरहो “विड णिवडिउ दिद्वी-गोयरहो" भीमेण वि तं पडिवण्णु रणु अ.हिम-यरु ताम गउ अत्थवणु सेणा-वइ लेवि पसाहणउ संकेय-भवणु गउ अप्पणउ १३५ जहिं भीम सेणु थिउ पइसरिवि' जहि सीहुःकुरंगहो कमु करिवि तहिं घंघु विसत्थु पइट्ट विडु ण उ जाणइ मंडिउ मरण-पिड रायाणुएण चिहुरहिं धरिउ णं काले पढम कवल भरिउ ॥घत्ता॥ चिंतिउ कीयएण "लई हउं गंधव्वें मारिउ । __ण उ सइलिंधि-करु एहु काले हत्थु पसारिउ" ॥ १४० १. मई । २. पइसरवि । ३. करेवि । लाहि भामिनि जनमनोभ्रामिणीनां महादेवीपट्ट मम कामिनीनां ॥त्ता॥ आख्यामि कियत् लाहि सत्यं ददामि यन्मार्गयसि कोमलबाहुभ्यां शीघ्रं एकशोऽपि स्वयमालिंग ॥ (१४) प्रतिपन्नं सर्वं यद् द्रौपद्या दुरिजारमारणमन्या " आयायाः नृत्यशालां त्वं तन्मानयावी द्वावपि सुरतसुखं ' गता तस्मात् कथितं वृकोदराय “ विटो निपंतितो दृष्टिगीचरं" भीमेनापि तत् प्रतिपन्न रणं अहिमकरस्तावद्दतीऽस्त सेनापतिः लात्वा प्रसाधन सतभवनं गतः आत्मनः यत्र भीमसेनः स्थितः प्रविश्य यथों सिंहः कुँरङ्गीय क्रम कृत्वा तत्र गृहे विश्वस्तः प्रविष्टो विटो न तु जानाति आरब्धं मरणपेंटकं राजानुजेन चिकुरैधृतो यथा कॉलिन प्रथमः कवली भृतः ॥घता।। चिंतितं कीचकेन " लात्वा अहं गान्धर्वेण मारितः न तु सैरन्ध्रीकरः एषः कालेन हस्तः प्रसारितः ॥ . Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ [ पंडवहं अण्णायवासु (१५) कह कह वि गाहु मेल्लावियउ' सो विड-भडेण बोल्लावियउ " गंधव्व जाहि किं जुज्झिएण पई विकम-वीर-बलुज्झिएण हउं कीयउ सव्व-कला-कुसलु अण्णु वि णव-णाय सहास-बलु किर भीमहो हत्थे महु मरणु किउ तासु जि वसुमइ-अवहरणु" तो भणइ विओयरु “ सो जि हउं जो हंणिसु सहुं तरं भाइ-सउं तव-तणउ कंकु मत्थाण-यरु णट्टावउ णरु गंडीव-धरु जम-जेटु तुरंगम-कम्म-कसु जोवइ सहएउ गु-गंवरसु दोवइ सयलिंधि पाव धरहि तुहु कीयउ महु भीमहु मरहि " ॥घत्ता। तं णिसुणिवि वयणु हकारिउ पंडुहि णंदणु अक्खाडइ थिएण चाणूरे जिंव जणद्दणु ॥ तो भिडिय परोप्परु रण-कुसल बिण्णि वि णव-णाय सहास-बल १. मेलावियउ । २. जे । ३ हउ । ४ सउतरू । ५. सउ । ६. ककु । ७ ग। कथं कथमपि ग्राहो मोचितः स विटभटेनाहूतः " गान्धर्व, याहि किं युद्धेन त्वया विक्रमवीर्यबलोज्झितेन अहं कीचकः सर्वकलाकुशलोऽन्यदपि नवनागसहस्रबलः किल भीमस्य हस्तेन मम मरणं कृतं तस्यैव वसुमत्यपहरणं" ततः भणति वृकोदरः " स एवाहं यः हनिष्यामि सह त्वया भ्रातृशतं तपस्तनयः कङ्कः आस्थान-चरो नर्तको नरो गाण्डीवधरः यमज्येष्ठस्तुरङ्गमकर्मकृशः पश्यति सहदेवो गोगव्यरसं द्रौपदी सैरन्ध्रीं पाप धरसि त्वं कीचक मद् भीमान्ट्रियसे " ॥त्ता।। तन्निश्रुत्य वचनमाहूतः पाण्डोनंदनः अक्षवाटे स्थितेन चाणूरेण यथा जनार्दनः ॥ (१६) ततः मीलितौ परस्परं रणकुशलौ द्वौ अपि नवनागसहस्रबलौ Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बदमुटु सयंभु] ४९ बिण्णि वि गिरि-तुंग-सिंग-सिहर बिण्णि वि जल हर रव-गहिर-गिर बिणि वि दट्ठोट रुट्ठ-वयण बिगिण वि गुंजा-हल-सम-णयण बिण्णि वि णह-यल-णिह-वच्छ-यल बिपिण वि परिहोवम-भुय जुयल बिण्णि वि तणु-तेयाहय-तिमिर बिणि विजिण चरण-कमल-णमिर१५५ बिण्णि वि मंदर परिभमण-चल बिण्णि वि विण्णाण-करण-कुसल बिणि वि पहरंति पहर-क्खमिहि भय-दंडिहिं वजदंड-समिहिं पय भारिहिं भारिय बिहि मि महि महि पडण पेलणाहित्थ महि घत्ता॥ भीमु समाहयउ वच्छ-त्थलि मुट्ठि-पहारे कह वि ण णिवडिउ महि-यलि सहुँ रुहिरुग्गारें ॥ १६० (१७) सेणा-वइ पेक्खिवि अतुल-बलु ओहुल्लिउ भीमहो मुह-कमलु "किय होसइ महु जस-हाणि' रणि वज्जेसह अयस-पडहु भुवणि किय होसइ जण-वर जंपणउं" कह कहववि धीरवि अप्पणउं १. रणे...भवणे । द्वा अपि गिरितुंगशृङ्गशिखरौ द्वा अपि जलधरवगभीरगिरौ द्वा अपि दष्टौष्ठौ रुष्टवदनौ द्वा अपि गुञ्जाफलसमनयनौ द्वा अपि नभस्तलनिभवक्षःस्थलौ द्वा अपि परिघोपमभुजयुगलौ द्वा अपि तनुतेजःआहततिमिरौ द्वा अपि जिनचरणकमलनमनशीलौ द्वा अपि मंदरपरिभ्रमणचलौ द्वा अपि विज्ञानकरणकुशलौ द्वा अपि प्रहरतः प्रहारक्षमाभ्यां भुजदंडाभ्यां वज्रदंडसमाभ्यां पदभारै रिता द्वाभ्यामपि मही महीपतनपीडनचलिता मही आत्ता। भीमः समाहतो वक्षःस्थले मुष्टिप्रहारेण कथमपि न निपतितः महीतले सह रुधिरोद्गारेण ॥ सेनापतिं प्रेक्ष्य अतुलबलम् अवनतं भीमस्य मुखकमलं "किमिव भविष्यति मम यशोहानी रणे वादिष्यते अयशःपटहः भुवने किमिव भविष्यति जनपदे वचनीय" कथं कथमपि धीरयित्वाऽऽत्मानं Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पंडवहं अण्णायवासु आयासु करिवि णिय-भुय-जुयलि हउ मुट्ठि-पहारि वच्छ-यलि घारण जि वइवस-णयरु' णिउ सो कीयउ कुम्मागारु किउ १६५ पइसारिय हत्थ-पाय उयरि णं पुंजिउ आमिस-पुंजु घरि णीसारिवि भीमु महा-भुयए जाणाविउ दुमय राय-सुयए "गंधविहिं विड-भडु णिविउ पेयाहिव-पंथि पविउ" ॥घत्ता। धाइय पवर भड "मरुमारिउ कीयउ केण " · पंच जणाहिएण घरु वेढिउ भाय-सएण ॥ १७० (१८) उज्जोउ करिवि णिज्झाइयउ "सच्चउ गंधविहिं घाइयउ एवड सरीरि ण कहि मि वणु ण उ एक्कु वि करु एक्कु वि चरणु" अण्णेत्तहे दीसइ दुमय-सुय बाहु-लयालिगिय-सिहिण-जुय ण काल रत्ति दुहसणिय णं असणि सहावे भीसणिय । णं विस-हरि आसीविस-भरिय णं रक्खसि भुवण-भयंकरिय। १७५ १. वइषसयरु । २. वीसहरि । आयासं कृत्वा निजभुजयुगलेन हतो मुष्टि प्रहारेण वक्षस्तले घातेनैव विवस्वनगरं नीतः स कीचकः कूर्माकारः कृतः प्रवेशितं हस्तपादमुदरे यथा पुञ्जितः आमिषपुञ्जः गृहे निःसार्य भीमं महाभुजया ज्ञापितं द्रुपदराजसुतया : "गान्धर्विटभटो निष्ठापितः प्रेताधिपपथे प्रस्थापितः " ॥त्ता॥ धाविताः प्रवराः भटाः " मारितः कोचकः केन" पंचजनाहितेन गृहं वेष्टितं भ्रातृशतेन ॥ (१८) उद्योतं कृत्वा निध्यातं " सत्यं गान्धर्वैर्हतः एतावति शरीरे न कुत्राऽपि व्रगो नत्वेकोऽपि करः एकोऽपि चरणः । अन्यत्र दृश्यते द्रुपदसुता बाहुलतालिंगितस्तनयुगा यथा कालरात्रिर्दुर्दर्शनीया यथाऽशनिः स्वभावेन भीषगा यथा विषधर्याशीविषमृता यथा राक्षसो भुवनभयंकरा Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चउमुहु सयंभु] णं परम-कुहिणि जम-सासणहो आसंक जाय सव्वही जणहो "मयर द्धय-बाणोवद्दविउ उहु आयहे 'कारणि विदविउ" "लइ एहि काई विहाणएण परिपुच्छिएण किं राणएण' " ॥घत्ता॥ दोवइ सवेण सहुँ थावि उप्परि मडयाजाणहो कीयय-भाउ सउ सवडंमुहु चलिउ मसाणहो ॥ (१९) णिज्जंती कंदइ दुमय-सुय "गंधबहु, धावहु काई मुअ अहो जय जयंत विजयंत धरि जयसेण जयावह रक्ख करि " तो भीमु ण कुहिणिहिं माइयउ भजिवि पायारु पधाइयउ अण्णेत्तहे जेत्तहे वइम् िण वि उप्पाइय नोक्खी भंगि क वि मुकलिय-केसु उक्खाय-तरु पच्चक्खु णाई थिउ रयणि-यरु १८५ सवडं-मुहुँ दीसइ कीयएहिं जमु दंड-पाणि णं भीयएहिं . 'छड्डिज्जइ मडया-जाणु तहिं ‘ण उणाय पण?' पइट्ट कहि १. रणाएण । २. कीयया...मुहुं । ३. कंदिय । ४. घरे...करे । ५. पयारु । ६. जेतहो । यथा परममार्गो यमशासनस्य आशंका जाता सर्वस्य जनस्य "मकरध्वजबाणोपद्रुतः पश्यत अस्याः कारणेन विद्रुतः। "नन्विदानी किं विभानकेन परिपृष्टेन किं राज्ञा" ॥घत्ता॥ द्रौपदी शबेन सह स्थापयित्वोपरि मृतकयानस्य कोचकभ्रातृशतं संमुखं चलितं श्मशानस्य ॥ नीयमाना कंदति द्रुपदसुता “गान्धर्वाः, धावत किं मृताः अहा जयजयंतविजयंताः धारयत जयसेनजयावहौ रक्षां कुरुतम्" तावद्भीमो न मार्गे मातः भङक्त्वा प्राकारं प्रधावितः अन्यत्र यत्र वैरो नास्ति उत्पादिता नूतना भङ्गी काऽपि मुक्तकेशः उत्खाततरुः प्रत्यक्षो यथा स्थितो रजनीचरः संमुखं दृश्यते कीचकैः यमो दंडपाणिर्यथा भीतैः । त्यज्यते मृतकयानं तत्र 'नवनागाः प्रणष्टाः' प्रवृत्ता कथा Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पंडवहं अण्णायवोसु "" पल्लुडु विओयरु णिय-भवणु पडिवण्णु दिवायरु उग्गमणु ॥ धत्ता ॥ संकप्प उट्ठ मणि तहो मच्छहो अ-हिय मल्लहो ases सिक्खाar" "सयलिंधि णिवासहो लहो ( २० ) तहिं अवसर दुमय णरिंद-सुय पक्खालिय- अंगोवंग-भुय लक्खिज्जइ सयल-जणेण किह पट्टणि पसंति भवित्ति जिह सिय· वलयालंकिय-कर यलहो गय सरह पास बिहंदलहो पच्छण्ण-पउत्तिहिं वज्जरिवि " उत्तरइ समाणु खेड करिवि अप्पणउ णिहेलणु जाइ" किर उच्छलइ सुजेट्ठहो ताम गिर "जा जाहि भडारिए कहि मि तुहुं राउलहो स·णयरहो देहि सुहु धट्ठज्जुण-ससए समुण्णपण बोलिज्जइ रोस - वसं· गएण " जइ एवहिं धल्लिय कह वि परं तो पुरु घाएवउ सयलु मई ||घता ॥ जइ पुणु थति महु घरि तेरह दिवसउ देहुं ण-मणोरहि य तो रज्जु सई भुंजेसहो " ॥ पुण्ण१. इ । २. सिक्खविय । ३ उच्छलिब । परिनिवृत्तो वृकोदरो निजभवनं प्रतिपन्नो दिवाकरः उद्गमनं ॥घत्ता॥ संकल्पः उत्थितः मनसि मत्स्यस्याऽनिहत मल्लस्य कैकेयी शिक्षयति " सैरन्ध्री निवासे क्षिप " ( २० ) तस्मिन्नवसरे द्रुपद नरेन्द्रसुता प्रक्षालिताङ्गोपाङ्गभुजा लक्ष्यते सकलजनेन कथं पट्टने प्रविशन्ती भवित्री यथा सितवलयालंकृतकरतलायाः गता सरभसं पार्श्वे बृहन्नलायाः प्रच्छन्नप्रवृत्तिभिरुक्त्वा "उत्तरायाः सभं क्रोडां कृत्वा आत्मनो निहेलना जायते " किलोत्सरति सुज्येष्ठायास्तावद्भिरा ५२ "" ॥ 99 "याहि याहि भट्टारिके कुत्रापि त्वं राजकुलाय स्वनगरस्य देहि सुखं धृष्टद्युम्नस्वत्रा समुन्नतेन उच्यते रोषवशंगतेन [ वचसा ] "यद्येवं क्षिप्ता कथमपि त्वया तर्हि पुरं हन्तव्यं सकलं मया ॥घत्ता| यदि पुनः स्थितिं मह्यं गृहे त्रयोदश दिवसान् दास्यि पूर्णमनोरथा च तर्हि राज्यं स्वयं भुङ्क्ष्यसि " ॥ १९० १९५ २०० Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थमुद्धरणम् ॥ [ तिहुयण सयंभु । ] || बहु || तिहुवणो' जइ वि ण होंतु णंदणो सिरि-सयंभु- पवस्स कव्वं कुल-कवित्तं तो पच्छा को समुद्धरइ ॥ ( १ ) तो महि - मंडल वम्मोसर - सर - विणिवारउ मि - जिणेसरु विहरइ णं रिसहु भडारउ ॥ पइसिवि मज्झ. एस - मज्झहु' पुव्व पसिलाएवि धम्म वइस-दि- खत्तिय असेसि लाए वि ॥ १. तिहुवणे । आ गाथा हाथप्रतमां घणे स्थळे छे. बधामां य तिहुवणे पाठ छे; मने लागे छे के जइ वाळी रचना अने सति सप्तमीनो संकर होय; के मागधी प्रथमा एकवचन पण होय. २. मज्झेसमच्छ । [ त्रिभुवनः स्वयंभूः । ] ॥ बलप्रश्नः || त्रिभुवनो यदि न भवति नंदनः श्रीस्वयंभूदेवस्य काव्यं कुलकवित्वं ततः पश्चात्कः समुद्धरति ॥ ( १ ) ततः महीमंडले मन्मथशर विनिवारकः नेमिजिनेश्वरो विहरति यथा ऋषभः भट्टारकः ॥ प्रविश्य मध्यदेशमध्ये पूर्वं प्रश्राव्य धर्मं वैश्यद्विजक्षत्रियान् अशेषान् राज्ञोऽपि ॥ हाथप्रतनो आ भाग कोइए वांच्यो लागतो नथी. कविए आ संधिमां विदग्धता बतावी छे. हाथप्रतमां अर्थ अने छंदनी बहु ज भ्रष्टता छे. टिप्पण तो छेज नहि. Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बलपण्हु सहसट्ठालय-सुलिवल-पवलि हल हर-हलि-वल कुल-सहस-बलि सयलामल-केवलणाण-वलि सालसालविंद-सुकुमाल कलि दूलयलोसालिय-काम-लि सासय सिलि-जय सिलि-वहुय-वलि संसाल-सायरा-ऽमल सइलि पलिहलिय-सालज्जासेस यलि १० उज्जेतह वल-हले तित्थ यले उद्धरिय-सयल भवि-उहय कुले णासिय-संभव जल-मलण-दले चिल भव सय-खल बहु-दुलिय-मले गोलव-थेलासण'-चंद-ऽमले विणिवारिय-सल्लत्तय-समले तियसिंद-णमिय-कम तामरसि जय-मंगल-दव्व-पुण्ण कलसि ॥ मागधिका णाम भासा ॥ ॥घत्ता॥ बहविं कालेण सहुं गणिहे भमेप्पिणु आयउ पुणु वि पडीवउ रेवइ-उज्जाणु पराइउ ॥ १. सहसद्दालएसुर इ० य के इने बदले ए लखवानो रिवाज हाथप्रतोमां सामान्य होय छे. २. हलिहर एम हाथग्रतमां छे; आ ज लइए तो मात्राभंग थइबे मात्रा छंदमां खूटे छे. हलहरहलि एम पाठ होवा. पूरतो संभव छे. अर्थ नहि समजातां सरखा : वर्णसमूहमां अमुकवर्ण पडी ‘जवा स्वाभाविक छे.. ३. जयसिरि । ४. मूळ संसारसायरासामलसइलि । छे; परंतु बे मात्रा वधी जायः छे; एटले सा छोडी दीपो छे. अवग्रह मूळ हाथप्रतमा नथी; परंतु अर्थस्परता खातर मारी ऊमेरणी छे. ५. येणासण। ६. भामरसि ++ पुवकलसि। सहस्राष्टादशसूरिवरप्रवरः हलधरहरिवरकुलसहस्रबलः सकलामलकेवलज्ञानवरः सरसारविंदसुकुमारकरः दूरतरोत्सारितकोमशरः शाश्वतश्रीजगच्छोवधूकवरः संसारसागरामरशैलः परिहतसराज्याशेषबलः उज्जयन्तस्य वरधरायां तीर्थकरः उद्धृतसकलभव्योभयकुलः नाशितसंभवजरामरणदरः [नाशित]चिरभवशतखरबहुदुरितमल: गौरवकमलामलचन्द्रः विनिवारितशल्यत्रयसमरः त्रिदशेन्द्रनतक्रमतामरसः जगन्मंगलद्रव्यपूर्णकलशः ॥ मागधिका नाम भाषा ॥ पत्ता।। बहुना कालेन सह गणिभिः भ्रमित्वा आयातः पुनरपि प्रतीपं रैवतोद्यानं परागतः ॥ Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडयण सयंभु ] ( २ ) ॥ हेला ॥ जं उज्जित - मही · हरे परम-गुण-सणाहे थियउ' हरि-भूसणु ति· हुयणेक्क णाहे ॥ तं हलिसियंगि सिलि - वच्छाए इंदीवल दल - सलिल - ऽच्छाए पलिभूसिय- सिलि· हलि वंसाए अमरासुर - दिण्ण - पसंसार पूयण-मलट्ट-कय-बहणार पायस - णिप्पेहुण-कल जाए माया-रह-बल- णिद्दलिणाए सुधुलंबल - कंबय-वरणाए चल- केसि - गल' यल-कय-पयाए जमल-ऽज्जुण-भू-लुह - विलयाए गोवद्धण - ऽचल' - उद्धलणार गो-उलि लीला - संचलणार विस हल - गुलु · सेज्जा - लुहणाए पल - सूलत्तण' लिह-लुहणाए ओऊलिय-जल-यल-पबलाए अट्ठत्तर-सय-णाम-हलाए हेला - सु· चडाविय - चावाए दस - दिसि णीसलिय-पयावार || हेला ॥ यावदुज्जयंतमहीधरे परमगुणसनाथः स्थितः हरि [वंश ] भूषणः त्रिभुवनैकनाथः ॥ तावद् हृष्टाङ्गः श्रीवत्सः इंदीवरदलसलीलाक्षः परिभूषित श्रीहरिवंशः अमरासुरदत्तप्रशंसः पूतनागर्वकृत्तबर्हणः प्रावृण्मयूरकलनादः मायारथबलनिर्दलनः सुधवलांबरकम्रवरणः चलकेशिगलतलकृतपदः यमलार्जुन भूरुहविलयः गोवर्धनाचलोद्धरणः गोकुले लोलासंचलनः विषधरगुरुशय्यारोहणः परशौर्यलेखामार्जन: $ १. थिउ । २. इंदिवल । ३. तद्दन काल्पनिक अर्थ छायामां छे; ठीक लागे तो स्वीकारवो. ४. उजण । ५. वल । ६. स्लत्तणु । ७. प्रथम पाद तेम ज आ पादने छेडे लहणाए । : ( २ ) आकुलितप्रबलजरा [संघ ] बल: अष्टोत्तरशतनामधरः हेलासुसंघितचापः दशदिशानिःसृतप्रतापः २५ Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बलपण्हु कालिंदिय-मह-दह-मंथाए कालिय-सिय चिंध-पवण्णाए तोडिय-कोमल-तामलसाए' लंगदि गो-दुह किय-कलसाए संघालिय-णिलि-चाणूलाए उक्खय-माउल तलु-मूलाए' ॥ मागह-पुव्वद्धा-कलाए ॥ ॥ पत्तो ॥ णिय-सीहासणु मिल्लिप्पिणु सिरु णामंतउ जिण-सवडं मुहु गउ सत्त-पयाई तुरंतउ ।। (३) ॥ हेला ॥ पुणु आणंद-मेरी-सद्देण जय-पहाणो' चलिउ महण्णवो व मणि-रयण-सोहमाणो॥ एत्थंतरि निग्गइ संकरिसणि वयरि-णरिंद-णियर-दु-हरिसणि ३५ लोहिय दुहिया-रोहिणि-तणु-रुहि सुर-वइ-कुलिस-सरिस-सीराउहि ईसरंगि ससि-तारा-णि मल्लि सुर सरि-णीर-खीर-हारुज्जलि १. मामलसाए । सरखावो आज उद्धरण कडवक. १. पं. १२, आ प्रकारनो ज पाठनो फेरफार. २. चालूणाए + + उक्खलमाहुकतलमूलए । ३. मुह । ४. पहाणे । ५. एक्कंतरि । ६. णिम्मल । कालिंदीमहाहूदमंथकः कालीयश्रितचिह्नप्रपन्नः त्रोटितकोमलतामरसः क्रीडायां [त्रोटित]गोदुग्धकृतकलशः .. संहारितनीलचाणूरः उत्खातमातुलतरुमूलः ॥ मागधपूर्वार्धकलापः ॥ ॥त्ताः। निजसिंहासनं मुक्त्वा शिरो नामयन् जिनसंमुखं गतः सप्तपदानि त्वरन् ॥ ॥ हेला ।। पुनरानन्दभेरिशब्देन जगत्प्रधानः चलितो महार्णव इव मणिरत्नशोभमानः ॥ अत्रान्तरे निर्गच्छति संकर्षणः वैरिनरेन्द्रनिकरदुर्दर्शनः लोहितदुहितृरोहिणीतनुरुहः सुरपतिकुलिशसंदृशसीरायुधः ईश्वरांगः शशितारानिर्मलः सुरसरिनीरक्षीरहारोज्ज्वलः । Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५ 'तिहुयण सयंभु] सुट्ट-रुट्ट'-मुट्ठिय-संघारणि कंसासुर-किंकर-विणिवारणि रेवइ-वयण-सरोरुह-महु-यरि रण उहि वेणु-दारि रिउ-भय-यरि केसरि-वाहणि-विज्जा-हारणि खेयर-जंबु·मालि-णिव-साहणि ४० वंदारय-णिह-णयण-मणण्णिए परियाणिय-विण्णाण-कलालिए संगय-सिर-यर-ताण-करिसणि दस-दसार-रोयण भुय-दरिसणि ॥ इयमण्णि व मागधिका भासा ॥ ॥ मत्तमातंगछंदः ॥ ॥घत्ता॥ सुमरिवि जिण चलण रेवइ-रोहिणिहि विहूसिउ ॥ मह-हथिल्लउ णहि णं चंदु जण पडीसउ (४) ॥ हेला ॥ से 'अणुलग्गया गया जाइ-कुल-विसुद्धा सच्चइ-चारुणि-सढरी-दीवायणा-ऽणिरुद्धा॥ अण्णु वि संचल्लिए मरंकिंजे दुरुज्झिय-अ-यस कलंकि १. रुटु । २. वयणि । ३. खेयरि । ४ चदु । ५. यणुलग्गए । सुष्ठुरुष्टमुष्टिकसंहारणः कंसासुरकिंकरविनिवारणः रेवतीवदनसरोरुहमधुकरः रणयुधि वेणुदारी रिपुभयकरः केसरिवाहिनीविद्याधारकः खेचरजंबुमालिनृपसाधनः वृन्दारकनिभ-नयन-मनोज्ञःपरिज्ञातविज्ञानकलावलीकः करसंगतसीरकर्षणत्राणः दशदशाहरोचनभूतदर्शनः ॥ इयमन्यैव मागधिका भाषा ॥ .. ॥ मत्तमातंगछंदः ॥ ॥घत्ता॥ स्मृत्वा जिनचरणौ रेवतोरोहिणीभ्यां विभूषितः महा[मघा]हस्तियुतः नभसि यथा चंद्रः जनेन प्रतिश्रितः ॥ ॥ हेला ॥ तस्य अनुलग्नका गता जातिकुलविशुद्धाः ।। सात्यकि-चारुणि-सढरि-द्वैपायन-अनिरुद्धाः ॥ अन्येऽपि संचलिताः स्मितेन ये 'दूरोंझिायशःकलंङ्काः सात्य Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 555 .. बलपण्डु जे रुप्पिणि-मण-भुवणादिं जे रिउ-णियर-सरोरुह-चंदि' जे जगि-णारि-चित्त-अवहरणे जे कंचण-माला-परिहरणिं जे सोलस-महलंभावर्णिण जे सोहग्ग-रूव-संपुणे पपणे ५० जे महि-कंप-जलहि-सुर-सेले जे सयलंगणोह-मण-चोलें जे कुरु-खंधावार-विणासिं जे दुज्जोहण-पहु-संकासि . जे स-सिबिर-तव सुय परिखलणि जे णर-भीम-मडप्फल-दलणि जे सहदेव-पराभव-करणिं जे बंदिण-जण-अब्भुद्धरणिं ॥ मागधिकार्या भाषायां पदाकुल-छंदः ॥ ॥ घत्ता ॥ गंजोल्लिय-तणु परिसेसिय-पवर-मरट्टर सुहि-सय-परिमियउ स-विणेउ स-कलत्तु पयट्टउ ॥ ॥ हेला ॥ ताव हियोलियहिं चंदो व्व कंतिवंतो भाणुकुमार णर-वरों णिग्गओ तुरंतो ॥ ॥ दुई । कल-विण्णाण-जुत्तए सेवि-यण रत्तए ये रुक्मिणीमनोभुवनानन्दाः ये रिपुनिकरसरोरुहचन्द्राः । ये जगन्नारीचित्तावहरणाः ये काञ्चनमालापरिधरणाः ये षोडशमहालाभापन्नाः ये सौभाग्यरूपसंपूर्णाः । ये महीकंपजलधिसुरशैलाः ये सकलाङ्गनौघमनःश्चौराः । ये कुरुस्कन्धावारविनाशाः ये दुर्योधनप्रभुसंस्पर्शाः ये स्वशिबिरश्रुततपःपरिस्खलनाः ये नरभीमगर्वदलनाः ये सहदेवपराभवकरणाः ये बंदिजनाभ्युद्धरणाः ॥धत्ता।। रोमाश्चिततनवः परिशेषितप्रवरगर्वाः सुहृच्छतपरिवृताः सविनेयाः सकलत्राः प्रवृत्ताः ।। ॥ हेला ॥ तावद् हृदयादितैश्चन्द्रः इव कान्तिमान् भानुकुमारो नरवरो निर्गतः त्वरन् ॥द्विपदी॥ कलाविज्ञानयुक्तो रक्तसेव्यजनः Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडयण सयंभु] बारस-लक्खणंगए मेरुतुंगसिंगुत्तमंगए ॥ .. चामीयर-चारु-वण्णए कुंडल-जुय-ललंत-कण्णए कंग-हरण-णिल्ल-कोरए रेहमाण-गुरु-इणिय-दोरर इंदीवर-दल-ऽच्छए हार-परिफ़रिय-वच्छए केऊरारिद्ध-बाहए रयण-खुसिय-अब्भत्थए मागहाणयाअथए पलंब.........णिरत्थर पसरिय-णिय-णहा-सोहए अंघ-पउम-जिय-गलिण-सोहए ॥ मागधिका णाम छंदः ॥ ॥धत्ता॥ कमला-णंदणु णिय-भा-भूसिय-भुवणोयरु वर-दीहर-करु संचल्लिउ णाई दिवायर ॥ ॥हेला॥ तहिं पत्थावि तार-संभार-पवर-दल-मालए संचलिय महा-बलिय............॥ - ३. पारस । ४ मेरुत्तुंग... । .. . द्वादशलक्षमाङ्गकः मेरुतुङ्गशृङ्गोत्तमाङ्गः .. चामीकरचारुवर्णकः कुण्डलयुगललत्कर्णकः कङ्कतधरणललाटपट्टकः शोभमानगुरूपनयनदोरकः इंदीवरदलाक्षः हारपरिस्फुरितवक्षाः केयूर-ऋद्ध-बाहुः रत्नखचिताग्रहस्तः मागध........अर्थः प्रलंब........निरस्तः (?) प्रसतनिजनखशोभः अंघ्रिपद्मजितनलिनशोभः ॥ मागधिका नाम छंदः ॥ ॥पत्ता। कमलानंदनो निजभाभूषितभुवनोदरः बरदीर्घकरः संचलितो यथा दिवाकरः ॥ .. (६) तस्मिन् प्रस्तावे तारसंभारप्रवरदलमालया संचलितः महाबलि......... Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बलपण्डु सोणारायणिट्ठसुदेसंबुय'-मालाए अट्ठमि यंद-रुंद-पिहुलुण्णय-भालाए विज्जा हर-कुमार-विस हर खइ-णेयाए बहु-जरसिंधु-बधु वरक्खुरप्पायाए हेमल दल हिडिंब-घण-तम-दिण-णाहाए सिंधव-हूण जोण हुयवह . जल-चाहाए' विवरी हीर-वीर- समीर अणुरत्ताए वर-वारण वलग्ग अमर गिरिंदाए जालंधर-डहार-सुभद्दा-सुरभद्दाए केरल-कामरूव-वण गहण हुयासाए७५ पारसिय-सुकंत-रुक्ख-फल-कीराए खस-जोहेय-दर-फणि-रायाएं पच्छिक्कुडक्कणरसिरवणासणिघायं बल कण्णाड-दविड-पणमंत-पायं खग्गुज्जुइ-उज्जल-सूर-प्पह-हरु पचलिउ लीलए णावइ पाउस-जल-हरु ॥घत्ता॥ तो हरि-राम-काम-पमुहरहि जायवेहिं पासुपवण्णएहिं कंटइय-अवयवेहिं ॥ १. °सबुकमालाए । २. जाणहुयवहुजरवाहणाए । ३. वीक । ४ आखो य पंक्ति नष्ट छे; मेळ लाववा ज संस्कारेली पंक्तिमा प्रयत्न छे. मूळ हाथप्रतमां, पारासयसुकंतरुक्खफलभरकीराणणाए खसजोहेयददुरफणिरायाए । ५. आ पंक्ति पण आखी य भ्रष्ट छेः पच्छिक्कुडुक्कणरसिरवणिज्जामणिघायं बलकण्णाडदविडए णमंतषायं । ६. खग्गुजुज्जलसूरप्पहहरु । ७. पमुहहेहिं । सः नारायणेष्टसुदेशांबुज[द]माल: अष्टमीचंद्रविशालपृथुलोन्नतभाल: विद्याधरकुमारविषधरक्षयनेता बहुजरासंधबंधुवरक्षुरप्रः हेमलदलहिडिम्बघनतमोदिननाथः सैन्धवहुणयवनहुतवहजलवाहः विपरीतधीरवीरसमीरानुरक्तः वरवारणकामरगिरीन्द्रविलग्नः जालंधर-डहार-सुभद्र-सुरभद्र-केरल-कामरूप-वनगहनहुताशः पारसीकसुकान्तवृक्षफलकीरः खसयौधेयदर्दुरफणिराजः पश्चिमोत्कटनरशिरोवनाशनिघातः बलिकर्णाटद्रविडप्रणतपादः खड्गोद्द्युत्युज्ज्वलसूरप्रभाहरः प्रचलितः लीलया यथा प्रावृड्जलधरः ॥पत्ता।। ततो हरिरामकामप्रमुखैर्यादवैः पार्थोपपत्नैः कण्टकितावयवैः । Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिछयण सयंभु] ॥ हेला ॥ दीसइ समवसरणु जग जणिय-उज्जोयउ ___णं लोहिउ 'जम्म-अ.सेयाहियाणागिदउ । भामंडल-समिद्ध णावइ रामायणु सीहासण-साणाहु थिउ णाइ महा-वणु णावइ छंद-सत्थु सुंदर-जइ-माला-हरु ण मंदर-णियंबु णंदण वण-मणहरु दीसइ णाई पाउस णः परतिह जे घय........................... ८५ णावइ महि-पवण्ण-सुर-उयय समाप्पहु देविदाय-बहुल-पसरिय-रयण-प्पहु ॥घत्ता॥ तहि जिणु लक्खियउ जायव-जणेण गरुय-अणुराएं आइ-महेसरु रिसहु व चिरु अमर णिहालए ॥ ॥ हेला ॥ पुणु ते पउम सहाव पियर-गुण-साणुराय बल-गोविंद पुणु पुणु णमंति जिणह पाय ॥ जय जिण मणुय-दणुय-गण-धण-वा-फण-वइ-णमिय-पय जुया अथिर-मण-पवण-दिण मणि-विलयण-वरुण-ऽसणि-जुया 2 लोहियउ । २. ओय । बीजा पादमा:-देवींदरीयबहुलुपसरियरणप्पहु । ३. जयवजणेणा ४. धवइ ।। ॥ हेला ॥ दृश्यते समवसरणं. जगजनितोद्योतं यथा लोहितः [वृक्षः] जन्माश्वेताधिकनागेन्द्रः भामंडलसमृद्धं यथा रामायणं सिंहासनसनाथं स्थितं यथा महावनं यथा छंदःशास्त्रं सुंदरयतिमालाधरं यथा मंदरनितंब नंदनवनमनोहरं दृश्यत यथा प्रावृट्........................... यथा महीप्रपन्नसूरोदयसमप्रभं देवेन्द्रराजबहुलप्रसतरत्नप्रभं ॥पत्ता।। तत्र जिनः लक्षितो यादवजनेन गुरुकानुरागेण आदिमहेश्वरं ऋषभमिव चिरममराः निभालयन्ति ।। ॥ हेला ॥ पुनस्तौ पद्मस्वभावौ पितृगुणसानुरागौ बलगोविन्दौ पुनः पुनर्नमतः जिनस्य पादौ ॥ जय जिन मनुजदनुजगणधनपतिफणापतिनतपदयुग ! अस्थिरमनःपवनदिनमणिविलयनवरुणाशनियुत ! Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ [ बलपण्डु जय ति-यस- इ - कुवइ - जम· वइ - रिउ-गह- बइ- धणय- -वंदिया जय भुवण-वइ धीर वित्तुन्भव - खवण-वग्ग-संदिया हय-गय-कणय - पाणिंदादि-स-सर-भड घड- उड्डु-गण- घण घण- उलयसंसिया ९५ जय विस विसम विसय गह ह-परिसह सु-हिय - णिवह साहया जय तइ-लोय - णमिय अइसय वर पाविय-परम- संपया जय मलिणिलयाण' रणि फेडिय - दुग्गह- जडल- वलय- सामला जय जय जल-जउण-जल- कज्जल - इसि सुमणस - समुज्जला जय कमल-भव - तंब - तणु-भव आंखलिय सुण भवंतया जय भव-समय समय णविण चउनीसाइसय-वंतया ॥घत्ता ॥ तुम्हह सग्गहो जइ इह अवयरणु ण होंतउ ता दु-किय-भारेण जगु हिट्ठा - मुहु जंतउ || ९ ) ॥ हेला ॥ एव णमेवि णेमि नित्थं करहो पहिट्ठा जायव णिरवसेस पर कोट्टई णिविट्ठा ॥ १. जय मूळमां नथी; जय त्रिदशपतिकुपतियमपतिऋतुग्रहपतिधनदवंदित ! जय भुवनपते धीर स्यंदितचित्तोद्भवक्षपणवर्ग ! हयगजकनकप्राणेन्द्रियादिसशरभटघटोडुगगघनघनकुलकशंसित ! जय विषविषमविषयप्रहपरोषहसुनिहितनिवह साधक ! जय त्रिलोकनत अतिशयवरप्राप्तपरमसंपत् ! जय मलिनेन्द्रियाणां रणे भग्नदुर्ग्रह जटिलवल पश्यामल ! जय जगज्जलयमुनाजलकज्जलेषत्सुमनः समुज्ज्वल ! जय कमलाभवताम्रतनुभव अस्खलित शृणु भवान् जय भवशमक समयनवीन चतुस्त्रिंशदतिशयवन् ! ॥घत्ता ॥ युष्माकं स्वर्गाद् यदोहावतरणं नाभविष्यत् तर्हि दुष्कृतभारेण जगदधोमुखमगमिष्यत् ॥ ( ९ ) ॥ हेला ॥ एवं नत्वा नेमितीर्थंकरं प्रहृष्टाः यादवाः निरवशेषाः नरकोष्ठके निविष्टाः १०० १०५ Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] जल-कल्लोलुप्पीलरउद्दे जाह दिण्णु ओसारु समुदें जाहं णयरु कारिउ सहसःऽक्खें जाहं गेहि धणु वरिसिउ जक्खें जाहं संख कोडिउ अट्ठारह जाहऽण्णाय लक्ख-हयगय-रह मंदिर जाहं जाउ जिण-जम्मणु जाहं सामि सयमेव जणद्दणु जेण समरि सिसुपालु विहाइउ जेहिं वीरु' भूरीसउ घायउ ११० जेहिं णिहउ स-सेणु चक्केसरु मारिउ जेहिं चाणुर कलि-केसरु अ-प्पमाण विस्स-भर-गो-यर सेव करंति जाह विज्जा-हर जाहं परिग्गहि सइं मयर-द्धउ विज्जउ जाहं पसिद्धउ सिद्धउ पेसणु करइ जाहं चक्कारहु जाहं मज्झि णवमउ सीराउहु जेहिं कोडि-सिल चिरु उच्चाइय जाह कित्ति तइ-लोकि ण माइय११५ जाहं पमाणु णाहि परिवारहो अंतेउरहो वि सालंकारहो ॥घत्ता। जिण माहप्पेण ते सयल वि णिरु. अणुराइय णर-वक्खारहो एक देसे जे सम्माइय ॥ १. वीरू । २. चाणू । ३. चक्काहुउ । . जलकल्लोलोत्पीडरौद्रेण येषां अपसारो दत्तः समुद्रेण येषां नगरं कारितं सहस्राक्षेण येषां गेहे. धनं वर्षितं यक्षेण येषां संख्या कोट्यःअष्टादश येषामज्ञाता लक्षहयगजरथाः मंदिरे येषां जातं जिनजन्म येषां स्वामी स्वयमेव जनार्दनः यैः समरे शिशुपालो विहतो यैः वीरः भूरिश्रवाः हतः यैर्निहतः ससैन्यश्चक्रेश्वरी मारितो यैश्चाणूरः कलिकेसरी अप्रमाणाः विश्वंभरगोचराः सेवां कुर्वन्ति येषां विद्याधराः येषां परिग्रहे स्वयं मकरध्वजः विद्याः येषां प्रसिद्धाः सिद्धाः प्रेषणं करोति येषां चक्रायुधः येषां मध्ये नवमः सीरायुधः यैः कोटिशिला चिरं उच्चैः कृता येषां कीर्तिस्त्रिलोके न माता येषां प्रमाणं नास्ति परिवारस्य अंतःपुरस्यापि सालंकारस्य आपत्ता।। जिनमाहात्म्येन ते सकलाः अपि खल्वनुरागिणः नरवक्षस्कारस्यैकदेशे ये सम्माता । Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ ( १० ) || हेला | पुणु पुच्छर महीसरो सयल-लोय- पालो महुर-महा-झुणी अक्खर तिलोय-वालो || [ बलपण्डु १२० " किं इह ति हुयणे सारु भडारा" "धम्म- रअणु भो महि• हर-धारा" "किं दुल्लहु भव-लक्aिहिं' जिण वर" "पव्वज्जा - णिहाणु हे सिरि-हर " " किं सुह लोयालो' महागुरु" "बाह - रहिउ अहो मुसुमूरिय-मुरु" "के जीवो वइरिय तित्थं कर" "कोह-मोह-मय अच्छी हरि-हर" " किं पाणिउ एत्थु सव्वण्हं" "धुउ सम्मत्तु सोलु अइ विहे १२५ " किं सुंदरू करणिज्जु दया रुह" "दाणु पुज्ज हो देवइ-तणु· रुह " " के दू· सह तियसेसर - सामिय" "पवर- परीसह खग - वइ - गामिय" " किं बलवंत समर-विमद्दण” “जीवहो चिरु-कय-कम्म जणद्दण" "कवणु देउ केवल वर-लोयण" "दोस- विवज्जिउ हो मह-सूयण” "कवणु धम्मु जगि णाणुप्पायण" " जीव दया-बरु हे नारायण" १३० १. भवलक्खेहिं । २. लोयालोय । (80) ॥ हेला ॥ पुनः पृच्छति महीश्वरः सकललोकपालः मधुरमहाध्वनिनाऽऽख्याति त्रिलोकपालः ॥ “किमिह त्रिभुवने सारं, भट्टारक" " धर्मरत्नं भो महीधरधारक" " किं दुर्लभं भवलक्षेषु जिनवर " " प्रव्रज्यानिधानं हे श्रीधर" " किं सुखं लोकालोके महागुरो " " बाधारहितमहो मृदितमुर" “के जीवस्य वैरिणस्तीर्थंकर" "क्रोधमोहमृगाक्ष्यः हरिधर" “किं पालनीयमत्र सर्वज्ञ” “ध्रुवं सम्यक्त्वं शीलं अयि विष्णो” " किं सुंदरं करणीयं दयारुह" दानं पूजा हे देवकीतनुरुह" "के दुःसहास्त्रिदशेश्वरस्वामिन् " " प्रवरपरीषहाः खगपतिगामिन् " “किं बलवत् समरविमर्दन" " जीवस्य चिरकृतं कर्म जनार्दन " “को देवः केवलवरलोचन' " दोषविवर्जितः हे मधुसूदन" “को धर्मो जगति ज्ञानोत्पादन " " जीवदयापरः हे नारायण " Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतिदुषण सयंभु ] ६५ " किं संसारहो मूलु णिरासव" "गरुउ पमाउ मुणहिं मणि केसव” " किं कटु यरु सिद्धि अब्भावह" "अण्णाणत्तणु जउ-वर माहव" ॥घत्ता ॥ " जीव - णिकायहो' किं दढ - बंधणु भुवणुत्तम" " विविध परिग्गड गेहिणि-सणेहु पुरिसोत्तम" ॥ ર ( ११ ) परमेसरु साहइ जेम जेम हरिसिज्जइ सह - यणु तेम तेम सेसिय- सुय - वयणामिय- रसस्स तित्ति ण संभवदि हु केसवस्स ण जडण- सिदस्स दीवायणस्स ण कुसुम-सरस्स से णंदणस्स ण सिणिस्स जरस्स ण सच्चइस्स संबस्स ण तित्ति ण दुंदुहिस्स भाणुस्स सुभाणुहि सुट्रुवस्स भगदस्स जगस्स सढावियस्स तित्ति ण सारस्स ण सारणस्स तित्ति ण णंदस्लाणंदणस्स १४० भोयस्स देव सेणस्स तस्स ... णः भवदि ससि मुद्द - स णेउरस्स किस मज्झुद्दे संतेउरस्स १. निहायो । २. करणसिदस्स । " किं संसारस्य मूलं निरास्रव" " गुरुकः प्रमादो मनुष्व मनसि केशव " “किं कष्टकरं सिद्धयभ्यावह" "अज्ञानत्वं यदुपते माधव " ॥घत्ता।। " जीवनिकायस्य किं दृढबंधनं भुवनोत्तम" "विविधपरिग्रहः गेहिनी स्नेहः पुरुषोत्तम" ॥ ( ११ ) परमेश्वरः कथयति यथा यथा हृष्यति सभाजनस्तथा तथा शेषितश्रुतवचनामृतरसस्य तृप्तिर्न संभवति खलु केशवस्य न यमुनाश्रितस्य द्वीपायनस्य न कुसुमशरस्य तस्य नंदनस्य न शिनेः जरतो न सात्यकेः शंबस्य न तृप्तिर्न दुंदुभेः भानोः सुभानोः सुष्ठुकस्य भगदस्य जगतः श्रद्धापितस्य तृप्तिर्न सारस्य न सारणस्य तृप्तिर्न नन्दस्याssनंदनस्य भोजस्य देवसेनस्य तस्य ..... न भवति सशशिमुद्रान् पुरस्य कृशमध्योदेशान्तः पुरस्य .... १३५ ....... Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बलपण्ड तित्ति ण पउरस्स महा-यणस्स सस्सुड्ढसिरस्स' ण रिसि-गणस्स ॥ ढक्का-भासा-कडवयं ॥ ॥घत्ता॥ किय-कर मउलिहिं जिहं णरहं तेव सुरा-ऽसुर-वरहिं वि धरणिंदाइहिं ण वि होइ तित्ति विस-हरिहि वि ॥ १४५ (१२) ॥हेला॥ तहिं पत्थावि णाहि किय-परम-वंदणेण रोहिणि-दस-दसार-लहु भाइ-णंदणेण ॥ कर-कोपलु करेवि सुर-सारउ चलण पुच्छिउ णेमि-भडारउ " कहि परमेसर इह दारा वइ धणय-विणिम्मिय सुर-पुरि णावह बहु-पुण्णोदएण गोविंदहो विद्धिए गच्छइ मज्झि समुद्दहो १५० तुह जम्मु वि भणेवि जणु वंदइ कित्तिउ कालु सतोरण णंदइ . आयहो णामु ति लोग-पगासु वि जिण सत्थेण ण अस्थि विणासुवि अण्णु विपर-बल-वण तिण डहणहो कित्तिउ कालु विजउ महु-महणहो १. सुरवरहिं । २. गच्छिय । तृप्तिन पौरस्य महाजनस्य श्वासोर्ध्वशिरसः न ऋषिगणस्य ॥ ढकाभाषाकडवकम् ।। ॥त्ता।। मौलिकृतकराणां यथा नराणां तथा सुरासुरवराणामपि धरणीन्द्रादीणां नापि भवति तृप्तिः विषधराणामपि ॥ (१२) ॥हेला। तस्मिन् प्रस्तावे नाथे कृतपरमवन्दनेन ____ रोहिणिदशदशाहलघुभातृनन्दनेन ॥ करकुड्मलं कृत्वा सूरिश्रेष्ठः चरणयोः पृष्टो नेमिभट्टारकः " कथय परमेश्वर एषा द्वारावती धनदविनिर्मिता सुरपुरी यथा बहुपुण्योदयेन गोविन्दस्य वृद्धय गच्छति मध्ये समुद्रस्य तव जन्मापि भणित्वा जनो वंदते कियन्तं कालं सतोरणा नंदति अस्याः नाम त्रिलोकप्रकाशमपि जिन शस्त्रेण नास्ति विनाशोऽपि अन्यदपि परबलवनतृणदहनस्य कियन्तं कालं विजयो मधुमथनस्य Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] जीवउ स-सुहि स-पुत्तु स-भज्जु व कित्तिउ कालु णिरग्गल रज्जु व" अक्खइ णेमि “अ-भाउ स-दारहो बारसमए संवच्छरे दारहो १५५ ॥धत्ता॥ " अण्णु वि हल हर तहिं कालि' महब्बलवंतहो णिय-पुण्ण-खई सई अवसाणु अणंतहो " ॥ (१३) ॥हेला॥ पुण रवि रेवइ-वरो पभणइ " देव-देवो ' कहु पासिउ अभाउ किं कारणेण के ...॥ पुर-विणासि किं कण्हु करेसइ कहि परसि कहो करेण मरेसइ १६० कम्म-पहाविं कत्थ हवेसइ कित्तइं जम्मंतरइं भमेसह कित्तिउ कालु हउं वि जीवेसमि हरिहि विओए किं नु करेसमि सोय-कालि नियरिसणइ दाविवि को मई संबोहेसइ आविवि कालु करेवि कित्थु जाएसमि कइ इह कम्मा-बंधु मुच्चेसमि" इय वयणहि वरु कम्म-खयं करु साहइ बावीसमु तित्थं-करु १६५ १. काल । २. पुणु । ३. 'वा' जेवु वंचाय छे; पण संदिग्ध लागे छे. ४. कम्मु । ५ खयंकरि । जीवितं ससुहृत्कं सपुत्रं सभार्याकं च कियन्तं कालं निरर्गलं राज्यं च आख्याति नेमिः " अभावः सद्वारायाः द्वादशमे संवत्सरे द्वारकायाः . ॥धत्ता। अन्यदपि हलधर तस्मिन् काले महाबलस्य निजपुण्यक्षयेण स्वयमवसानमनन्तस्य ।। (१४) ॥ हेला ॥ पुनरपि रेवतीवरः प्रभणति " देवदेव कस्य पार्श्वतः अभावः किं कारणेन कीदृशः ॥ पुरविनाशे किं कृष्णः करिष्यति कस्मिन् प्रदेशे कस्य करेण मरिष्यति कर्मप्रभावेन कुत्र भविष्यति कति जन्मान्तराणि भ्रमिष्यति कियन्तं कालमहमपि जीविष्यामि हरेवियोगे किं नु करिष्यामि शोककाले निदर्शनानि दत्त्वा को मां संबोधयिष्यति आगत्य कालं कृत्वा कुत्र यास्यामि कदा इमं कर्भबंध मोचयिष्यामि " इति वचनेभ्यो वरः कर्मक्षयंकरः कथयति द्वाविंशस्तीथकरः Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बलपण्ड "जउण-महानइ-तड-संजायहो दीवायण-णामहो विक्खायहो ॥घत्ता॥ आयहो पासिउ जं सयल-जणहो दुह-संदणु मज्जही कारणिहिं दारावइ-विद्धंसणु ॥ (१४) हेला॥ अण्णु वि चंड-कंड-धणु-सर'-सहारणं वसुएव-पिय-जरा पवि-जायएणं ॥ १७ आएं जरेण कउसंबि-वणि परमाउ-पवण्णु पसुरुहणि णिय-भाइ कणि?उ चक्काहरु घाएवउ एहु सिरि-धरणि हरु पुणु होसइ काल-विणासायरु तइयइं जम्मंतरि तित्थ यरु एयहो विच्छोइ किलामियउ तुहुं राम होसि पन्भावियउ सग्गहो अवयरिवि तेय-पउरु पडिबोहेसइ सिद्धत्थ-सुरु १७५ पुणु तउ वीसुत्तरु' वरिस-सउ सण्णासु करेवि मरेवि तउ पावेसह सुहु मणोरमए इंदत्तु सुरालइ पंचमई १. हर । २. वीसत्त। " यमुनामहानदीतटसंजातस्य द्वीपायननाम्नः विख्यातस्य ॥त्ता। अस्य पार्श्वतः यत् सकलजनस्य दुःखस्यदनं मद्यस्य कारणात् द्वारावतीविध्वंसनम् ॥ ॥ हेला ॥ अन्यदपि चण्डकाण्डधनुःशरसहायेन वसुदेवप्रियाजरादेवीजातकेन । अनेन जरेण कौशांबीवने परमायुःप्रपन्नः पशुरोधनेन निजभ्राता कनिष्ठश्चक्रधरो हन्तव्यः एषः श्रीधरणीधरः पुनर्भविष्यति कालविनाशकरः तृतीये जन्मान्तरे तीर्थङ्करः एतस्य वियोगेन क्लान्तस्त्वं राम भविष्यसि प्रभ्रामितः स्वर्गादवतीर्य तेजःप्रचुरः प्रतिबोधयिष्यति सिद्धार्थसुरः पुनस्ततो विंशत्युत्तरं वर्षेशतं संन्यासं कृत्वा मृत्वा ततः प्राप्स्यसि सुष्टु मनोरमे इन्द्रत्वं सुरालये पश्चमे Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु] भट्ठमउ रामु जहिं गयउ चिरु तो दिण-यर-कोडि-किरण-हइरु ॥घत्ता॥ दस-सायर-समइ तहिं गमिवि चविवि मणुयत्तणि सव-णिहिं पावेवि पुणु पहसेसहि सिव-पट्टणि " ॥ १८० ( १५ ) ॥हेला। तं णिसुणेवि वयणु मसि-वण्णु गउ णरिंदो णं थियउ गिंभ-याले दव-दड्ढ-महि हरिंदो भासिएण जिण-णाहहो णाहहो मणु परितप्पइ कण्हहो कण्हहो कंपइ देहु सारामहो रामहो भउ वडुइ तव-कामहो कामहो । असुह-स्थिइ 'अ सुभाणुहिं भाणुहिं अदिहि वि स.विलासंबहो संबहो अवलुअ अणिरुद्धहो अणिरुद्धहो चिंत पदुक्का णिसढहो णिसढहो गोढउ मणु जिण-धम्महो धम्महो धुक्कुधु गोणंदहो णंदहो दहलु' दीवायणि दीवायणि उम्माहउ भुय-पंजरि पंजरि' संकाविय मणि सारणि सारणि होइ कलुस-मइ सच्चहि सच्चहि १. असुहस्थीम । २. अवलू अणिरुद्धहो णिरुद्धहो । ३. शुकदइ । ४. दुहुछ । अष्टमो रामो यत्र गतश्चिरं तत्र दिनकरकोटिकिरणरुचिरः ॥पत्ता। दशसागरसमयं तत्र गमित्वा च्युत्वा मनुजत्वं तपोनिधिः प्राप्य पुनः प्रवेक्ष्यसि शिवपत्तनं । ॥हेला।। तद् निश्रुत्य वचनं मषीवर्णः गतो नरेन्द्रः यथा स्थितो ग्रीष्मकाले दवदग्धमहीधरेन्द्रः । भाषितेन जिननाथस्य नाथस्य मनः परितप्यति कृष्णस्य कृष्णस्य कम्पते देहः सरामस्य रामस्य भयो वर्धते तपःकामस्य कामस्य असुखस्थितिश्च सुभानोः भानोः अधृतिरपि सविलासताम्रस्य शंबस्य कोपोऽनिरुद्धस्यानिरुद्धस्य चिंता प्रढौकते निषण्णं निषधम् गादं मनो जिनधर्मे धर्मस्य कम्पः गोनंदस्य नंदस्य दुर्भाग्यं द्वीपायने द्वीपायने उन्माथो भुजपञ्जरे पञ्जरे शङ्कितः मनसि स्मरणेन सारणिः भवति कलुशमतिः सत्येन सात्यकिः Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बलपण्डु मुहुं इलिज्जइ गोरिहिं गोरिहिं मेइणि लिहइ स लक्खण लक्खण १९० सामलइज्जइ रुप्पिणि रुप्पिणि तिह जिय-णिय-पह-: - रोहिणि रोहिणी ॥ पडि-पाय -जमयं छंदः ॥ ७० ॥ धत्ता ॥ तहिं वर-वेलए जउ- अवत्थ जा दीसइ सा आगंतुष पुर' - डाहि विदुक्कर' होस || ( १६ ) १९५ || हेला ॥ वरि सुसइ समुद्दु वरि मंदरो णमेइ ण वि सव्वण्डु - भासियं अण्णा हवेइ ॥ पत्थंतरि चिंत कुसुम - सरु एहु सो महु तव चरणावरु पलप विण चुक्क जिण-वयणु कहो मणि-कंचणु कहो सुहि- सम्यणु जइ दारावरहि वि होइ खउ तहे अण्णहो भुवणि थिरन्तु कउ जहिं णारायणु वि दिणिहिं मरइ तिहं अम्हारिसु कहिं परसरह जहिं दीवाणु पुर- वरु डहइ जइ जर- कुमारु केसउ वहर जहिं बलु खंधेण समुव्वहइ एवड्डु दुक्खु को तं सहइ १. पुरु । २ दुक्करु | मुखं मलिनीभवति गौर्याः गौर्या : मेदिनों लिखति सलक्षणा लक्षणा श्यामलीभवति रूपिणी रुक्मिणी तथा जितनिजप्रभारोहिणी रोहिणी || प्रतिपादयमकं छन्दः || ॥घत्तो॥ तत्र वरवेलायां यदु[कुल ]अवस्था या दृश्यते सा आगंतुके पुरदाहेऽपि दुष्करा भविष्यति ॥ ( १६ ) || हेला ॥ वरं शुष्यति समुद्रः वरं मन्दरो नमति नापि सर्वज्ञभाषितमन्यथा भवति ॥ ܕܙ "" अत्रान्तरे चिन्तयति कुसुमशरः एषः स मम तपश्चरणावसरः प्रलयेऽपि न च्यवति जिनवचनं कस्य मणिकाञ्चनं कस्य सुहृत्स्वजन: यदि द्वारावत्याः अपि क्षयो भवति तर्हि अन्यस्य भुवने स्थिरत्वं कुतः यत्र नारायणोऽपि दैन्येन म्रियते तत्रास्मादृशः कुत्र प्रतिसरति यत्र द्वीपायनः पुरवरं दहति यत्र जरत्कुमारः केशवं हन्ति यत्र बलः स्कंधेन समुद्वहति एतावद् दुःखं कस्तत् सहते " २०० Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिडयण सयंभु] ७१ पुणु पुणु वि वियप्पिवि एम मणि णिय-वर ठवेवि अणिरुद्ध खणि हरि-सुउ आयंतुय भय-लइउ सहुं वीर-सहासिं पव्वइउ तिह उहयहिं माल-कुरु-वइहि सुय दिक्खंकिय जुयइ-सहास-जुय' ॥घत्ता॥ तिह णर-णंदणि कंचण माल वि भव-दुसिय २०५ सहु मयरंकेण तव-चरणे झत्ति विहूसिय ॥ (१७) ॥हेला॥ तिह भामा-सुओ वि सहु णियय-परियणेण भाणुकुमारु वीरु दिक्खंकिउ तक्खणेण ॥ तिहं सुभाणु तिह जउ तिह सुंदरु तिह सच्चइ जयंत स-पुरंदर तिहं किव-वम्मु सारु तिह सारणु तिह दुंदुहि विओरु धरि-धारणु २१. देवसेणु तिहिं सिणि तह णंदणु तिह अपरज्जिउ णयणाणंदणु चारु जे? तिहं चिन्हउ उद्धउ कंचणु णंदु रुद्द सुहि दुब्भउ तहिं अवर वि अणेय-जउ-राणा तिह कउरव कसाय-गय-माणा १. जय । पुनः पुनरपि विकल्प्यैवं मनसि निजपदे स्थापयित्वाऽनिरुद्धं क्षणेन हरिसुतः आगंतुकभयगृहोतः सह वीरसहस्रेण प्रव्रजितः तत्रोभयोर्मालाकुरुपत्योः सुता दोक्षाङ्किता युवतीसहस्रयुता ॥घत्ता॥ तत्र नरनन्दिनि कांचनमालाऽपि भवदूषिता सह मकराङ्केण तपश्चरणे झटिति विभूषिता ॥ (१७) ॥हेला।। तथा भामासुतोऽपि सह निजकपरिजनेन भानुकुमारो वीरो दीक्षाङ्कितस्तत्क्षणेन ॥ तथा सुभानुस्तथा जयस्तथा सुन्दरस्तथा सात्यकिर्जयन्तः सपुरंदरः तथा कृपवर्मा सारस्तथा सारणस्तथा दुन्दुभिः वृकोदरः धरधारणौ देवसेनस्तथा शिनिस्तथा नंदनस्तथाऽपराजितो नयनानंदनः चारुज्येष्ठस्तथा चिह्नः उद्धवः काञ्चनो नन्दो रुद्रः सुहृद्दर्भयः तथापरेऽप्यनेकयदुराजास्तथा कौरवाः गतकषायमानाः Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२० ७२० [बलपण्ड तिह केसव-अणुमइए सु-लक्खण पव्वज्जिय पउमावइ लक्षण सच्चहाम तिहरोहिणि रुप्पिणि तिह जंबुमइ गोरि तिह रुप्पिणि२१५ तिह गंधारि सु-सील सबाली तिह सिरि संबलि तणु-सोमाली ॥धत्ता॥ तिह अवराउ' वि भव-भीरु-मणउ हरि-कंतउ सहु वहु-सुण्हहिं पज्जुण्णहो अणु णिक्खंतउ ॥ (१८) ॥हेला॥ तव-चरणेण तेण इत्थि-यणस्स' पहु-वयस्स गय-ऽसेस-सुरय-राग-रूय-विब्भमस्स ॥ सोउं णाणा-वत्थु-विसेसे अण्णं पि हु आयार-विसेसे णमिऊणं सहसा केवलिणं जोइऊण सिरि सिरि-सुह-णलिणं मुणिय जीवाजीव य विरत्तं तहिं गिण्हंति के वि सम्मत्तं के वि पुणे अप्पे पावज्ज के वि चयति सया पिय-भज्ज' के वि वयाई लिति रायाणो केहिं विमुक्को रागो माणो २२५ - १. अवराऊ । २. इत्थीणस्स । ३. स्यविन्मयस्स । ४. सोउ । ५. मुणिय जीवजीवियअविरत्तं । तथा केशवानुमत्या सुलक्षणा प्रव्रजिता पद्मावती लक्षणा सत्यभामा तथा रोहिणी रूपिणी तथा जाम्बवती गौरी तथा रुक्मिणी तथा गान्धारी सुशीला सबाला तथा श्रीः शाल्मली तनुसुकुमारा ॥त्ता॥ तथाऽपरा अपि भवभीरुमनसो हरिकान्ताः सह वधूस्नुषाभिः प्रद्युम्नस्यानु निष्क्रान्ताः ॥ (१८) ॥ हेला ॥ तपश्चरणेन तेन स्त्रीजनस्य पृथुवतस्य गताशेषसुरतरागरूपविभ्रमस्य । श्रत्वा नानावस्तुविशेषान् अन्यानपि खलु आचारविशेषान् नत्वा सहसा केवलिनं दृष्ट्वा श्रीश्रीसुखनलिनं ज्ञात्वा जीवाजीवांश्च विरक्ता तत्र गृह्णन्ति केऽपि सम्यक्त्वं केऽपि पुण्येनात्मना प्रव्रज्यां केऽपि त्यजन्ति सदा प्रियभार्यां केऽपि व्रतानि लान्ति राजानः कैविमुक्तो रागः मानः Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण संयंभु] केहिं पि हु साण-त्थावियाई गहियां सुह-सिक्खा वयाई केहि विहु य पुणु धरिय चरित्ता थिय णं गिरि जिह उण्णय-इला' अण्णे के वि स गुरुणो वइणो णिवणंति गिरं जग-वइणो' के वि करंति णिवित्तिं महुणो सुणहुल्लस्स के वि तह मिहुणो कायस्साहारस्स वि एक्को तह परिणयणो वि अण्णिको २३० के वि स-भाईणं पुत्ताणं दिति महंताणं संताणं पच्छा भणिय ‘णमो सिद्धाणं' उद्धरणं करंति कंजाणं ॥घत्ता॥ केहिं' वि अण्णाणेहिं णाणा-विह लइय अवग्गहं केहि वि कुसलेहिं परिमाणिय णियय -परिग्गरं ॥ (१९) ॥हेला॥ तो दीवायणो वि पिय-भिच्च-सुय-वरिट्ठो २३५ गुरु-चिंता-महण्णवे तक्खणे पइटो ॥ “धिद्धिगत्तु जीविय मणुयत्तणु धिद्धिगत्थु परियणु बंधव-जणु १. उण्णइ-इत्ता । २. पइणो + + + जगवयणो । ३. कवि । कैरपि खलु शाणस्थापितानि गृहीतानि शुचिशिक्षाव्रतानि । कैरपि खलु च पुनधूतं चारित्रं स्थिता खलु गिरय इव उन्नतचित्ताः अन्ये केऽपि स्वगुरून् वतिनः निर्वर्णयन्ति गिरं जगत्पतेः केऽपि कुर्वन्ति निवृत्तिं मधुनः श्वानिकस्य केऽपि तथा मैथुनस्य कायस्याहारस्याप्येकस्तथा परिणयस्याप्यन्यः एकः केऽपि सभ्रातृन् पुत्रान् यच्छन्ति महद्भयः सद्भयः पश्चाद् भणित्वा ' नमः सिद्धेभ्यः' उद्धरणं कुर्वन्ति कमानां ॥धत्ता।। कैरपि अज्ञान: नानाविधो गृहीतोऽवग्रहः कैरपि कुशलैः परिमानितो निजकपरिग्रहः ॥ (१९) ॥ हेला ॥ ततः द्वीपायनोऽपि प्रियभृत्यसुतवरिष्ठः गुरुचिन्तामहार्णवे तत्क्षणे प्रविष्टः । "धिग् घिगस्तु जीवितं मनुजत्वं धिग धिगस्तु परिजनं बांधवजनं Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ [ बलपण्डु घिद्धिगत्थु मणि धण्णु स-कंचणु धिद्धिगत्तु महिला-यणु जोव्वणु जहि महु मणहो कोउ संबज्झइ जहिं महु पासिउ पट्टणु डज्झइ । जहि महु पासिउ जउ-कुलु णासइ जहि महु पासिउ सयलु वि तासर तर्हि किं णिवसिएण णिमिसेक्कु वि विसएहिं वेयारिउ जइ लोक्कु वि भट्टि जाउ गिह-धम्मु असारउ णाणा विह-दुक्खह हकारउ सव्व-पयारे कलुण-रसाहिउ वरि' अरहंतु देउ आराहिउ मुत्ति रमणि-रस-भर उम्माहिउ............ भल्लउ एहु दस-वावाऽलंकिउ स-सुउ स-भज्जउ सो दिक्वकिस"२४५ ॥घत्ता॥ पुणु णिवेइउ गउ पुव्व-देसु अ-सहतउ तव-माहप्पेण थिउ णिय-सरीरु सोसंतउ ॥ (२०) महेला ताम जरा-सुओ वि वसुएवं'-मण-पियारो डोल्लइ णिय-मणेण पुणु पुणु वि जर-कुमारो ॥ १. पयारे + + कलणु + + वारि । २. वसुएवसुउएव । घिन घिगस्तु मणिं धान्यं सकाञ्चनं धिर धिगस्तु महिलाजनं यौवनं यत्र मम मनसः कोपः संबध्यते यत्र मम पार्श्वतः पट्टनं दह्यते यत्र मम पावतो यदुकुलं नश्यते यत्र मम पार्श्वतः सकलमपि त्रस्यति तत्र किं निवसितेन निमेषमेकमपि विषयैर्विकारितो यदि लोकोऽपि भ्रष्टिं यातु गृहधर्मः असारः नानाविधदुःखानामाकारकः सर्वप्रकारेण करुणरसाधिको वरमर्हन् देवः आराधितः मुक्तिरमणीरसभरोन्माथितः .... .... .... .... भद्रकः एषः दशवातालंकृतः ससुतः सभार्याकः सः दीक्षाङ्कितः" ॥त्ता।। पुनः निर्विण्णः गतः पूर्वदेशमसहमानः तपोमाहात्म्येन स्थितः निजशरीरं शुष्यन् ।। (२०) ॥ हेला ॥ तावज्जरासुतोऽपि वसुदेवमनःप्रियकरः दोलायते निजमनसा पुनः पुनरपि जरत्कुमारः ।। Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु ] एहु णारायणु महु लहुउ भाइ राहव-चंदद्दो सोमित्ति णाइ २५० चक्केसरु जायव-सामि सालु हरिवंसुद्धारणु धरणि-पालु किय बहु-साहसु विद्दविय देहु हेला-उवलद्ध-महा-विरोहु जहि महु करि मरइ खगिंद-गमणु तहिं आयहो पासिउ कंड कवणु जहि हउँ णिग्घिणु सह लच्छि-संगि पहरेसमि महु-सूयणहो अंगि तहिं वार-वार किं बोल्लिएण किं महु-मह-हियवइ-डोल्लिएण २५५ लहु गम्मइ एक्कंगणई तित्थु मेलावउ कहि वि ण होइ जेत्थु जम्महो वि ण सुव्वइ जहिं पवत्ति जहिं कहि वि ण सत्यणहो तणिय तत्ति ॥धत्ता॥ एवए चिंतिवि भाइ सोयावरु हरि-पासहो बाण-धणुद्धरु गउ दूरु दुग्ग-वण वासहो ॥ ( २१ ) ॥हेला॥ थिय पिय णलिणि लोयणे मत्त-मद विहारे २६० आउलियहूय-माणसे पवसिए कुमारे ॥ १. वाणु । एष नारायणो मम लघुको भ्राता राघवचन्द्रस्य सौमित्रिर्यथा चक्रेश्वरो यादवस्वामिसारो हरिवंशोद्धारणो धरणीपालः कृतबहुसाहसो विद्रावितदेहो हेलोपलब्धमहाविरोधः यत्र मम करेण म्रियते खगेन्द्रगमनस्तत्रास्य पार्थतः काण्डः कः यत्राहं निघृणः सदा लक्ष्मीसंगं प्रहरिष्यामि मधुसूदनस्याऽङ्गं तत्र वारंवारं किं उक्तेन किं मधुमथहृदयदोलायितेन लघु गम्यते एकाकिना तत्र मेलापकः कथमपि न भवति यत्र जन्मनोऽपि न श्रयते यत्र प्रवृत्तिः यत्र कथमपि न स्वजनस्य सत्का तप्तिः ॥ घत्ता ॥ एवं चिन्तयित्वा भ्रातृशोकातुरो हरिपार्श्वतः बाणधनुर्धरो गतः दूरं दुर्गवनवासाय ॥ (२१) ॥हेला।। स्थिताः प्रियाः नलिनीलोचनाः मदमत्तविहाराः ___ आकुलीभूतमानसाः प्रोषिते कुमारे ॥ Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -- - [ बलपण्ड गुरु-भायरहो तणेण विओए अण्णु वि दिक्खंकिय सुहि-लोए कण्हु सुण्णु मण्णइ अप्पाणउं विंस-हरु व को माणउ माणउं' मण्णइ सो य असेसह कारणु सोय विओय-मइंद-भयावणु मण्णई सयल वि सावय सावय सेस-स-यण जायव पासाऽऽवय २६५ मण्णई सेस पियई वण-वेल्लित कर दल थण फल णह-कुसुमिल्लिड तहिं अवसरि सिद्धत्थु अ.कायरु सारहि बलएवहु लहु-भायरु तेण वुत्त "एरिस संसारए ण वि सकमि अच्छणहं असारए' मोकल्लहि सहसा सीराउह जिं तवि लग्गमि सर-रुह सम -मुह ॥घत्ता।। तुज्झ पसारण तव सिरि-वहु महु करु पावउ २७० सिग्घु अ-विग्घेण सुह-णिहि सवडं-मुह आयउ ॥" (२२) ॥हेला।। त सिद्धत्थ-वयणु णिसुणेवि चवइ रामो .. “जइ भो वच्छ वच्छ तुडं मणि विरस-कामो ॥ १ अगरई । २ स हाथप्रतमां नथी । ३ पावइ । गुरुणा भ्रातुः सत्केन वियोगेनाऽन्योऽपि दीक्षाङ्कितः सुहृल्लोकः कृष्णः शून्यं मन्यते आत्मानं ' वंशधरं च कं मानवं मन्ये' मन्यते स चाशेषाणां कारणं शोकवियोगमृगेन्द्रभयानकम् मन्यते सकलानपि श्रावकान् श्वापदानशेषस्वजनान् यादवान् पाशापदः मन्यतेऽशेषाः प्रियाः वनवल्लीः करदलस्तनफलनखकुसुमिताः तस्मिन्नवसरे सिद्धार्थोऽकातरः सारथिः बलदेवस्य लघुभ्रातातेनोक्तं " इदृशे संसारे नापि शक्नोमि आसितुमसारे मुञ्च सहसा सीरायुध येन तपसि लगामि सरोरुहसममुख ॥ घत्ता ।। तव प्रसादेन तप:श्रीवधूः मम कर प्राप्नोतु शीघ्रमविघ्नेन सुखनिधिः संमुखमायातु ॥" (२२) ॥ हेला ॥ तत्सिद्धार्थवचनं निश्रुत्य वदति रामः ___ " यदि भो वत्स वत्स त्वं मनसि विरक्तकामः ॥ Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'तिहुयण सयंभु] तो महु पडिवण्णई वसण-कालि बलवंति वियंभिए मोह-जालि' धुअ-वहिए लहु सग्गहो विपज्ज मम चित्तहो संबोहणु कुणेज्ज"२७५, तं पडिवज्जिवि बलहद-सिक्ख सिद्धत्थे तक्खणि लइय दिक्ख तउ करइ विसेसे घोरु वीरु तणु ल्हसइ ल्हसइ ण उ मणु वि धीरु गय जिणु पणविवि बल-वासुएव णि-प्पह गह-लुक्क रविंदु जेव णं विज्ज झडप्पिय गिरि-वरिंद णं मयवइ-पंचेडिय करिंद णं विणया सुय-मोडिय फर्णिद णं णिण्णासिय-वय:भर मुणिंद २८० रयणी सुण्णइ णं हरिय वित्त णं खल-वयणे सज्जणहु चित्त जिहं सरसिय सिय-किरणेण" भिण्ण तिह हरि-बलिणो इंदिय भिण्ण ॥घत्ता॥ उविण्ण चइत्ता 'रज्ज-कज्ज आउलमय सुअवक्ख सरीर-परिवज्जिय उच्छव थिय । हेला।। एत्तहे समवसरण-परिमंडिउ विहरेइ जिण-वरिंदो २८५ १. जाले । २. पडिज्जिवि । ३. विज्जु । ४. सेज्जण । ५. सियकरणे । ६. सइत्तां । तावत् मम प्रतिपन्ने व्यसनकाले बलवति विजंभिते मोहजाले ध्रुवपथेन लघु स्वर्ग विपद्येथाः मम चित्तस्य संबोधनं कुर्याः " तां प्रतिपद्य बलभद्रशिक्षा सिद्धार्थेन तत्क्षणे गृहीता दीक्षा तपः करोति विशेषेण घोरं वीरः तनुः क्षयति क्षयति न खलु मनोऽपि धीरं गतौ जिनं प्रणम्य बलवासुदेवौ निष्प्रभौ ग्रहलुप्तौ रवीन्दू यथा यथा विधुदाक्रान्तौ गिरिवरेन्द्रौ यथा मृगपतिमृदितौ करीन्द्रौ यथा विनतासुतमृदितौ फणीन्द्रौ यथा व्रतभारनि शितौ मुनीन्द्रौ रजन्या शून्यया यथा हृतं वृत्तं यथा खलवचनेन सज्जनस्य चित्तं यथा सरसिजं सितकिरणेन भिन्नं तथा हरिबलयोः इन्द्रियाणि भिन्नानि ॥ घत्ता ॥ उद्विग्नौ त्यक्त्वा राज्यकार्यमाकुलितौ परिवर्जितसुतपक्षशरीरोत्सवौ स्थितौ ।। ॥ हेला ॥ इतः समवसरणपरिमंडितो विहरति जिनवरेन्द्रः Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ बलपण्डु जिह पचवग्गेण' उडु - गण - जुओ णिसियरिंदो || जो जणु दारावर पव्वइउ तें सहुं अमरासुर-णर-महियउ च. वह संघ-सहिउ परमेसरु उत्तर - देस चलिउ जि गणेसरु चरम सरीरु महा-गुण- जुत्तउ वर - अइसय- विइ-रेहंतउ वसु-विह- पाडिहेर विलसंतर भविन्यण- पुंडरीय बोहंतउ वसु-दह दोस-असेसहं चत्तउ सिव उरि - सिरि-माणिणि रइ-रत्तउ धम्मामय तिलोउ सिंचन्तर दंसण जण-मण-धत्थु धुणंतर काह मि दंसण- मग्गु कहंतर काहि मि वय- पासा थवंत उ ॥ धत्ता || काह मि सामाइउ वज्जरइ काह मि पोसह उच्चरइ स.चित्त चाउ काहमि जणहं फेडंतु मि भव- भ्रमण-रइ ७८ ( २४ ) ||ला || काह मि दिन- मेहुण- णिवित्ति पडतो काह मि सव्वायरेण बंभज्जणु महंतो ॥ १. पंचमग्गेण । यथा पञ्चवर्गेणोडुगणयुतो निशाकरेन्द्रः ॥ यो जनो द्वारावत्याः प्रव्रजितः तेन सहामरासुरनरमहितः चतुर्विधसंघसहितः परमेश्वरः उत्तरदेशे चलितः इव गणेश्वरः चरमशरीरः महागुणयुक्तः वरातिशयविभूतिशोभमानः वसुविधप्रातिहार्यविलसन् भव्यजनपुण्डरीकान् बोधयन् वसुदशाशेषदोषैस्त्यक्तः शिवपुरीश्री मानिनीरतिरक्तः धर्मामृतेन त्रिलोकं सिञ्चन् दर्शनेन जनमनोधाष्टर्यै धुन्वन् केभ्योऽपि दर्शनमार्ग कथयन् कानपि व्रतप्रासादे स्थापयन् ॥ घत्ता || केभ्योऽपि सामायिकं कथयति केभ्योऽपि पोषधमुच्चरति सचित्तत्यागं केभ्योऽपि जनेभ्यः भञ्जन्नपि भवभ्रमणरतिं ॥ ( २४ ) || हेला || केभ्योऽपि दिनमैथुननिवृत्तिं प्रकटयन् केभ्योऽपि सर्वादरेण ब्रह्मार्जनं कथयन् ॥ २९० २९५ Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिहुयण सयंभु ] काहि मि आरम्भाइय-वज्जणु तहं अणुमइ-परिचाय-समज्जणु तह परिगह-णिवित्ति साहइ जिणु तह उद्दिट्टाहार-विवज्जणु सावयाहं सावय-चय देतउ सावयाहं गिह-धम्मु कहंतउ काह वि दतु मह व्वय सारइं चउगइ-गमण-भवण-विणिवारइं उग्गिरंतु दह-लक्खण-मेयइ विसहो विसेसरु णेयाणेयइ काह मि चकि तवई उग्गीरइ वण-यराह जिण विसु पच्चीरह एम असेसु लोउ बोहंतज सुर-विस हर-णर-मणु खोहंतउ । विहरइ जिण-वरिंदु भय-चत्तउ अवियल-बोह-दिहि-संजुत्तउ . ॥घत्ता॥ महु-महाणिसंतु जो पव्वइउ णिण्णासियभव-भवण-रह रायमई-गणिणि-सयासि थिउ भाव-विसुद्धिए तउ तवइ ३०५ ॥हेला।। पज्जुणाइ-'मुणि गणा दुःविह गंथ-चत्ता ते जिण वर-सयासि णि-प्पह-मण दुद्धरु तउ तवंता ॥ १. पज्जुणाई । २. आ पंतिमा मात्राभंग वधारे छे. केभ्योऽपि आरम्भादिवर्जनं तथा अनुमतिपरित्यागसमर्जनं तथा परिग्रहनिवृत्तिं कथयति जिनस्तथोद्दिष्टाहारविवर्जनं श्रावकेभ्यः श्रावकवतान् यच्छन् श्रावकेभ्यो गृहधर्म कथयन् केभ्योऽपि यच्छन् महाव्रतानि साराणि चतुर्गतिगमनभ्रमणविनिवारकाणि उद्गिरन् दशलक्षणभेदानि विड्भ्यो विशीश्वरो ज्ञेयाज्ञेयानि केभ्योऽपि चक्री तपांसि उद्गिरति वनचराणां जिनो विषं मृद्राति एवमशेषं लोकं बोधयन् सुरविषधरनरमनांसि क्षोभयन् विहरति जिनवरेन्द्रस्त्यक्तभयोऽविकलबोधदृष्टिसंयुक्तः ॥ धत्ता ॥ मधुमथ-अनिश्रान्तः यः प्रवजितः नि शितभवभ्रमणरतिः राजीमतिगणिनीसकाशे स्थितः भावविशुद्धया तपस्तपति ॥ (२५) ॥ हेला ॥ प्रद्युम्नादिमुनिगणाः द्विविधग्रंथत्यक्ताः ते जिनवरसकाशे निःस्पृहमनसो दुर्धरं तपस्तपन्तः ॥ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [बलपण्ड एत्तहे दारावइ जो जण-वउ जिण वर-भासिए मइ-णि-च्चलु थिउ ३१० भविय-सत्तु आसण्ण-भवण्णउ भविय-उवसमु वज्जिय-दुण्णउ दाण-'पूय-सुह भावासत्तउ दुण्णयःणय-वसणाइ-विरत्तउ जिण-वर-भासिउ णिलउ चयंतउ' भव-तण-धण वेराउ वहंतउ भंगुरयरु ति-लोउ भावंतउ विसय-कसायई दूरि चयंतउ पिय-घर-घरिणि-मोहु विहुणंतउ णिय-मणि पंच-पयई सुमरंतउ ३१५ जो अ-भव्वु सो चिंतावण्णउं आगामिय-दुह-कलुसु वहंतउ अट्ट-रउद्दे मणु पोसतउ हा किं किं होसइ' जंपंतउ' पिय-घर-वसु-विओय कंपंतउ मोह-महा-दहे णिम्मजंतउ ॥ . ॥धत्ता। सइंभुवि विहणंतउ एम जणु भावि-किलेसादण्णउं थिर भावाउल-रस-पूरियउ हरिस-विसाय पवण्णउ ॥ ३२० १. दाणु । २. गलिउ चवंतउ । ३ जंगृत्तउ । ४ भुव । आ संधिमां हाथप्रत प्रमाणे मूलमां कडवानी संख्या २६ छे कारण के कड, २० रहिआए २१ तरीके नोंधी गणतरीनी भूल ठेठ छेडा सुधी खेंची छे. खरी कडवांनी संख्या २५ छे. संधिने छेडे नीचे प्रमाणे पुष्पिका छे. इय अरिद्रणेमिचरिए धवलासियसयंभुउव्वरिए तिहुवणसयंभुरइए बलपण्ड ति-उत्तरं सयं पव्वं ॥ १३ ॥ इतः द्वारावत्यां यो जानपदः जिनवरभाषिते निश्चलमतिः स्थितः भव्यसत्वः आसन्नभवार्णवः भावितोपशमः वर्जितदुर्नयः दानपूजाशुभभावासक्तः दुर्नयनयव्यसनादिविरक्तः जिनवरभाषितो गृहं त्यजन् भवतनुधनेषु वैराग्यं वहन् भङ्गरतरं त्रिलोकं भावयन् विषयकषायान् दूरे त्यजन् प्रियगृहगृहिणीमोहं विधुन्वन् निजमनसि पञ्चपदानि स्मरन् योऽभव्यः सः चिन्तापन्नः आगामिदुःखकालुष्यं वहन् आर्तरौद्राभ्यां मनः पोषयन् ' हा किं किं भविष्यति ' जल्पन् प्रियागृहवसुवियोगेन कम्पमानः मोहमहाद्रहे निमज्जन् ॥ घत्ता ॥ स्वयंभुवा विहन्यमानः एवं जनः भाविक्लेशापीडितः स्थिरभावाकुलरसपूरितः हर्षविषादौ प्रपन्नः ॥ Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ पञ्चममुहरणम् ॥ [ पुप्फयंतु] ॥ वसुएव-घरच्चाउ । सहुं भायरहिं समिछु णायाणाय णिहालइ पहु समुद्दविजयंकु महि-मंडलु परिपालइ ॥ एकहि दिणि आरूढउ करि-वरि णावइ ससाहरु उइय-मही हरि अ-सहसाणयणु णाई कुलिसाउहु अ-कुसुम सरु णं सइं कुसुमाउहु णं अ-क्खारु स-लवणु रयणायरु- अ-कवड निलउ णाई दामोयरु ५ अ-मल देहु णावइ उज्जोयणु जग-संखोह-कारि णावइ जिणु चामर-छत्त-चिंध-सिरि-सोहिउ विविहाहरण-विसेस-पसाहिउ सो वसुएउ कुमारु पुरंतरि हिंडइ हट्ट मग्गि घरि चत्तरि सो ण पुरिसु जे दिढि ण ढोइय सा ण दिट्टि जा तहु ण पराइय १.उइउ । २.'णं अखारु सलवणु रयणायरु' हुं अक्खार करी स-लोणु वांचवा प्रेराउं छं. [ पुष्पदंतः] ॥ वसुदेवगृहत्यागः ॥ (१) सह भ्रातृभिः समृद्धः ज्ञाताज्ञातं निभालयति । प्रभुः समुद्रविजयांकः महीमंडलं परिपालयति ॥ एकस्मिन् दिने आरूढः करिवरे यथा शशधरः उदयमहीधरे असहस्रनयनः यथा कुलिशायुधः अकुसुमशरः यथा स्वयं कुसुमायुधः यथा अक्षारः सलवणः रत्नाकरः अकपटनिलयः यथा दामोदरः अमलदेहः यथा उद्द्योतनः जगत्संक्षोभकारी यथा जिनः चामरछत्रचिह्नश्रीशोभितः विविधाभरणविशेषप्रसाधितः सः वसुदेवः कुमारः पुरान्तरे हिंडते आपणमार्गे गृहे चत्वरे सः न पुरुषः येन दृष्टिः न ढौकिता सा न दृष्टिः या तस्मै न परागता Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुष्फर्यतु मणुम'-देउ सो कासु ण भावइ सचरंतु तरुणी-यणु तावा ॥घत्ता। क वि कुमार णियंति रोमि रोमि पुलइज्जइ अ-लहन्ती तहु चित्तु पुणरवि तिलु तिलु खिज्जइ ॥ १२ (२) पासेइज्जइ का वि णियंबिणि थिप्पइ णं अहिणव-कालंबिणि का वि तरुणि हरिसंसुअ मेल्लइ काहिं वि वम्महु वम्मई सल्लह सूहव-गुण-कुसुमहिं मणु वासिउ काहि वि मुहु णीसासि सोसिउ णेह-वसेण पडिउ चेलंचलु काहि मि पायडु थक्कु थण-स्थलु काहि मि केस-भारु चुअ-बंधणु काहि मि कडियले ल्हसिउ पयंधणु खलिय-क्खरइं का वि दर जंपइ पिय विओअ-य-खेएं कंपइ चिक्कवंति क वि चरणहि गुप्पइ का वि पुरंधि णिय-दइयहो कुप्पद मयणुम्मायउ गय-मज्जायउ काहि मि हियउ णिरंकुसु जायउ। १. मणुउ। २ काई+++णीसासं । ३ चुउ । ४ विओअजखेए । ५ आ पंक्तिनो क्रम में मारा पाठमां मूळनो कायम राख्यो छे; परंतु आ पंक्ति -आखी य पं. १७ पछी होय; अने एम मूकवा मारुं मने य खरं । मनुजदेवः स कस्मै न रोचते संचरन् तरुणीजनं तापयति ॥ पत्ता ॥ काऽपि कुमारं पश्यन्ती रोम्णि रोम्णि पुलकायते अलभमाना तस्य चित्तं पुनः अपि ईषत् ईषत् खिद्यति ॥ (२) प्रस्विति काऽपि नितंबिनी विगलति यथा अभिनवमेघलेखा काऽपि तरुणी हर्षाश्राण मुञ्चति कस्याः अपि मन्मथः मर्मणि शल्यायते सुभगगुणकुसुमैः मनः वासितं कस्याः अपि मुखं निःश्वासेन शोषित स्नेहवशेन पतितं चेलाञ्चलं कस्याः अपि प्रकटं स्थितं स्तनस्थल कस्याः अपि केशभारः च्युतबन्धनः कस्याः अपि कटीतटे सस्तं प्रबन्धनं स्खलिताक्षरैः काऽपि ईषत् वदति प्रियवियोगजखेदेन कंपते चमत्कुर्वती काऽपि चरणेषु गोपायति काऽपि पुरन्ध्री निजदयिताय कुप्यति मदनोन्मादितं गतमर्याद कस्याः अपि हृदयं निरंकुशं जातं Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ वसुवर च्चाउ ] लीय. लज्ज - कुल भय-रसु मुक्कउ वर - देवर-ससुरय-सुद्दि चुक्कउ कोहि मि वउ पेम्मेण किलिण्णउ बिउणावेदु णियंबहो दिण्णउ ॥ धत्ता | कवि ईसालय कंत' दप्पणि तरुणु पलोइवि विरह- हुआ' दडू मुअ' अप्पाणउ सोइवि ॥ ( ३ ) २४ तग्गय-मण कवि मुह-आलोयणि वीसारवि सिषु सुष्ण- णिहेलणि कडियलि घर - मज्जारु लएप्पिणु धाइय जण - वर हासु जणेपिणु काहि वि कंडतहिं ण उदूहलिं णिवडिय मुसल - घाउ धरणी-यलि काहि वि च हत्थर जोइउ रंकहं करएं पिंडु ण ढोइउ चित्तु लिहंति का वि तं झायइ पत्तछेह तं चेय णिरुवइ जा तहिं णच्च सा तर्हि णच्चइ जा गायइ सा तं सरि सुच्चइ जा बोल्लइ सा तहो गुण वण्णइ णिय-भत्तारुण काई वि मण्णइ विरहंतिहि इच्छिज्जर मेलणु भुंजंतिहिं पुणु तहो कह - सालणु (३) तद्वतमनाः काऽपि मुखालोकने विस्मृत्य शिशुं शून्यगृहे कटीतटे गृहमार्जारं लात्वा धाविता जनवजे हास्यं जनयित्वा कस्याः अपि कंडयन्त्याः उदूखले निपतितः मुशलघातः धरणीतले कस्याः अपि दारुहस्तः हस्ते दृष्टः रंकस्य करे पिण्डः न ढौकितः चित्रं लिखन्ती काऽपि तं ध्यायति पत्रच्छेदे तं चैव निरूपयति या तत्र नृत्यति सा तस्मै नृत्यति या गायति सा तं स्वरेण सूचयति या ब्रवीति सा तस्य गुणान् वर्णयति निजभर्तारं न किम् अपि मन्यते विरहिणोभिः इष्यते मीलनं भुञ्जतीभिः पुनः तस्य कथास्मरणकम् २९ १ कविइसायकं इ० । २ हुवासें । ३ मुअ । ४ हीसु । ५. उदहलि । लोकलज्जाकुलभयरसाः मुक्ताः वरदेवृश्वसुरकसुहृदः विस्मृताः कस्याः अपि वपुः प्रेम्णा क्लिन्नं द्विगुणावेष्टनं नितंबाय दत्तं ॥ घत्ता ॥ काऽपि ईर्ष्यालुका कान्तं दर्पणे तरुणं प्रलोक्य विरहहुताशेन दग्धा म्रियते आत्मानं शोचित्वा ॥ Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुष्फयंतु. णिसि सोवंतिहिं सिविणए दीसह इय वसुएउ जाम पुरि विलसद णरणाहहु कय-साहुकारे ता पय गय सयल वि विहुवारें' ३४ " देव देव भणु किं किर किज्जइ विणु घरिणिहिं घरु केम धरिज्जा मयणुम्मत्तउ पुर-णारी यणु वसुदेवहु उप्परि ढोइयःमणु निसुणि भडारा दु:क्कर जीवइ 'जाउ जाउ' पय कहि मि पयावइ" ॥त्ता॥ ता पउरहं राएण पउरु पसाउ करेप्पिणु पत्थिउ राय-कुमारु हे हकारेप्पिणु । (४) " दिण यरु दहइ धूलि तणु मइलइ दुट्ठ-दिट्ठि ललियंगई जाला किं अप्पाणउ अप्पुणु दंडहिं बंधव तुहु किं बाहिरि हिंडहिं करि वण-कोल विउल गंदण वणि झडय-कील करिहि घर-पंगणि मणि-गण-बद्ध-णि?-धरणी-यलि रमणी-कील करहिं सत्तम-यलि सलिल-कील करि कुघलय-वाविहिं " तं णिसुणेवि वयणु कुल सामिहिं ५५ १ छंदोभंग; मूळमां साहूक्कारे+++सयलविविहूवारे । २ कीर । निशि स्वपन्तीभिः स्वप्ने दृश्यते इति वसुदेवः यावत् पुरे विलसति नरनाथस्य कृतसाधुकारैः तावत् पदं गतं सकलैरपि व्यवहारिभिः " देव देव भण किं किल क्रियते विना गृहिणीभिः गृहं कथं ध्रियते मदोन्मत्तः पुरनारीजनः वसुदेवस्य उपरि ढौकितमनाः निशणु भट्टारक दुष्करं जीव्यते ' यातु यातु ' प्रजां कथमपि प्रवाचयति" ॥ पत्ता ॥ तावत्पौरेषु राज्ञा प्रचुरं प्रसादं कृत्वा प्रार्थितः राजकुमारः स्नेहेन आहूय ॥ (४) " दिनकरः दहति धूलिः तनुं मलिनयति दुष्टदृष्टिः ललितांगानि ज्वालयति कि आत्मना आत्मानं दंडयसि बंधव त्वं किं बहिः हिंडसे कुरु वनक्रीडां विपुलां नंदनवने कंदुकक्रीडां कुरु गृहप्रांगणे मणिगणबद्धनिष्ठधरणीतले रमणीक्रीडां कुरु सप्तमतले सलीलक्रीडां कुरु कुवलयवापीषु ” तत् निश्रुत्य वचनं कुलस्वामिनः Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुएवघरच्चाउ] जुवराएं पडिवण्णु णिरुत्तउ गय कयवय-दिअसेहि अ-जुत्तउ । पुणु णिउण-मइ सहाएं वुत्तउ “पहुणा नियलणु तुज्नु णिउत्तउ पुर-यण-णारी यणु तुह रत्तउ जोइवि विह लंधलु गिवडतउ । णायर-लोएं तुहु बंधाविउ णर वइ-वयणि' गिरोह गु पाइउ" तासु वयणु तं तेण परिक्खिउ णिव मंदिर-णिग्गमणि जीक्खिउ ॥ घत्ता ।। ता पडिहार-णरेहिं एहउ तासु सपोरिउ* “ घर-णिग्गमणु हिएण तुम्हहु राए वारिउ '' तओ सो सुहद्दा-सुओ बुड्ढ-माणो ण केणावि दिडो विणिग्गच्छमाणो घराओ पुराओ गओ कालि काले अचक्खु-प्पर से तमालालि-णीले वसा-वोसढं देहि देहावसाणं पविठ्ठो असाणं स-सागं मसाणं कुमारेण तं तेण दिह्र रउदं ललंतंतमाला-सिवा-मुक-सई १ वयणा । २ समीरउ । ३ विणिगच्छमाणो। घणे स्थळे हाथप्रतमा आम संयुक्ताक्षरने बदले सादा अक्षरने लखेलो जोवामां आवे छे एटले केटली वार नोध्या विना आवी बाबतो सुधारी लीधी छे. युवराजेन प्रतिपन्नं निरुक्तं गतेषु कतिपयदिवसेषु अयुक्तः पुनः निपुणमतिः सहायेन उक्तः “प्रभुणा निगडनं तव नियुक्तं पुरजननारीजन: त्वयि रक्तः दृष्ट्वा विह्वलांधः निपतन् नागरलोकेन त्वं बंधापितः नरपतिवचनेन निरोधनं प्रापितः " तस्य वचनं तत् तेन परीक्षितं नृपमंदिरनिर्गमने निर्णीत ॥ घत्ता । लावत् प्रतिहारनरैः एतत् तस्मै समीरितं " गृहनिर्गमनं हितेन युष्माकं राज्ञा वारितं "॥ ततः सः सुभद्रासुतः वृद्धमानः न केनापि दृष्टो विनिर्गच्छन् गृहतः पुरतः गतः तमिस्र काले अचक्षुःप्रदेशे तमालालिनीले वसाविस्निग्धं देहिदेहावसानं प्रविष्टः असंज्ञं सश्वानं श्मशानम् कुमारेण तत् तेन दृष्टं रौद्रं ललदंत्रमालाशिवामुक्तशब्दं Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८६ [ पुष्यंतु महा.सूल - भिण्णंग-कंदंत-चोरं वियंभंत मज्जार - घोसेण घोरं ५७ विहिंडत - वीरं' स. हुंकार-फारं पलिप्पंत - सत्त· च्चि - धूमंधयारं जहुड्डीण- भू· लीण - कीला उलूवं समुड़ंत-णग्गुग्ग- वेयाल रूवं णिकंकाल - वीणा · समालत्त-गीयं डिसा· डाइणी- दुग्ग-खज्जंत-पेयं कुलुज्झुत्त' - सिद्धत - मग्गावयारं दिजिं डोंबि चण्डालि पेयाहियारं घणं णिग्घिणं भासियव्वई अश्वायं सया जोइणी चक्क - कीलाणुयारं ॥घत्ता | अ· कुल-कुलहं संजोए कुल - सरीरु उवलक्खियउं इय ज िसीस तत्तु कउलायरिए अक्खियउं ॥ ( ६ ) जोइउ तर्हि वम्मह-सोहालें उज्झंतर मडउल्लउ बाले तहो उप्पर आहरण वित्तई रयण-किरण - विष्कुरिय-विचित्तई लिहिवि मरण-वत्ता विसुद्धउ हरि - गल कंदल पतु विद्धउ सु·ललिउ सूहउ णयणाणंदिरु गउ अप्पुणु सो कत्थई सुंदरु १ वीरे । २ कुलुज्झूय । महाशूलभिन्नांगद चौरं विजृम्भन्मार्जारघोपेण घोरं विहिंडमानवीरं सहुंकारस्फारं प्रदीप्यमानसप्तार्चिः धूमांधकारं नभः उड्डीनभूलीनीडोलकं समुत्तिष्ठन्नग्नोप्रवैतालरूपं निष्कंकालवीणासमालपितगीतं दिशा डाकिनीदुर्गाखाद्यमानप्रेतं कौलोपाध्यायोक्त सिद्धान्तमार्गावतारं द्विजे डुंबे चंडाले प्रेताधिकारं घनं निर्घृणं भाषितव्येन अवाच्यं सदा योगिनीचक्रक्रीडानुकारं ॥ घत्ता | अकौलकौलानां संयोगे कौलशरीरं उपलक्षितं इदं यत्र शिष्येभ्यः तत्त्वं कौलाचार्येण आख्यातं ॥ ( ६ ) दृष्टं तत्र मन्मथशोभिना दह्यमानं मृतशरीरं बालेन तस्य उपरि आभरणानि क्षिप्तानि रत्नकिरणविस्फुरितविचित्राणि लिखित्वा मरणवात विशुद्धं हरिगलकंदले पत्रं निबद्धं सुललितः सुभगः नयनानंदनः गतः स्वयं सः कुत्रापि सुंदर: ક Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसुएवघरच्चाउ] उग्गउ सूरु कुमारु ण दीसइ 'हा कहिं गउ कहि गउ ' पहु भासद ६९ कणय कोन्त-पट्टिस-कंपण-कर राए दस-दिसु पेसिय किंकर पुरि घरि घरि अवलोइउ उववणि अवरहिं दिट्ठउ हय-वरु पिउ-वणि पल्लाणियउ पट्ट-चमरंकिउ तं अवलोइवि भड-यणु संकिउ लेड लइप्पिणु णाहहो घल्लिउ तेण वि सो झडत्ति उव्वेल्लिङ रायहु बाहा-उण्हई णयणइं दिट्टइं एयइं लिहियइं वयणई ‘णंदउ पयवई' वि.प्पिय-गारी गंदउ सुहि सिव एवि भडारी गंदउ परियणु णंदउ णर-वइ गउ वसुएव सामि सुर-वर-गइ' ॥घत्ता॥ ता पिउ-वणि जाइवि सयहिं जिय-विच्छोइउ दड्दु स भूसणु पेउ हाहा-कार विजायउ ॥ ७८ (७) ते णव बंधव सहुँ परिवारे सोउ करंति दुक्ख-वित्थारे सा सिवाएवि रुवइ परमेसरि "हा देवर पर भडगय-केसरि १ पइवई । उद्गतः सूरः कुमारः न दृश्यते ' हा कुत्र गतः कुत्र गतः ' प्रभुः भाषते कनककुन्तपटिशकृपाणकराः राज्ञा दशदिशासु प्रेषिताः किंकरा: पुरे गृहे गृहे अवलोकितः उपवने अपरैः दृष्टः हयवरः पितृवने पर्याणितं पटचामरांकितं तं अवलोक्य भटजनः शंकितः लेखः लात्वा नाथाय दत्तः तेन अपि सः झटिति उद्वेल्लितः राज्ञः बाष्पोष्णाभ्यां नयनाभ्यां दृष्टानि एतानि लिखितानि वचनानि "नंदतु प्रजापतिः विप्रियकारी नंदतु सुखिनी शिवादेवी भट्टारिका नंदतु परिजनः नंदतु नरपतिः गतः वसुदेवः स्वामिन् सुरवरगतिं " ॥ घत्ता ।। ततः पितृवने गत्वा स्वजनैः जीवरहितं दग्धं सभूषणं प्रेतं हाहाकारः विजातः ।। ते नव बान्धवाः सह परिवारेण शोकं कुर्वन्ति दुःखविस्तारेण सा शिवादेवी रोदिति परमेश्वरी " हा देवः परभटगजकेसरिन् Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८८ [ पुष्यंतु हा किं जीविउ तिणु परिगणियउ कोमल-वउ हुव वहि किं हुणियउ हा पयाइ किं किउ पेसुण्णउ हा किं पुरि परिभमहु ण दिण्णउ हा कुल-धवलु केम विद्वंसिउ हा जय सिरि-विलासु किं णिरसिउ' हा परं विणु सोहइ ण घरंगणु चंद-विवज्जिउ णं गयणंगणु हा vs विणु दुक्खें णरु रुण्णउ हा पहुं विणु माणिणि मणु सुण्णउ हा पई विणु को हारु थणंतरि को कीलइ सर-हंसु व सरवरि पई विणु को जण - दिट्ठिउ पीणर कंदुय-कील देव को जाणइ हा पर विणु को एवहिं सूहउ पद आपिखिवि मयणु वि दूहउ हा विणुणिय-गोत्त-स संकहो को भुअ-बलु समुह विजयं कहो परं विणु सुण्णु हिमावलि माणिउ पाइचि सम्बहिं दिण्णउ पाणिउ ॥धत्ता॥ वरिल - सण कुमारु मिलउ तुज्झु गुण-सोहिउ " मित्तियहिं परिंदु एम्व भणिवि संबोहिउ | 6 ९२ १. णिरसिउ । २ 'हा' हाथप्रतमां नथी; छंदोभंग न थाय माटे उमेर्यु. ३. हा पई विणु ई० । छंदोभंग खातर 'हा' त्यजी दीघं छे ४. पाणिउ । हा किं जीवितं तृणं परिगणितं कोमलवपुः हुतवहे किं हुतं हा प्रजया किं कृतं पैशुन्यं हा किं पुरे परिभ्रमणं न दत्तं हा कुलधवलः किं विध्वस्तः हा जयश्रीविलासः किं निरस्तः हा त्वया विना शोभते न गृहांगणं चंद्रविवर्जितं इव गगनांगनं हा त्वया विना दुःखेन नरः रुदितः हा त्वया विना मानिनीमनः शून्यं हा त्वया विना कः हारः स्तनांतरे कः क्रीडति सरोहंसः इव सरोवरे हा त्वया विना कः जनदृष्टीः प्रीणयति कंदुकक्रीडां देव कः जानाति हा त्वया विना कः एतावान् सुभगः त्वां आप्रेक्ष्य मदनः अपि दुर्भगः हा त्वया विना निजगोत्रसशंकस्य किं भुजबलं समुद्रविजयांकस्य हा त्वया विना शून्यं हिमालये भुक्तं " स्नात्वा सर्वैः दत्तं पानीयं ॥ घत्ता ॥ “ वर्षशतेन कुमारः मीलतु त्वां गुणशोभितः " नमित्तिकैः नरेन्द्रः एवं भणित्वा संबोधितः ॥ Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुएवघरच्चाउ] (८) एत्तहिं सुदरु महि विहरंतउ विजय णयरु सहसा संपत्त दिट्ठउ णंदण वणु तहिं केहउ महुं भावइ रामायणु जेहउ जहिं चरति भी यर रयणी-यर चउ-दिसि उच्छलंति लक्खण-सर सीय-विरहि संकमइ णहतरु घोलिर-पुच्छु स-रामउ वाणरु णीलकंठु णच्चइ रोमचिउ अज्जुणु जहिं दो संसिचिउ ९७ णउले सो जिज णिरारिउ सेविउ भायरु किं ण उकालु वि भाविउ' इय सोहइ उववणु णं भारहु विल्लिहिं सछण्णउ रवि-भा-रहु जहिं पाणिउ णीयत्तगि सोहइ जडहो अणंगइ को किर पयडइ तहिं असोअ-तलि सो आसीणउ सूद दीहर-पंथे रीणउ णं वणु लय-दल-हत्यहिं विज्जइ पयलिय-मुह-धिभहि णं रंजइ १०२ चल-जल-सीयरेहिं णं लिंचइ णिवडिय-कुसुमोहे णं अचइ साहा-बाहहि णं आलिंगइ परिमलेण णं हियवए लग्गइ १. ण्णउ । २. भायउ । (८) अत्रान्तरे सुन्दरः मयां विहरन् विजयनगरं सहसा संप्राप्तः दृष्टं नंदनवनं तत्र कीदृशं मह्यं रोचते रामायणं यादृशं यत्र चरन्ति भीकराः रजनीचराः चतुर्दिशासु उच्छलन्ति लक्ष्मणस्वराः सीता (शैत्य ) विरहेण संक्राम्यति नभोऽन्तरे घूर्णितपुच्छः सरामः वानरः नीलकंठः नृत्यति रोमाञ्चितः अर्जुनः यत्र द्रोणेन संसिक्तः नकुलेन सः एव निश्चयेन सेवितः भ्राता किं न कस्यापि भावुकः इति शोभते उपवनं यथा भारतं वल्लीभिः संछन्नं रविभारहम् यत्र पानीयं नीचत्वेन निपतति जडं अनंगेन कः किल प्रकटयति तत्र अशोकतले सः आसीनः सुभगः दीर्घपथेन रीणः यथा वनं लतादलहस्तैः वीजयति प्रगलितमुखधर्मभिः यथा रञ्जयति चलजलशीकरैः यथा सिंचति निपतितकुसुमौघेन यथा अर्चति शाखाबाहुभिः यथा आलिङ्गति परिमलेन यथा हृदये लगति Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुष्फयंतु पहिय-पुण्ण-सामत्थें णव णव सुक्क सुरुक्खहं णिग्गय पल्लव पणविवि पालिय-पउर पियालिं रायह वज्जरियउ वण-वालिं ॥घत्ता॥ " जोइसियहिं वुत्तु जर-तरु वरु कय-छायउ सो पुत्तिहिं वरइत्तु णं अणगु सई आयउ' ॥" तण्णिसुणिवि आयउ सई राणउ पुरि पइसारिउ राय-जुवाणउ हरिय-वंस वण्णेण रवण्णी सामाएवि तालु तें दोण्णी कामुउ कंतहिं अंगि विलग्गउ थिउ कइवय-दिअहई पुणु णिग्गउ सिरि-वसुएव-सामि सतुट्ठउ देवदारु-वणु णवर पइट्टर ११३ जर्हि लवंग चंदण-सुरहिय जलु दिसि गय कल-कोइल-कुल -कलयलु जहिं बहु-दुम दल-वारिय-रवि-यर रुहवुहंति णाणा विह-णह-यर णव-मायंद-गोंजि गंजोल्लिय जहिं कइ-कइ-करेहि उप्पिल्लिय । जहिं हरि-कर-रुह-दारिय-मय गल-रुहिर-वारि वाहाउल जल-थल १. आइय । पथिकपुण्यसामर्थ्येन नवानि नवानि शुष्काणां सुवृक्षाणां निर्गतानि पल्लवानि प्रणम्य पालितप्रचुरप्रियालेन राज्ञे उक्तं वनपालेन ॥ पत्ता ॥" यः ज्योतिषिभिः उक्तः जीर्णतरुवरकृतच्छायः सः पुत्र्याः वरयिता यथा अनंगः स्वयं आगतः ॥ तन्निश्रत्य आयातः स्वयं राजा पुरे प्रवेशितः राजयुवा हरितवंशा वर्णेन रम्या श्यामादेवी तस्मै तेन दत्ता कामुकः कान्तायाः अंगे विलग्नः स्थितः कतिपयदिवसान् पुनः निर्गतः श्रीवसुदेवस्वामी सन्तुष्टः देवदारुवनं केवलं प्रविष्टः यत्र लवङ्गचंदनसुरभितं जलं दिशासु गतः कलकोकिलकुलकलकल: यत्र बहुद्रुमदलवारितरविकराः ‘रुहरुहं' कुर्वन्ति नानाविधाः नभश्चराः नवमाकन्दमञ्जयः पुलकिताः यत्र कतिकपिकरैः उत्पीडिताः यत्र हरिकररुहदारितमदकलरुधिरवारिवाहाकुलानि जलस्थलानि Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वसुवघरच्चाउ] दस-दिसि-वह णिहित्त-मुत्ताहल गिरि-कंदरि वसंति जहिं णाहल ओसहि दीवातेय दाविय पह जहि तमाल-तमविय लक्खि परह। जहिं संबरहिं संचिज्जइ तरु-हलु हरिणिहिं चिज्जइ कोमल-कंदलु ॥गत्ता॥ तहिं कमलायरु दिठ्ठ णव-कमलहिं छण्णउ धरणि-विलासिणिआए जिणहु अग्घु णं दिण्णउ ॥ १२१ (१०) सीयल-स गाह-गय-थाह-सलिलालि कंजरस लालस-चलालि. कुल-कालि मत्त जल हत्थि कर-भीय डसणालि-वारि-पेरंत-सोहंत-णवणालि मंद-मयरंद-पिंजरिय-वर कूलि तीर-वण महिस-दुक्कंत-सलि पंक-पल्हत्थ-लोलंत-वर-कोलि कीर-कारंड-कल राव-हलबोलि कंकाचल-चंचु-परिउबिय-बिसंसि लच्छिणेऊर-खुडविय-कल हंसि१२६ अक्कारह दंसण-पओसिय-रहंगि वाय-हय-वेविर-पघोलिय-तरंगि। पहंत-विहरंत-विहसंत-सुर सत्थि एंत-जल माणुस विसेस-हय-हत्थि दशदिशापथे निहितमुक्ताफलाः गिरिकंदरे बसन्ति यत्र नाहलाः ओषधिदीपतेजसा दर्शितः पन्थाः यत्र तमालतमोऽभिभूता लक्ष्मीः परेषां यत्र शबरैः सञ्चीयते तरुफलानि हरिणीभिः चोयते कोमलकंदलानि ॥ घत्ता ॥ तत्र कमलाकरः दृष्टः नवकमलैः छन्नः धरणीविलासिन्या जिनाय अयः यथा दत्तम् ।। (१०) शीतलसग्राहगतस्ताघसलिलालये कंजरसलालसचलालिकुलश्यामे मत्तजलहस्तिकर-भीतदशनालि-वारिप्रेरयत्-शोभमान-नवनाले मंदमकरन्दपिञ्जरितवरकूले तीरवनमहिषढौकमानशार्दूले पर्यस्तपङ्कलोलमानवरकोले कीरकारंडकलरावकलकलायिते कङ्कचलचंचुपरिचुंबितबिसां लक्ष्मोनू पुरक्षोदितकलहंसे अर्करथदर्शनप्रतोषितरथांगे वातहतवेपमानधूर्णिततरङ्गे स्नात्-विहरत्-विहसत्-सुरसार्थे आयात्-जलमनुष्यविशेषहयहस्तिनि Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुष्फयंतु - पत्तोकरि सर वरि कीलंतु तेण णिहालिउ मत्तउ णावइ मेरु-गिरिंदु खीर-समुद्दि णिहित्तउ ॥ (११) मंजण-णीलु णाई अहिणव-घणु कर-तुसार सीयर-तिम्मिय-वणु दसण-पहर-णिदलिय-सिला यलु पाय-णिवायए णविय इला यलु कण्णाणिल-चालिय-धरणी रुहु गज्जण-रव-पूरिय-दस-दिसि-मुहु मय जल-मिलिय-घुलिय महुलिह-उलु 'उग्ग-सरोर गंध-गय-गय उलु गुरु-कुंभ थल-पिहिय-पिहु-शह यलु णिय-बल-लुलिय-दिसा. मय-गल-बल १३५ तं अवलोइवि वीरु ण संकिउ 'बहि'-बहि'-स कुञ्जरु कोकिउ जा पाहाणु ण पावइ मुकर ता करिणा सो गहिउ गुरुकउ कर-कलियउ वियलिय गय-देहहो उवरि भमइ तडि-दंडु व मेहहो वंसारुहणउं करइ सुपुत्तु व खणि करि णहिं संमोहइ धुत्तु व . खणि ससिं जेम हत्थु आसंघइ खणि विउलइं कुंभ. थलई लंघह१४० १-चलु । २-यल-। ३-तुसिय । ४-यलई । ॥ घत्ता ॥ करी सरोवरे क्रीडन् तेन निभालितः मत्तः यथा मेरुगिरीन्द्रः क्षीरसमुद्रे निक्षिप्तः ॥ (११) अंजननीलं यथा अभिनवधनं करतुषारशीकरस्तीमितवनं दशनप्रहरनिर्दलितशीलातलं पादनिपातेन नमितेलातलं कर्णानिलचालितधरणीरुहं गर्जनरवपूरितदशदिशामुख मदजलमीलितघूर्णितमधुलिहकुलं उग्रशरीरगन्धगतगजकुलं गुरुकुंभकलापिहितपृथुनभस्तलं निजबलतुलितदिशामदकलबलं तं अवलोक्य वीरः न शंकितः — बहि ' 'बहि' शब्देन कुञ्जरः आहूतः यावत् पाषाणं न प्राप्नोति मुक्तः तावत् करिणा सः गृहीतः गुरुकः करकलितः विगलितः गजदेहस्य उपरि भ्राम्यति तडिदंडः इव मेघस्य वंशारोहणं करोति सुपुत्रः इव क्षणे करेण नखैः संमोहयति धूर्त इव क्षणे शशी इव हस्तं अपेक्षते क्षणे विपुलानि कुंभस्थलानि लक्षति Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४५ वसुएवघरच्चाउ ] खणि चउ-चरणंतरिहि विणिग्गइ खणि हकारइ वारइ वग्गइ दंतःणिसिकिय मुहु ण वि याणइ काले अप्पाणउ संदाणइ जित्तउ वारणु जुवय-णरिंदे णं मयर-द्धउ परम-जिणिदें ॥धत्ता॥ गय वर-खंधारूदु. दिट्ठउ खे यर-पुरिसे अंधक विहिहि पुत्तु उच्चाइवि णिउ हरिसें ॥ (१२) जह-यल-लग्ग-रयण-मय-गोउरु णिउ वेयड्ढहो बारा वइ-पुरु कुल बलवंतहो दइय-सहायहो दरिसिउ असणि-वेय-खग रायहो एम स सामि सालु विण्णवियउ “ विज्झ-गइंदु एण विद्दवियउ पहु जि चिरु जो णाणिहिं जाणिउ एहउ दुहिया-वरु मई आणिउ" सणिसुणेवि असणिवेअंकें अवलोइय सुहिं वयण-ससंकें १५० पवण-वेय-देवी-तणु संभव सामरि णामें सुअ वीणा-रव पीण्णी तासु सुहद्दा-तणयहो पोड्ढहो पउणिय-पणय-पसायहो क्षणे चतुःचरणान्तरात् विनिर्गच्छति क्षणे आह्वयति वारयति वल्गति निक्षिप्तदंतं मुखं न अपि जानाति कालेन आत्मानं नियन्त्रयति जितः वारणः युवकनरेन्द्रेण यथा मकरध्वजः परमजिनेन्द्रेण ॥ घत्ता ॥ गजवरस्कन्धारूढः दृष्टः खेचरपुरुषेण अंधकवृष्णेः पुत्रः उच्चय्य नीतः हर्षेण ॥ (१२) नमस्तललग्नरत्नमयगोपुरं नीतः वैताढयस्य द्वारावतीपुरं कुलबलवन्ते दयितसहायाय दर्शितः अशनिवेगखगराजाय एवं सः स्वामिश्रेष्ठः विज्ञापितः “ विंध्यगजेन्द्रः अनेन विद्रावितः...... एषः एव चिरं यः ज्ञानिभिः ज्ञातः एषः दुहितवरः मया आनोतः " .... तन्निश्रुत्य अशनिवेगांकेन अवलोकितः सुहृदा वदनशशांके पवनवेगादेवीतनुसम्भवा ' सामरी ' नाम्ना सुता वीणारवा .. दत्ता तस्मै सुभदातनयाय प्रौढाय प्रगुणितप्रणयप्रसादाय .... Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुष्फर्यतु गय बहु-दियहहिं पेम्म-पसत्तउ सो सुहउ जामऽच्छइ सुत्तउ तावगारय-ख-यरें जोइउ सुहु सुत्तु जि भुअ-पंजरि ढोइउ " भूमी-यरहु पभट्ठ-विवेयहो मामें णिय-सुअ दिण्णी एयहो" एम भणंतें णिउ णिय-इच्छए सामरि सुन्दरि धाइय पच्छए ॥घत्ता॥ असि वसुःणंदय हत्थ णिय-णाहहो कुटिलग्गी पडिवक्खहो अभिट्ट समर-सएहिं अ-भग्गी ।। १९४ (१३ ) असि-जल-सलिल-झलक्कए सित्ते अंगारएण सुःकसणिय-गत्ते सोहद्देउ झडत्ति विमुक्कउ पहरण-ककसि संजुए दुकाउ घरिणिए पइ णिवडंतु णियच्छिउ पण्ण लहुय-विज्जाए पडिच्छउ तहिं पहरंतिहिं वहरि पलाणउ सुन्दरु गयणहु मयण-समाणउ तर कुसुमोहहिं सोह-पसाहिरि णिवडिउ चंपाउर वर-बाहिरि १६३ कीलमाण वणि मणिकंकण-कर पुच्छिय तेण तेत्थु णायर-णर गतेषु बहुदिवसेषु प्रेमप्रसक्तः सः सुभगः यावदास्ते सुप्तः तावदङ्गारकखचरेण दृष्टः सुखं सुप्तः एव भुजपञ्जरे ढौकितः " भूमिचराय प्रभ्रष्टविवेकाय मातुलेन निजसुता दत्ता एतस्मै" एवं भणता नीतः निज-इच्छया सामरी सुन्दरी धाविता पश्चात् ॥ घत्ता ॥ असिः वसुनन्दकः हस्ते निजनाथस्य कुटिलानः प्रतिपक्षस्य अभिभवनशीलः समरशतेषु अभन्नः ॥ भसिजलसलिलजाज्वल्येन सिक्तेन अंगारकेण सुकृष्णितगात्रेण सौभद्रेयः झटिति विमुक्तः प्रहरणकर्कशे संयुगे ढौकितः गृहिण्या पतिः निपतन् दृष्टः 'पर्णलघुक "विद्यया प्रतीक्षितः तस्यां प्रहरन्त्यां वैरी पलायितः सुन्दरः गगनात् मदनसमानः तरुकसुमौघानां शोभाप्रसाघिते निपतितः चंपापुरवरबा। क्रोडन्तः वने मणिकङ्कणकराः पृष्टाः तेन तत्र नागरनराः Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७१ वसुष्वधरच्चाउ ] ते भणंत “ मुद्धत्त णडियउ किं गयणंगणाउ तुहु वडियउ वासु-पुज्ज-जिण-जम्मण-रिद्धी ण मुणहिं चपा-उरि सु-पसिद्धी" तण्णिसुणिवि तें जयरु पलोइय सह मंडव बहु विउस-विराइय चारुयत्तु वणि वर वइ-तणु-रुहु जहिं जहिं जोइज्जइ तहिं तहिं सुहु तहिं गंधव्वायत्त सइ संठिय महुर-वाय णावइ कल कंठिय ॥घत्ता॥ जहिं वइस वइ-सुयाए रमणु कामु सपत्तउ खेचर-महि यर-चंदु वीणा-वज्जे जित्तउ । (१४) गंपि कुमार वि तहिं जि णिविट्ठउ कण्णए अणिमिस-णयणएं विदा वम्मह-बाणु व हियए पइट्ठउ विहसिवि पहिउ पहासइ तुहाउ " हउं मि कि पि दावमि तंती-सरु जइ वि ण चल्लइ सर-ठाणए करु" ता तहो ढोइयाउ सुइ-लीणउ पंच सत्त व दह बहु वीणउ ता वसुएउ भणइ " किं किज्जइ वल्लइ-दंडु ण एहउ जुज्जह १७६ ते भणन्ति " मुग्धत्वेन बाधितः किं गगनांगनात् त्वं पतितः वासुपूज्यजिनजन्मऋद्धां न जानासि चम्पापुरी सुप्रसिद्धां" तन्निश्रत्य तेन नगरं प्रलोकितं सभामण्डपं बहुविद्वद्विराजितं चारुदत्तः वणिग्वरपति-तनुरुहः यत्र यत्र दृश्यते तत्र तत्र सुखं तत्र गन्धर्वदत्ता सती संस्थिता मधुरवाग् यथा कलकण्ठी ॥ पत्ता ॥ यत्र वैश्यपतिसुतया रमणः कामः संप्राप्तः खेचरमहीचरवृन्दः वीणावाद्येन जितः ॥ (१४) गत्वा कुमारः अपि तत्र एव निविष्टः कन्यया अनिमेषनयनाभ्यां दृष्टः मन्मथबाणः इव हृदये प्रविष्टः विहस्य पथिकः प्रभाषते तुष्टः " अहमपि किमपि दापयामि तन्त्रीस्वरं यद्यपि न चलति स्वरस्थाने करः" तावत् तस्मै दौकिताः श्रुतिलीना पञ्च सप्त नव दश बढयः वीणाः ततः वसुदेवः भणति "किं क्रियते वल्लकीदण्डः न एष युज्यते Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ पुण्फयंतु ९६ ही तंति ण एम णिबज्झइ वासु इ एहउ पत्थु विरुज्झइ सिरिहलु एव एउ किं ठवियउं सत्थु ण केण वि मणि चिंतवियउ लक्खण- रहियउं जड-मण- हारिउं मिल्लिवि वीणउं णाई कुमारि अक्खर सो तहिं तहिं अक्खाणउ आलावण कए चारु चिराणउं ॥ धत्ता ॥ हथिणाय पुरि राउ णिज्जियारि घण - संदणु तहु पउमा व देवि वि णाम पिउ णंदणु || ( १५ ) अवरु पउम रहु सुउ लहुआरउ जणय णविवि अरहंतु भडारउ रिसि होपप्पिणु मिग संपण्णहो सहुं जिट्ठे सुरण गउ रण्णहो ओहि णाणु तायहे उप्पण्णउ दिट्ठउ जगु बहु-भाव-विभिण्णउ पत्तर्हि गय· उरि पय-पोमाइड करइ रज्जु पउम रहु महाइउ ता सो पच्चतेहि णिरुद्धउ तहु बलि णाम मंति पविबुद्धउ तेज गुरु वि ओहामिउ सक्कहो बुद्धिउ माणु मलिउ पर-चक्कहो एषा तन्त्री न एवं निबध्यते व्यासः अपि एषः अत्र विरुध्यते श्रीफलं एवं एतद् किं स्थापितं शास्त्रं न केनापि मनसि चिन्तितं लक्षणरहिताः जडमनोहारिण्यः मेलिताः वीणाः यथा कुमार्यः " आख्याति तत्र तस्य आख्यानकं आलापनकृते चार चिरन्तनं ॥ घत्ता ॥ " हस्तिनागपुरे राजा निर्जितारिः घनस्यन्दनः तस्य पद्मावती देवी विष्णुः नाम प्रियः नंदनः ॥ ( १५ ) अपरः पद्मरथः सुतः लघुः - जनकः नत्वा अर्हन्तं भट्टारकं ऋषिः भूत्वा मृगसम्पन्ने सह ज्येष्ठेन सुतेन गतः अरण्यं अवधिज्ञानं ताताय उत्पन्नं दृष्टं जगत् बहुभावविभिन्नंअत्रान्तरे गजपुरे पदपद्मायितः करोति राज्यं पद्मरथः महात्मा तावत् सः प्रत्यन्तैः निरुद्धः तस्य बलिः नाम मन्त्री प्रविबुद्धः तेन गुरुः अपि अभिभूतः शक्रस्य बुद्धया मानं मृदितं परचक्रस्य "" १८२ Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्फयंतु ] संतूसिवि रोमंचिय-काएं ‘मग्गि मग्गि वरु' बोल्लिउं राप मंतिई' वुत्तउ “तुहि करेज्जसु कहि मि कालि महु मग्गिउ दिज्जसु" काले जंते मारण-कामें आयउ सूरि अकंपण णामें सहुँ रिसि-संघे जिण वर-मग्गे पुर-बाहिरि थिउ काओसग्गे ॥घत्ता। बलिणा मुणि वरु दिठ्ठ सु-अरिउ अवमाणिप्पिणु ___ " इह एएं हउं आसि चित्तु विवाए जिणेप्पिणु ॥ १९४ (१६) अवयारहु अघयारु रइज्जइ उवयारहु उवयारु जि किज्जइ । खलहो खलत्तणु सुहिहिं सुहित्तणु जो ण करइ सो णिय-मइ-णियमणु तावस-रूवे णिवसिउ णिज्जणि हउं पुणु अज्जु खवमि किं दुज्जणि" एम भणेप्पिणु गउ सो तित्तहिं अच्छइ णि वइ णिहेलणि जित्तहिं भणिउ णवंते “पई पडिवण्णउ आसि कालि जं पदं वरु दिण्णउ १९९ जं तं देहि अज्जु मई मग्गिउ जइ जाणहि पत्थिव ओलग्गिउ" ...ता राएण वुत्तु “ण वियप्पिमि जं तुहुं इच्छहिं तं जि समप्पमि" १. मंते । २. पुरि । ३. तुहं । संतोष्य रोमाश्चितकायेन ‘मार्गय मार्गय वरं ' उक्तं राज्ञा मन्त्रिणा उक्तं " तुष्टिं कुर्याः कस्मिन्नपि काले मम मार्गितं दद्याः " .. काले गच्छति मारणकामे आयातः सूरिः अकम्पनः नाम्ना सह ऋषिसंघेन जिनवरमार्गेण पुरबाह्ये स्थितः कायोत्सर्गेण ॥ घत्ता ॥ बलिना मुनिवरः दृष्टः सुचरितः अवमान्य "अत्र एतेन अहं आसं क्षिप्तः विवादे जित्वा ॥ अपकाराय अपकारः रच्यते उपकाराय उपकार एव क्रियते खलाय खलत्वं सुहृदे सुहृत्वं यः न करोति सः निजमतिनियमनः तापसरूपेण निवसितः निर्जने अहं पुनरद्य क्षाम्यामि किं दुर्जनं " एवं भणित्वा गतः सः तत्र आस्ते नृपतिः गृहे यत्र.... . भणितं नमता " त्वया प्रतिपन्नः आसीत् काले यः त्वया वरः दत्तः , . यत् तं देहि अद्य मया मार्गितं यदि जानासि पार्थिव सेवाम् " .. ततः राज्ञा उक्तं "न विकल्पे यत्त्वं इच्छसि तदेव समर्पयामि" : Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [वसुरुवघरच्चाउ पडिभासइ बंभणु " असमत्तणु सत्त दिणाई देहि राइत्तणु" दिण्णउ पत्थिवेण तं लइयउ रोसें सव्वु अंगु पच्छइयउ साहु-संघु पाविढे रुद्धउ मिग-बहु महु चउ-दिसि पारद्धउ सोत्तिएहि सोमंबु रसिज्जइ साम-वेय सुइ-महुरें' गिज्जह भक्खिवि जंगलु अडवि अट्टइ उप्परि रिसिहि णिहित्तई हकुई घत्ता॥ भोज्ज-सराव-समूहु जं केण ण वि छित्तर __ तं सवणहं सीसग्गि जण-उच्चिट्ठउ घित्तउ ॥ (१७) सोत्तई पूरियाई सुइ-वारे बहलिय-रेणु धूम पन्भारें अणुदिणु पोडिय भीसण-वसणहं तो वि धीर रूसंति ण पिसुणहं तहिं अवसरि दुक्किय-परिचत्ता जणण-तणय जहि ते तव-तत्ता णिसि णिवसंति मही हर-कंदरि भीरु भयंकर-सुअ-केसरि-सरि तेहिं बिहि मि तिहिं णहि पवहंतउ सवण-रिक्खु दिट्ठउ कंपंतउ २१३ २०८ १ सुइसुमहुरें । २ दुक्खिय । प्रतिभाषते ब्राह्मणः " असपत्नं सप्त दिनानि देहि राजत्वं" दत्तं पार्थिवेन तद् लातं रोषेण सर्व अंग प्रस्पृष्टं साधुसंघः पापिष्ठेन रुद्रः मृगवधः मखः चतुर्दिशि प्रारब्धः श्रोत्रियैः सोमांबु रस्यते सामवेदः श्रुतिमधुरेण गीयते भक्षित्वा जंगलं अटवीं अटति उपरि ऋषीणां निक्षिप्तानि अस्थीनि ॥त्ता॥ भोज्यशरावसमूहः यः केनापि न स्पृष्टः स श्रमणानां शोर्षाने जनोच्छिष्टः क्षिप्तः ।। (१७) श्रोत्राणि पूरितानि श्रुतिकारेण बहलितरेणुना धूमसमूहेन अनुदिनं पीडिताः भीषणव्यसनेभ्यः तदपि धीराः रुष्यन्ति न पिशुनेभ्यः तस्मिन् अवसरे परित्यक्तदुष्कृतौ जनकतनयौ यत्र तौ तप्ततपसौ निशि निवसतः महीधरकंदरे श्रुतभोरुभयंकरकेसरिस्वरे ताभ्यां द्वाभ्यामपि तत्र नभसि प्रवहत् श्रवण-ऋक्षं दृष्टं कंपमानं Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुकतु । तं तेवडु चोज्जु जोएप्पिणु भणइ विट्ठ पणिपाउ करेप्पिणु "किण्णक्खत्तु भडारा कंपइ" तण्णिमुणेवि जणणु पुणु जंपह “गय उरि बलिणा मुणि उवसग्गे संताविय पावें भय-भग्गें । सज्जण घट्टणु सव्वउ भारिउ तेण रिक्खु थरहरइ णिरारिउ" पुच्छइ पुणु वि सीसु खमवंतहं “णालइ केम्व उवद्दउ संतह" ॥घत्ता॥ घणरह-रिसिणा उत्तु “तुम्ह विउव्वण-रिद्धिए णासइ रिसि-उवसग्गु भव संसारु व सिद्धिए ॥ २२० खल-जण वइ अच्चब्भुय-भुवें छिदहि' जाइवि वामण-सर्वे णिलय-णिवासु णिरग्गलु मग्गहि पच्छइ पुणु गयगंगणि लग्गहि" तण्णिसुणिप्पिणु लहु जिग्गउ मुणि रिय पढतु किय-ओंकार ज्युणि रिसि य कमंडलु-सिय छत्तिय धरु दन्भ-दंड-मणिवलयंकिय-करु मिट्ठ-वाणि उववीअ-विहूसणु देसिउ कासायंबर-णिवसणु २२५ सो णव-णर-णाहेण णियच्छिउ “भणु भणु किं तुह दिज्जउ" पुच्छिउ -- १. छिद्दहिं। तत् तादृशं आश्चर्यं दृष्ट्वा भगति विष्णुः प्रणिपातं कृत्वा " किं नक्षत्रं भट्टारक कंपते " तद् निश्रुत्य जनकः पुनः वदति " गजपुरे बलिना मुनिः उपसर्गेण संतापितः पापेन भग्नभयेन सजनघनं सर्वेभ्यः भारितं तेन ऋक्षं कम्पते निश्चितं" पृच्छति पुनः अपि शिष्यः क्षमावते "नाश्यते कथं उपद्रवः सतां" ॥पत्ता॥ धनरथ-ऋषिणा उक्तः "युष्माकं विकुर्वणऋद्धया नाश्यते ऋषि-उपसर्गः भवसंसारः इव सिद्ध्या ॥ (१८) खलजनपत्तिं अत्यद्भुतभूतेन छिन्धि गत्वा वामनरूपेण निलयनिवासं निरर्गलं मार्गय पश्चात् पुनः गगनांगने लग" तन्निश्रुत्य लघु निर्गतः मुनिः ऋचः पठन् कृत-ओंकारध्वनिः ऋषिः च कमंडलुसितछत्रधरः दर्भदंडमणिवलयांकितकरः मिष्टवाणीकः उपवीतविभूषणः दैशिकः काषायांबरनिवसनः सः नवनरनाथेन दृष्टः “भण भण किं तुभ्यं दद्याम् " पृष्टः Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०० [ वसुषवघरच्चाउ किं हय गय रह कि जंपाणई किं धय-छत्तई दव्व- णिहाणई' कवड· विष्णु भासह महि - सामिहिं “णिव कम तिरिण देहि महु भूमिहिं" तष्णिसुणिवि बलिणा सिरु धुणियउं " हा हे दियश्वर किं परं भणियउं वाय तुहारी दइवें भग्गी लइ धरत्ति मढ - थित्तिर्हि जोगी "" 66 ॥ घन्ता ॥ ता विहिं वड्ंतु लग्गउ अंगु णहंतरि णिहियउ मंदरि पाउ एक्कु बीउ मण उत्तरि ॥ 66 ( १९ ) तइयउ कमु उक्खित्तु जि अच्छइ कहि दिज्जउ तहो थत्तिण पेच्छा सो विज्जा हर-ति०यसहिं अंचिउ पिय-वयणेहिं कह व आउंचिउ ताव तित्थु घोसावर - वीणए देवहिं दिण्णए मल-परिहीणार गरुयारउ णिय-भाइ सहोयरु तोसिउ पोमरहें जोईसरु मारहु आढत्तर दिय- किंकरु " विण्हु-कुमारु खमए अ- भयं करु अच्छउ जियउ वराउ म मारहि रोसु म हियउल्लए वित्थारहि "" * ( १९ ) ૨૨ " "1 किं हयाः गजाः रथाः किं जंपानानि किं ध्वजच्छत्राणि द्रव्यनिधानानि " कपटविप्रः भाषते महीस्वामिने “ नृप क्रमाणि त्रीणि देहि मह्यं भूमेः तन्निश्रुत्य बलिना शिरः धूतं " हा हे द्विजवर किं त्वया भणितं वाचा तव दैवेन भग्ना लाहि धरित्रीं मठस्थिते: योग्या " ||घत्ता || तावत् विष्णोः वर्धमानं लग्नं अंग नभोऽन्तरे निहितः मंदरे पादः एकः द्वितीयः मानसोत्तरे ॥ तृतीयः क्रमः उत्क्षिप्तः एव आस्ते कुत्र देयः तस्य स्थितिं न प्रेक्षते सः विद्याधरत्रिदशैः अर्चितः प्रियवचनैः कथमपि आकुंचितः तावत् तत्र घोषवतीवीणया देवैः दत्तया मलपरिहीनया गुरुकारकः निजभ्राता सहोदरः तोषितः पद्मरथेन योगीश्वरः 66 मारयत आक्रान्तं द्विजकिंकरं " विष्णुकुमारः क्षमते अभयंकरः " आस्तां जीवतु वराकः मा मारय रोषं मा हृदये विस्तारय Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्फयतु] रोसें चंडालत्तणु किज्जइ रोसें' णरय-विवरि पइसिज्जइ एण जि कारणेण हय दुम्मइ कय दोसह मि खमंति महा-मह" पत्ता।। एम भणेप्पिणु जेह गउ गिरि-कुहर-णिवासहो मुणि-वर संघु अ-सेसु मुक्क दुक्ख-किलेसहो ॥ २४२ (२०) अज्ज वि वीण तेत्थु सा अच्छइ जइ महु आणिवि को वि पयच्छा तो गंधव्व-दत्त किं वायइ महु अग्गइ पर-चयणु णिवायइ " वणिणा तं सुणेवि विहसंतें पेसिय णिय-पाइक्क तुरंतें गय गयउरु वल्लइ पणवेप्पिणु मग्गिय तव्वंसियमणुणेप्पिणु वियलिय-दुम्मय पंक-विलेवहो आणिवि ढोइय करि वसुएवहो २४७ सा कुमार-कर-ताडिय वज्जइ सुइ-मेइहिं बावीसहि छज्जइ सत्तर्हि वर-सरेहिं तिहिं गामहिं अट्ठारह-जाइहिं सुअ-धम्महिं अंसहि सउचालीसिक्कुत्तर गोइउ पंच वि पयडइ सुंदर १. रोसे । रोषेण चंडालत्वं क्रियते रोषेण नरकविवरं प्रविश्यते अनेन एव कारणेन दुर्मतिहतान् कृतदोषान् अपि क्षमन्ते महामतयः । ॥घत्ता॥ एवं भणित्वा ज्येष्ठः गतः गिरिकुहरनिवासाय ___ मुनिवरसंघः अशेषः मुक्तः दुःखक्लेशेभ्यः ॥ (२० ) अद्यापि वीणा तत्र सा आस्ते यदि मह्यं आनीय कः अपि प्रयच्छति । ततः गंधर्वदत्ता किं वादयति मम अग्रे परवचनं निपातयति " . वणिजा तच्छृत्वा विहसता प्रेषितः निजपदातिः त्वरमाणेन गतः गजपुरं वल्लकी प्रणभ्य मार्गिता तद्वंशिकं अनुनीय विगलितदुर्मदपङ्कविलेपस्य आनीय ढौकिता करे वसुदेवस्य सा कुमारकरताडिता वदति श्रुतिभेदैः द्वाविंशतिभिः शोभते सप्तभिः वरस्वरैः त्रिभिः ग्रामैः अष्टादशजातिभिः श्रुतधर्मैः अंशानां शतचत्वारिंशदेकोत्तरं गीतिकाः पंच अपि प्रकटयति सुंदराः Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ [ वसुष्वधरच्चाउ तीस वि गाम-सयई रहआसउ चालीस वि भासउ छ विहास एक्क वीस मुच्छणउ समाणइ एक्कूण वि पण्णासई ताणई ॥घत्ता ॥ तो वायंतहो एव वीणा सुइ-सर-जोग्गउ णं वम्मह - सरु तिक्खु मुद्धहिं हियवर लग्गउ ॥ ( २१ ) जयrs णाहहो उपरि घुलियई अटुंगई वेवंतई वलियई तंती रव - तो सिय- गिव्वाणहो धित्त सयंवर - माल जुआणहो संथु तरुणु सुरिंदें ससुरे विहिउ विवाह - महुच्छवु ससुरें पुणरवि सो विज्जा हर- दिष्णहं सत्त-सयहं परिणिष्पिणु कण्णहं मण·हर- लक्खण चचिय-गत्तर कार्ले रिट्ठ - णथरु संपत्तउ राउ हिरण्णवम्मु तहिं सुम्मइ जासु रज्जि णउ कासु वि दुम्म तासु कंत णामें पोमा. वह पर हुय-सद्द बाल पाडल - गइ रोहिणि पुत्ति जुत्ति णं मयणहो किं वण्णमि' भल्लारी सुन्य हो ताहि सयं वरि मिलिय णरेसर तेयवंत णावर ससिणेसर २५१ १. वणम्वि । त्रिंशत् अपि ग्रामशतानि रचिताश्रयः चत्वारिंशत् अपि भाषाः षड् विभाषाः एकविंशतिः मूर्छनाः समाप्नोति एकोनपंचाशत् अपि तानानि ॥घत्ता ॥ तस्य वादयतः एव वीणां श्रुतिस्वरयोग्यां यथा मन्मथशरः तीक्ष्णः मुग्धायाः हृदये लग्नः ॥ ( २१ ) नयनानि नाथस्य उपरि घूर्णितानि अष्टांगानि वेपमानानि वलितानि तंत्रीरवतोषितगिर्वाण क्षिप्ता स्वयंवरमाला यूनि संस्तुतः तरुणः सुरेन्द्रेण ससुरेण विहितः विवाहमहोत्सवः श्वसुरेण पुनः अपि सः विद्याधरदत्तानां सप्तशतानि परिणीय कन्यानां मनोहरलक्षणः चर्चितगात्रः कालेन रिष्टनगरं संप्राप्तः राजा हिरण्यवर्मा तत्र श्रूयते यस्य राज्ये न खलु कस्यापि दुर्मतिः तस्य कांता नाम्ना पद्मावती परभृतशब्दा बालमरालगतिः रोहिणी पुत्री युक्तिः यथा मदनस्य किं वर्णयामि भद्रकारिणी सुजनस्य तस्याः स्वयंवरे मीलिताः नरेश्वराः तेजोवन्तः यथा शशीश्वराः Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्पवंतु ] ते जरसंघ-पमुह अवलोइय कण्णए माल ण कासु वि ढोइय तहि मि तेण वण-गय-पडिमल्ले जिणिवि कण्ण सकला-कोसल्ले माल पडिच्छिय उठ्ठिउ कलयलु सण्णद्धउ सयलु विपस्थिव-बलु जर संधहो आणए' कय-विग्गह धाइय जादव कउरव मागह २६७ तेहिं हिरण्णवम्मु संभासिउ “पइं गउरविउ काइं किर देसिउ । मालइ-माल ण कइ-गलि बज्झइ जाव ण अज्जि वि राउ विरुज्झर ॥घत्ता॥ ता पेसहि तहु धूअ मा संघहि धण गुणिसरु - वडु-जरसंधि विरुद्ध धुउ* पावहि वइवस-पुरु " ॥ २७१ (२२) तं णिसुणेप्पिणु सो पडिजंपइ "भड बोकहं वर धीरु ण कंपह जो मह पुत्तिहिं चित्तहो रुच्चइ सो सूहउ किं देसिउ वुच्चद पहु तुम्हइं वि धिट्ठ परियारिय अज्जु ण जाव' समरि अ वियारिय" ता तहिं लग्गइ रोहिणि-लुद्धई महिवइ-सेण्णई सहसा कुद्धइं थिय जोवंत देव गयणंगणि अण्णहो अण्णु भिडिउ समरंगणि २७६ कंचण-विरइए रह-वरि चडियउ णर-वरु णिय-भाइहि अभिडिउ १. आणय । २.. अ। ३. जाह । ते जरासंधप्रमुखाः अवलोकिताः कन्यया माला न कस्मै अपि ढौकिता तत्र अपि तेन वनगजप्रतिमल्लेन जित्वा कन्यां स्वकलाकौशलेन माला प्रतीष्टा उत्थितः कलकलः संनद्धं सकलं अपि पार्थिवबलं । जरासंधस्य आज्ञया कृतविग्रहाः धाविताः यादवाः कौरवाः मागधाः तैः हिरण्यवर्मा संभाषितः "त्वया गौरवितः किं किल दैशिकः मालतीमाला न कपिगले बध्यते यावत् न अद्यापि राजा विरुणद्धि ॥घत्ता।। तावत् प्रेषय तव दुहितरं मा संधत्स्व धनगुणेश्वरं महाजरासंधे विरुद्धे वं प्राप्नुयाः वैवस्वत्पुरं " ॥ ( २२ ) तद् निश्रुत्य सः प्रतिवदति "भटगर्जनाभ्यः वरः धोरः न कम्पते यः मम पुत्र्याः चित्ताय रोचते सः सुभगः कथं दैशिकः उच्यते प्रभुः युष्माभिः अपि धृष्टः परिचारितः अद्य न यावत् समरे च विदारितः" तावत् तत्र लग्नानि रोहिणीलुब्धानि महीपतिसैन्यानि सहसा कुद्धानि स्थिताः प्रेक्षमाणाः देवाः गगनांगने अन्यस्मै अन्यः अभ्येतः समरांगणे कांचनविरचिते रथवरे आरूढः नरवरः निजभ्रातृभिः अभ्यायातः ।.... Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ [ वसुपवघरच्चाउ विद्वत् सहसति परिक्खिउ तेण समुहविजउ ओलक्खिर जे सर घलइ ते सो छिंदइ अप्पुणु तासु ण उरव्यलु भिंदर बंध जगि ण होइ णिव्वच्छलु सु.इरु णिहालिवि जोवर भुय-बलु दिव्व - पक्खि पत्ते हिं विहूसिउ णिय णामंकु बाणु पुणु पेसिउ २८१ पडिउ पर्यंतरि सउरी - णाहें उच्चाइउ अरि-मय-उल- -वाहें अक्खराई वाइयई सुसत्तै वियलिय - बाहल्लोल्लिय - णेत्तें 66 जण - उअरोहें पई घरि धरियउ जो पुणु विहि-वसेण णीसरियड ॥घत्ता ॥ संवच्छर-सय पुष्णि आउ एउ समरंगणु हउं वसुष्व - कुमारु देव देहि आलिंगणु" ।। ( २३ ) जइ वि सुवंस - गुणेण विराइउ कोडीसरु णिय - मुट्ठिए माइउ आवइ - काले जइ विण भज्जइ जइ वि सु·हड - संघट्टणि गज्जर भायर पेक्खिवि पिसुणु य वंकउ तो वि तेण बाणासणु मुक्कउ णरवइ रह•वराउ उत्तिष्णउ कुंअरु वि सम्मुहु लहु अवइण्णउ २९० वृद्धत्वेन सहसा इति परीक्षितः तेन समुद्रविजयः उपलक्षितः यान् शरान् क्षिपति तान् सः छिनत्ति स्वयं तस्य न उरस्तलं भिनत्ति बांधवः जगति न भवति निर्वात्सल्यः सुचिरं निभालय पश्यति भुजबलं दिव्यपक्षिपत्रैः विभूषितः निजनामांकः बाणः पुनः प्रेषितः पतितः पदांतरे शौरिनाथेन उच्चायितः अरिमृगकुलव्याधेन अक्षराणि वाचितानि सत्त्वेन विगलितबाप्पार्द्रार्द्रायित नेत्रेण “ जनोपरोधेन त्वया गृहे. धृतः यः पुनः विधिवशेन निःसृतः ॥घता ॥ संवत्सरशते पूर्णे आयात एतद् समरांगणं अहं वसुदेवकुमार ः देव देहि आलिंगनं " ॥ ( २३ ) यद्यपि सुवंशगुणेन विराजितः, कोटीश्वरः निजमुष्टौ मातः आपत्काले यद्यपि न भजति यद्यपि सुभटसंघट्टने गर्जति भ्रातरं प्रेक्ष्य पिशुनं च वक्रं तदपि तेन बाणासनं मुक्तं नरपतिः तः रथवरात् उत्तीर्णः कुमारः अपि सम्मुखं लघु उत्तीर्णः ૨૮૬ Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्यंतु ] २९५ पक्कमेक आलिंगिउ बाहहि पसरिय - करहिं णाई करिणाहहिं भाय महंतु विउ वसु एवें जंपिउ पहुणा महुरालावें "हउं परं भायर संगरि णिज्जिउ बंधु भणंतु स-सूअहो लजिउ अण्णहो चाव- सिक्ख कहिं एही पई अब्भसिय धुरंधर जेही परं हरि-वंसु बप्प उद्दीविउ तुहुं महुं धम्म-फलें मेलाविउ अज्जु मज्झु परिपुण्ण मणोरह गय णिय - पुरवरु दस वि दसारह खे यर - महि· यर - णारिहिं माणिउ थिउ वसु एव राय' - सम्माणिउ संखु णाम रिसि जो सो ससि मुहु मह· सुक्कामरु रोहिणि-तणुरुहु ॥घत्ता॥ भरह खेत्त णिव- पुज्जु णवम् सीरि उप्पण्णउ पुप्फयंत तेआउ तेण तेउ पडिवण्णउ ॥ "" १०५ ३०० १. राउ । आ संधिनी पुष्पिका नीचे प्रमाणे छे: इय महापुराणे ति सहि - महा. पुरिस - गुणालंकारे महा• कइ - पुप्फदंत - विरइए महा भब्व-भरहाणुमणिए महा• कव्वे खे यर - भू० गोयर · कुमारी लंभो समुद्द· विजयबसु · एव - संगमो णाम तेआसीमो परिच्छेओ सम्मत्तो ॥ ८३ ॥ hi लिंग बाहुभ्यां प्रसारितकराभ्यां यथा करिनाथाभ्याम् भ्राता महान् नतः वसुदेवेन उक्तः प्रभुणा मधुरालापेन "6 अहं त्वया भ्रातः संगरे निर्जितः ' बंधु: ' भणन् स्वसूतात् लज्जितः अन्यस्य चापंशिक्षा क्वं ईदृशी त्वया अभ्यस्ता धुरंधरा यादृशी त्वया हरिवंश: तात उद्दीपितः त्वं मह्यं धर्मफलेन मेलापितः अद्य मम परिपूर्णः मनोरथः " गताः निजपुरवरे दश अपि दशार्हाः खेचरमहीचरनारीभिः मानितः स्थितः वसुदेवः राजसम्मानितः शंखः नाम ऋषिः यः सः शशिमुखः महाशुक्रामरः रोहिणीतनुरुहः ॥ घत्ता ॥ भरत क्षेत्रे नृपपूज्यः नवमः सोरीः उत्पन्नः पुष्पदंततेजसः तेन तेजः प्रतिपन्नं ॥ पुष्पिकानी संस्कृतछायाः - इति महापुराणे त्रिषष्टिमहापुरुषगुणालंकारे महाकवि पुष्पदंत विरचिते महाभम्यभरतानुमते महाकाव्ये खेचर भूगोचरकुमारीलाभः समुद्रविजय वसुदेव संगमो -नाम यशीतितमः परिच्छेदः समाप्तः ॥ ८३ ॥ Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ षष्ठमुद्धरणम् ॥ [धणवाल । ] ॥ बंधुयत्तें चत्तहो भविसत्तहो तिलय-दीवि हिंडी ॥ चंद-प्पहु जिणु हियवइ धरिवि जासु पहावि विमल-मइ पुणु कहमि जेम भविसत्तु णिरु' तिलय-दीवि लाहउ लहर अहो जिणु अंचहु मै परु वंचहु इंदिय खंचहु सुरकिउ संचहु बंधु यत्तु कुल-कित्ति-विणासु गउ वोहित्थई लेवि हयासु भविसु वि सरि कर-चलण धुएवि जाम एइ वर-कमलइ लेवि ५ ताम ण कोइ वि पिक्खइ तित्थु विभिउ मणि अ-मुणिय-कज्जत्यु सुण्णउ तं परसु ण सुहावई' कमलई मिल्लिवि उम्मुहुं धावइ पिक्खइ ताम समुद्दि वहंतइ धुय-धय वडइं ताइं जल-जंतई १. णरु । २. सुहाइ (द. गु.) । | [धनपालः।] ॥ बंधुदत्तेन त्यक्तस्य भविष्यदत्तस्य तिलकद्वीपे पर्यटनम् ।। (१) चंद्रप्रभं जिनं हृदये धृत्वा यस्य प्रभावेन विमलमतिः पुनः कथयामि यथा भविष्यदत्तः निश्चितं तिलकद्वीपे लाभ लभते ॥ अहो जिनं अर्चत मा परं वश्चयत इंद्रियाणि कर्षत सुकृतं संचिनुत बंधुदत्तः कुलकीर्तिविनाशः गतः प्रवहणानि लात्वा हताशः भविष्यः अपि सरसि करचरणान् धावित्वा यावत् आयाति वरकमलानि लात्वा तावत् न कमपि प्रेक्षते तत्र विस्मितः मनसि अज्ञातकार्यार्थः शून्यः तं प्रदेशः न सुखयति कमलानि मुक्त्वा उन्मुखः धावति प्रेक्षते तावत् समुद्रे वहन्ति धूतध्वजपटानि तानि जलयन्त्राणि . Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल ] १०७ " दुक्खहो भरिउ हियउ' आहल्लिवि गउ खलु बंधु-यत्तु मई मिल्लिवि" करुमहि-यलि हणेवि उरि कंपिउ “ण चलिउ जं चिरु जणणिए जंपिउ ण? कज्जु कहिं अब्भुद्धरणउं वणि असमाहिए आयउ मरणउं मघत्ता॥ अण्णण्णइं चिंतिज्जंति मणि खल-विहि अण्णण्णइं सरह सुट्ठ वि वियड्दु गुण सय भरिउ दइउ परम्मुहु किं करइ ॥१३ (२) हा हय-पाव-कम्म मइ-वज्जिय किउ अ-जुत्त हय-बुद्धि अ-लज्जिय णिय कुल-मग्गु भग्गु जसु हारिउ दुज्जण-जणि जंपणउं संवारिउ कबहु करिवि जं परु वंचिज्जा आएं गुणवंतहं लज्जिज्जा एत्तिउ दुक्खु मज्झु निक्कारणु कुलहो कलंकु जाउ जे दारुणु गय उरि अन्यस-पडहु वज्जाविउ तायहो तणउं गाउं लज्जाविउं १८ अह इत्थु विण विसाउ करिव्वउ मंछुडु एण एम होइव्वउ जइ तं तेम घडिउ तं तेण इ तो किर काइं विसरइ एण" १. हियइ । २. (द.)मं च्छुड्ड (गु.) मच्छुडु । ३ विसूरिय ।। " दःखैः मृतं हृदयं आक्षुभ्य गतः खलः बन्धुदत्तः मां त्यक्त्वा " करौ महीतले आस्फाल्य उरसि कंपितः “न आचरितं यत् चिरं जनन्या उक्तं. नष्टं कार्य क्व अभ्युद्धरणं वने असमाधिना आयातं मरणं ॥पत्ता॥ अन्यान्यानि चिंत्यन्ते मनसि खलविधिः अन्यान्यानि स्मरति सुष्टु अपि विदग्धः गुणशतभृतः-देवः पराङ्मुखः-किं करोति ॥ (२) हा हतपापकर्मन् मतिवर्जित कृतं अयुक्तं हतबुद्धे अलज्जित निजकुलमार्गः भग्न: यशः हारितं दुर्जनजने वचनं समाचरितं कपटं कृत्वा यत्परः वंच्यते अनेन गुणवद्भिः लज्यते एतावत् दुःखं मम निष्कारणं कुलस्य कलंकं जातं यद् दारुणं गजपुरे अयश:पटहः वादितः तातस्य सत्कं नाम लज्जितं अथ अत्र अपि न विषादः कर्तव्यः मंक्षु अनेन एवं भवितव्यं यदि तत् तथा घटितं तत् तेनैव तर्हि किल किं खिद्यते अनेन " ... Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भविसत्तहो हिंडी एउ चिंतंतु विसाएं मिल्लिउ विहुणिवि बाहु-दंड संचल्लिउ " इउ वणु इउ सरोरु धम्म-दुउ' करि खल-विहि जं पई पारद्धउ" ॥वत्ता॥ चितंतु एम उब्भड वयणु दूर विसज्जिय-मरण भउ संचलिउ सं-मुहु वण-काणणहो णं मुक्कंकुसु मत्त-गउ ॥ २४ (३) पइट्ठो वर्णिदो वणे तम्मि काले पहिट्ठो तहिं दुण्णिरिक्खे खयाले दिसा मंडलं जत्थ जाउं अ-लक्खं पहायं पिजाणिज्जए जम्मि दुक्खं भमंतो विभीसावणं तं वणं सो णियच्छेइ दुःप्पिच्छ राई स-रोसो कहिं चि प्पएसे स-जूहं गयंदं महा-लील कल्लोल-गंडं स-णिइं कहिं चि प्पपसे णिएउं परिंदं ण णटुं ण रुटुं स-दप्पं मइंदं २९ कहिं चि प्पएसे घणं कज्जलाहंगयं भुंडिणी-सावराहं वराहं कहिं चि प्पएसे समुण्णोण्ण-घोसो हुओ पायडो वंस-याले हुयासो कहिं चि प्पएसे मऊरं पमत्तं जडतं पि अप्पाणयं विष्णडतं १. धम्मदउ । २. सम्मुहु । ३. कज्जालाहं गयं । एतत् चिन्तयन् विषादेन मुक्तः विधूय बाहुदंडौ संचलितः "एतद् वनं एतत् शरीरं धर्मार्थकं कुरु खलविधे यत्त्वया प्रारब्धं " ॥घत्ता॥ चिन्तयन् एवं उद्भूटं वचनं दूरविसृष्टमरणभयः संचलितः सम्मुखं वनकाननस्य यथा मुक्तांकुशः मत्तगजः ॥ (३) प्रविष्टः वणिगिन्द्रः वनं तस्मिन् काले प्रधृष्टः तस्मिन् दुर्निरीक्ये तरुखंडे दिशामंडलं यत्र ज्ञातुं अलस्यं प्रभातं अपि ज्ञायते यस्मिन् दुःखं भ्राम्यन् बिभीषणं तं वनं सः पश्यति दुष्प्रेक्ष्यां रात्रि सरोषः कस्मॅिश्चित् प्रदेशे सयूथं गजेंद्र महालीलं कल्लोलगंडं सनिद्रं कस्मिँश्चित् प्रदेशे द्रष्टुं नरेन्द्रं न नष्टं न रुष्टं सदपं मृगेन्द्र कस्मॅिश्चित् प्रदेशे धनं कजलाभांगकं वराहीसापराधं वराहं कस्मिँश्चित् प्रदेशे समुन्नतोन्नतघोषं भूतं प्रकटं वंशजाले हुताशं कस्मॅिश्चित् प्रदेशे मयूरं प्रमत्तं नृत्यन्तं अपि आत्मानं विगोपायन्तं Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल ] १०९ ॥घत्ता।। अवियल-चित्तु मुणेवि गय एम सुइरु हिंडंतु थिउ अइ-मुत्तय-मंडइ दुमहो तलि वियड-सिला यलि वीसमिउ ॥ ३४ कर चरण धुएवि वर कुसुम लेवि जिणु सुमिरिवि पुप्फंजलि खिवेवि फासुय-सु-यंध-रस-परिमलाई अहिलसिवि अ-सेसई तरु-हलाई थिउ वीसवंतु खणु इक्कु जाम दिण-मणि अत्थ-वणहु ढुक्कु ताम हुअ संझ तेय-तंबिर स-राय रत्तंबरु णं पंगुरिवि आय पहि पहिय थक्क विहडिय रहंग णियःणिय-आवासहो गय विहंग ३९ मउलिय रविंद वम्महु वितट्ट' उप्पन्न बाल-मिहुणहं मरट्ट परिगलिय संझ तं णिएवि राइ अ.सइ व संकेयहो चुक्क णाइ हुअ कसण स वत्ति व मच्छरेण सिरि पहय णाई मसि-खप्परेण हुअ रयणि बहल-कज्जल-समील जगु गिलिवि णाई थिय विसम-सील १ दलालना मूळमां छेल्लो अक्षर छपातां खरी गयो छे; गुणे वितत्तु सुधारो मूके छे; हुं वितहु एम सुधारं छु. ॥ घत्ता ॥ अविचलचित्तः ज्ञात्वा गतः एवं सुचिरं हिण्डमानः स्थितः अतिमुक्तकमंडपे द्रुमस्य तले विकटशिलातले विश्रान्तः ॥ (४) करचरणान् धावित्वा वरकुसुमानि लात्वा जिनं स्मृत्वा पुष्पांजलिं क्षिप्त्वा प्राशुकसुगंधरसपरिमलानि अभिलष्य अशेषाणि तरुफलानि स्थितः विश्राम्यन् क्षणं एक यावत् दिनमणिः अस्तमनं दौकितः तावत् । भूता संध्या तेजस्ताम्रा सरागा रक्तांबरं यथा परिधाय आगता. .... पथि पथिकाः स्थिताः विघटिताः रथांगाः निजनिजआवासं गताः विहंगाः मुकुलितानि अरविन्दानि मन्मथः विततः उत्पन्नः बालमिथुनानां गर्वः परिगलिता संध्या तद् दृष्ट्वा रागेण असती इव संकेतात् च्युता यथा .. भूता कृष्णा सपत्नी इव मत्सरेण शिरसि प्रहता यथा मषिकर्परेण . . भूता रजनी बहलकज्जलसमा जगत् गिलित्वा यथा स्थिता : विषमशीला ... . Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० [ भविसत्तहो हिंडी अवरुप रु पयडतेहि गुज्झु मिहुणहि पारंभिउ सु·रय - जुज्झु Res पडिवणि करालि कालि गह भूअ जक्ख • रक्खस-वमालि वणि विसम विसि विचित्ति' पत्तु तह विहु अकंपु कमल• सिरि- पुतु ॥ धत्ता ॥ परमिट्टि पंच हियवर धरेवि दु· विहें पच्चक्खाणु किउ अहिरित्रि मंत सत्तक्खरउ परमप्पर झायंतु थिउ ॥ ४८ ( ५ ) परिगलिय रयणि पयडिउ विहाणु णं पुणु वि गवेसउ आउ भाणु जिणु संभरंतु संचलिउ धीरु वणि हिंडइ रोमंचिय - सरीरु सु-निमित्तई जाय तासु ताम गय पयहिणंति उवि साम वामंग सुत्ति रुरुह वाउ पिय- मेलावर कुलुकुलइ काउ वामउ किलिकिंचिउ लावरण दाहिणउ अंगु दरिसिउ मरण दाहिणु लोयणु फंदइ स - बाहु णं भणइ 'पण मग्गेण जाहु थोवंतरि दिट्टु पुराण पंथु भविषण वि णं जिण समय-गंधु १ विचित्त , परस्परं प्रकटयद्भिः गुह्यं मिथुनैः प्रारब्धं सुरतयुद्धं एतस्मिन् प्रतिपन्ने कराले काले ग्रहभूतयक्षरक्षः कलकले वने विषमे विदेशे विचित्रे प्राप्तः तथापि खलु अकंपः कमलश्रीपुत्रः ||त्ता | परमेष्ठिनः पंच हृदये धृत्वा द्विविधेन प्रत्याख्यानं कृतं अभिचर्य मंत्र सप्ताक्षरं परमात्मानं ध्यायन् स्थितः ॥ (५) परिगळिता रजनी प्रकटितं विभानं यथा पुनः अपि गवेषकः आयातः भानुः जिनं संस्मरन् संचलितः धीरः वने हिंडते रोमांचितशरीरः सुनिमित्तानि जातानि तस्य तावत् गतः प्रदक्षिणान्ते उड्डीय श्यामः वामांगे सुप्ते मन्दं वहति वायुः प्रियमेलापकं आक्रंदते काकः वामतः किलकिलारवः कृतः लावकेन दक्षिणतः अंगं दर्शितं मृगेण दक्षिणं लोचनं स्पन्दते सबाहु यथा भणति ' अनेन मार्गेण यात ' स्तोकान्तरे दृष्टः पुराणः पन्थाः भव्येन अपि इव जिनसमय ग्रन्थः ५३ Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल ] १११ "" सप्पुरिसु वियप्प " पण होमि विज्जा हर सुर ण छिवति भूमि उ जक्खहं रक्खहं किण्णराहं लइ इत्थु आसि संचरु णराह संचलिउ तेण पहेण जाम गिरि-कंदरि सो वि पहु ताम चितवs धीरू सुंडीरु वीरु " लइ को वि पर भक्खर सरीरु पइसरमि एण विवरंतरेण णिव्वडिउ कज्जु किं वित्थरेण ॥घन्ता ॥ दु·त्तर दुलंघु दूरंतरिउ ताम जाम संचरहिं णउ " भणु काई ण सिज्झइ स उरिसहं' अवगण्णंत मरण-भउ ॥ ६२ ( ६ ) सुहि सभ्यण मरण-भर परिहरेवि अहिमाणु माणु पउरिसु सरेवि सत्तक्खर - अहिमंतणु करेवि चंद पहु जिणु हियवर धरेवि गिरि-कंदरि विवरि पट्टु बालु अंतरिउ णाई कालेण कालु संचरइ बहल·कज्जल - तमालि णं जिउ वामोह- तमोह - जालि सेउ णिरुद्ध •पवणुच्छवेण बहिरिउ पमत्त - महुअर - रवेण ६७ १. सउरिसहो ( द ) सउरिसहं ( गु.) । २ स्वीकृत पाठ प्रमाणे ( गु. ) निरुद्ध पवणुच्छवेण । सत्पुरुषः विकल्पते "अनेन भवामि विद्याधराः सुराः न स्पृशन्ति भूमिं न खलु यक्षाणां रक्षसां किन्नराणां ननु अत्र आसीत् संचरः नराणां " संचलितः तेन पथा यावत् गिरिकंदरे सः अपि प्रविष्टः तावत् चिन्तयति धीरः शौण्डीरः वीरः "बाढं कोऽपि एतत् भक्षयतु शरीरं प्रविशामि अनेन विवरांतरेण निष्पन्न कार्य किं विस्तरेण " ॥ क्त्ता दुस्तरं दुर्लधं दूर - अन्तरितं तावत् यावत् संचरन्ति न भणामि किं न सिध्यति सपौरुषाणां अवगणयतां मरणभयं ॥ (६) सुहृदं स्वजनं मरणभयं परिहृत्य अभिमानं मानं पौरुषं स्मृत्वा सप्ताक्षराभिमंत्रणं कृत्वा चंद्रप्रभं जिनं हृदये धृत्वा गिरिकंदरे विवरे प्रविष्टः बालः अन्तरितः यथा कालेन कालः संचरति बहलकज्जलतमसि यथा जीवः व्यामोहतमः ओघजाले स्विन्नः निरुद्धपवनो स्पर्शेन बधिरितः प्रमत्तमधुकररवेण Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [ भवित्तहो हिंडी ११२ चितिउ अचिंत - णिव्वुइ-वसेण कंटइउ असम - साहस - रसेण अणुसरइ जाम थोवंतरालु तं जयरु दिट्टु ववगय-तमालु चउ· गोउर- चउ· पासाय - सारु चउ - धवल पओलि - दुवार - फारु मणि रयण कंति-कब्बुरय- देहु सिय कमल धवल - पंडुरिय - गेहु ॥घन्ता ॥ तं तेहउ धण-कंचण - पउरु दिट्टु कुमारि वर-णयरु सियiतु विणु विच्छाय - छवि णं विणु णीरिं कमल - सरु ॥ ७३ (७) तं पुर पविस्समाणरण तेण दिट्ठयं तं तित्थु किंपि जं ण लोयणाण इट्ठयं वावि. कू. सु. पहूव - सुप्पसण्ण-वण्णयं मढ - विहार- देहुरेहिं सु तं रवणयं देव मंदिरेसु तेसु अंतरं नियच्छए सो ण तित्थु जो कयाइ पुज्जिऊण पिच्छ सुरहि-गंध- परिमलं पसुणएहिं फंसए चिंतातुरः अचिंत्यनिर्वृतिवशेन कंटकितः असमसाहसरसेन अनुसरति यावत्स्तोकान्तरालं तन्नगरं दृष्टं व्यपगततमः चतुः गोपुरचतुः प्रासादसारं चतुः धवलप्रतोलिद्वारस्फारं मणिरत्नकांतिकर्बुरितदेहं सितकमलधवलपांडुरित गेहूं ॥ घत्ता ॥ तत् तादृशं धनकाञ्चनप्रचुरं दृष्टं कुमारेण वरनगरं श्रीमत् विजनं विच्छायछवि यथा विना नीरेण कमलसरः ॥ ( ७ ) तत् पुरं प्रविशता तेन दृष्टं तत् न तत्र किमपि यत् न लोचनानां इष्टं वापीकूपसुप्रभूतसुप्रसन्नवर्णकं मठविहारदेवकुलैः सुष्ठु तत् रमणीयं देवमन्दिरेषु तेषु अन्तः पश्यति सः न तंत्र यः कदापि पूजयित्वा प्रेक्षते सुरभिगन्धपरिमलं प्रसूनेभ्यः स्पृशति ७८ Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल सो ण तित्थु जो करेण गिहिऊण वासर पिक्कसालि-धण्णयं पणट्ठयम्मि ताणए सो ण तित्थु जो घरम्मि लेवि तं पराणए सर-वरम्मि पंक-याइं भमिर भमर-कंदिरे सो ण तित्थु जो खुडेवि णे ताई मंदिरे हत्थ गिज्झ-वर-फलाइं विभरण पिक्खए केण कारणेण को वि तोडिउं ण' भक्खए पिच्छिऊण पर धणाई खुम्भए ण लुब्भए अप्पणम्मि अप्पर वियप्पए सु चिंतएर " पुत्ति चोज्जु पट्टणं विचित्त-बंध बंधयं पाहि मिच्छ तं जणं' दु-रक्खसेण खद्धयं पुत्ति चोज्जु राउलं विचित्त-भंगि-भंगयं आसि इत्थु जं पहुं ण याणिमो कह गयं १. (द.) तोडिउं ण। (गु.) तोडिऊण । २.विकप्पए सु चिन्तए (द.) विकप्पए चिंतए (गु.) ३. पुत्तिचोज्जु (द.) पुत्ति चोज्जु (गु.) ४ वाहिमिच्छतंजणं (द.); (गु.) ने कशो सुधारो बताववानो नथी सः न तत्र यः करेण गृहीत्वा जिघ्रति पक्वशालिधान्यके प्रनष्टे त्राणाय सः न तत्र यः गृहे लात्वा तत् आनयति सरोवरे पंकजानि भ्रमिरभ्रमरकंदिनि सः न तत्र यः त्रोटयित्वा नयति तानि मंदिरे हस्तग्राह्यवरफलानि विस्मयेन प्रेक्षते केन कारणेन कः अपि त्रोटयित्वा न भक्षयति प्रेक्ष्य परधनानि क्षुभ्यति न लुभ्यति आत्मनि आत्मने विकल्पते सः चिंतयति " आश्चर्य, पट्टनं विचित्रबंधबद्धकं व्याधिना म्लेच्छेन स जनः दुःराक्षसेन जग्धः आश्रय, राजकुलं विचित्रभंगीभग्नकं आसीत् अत्र यः प्रभुः न जानोमः कुत्र गतः Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४ [भविसत्तहो हिंडो पुत्ति चोज्जु कारणं ण याणिमो असंहमं। एक मित्तएहिं कस्स दिज्जए सुःविन्भमं " ॥घत्ता॥ विहुणिय-सिरु भरडक्खिय-लोयणु पइं पई विभइ अ-णिमिस-जोअणु णव-तरु पल्लव-दल-सोमालउ हिंडइ तित्थु महा-पुरि बालउ ॥९७ (८) पिक्खइ मंदिराई फलअश्रुग्धाडिय-जाल-गवक्खई अद्ध-पलोइराइ णं णव-वहु-णयण कडक्खइं अह फलहंतरेण दरिसिय-गुज्झंतर देसई अद्ध-पयंधियाइं विलयाण व ऊरु-पएसई पिक्खइ आवणाइं भरियंतर-भंड समिद्धई १०२ पयडिय-पण्णयाइं ण णाइणि-मउडइं चिंधई एक-धणाहिलास-पुरिसाइ व रंधि पलित्तई वरइत्त-जुवाणई णं वड्ड-कुमारिहु चित्तई आश्चर्य कारणं न जानीमः असंभ्रमं एकमात्राय कस्मै दीयते सुविभ्रम " ॥घत्ता॥ विधूतशिराः विस्फारितलोचनः पदे पदे विस्मयेन अनिमेषदर्शनः नवतरुपल्लवदलसुकुमारः हिंडते तत्र महापुरे बालः ॥ (८) प्रेक्षते मंदिराणि फलकाोद्घाटितजालगवाक्षाणि अर्धप्रलोकिनः यथा नववधूनयनकटाक्षान् अथ फलकान्तरेण दर्शितगुह्यान्तर्देशान् अर्धप्रबद्धान् वनितानां यथा ऊरुप्रदेशान् प्रेक्षते आपणान् भरितान्तर्भाण्डसमृद्धान् प्रकटितपनगानि (पण्यान्) यथा नागिनीमुकुटे चिह्नानि एकधनाभिलाषान् पुरुषान् इव रंध्रे प्रदीप्तान् वरयितृयूनः इव श्रेष्ठकुमारीषु (णाम्) चित्तानि (चित्राणि) Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०७ ( २ ) घणवाल] १९५ जोएसर-विवाय-करणाई व जोइय-थंभई विहडिय-णेसणाई मिहुणाण व सुरयारंभई पिक्खइ गो उराइं परिवज्जिय-गो-पय-मग्गई पासायंतराइं पवणु अ-धवल धयग्गइं। जाई जणाउलाई चिरु आसि महंतर भवणई ताई मि णि झुणाई सुरयई सम्मत्तई' मिहुणइं जाइं णिरंतराइं चिरु पाणिय-हारिह तित्थई । ताई वि विहिवसेण हूअई णी सद्द सु-दुःत्थई ॥घत्ता॥ सियावंत-णियाणइं णिइवि तहो उम्माहउ अंगई भरइ पिक्खंतु णियय-पडिबिंब-तणु सण्णिउं सण्णिउं संचरइ ॥११५ भमइ कुमारु विचित्त-सरूवे सव्वंगि अच्छेरय-भूएं हा विहि पट्टणु सुदृ रवण्णउ किर कज्जेण केण थिउ सुण्णउं हट्ट-मग्गु कुल सील-णिउत्तहिं सोह ण देइ रहिउ वणि उत्तहिं १. (द.) सुरवइ सम्मत्तई (गु.) सुरइ समत्तई। २. हुआई । योगीश्वरविवादकरणानि इव यौगिक(दृष्ट)स्तंभानि(स्तंभान्) विघटितनिवसना(नि)न् मिथुनानां इव सुरतारंभान् प्रेक्षते गोपुरान् परिवर्जितगोपदमार्गान् प्रासादांतराणि पवनोद्भूतधवलध्वजाग्राणि यानि जनाकुलानि चिरम् आसन् महत्तराणि भवनानि तानि अपि निर्ध्वनीनि सुरते समाप्ते मिथुनानि यानि निरंतराणि चिरं पानीयहारिणीनां तीर्थानि तानि अपि विधिवशेन भूतानि निःशब्दानि सुदुःस्थानि ॥त्ता॥ श्रीमन्निदानानि दृष्ट्वा तस्य उन्माथः अंगानि भरति प्रेक्षमाणः निजकतनुप्रतिबिंब शनैः शनैः संचरति ॥ भ्राम्यति कुमारः विचित्रस्वरूपेण सर्वांगेन आश्चर्यभूतेन " हा विधे पट्टनं शोभनं रमणीयं किल कार्येण केन स्थितं शून्य आपणमार्गः कुलशीलनियुक्तैः शोभां न ददाति रहितः वणिक्पुत्रैः Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११६ [ भविसत्तहो हिंडी टिटा उसएहि विणु टिंटउ णं गय-जोव्वणाउ मयरट्टउ घर-घर-पंगणेहिं आहोयई सोह ण दिति विवज्जिय-लोयइं सोवरणइ मि रसोइ-पएसई विणु सज्जणहिं णाई पर-देसई ॥घत्ता॥ हा किं बहु-वाया वित्थरिण आएं दुहिण को ण भरिउ तं कम पडीवउ संमिलइ जं खय-कालि अंतरिउ"॥ १२३ एम दिट्ट तं पट्टणु बार्ले खय-कालावसाणु णं कालें लीलाइ परिसक्कंतु महाइउ जसाहण-राय-दुवारु पराइउ राउल-सीह दुवारई' पिक्खइ दर-वियसंति णाई सःविलक्खइं दिक्खइ णिग्गयाउ गय-सालउ णं कुल-तियउ विणासिय-सीलउ पिक्खइ तुरय-वलत्थ-पएसई पत्थण-भंगाइ व विगयासई १३८ पिक्खइ सहु पंगणउ विचित्तउ चिर-चंदण-छड-कदमि लित्तउ पिक्खइ फणय-वीदु सिंहासणु छत्तु स-चिंधु स-चामर वासणु १ राउल सीहदुवारहो (द. गु.) २ अहिं दिक्नइ ने बदले पिक्सह वांचवु वधारे सारं छे. घतकारैः विना द्यूतगृहं यथा गतयौवनाः वारवनिताः वरगृहप्राङ्गणैः आभोगाः शोभा न ददति विवर्जितलोकाः सोपकरणाः अपि रसवतीप्रदेशाः विना सज्जनैः यथा परदेशाः आत्ता॥ हा किं बहुवाचाविस्तरेण अनेन दुःखेन को न भरितः तत् कथं प्रतीपं सम्मीलति यत् क्षयकालेन अंतरितं " ॥ एतादृशं दृष्टं तत् पट्टनं बालेन क्षयकालावसानं यथा कालेन लीलया परिक्राम्यन् महात्मा यशोधनराजद्वारं परागतः राजकुलसिंहद्वाराणि प्रेक्षते दर-विकसन्ति यथा सवैलक्याणि पश्यति निर्गजाः (निर्गताः)गजशालाः यथा कुलस्त्रियः विनाशितशीलाः प्रेक्षते तुरगपर्यस्तप्रदेशान् प्रार्थनाभंगान् इव विगताशान्(अश्वान् ) प्रेक्षते सर्व प्रांगणं विचित्रं चिरं चंदनछटाकर्दमेन लिप्तं थते कनकपीठं सिंहासनं छत्रं सचिह्न सचामरवसनं Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल ] णि पहु पहु-परिवार-विवज्जिउ हसइ व णाई विलक्खु अ लज्जित मणि-कंचण-चामरइंणियच्छइ चामर-गाहिणीउ ण उ पिच्छह ॥घत्ता। सह-मंडवि राय-जसो हणहो पिक्खिवि परिसक्कंतु णरु मुत्ता हल-माल-झुलुक्कुइहिं रुवइ व थोरंसुवहिं घरु॥ १३४ (११) आउह-साल विसाल विसंति चित्त विचित्त परामरिसंति अग्घाइउ सुगंधु मय-परिमलु णं पुव्व-क्किय-सुकिय-महाफलु सोउ करिवि नव-कमल-दल-च्छिए ण णीसासु मुक्कु घर लच्छिए तूर-मेरि-दडि-संख-सहासहं वीणालावणि वंस विसेसई " जस-हण सामि साल अच्छंतइ' पुर पउरालंकार समत्तई १३९ एवहिं अम्हहिं को वज्जावइ " थक्कइं मउणु लएविणु णावई बहु-विलास-मंदिरई पईसिवि रइ-हरि भमिवि तवंगि बईसिवि णिग्गउ भविस यत्तु अ.विसण्णउ चंदप्पह-जिण-भवणु पवण्णउ १. अच्छंतए । ( द. गु.) निष्प्रभं प्रभुपरिवारविवर्जितं हसति इव यथा विलक्षः अलज्जितः मणिकाश्चनचामरान् पश्यति चामरग्राहिणी: न तु प्रेक्षते ॥त्ता।सभामंडपे यशोधनराजस्य प्रेक्ष्य परिक्राम्यन्तं नरं .. मुक्ताफलमालाझलत्कृतिभिः रोदिति इव स्थूलाश्रुभिः गृहं ॥ (११) आयुधशालां विशालां विशता चित्र विचित्रं परामृशता आघ्रातः सुगंधिः मदपरिमलः यथा पूर्वकृतसुकृतमहाफलं शोकं कृत्वा नवकमलदलाक्ष्या यथा निःश्वासः मुक्तः गृहलदम्या तूरभेरिदडिशंखसहस्राणि वीणालापने वंशविशेषाः " यशोधने स्वामिश्रेष्ठे सति पुरप्रवरालंकारे समाप्ते एतादृशैः अस्माभिः कः वादयति " तिष्ठन्ति मौनं लात्वा यथा बहुविलासमंदिराणि प्रविश्य रतिगृहे भ्रान्त्वा मञ्चे उपविश्य निर्गतः भविष्यदत्तः अविषण्णः चंद्रप्रभजिनभवनं प्रपन्नः... Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ [भविसत्तहो हिंडी आघत्ता॥ तं पुणु भवणु णिएवि धवलुत्तुंग-विसालु वियसिय-वयण-रविंदु' मणि परिओसिउ बालु ॥ १४५ विट्ठ जिणालउ भविस-रिदि णं गंदीसर-दीउ सुरिदि पवराराम गाम-परियचिउ इंद-णरिंद-सुरिंदहि अंचिउ धवलुत्तंग-सिहरु सुःविसालउ छण ससि कंत-कंति-सोमालउ वर मणि किरण-कंति-सोहिल्लउ सई चित्तु व दिढ-बद्ध-कडिल्लउ आगम-जुत्ति-पमाण-विहंजिउ मणि मोत्तिय पवाल-पह-रंजिउ बहु-घण घुसिण-पंकि पडियंकिउ सुहालक्खण-लक्खण चञ्चंकिउ अग्गइ कमल-वावि सुमणोहर णं कामिणि साच्छाय-पओ हर तहिं अवयरिवि अंगु पक्वालिवि कमलई खुडिवि धुएवि अणुमालिवि अहि मुहुँ चलिउ धवल सिय-वाहहो दिह बिंबु चंद-प्पह-णाहहो ॥घत्ता॥ परिअंचिवि अंचिवि परम गुरु अवलोइवि सव्वायरेण समादिहिए सामाइउ करेवि थुइ आढत्त गरेसरेण ॥ १. वयणु रविदु । (द. गु.) २. लक्खणि । |घत्ता॥ तत् पुनः जिनभवनं दृष्ट्वा धवलोत्तुंगविशालं विकसितवदनारविंदः मनसि परितुष्टः बालः ॥ (१२) दृष्टः जिनालयः भविष्यनरेन्द्रेण यथा नंदीश्वरद्वीपः सुरेन्द्रेण प्रवरारामग्रामपर्यचितः इन्द्रनरेन्द्रसुरेन्द्रः अर्चितः धवलोत्तुंगशिखरः सुविशालः क्षणशशिकांतकांतिसुकुमारः वरमणिकिरणकांतिशोभितः स्वयं चित्रं इव दृढबद्धकटिकः भागमयुक्तिप्रमाणविभक्तः मणिमौक्तिकप्रवालप्रभारंजितः बहुघनघुसृणपंकेन प्रत्यंकितं शुभलक्षणलक्षणचर्चाकितं अग्रे कमलवापी सुमनोहरा यथा कामिनी सच्छायपयोधरा तस्याम् अवतीर्य अंगं प्रक्षाल्य कमलानि त्रोटयित्वा धावित्वा अनुमाल्य अभिमुखं चलितः धवलश्रीवाहस्य दृष्टं बिंबं चंद्रप्रभनाथस्य । आत्ता॥ पर्यंच्य आर्चित्वा परमगुरुं अवलोक्य सर्वादरेण समदृष्टया सामायिकं कृत्वा स्तुतिः आरब्धा नरेश्वरेण ॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घणवाल ] तिलय-दीवंतर-त्थेण चंद-प्पहं संथुअं भविस यत्तेण चंद-प्पहं “भरह-खेत्तम्मि काले चउत्थे जए वट्टमाणम्मि तस्सेय तित्थेसए सिसिर-कालम्मि उण्हालए पाउसे मत्त-लोयम्मि दस लक्ख-पुव्वाउसे जस्स माणं धणूणं दिवढं सयं जेण पत्तं पवित्तं सिवं सासयं अट्ठमं जेण तित्थं पवित्ताइयं जस्स जम्मे ति-लोयम्मि वद्धावियं जस्स वायाई भुवण-त्तयं मोइयं केवलेणं ति-लोयं पउज्जोवियं जेण मिच्छत्त मोहं च णिण्णासिय दिव्व-भासतरेणं जयं मासियं जेण लोयस्स लोहत्तणं फेडियं दुट्ठ-कंदप्प-दप्पं च पंचेडियं अप्पमत्ताण भत्ताण संती सया देसिउं दाविया जीव-लोए दया णाह कज्जेण तेणं मए संथुओ जेण तम्हाण पासं गमं तक्कुओ। देहि अम्हाण माणम्मि काउं दयं अ-क्खयं अव्वयं तं महंतं पयं" ॥घत्ता॥ तर्हि तिलय-दीवि भविर्सि णमिउं इत्थु काले धण वइ थुणइ ___ "अणुणंत-पढंत-सुणंतह मि देहि भडारा विमल-मइ ॥" १. (द.) आ प्रमाणे (c हाथप्रतनी ) पुष्पिका नोंधे छे: इय भविसत्तकहाए पयडियधस्मत्थकाममोक्खाए बुहधणवालकयाए पंचमिफळवण्णणाए भविसत्ततिलकपुरवण्णणो णाम चउत्थो संधीपरिच्छेओ सम्मत्तो॥ तिलकद्वीपान्तरस्थेन चंद्रप्रभः संस्तुतः भविष्यदत्तेन चंद्रप्रभः " भरतक्षेत्रे काले चतुर्थे जगति वर्तमाने तस्यैव तीर्थेश्वरे शिशिरकाले उष्णकाले प्रावृषि मर्त्यलोके दशलक्षपूर्वायुषि यस्य मानं धनुषां द्वयर्धे शतं येन प्राप्तं पवित्रं शिवं शाश्वतं अष्टमं येन तीर्थ पवित्रायितं यस्य जन्मनि त्रिलोके वर्धापितं यस्य वाचया भुवनत्रयं मोचितं कैवल्येन त्रिलोकं प्रोद्योतितं येन मिथ्यात्वं मोहः च निर्नाशितः दिव्यभाषान्तरेण जगद् भाषितं येन लोकस्य लोभः विनाशितः दुष्टकंदर्पदर्पः च दलितः अप्रमत्तानां भक्तानां शांतिं सदा देशयितुं दर्शिता जीवलोके दया नाथ कार्येण तेन मया संस्तुतः येन युष्माकं पार्श्व गच्छामि स्वजनः देहि अस्मभ्यं माने कृत्वा दयां अक्षयं अव्ययं तत् महत् पदं " आपत्ता॥तस्मिन् तिलकद्वीपे भविष्येण नतः अस्मिन् काले धनपतिः स्तौति " अनुजानद्भयः पठद्भयः शृण्वद्भयः अपि देहि भट्टारक विमलमति ॥ Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ सप्तममुखरणम्॥ [ जोइन्दु। ॥ परमप्पप्पयास-दोहासमुच्चउ ॥ जे जाया झाणग्गियए कम्म-कलंक डहेवि णिश्च णिरंजण णाण मय ते परमप्प णमेवि ॥ १ ॥ ते हउ बंदउं सिद्ध-गण अच्छहि जे वि हवंत परम-समाहि-महग्गियए कम्मिघणई हुणंत ॥ २ ॥ जे परमप्पु णियंति मुणि परम-समाहि घरेवि ५ परमाणदह कारणिण तिण्णि वि ते वि णमेवि ॥३॥ भावि पणविवि पंच-गुरु सिरि जोइंदु जिणाउ' भट्ट-पहायरि विण्णविउ' विमलु करेविणु भाउ ।। ४॥ १. तेहउ । २. अत्थाह । ३. जिणाउ । ४. विण्णयउ। ॥ योगीन्द्रः॥ ॥ परमात्मप्रकाश'दोहा'समुच्चयः ॥ ये जाताः ध्यानाग्निना कर्मकलंकान् दग्ध्वा नित्याः निरञ्जनाः ज्ञानमयाः तान् परमात्मनः नत्वा ॥१॥ तानहं वन्दे सिद्धगणान् तिष्ठन्ति ये अपि भवन्तः परमसमाधिमहाग्निना कर्मेन्धनानि जुह्वन्तः ॥२॥ य परमात्मान पश्यन्ति मुनयः परमसमाधि धृत्वा परमानंदस्य कारणेन त्रीनपि तानपि नत्वा ॥३॥ भावेन प्रणम्य पञ्चगुरुन् श्रीयोगीन्द्रः एव नाम भट्टप्रभाकरेण विज्ञाप्तः विमलं कृत्वा भावम् ॥४॥ Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोईतु] "गउ संसारि वसंताहं सामिय कालु अणंतु पर मई किं पि न पत्तु सुहु दुक्खु जि पत्तु महंतु ॥५॥ चउ गइ-दुक्खहं तत्ताहं जो परमप्पउ को इ . चउ-गइ-दुक्ख-विणास यरु कहहु पसाएं सो वि"॥३॥ "पुण पुण पणविवि पंच-गुरु भावि चित्ति धरेवि भट्ट-पहा-यर णिसुणि तुहुं अप्पा ति विहु कहेवि ॥७॥ मूदु वियक्खणु बंभु परु अप्पा ति-विहु हवेइ १५ देहु जि अप्पा जो मुणइ सो जणु मूड हवेइ ॥ ८ ॥ देह-विभिण्णउ' णाण मउ जो परमप्पु णिएइ परम समाहि-परिद्वियउ पंडिउ लो जि हवेइ ॥ ९ ॥ ति हुयण-वंदिउ सिद्धि-गउ हरि-हर झायहि जो जि लक्खु अलक्खें धरिवि थिरु मुणि परमप्पउ सो जि ॥१०॥ घेयहिं सत्थहिं इंदियहिं जो जिय मुणहु ण जाइ णिम्मल-झाणह जो विसउ सो परमप्पु अणाइ ॥ ११ ॥ १. विभण्णउ । " गतः संसारे वसतां स्वामिन् कालः अनन्तः परं मया किमपि न प्राप्तं सुखं दुःखमेव प्राप्तं महत् ॥५॥ चतुर्गतिदुःखैः तप्तानां यः परमात्मा कोऽपि चतुर्गतिदुःखविनाशकरः कथयत प्रसादेन तम् अपि" ॥६॥ पुनः पुनः प्रणम्य पंचगुरून् भावेन चित्ते धृत्वा भट्टप्रभाकर निशृणु त्वं आत्मानं त्रिविधं कथयामि ॥७॥ मूढः विचक्षणः ब्रह्म परं आत्मा त्रिविधः भवति देहमेव आत्मानं यः मनुते सः जनः मूढः भवति ॥८॥ देहविभिन्नं ज्ञानमयं यः परमात्मानं पश्यति परमसमाधिपरिस्थितः पण्डितः स एव भवति ॥९॥ त्रिभुवनवन्दितं सिद्धिगतं हरिहरौ ध्यायतः यम् एव लक्ष्यम् अलक्ष्येण धृत्वा स्थिरं मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥१०॥ वेदैः शास्त्रैः इन्द्रियैः यः जीव, मंतुं न याति निर्मलध्यानस्य यो विषयः स परमात्मा अनादिः ॥११॥ Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२२ [ परमप्पप्पयासदोहा केवल दंसणणाणमउ केवल सुक्ख-सहाउ केवल-वीरिउ सो मुणहिं जो जि परावर भाउ ॥१२॥ जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ तेहउ णिवसइ बंभु पर देहहं मं करि मेउ ॥ १३ ॥ में दिहिं तुटुंति लहु कम्मइं पुध-कियाई सो पर जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइं ॥ १४ ॥ अ-मणु अाणिदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चि-मित्तु अप्पा इंदिय-विसउ ण वि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥ १५ ॥ ३० भव-तणु भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टइ ॥ १६ ॥ देहा-देवलि जो वसइ देउ अणाइ अणंतु केवलणाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥ १७ ॥ देहे वसंतु वि ण वि छिवइ णियमें देहु जि जो जि ३५ देहिं छिप्पइ जो जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ॥ १८ ॥ केवलदर्शनज्ञानमयः यो केवलसौख्यस्वभावः केवलवीर्यस्तं मनुष्व यः एव परापरो भावः ॥१२॥ यादृशः निर्मलः ज्ञानमयः सिद्धौ निवसति देवः तादृग् निवसति ब्रह्म परं देहे मा कुरु भेदम् ॥१३॥ येन दृष्टेन त्रुट्यंति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि तं परं जानासि योगिन् देहे वसंतं न किम् ॥ १४ ॥ अमनस्कः अनिन्द्रियः ज्ञानमयः मूर्तिविरहितः चिन्मात्रः आत्मा इन्द्रियविषयः नापि लक्षणं इदं निरुक्तम् ॥१५॥ भवतनुभोगविरक्तमनाः यः आत्मानं ध्यायति तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुट्यति ॥१६॥ देहदेवकुले यः वसति देवः अनादिः अनंतः केवलज्ञानस्फुरिततनुः सः परमात्मा निीतः ॥१७॥ देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहं एव यः एव देहेन स्पृश्यते यः एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥१८॥ Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइंदु ], १९ ॥ जो समभाव - परिट्ठियां जोइहिं को फुरेह परमाणंदु जणंतु फुड सो परम हवे गयणि अणंति जि एक उडु जेहउ भुअणु विहाइ मुक्कहं जसु पर बिंबियज सो परमप्पु अणा ॥ २० ॥ जसु अब्भंतरि जगु वसइ जग अभंतरि जो जि अगि जि वसंतु वि जगु जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ॥ २१ ॥ देहि वस्तु वि हरि-हर वि जं अज्ज वि ण मुणंति परम · समाहि-तवेण विणु सो परमप्पु भणति ॥ २२ ॥ अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जि ण होइ परु जि का वि अप्पु ण वि नियमिं पभणहिं जोइ ॥ २३ ॥ ण वि उप्पज्जइ ण वि मरइ बंधु ण मोक्खु करेइ जिउ परमार्थे जोइया जिण वरु एउ भणे ॥ २४ ॥ कम्महं केरा भावडा अण्णु अ-चेयणु दव्वु 'अप्प - सहावहं भिण्णु जिय णियमिं बुज्झहि सव् ॥ २५ ॥ ५० १२३ १. जीवसहावहं । यः समभावपरिस्थितानाम् योगिनां कश्चित् स्फुरति परमानन्दं जनयन् स्फुटं स परभात्मा भवति ॥१९॥ गगने अनंते अपि एकं उड्डु यथा भुवनं विभाति मुक्तस्य यस्य पदे बिम्बितः स परमात्मा अनादिः ॥२०॥ यस्य अभ्यंतरे जगत् वसति जगतः अभ्यन्तरे य एव जगति वसन् अपि जगत् एव नापि मनुष्व परमात्मानं तमेव ॥ २१ ॥ देहे वसन्तमपि हरिहरौ अपि यं अद्यापि न जानीतः परमसमाधितपसा विना तं परमात्मानं भणन्ति ॥ २२॥ आत्मा आत्मा एव परः एव परः आत्मा परः एव न भवति परः एव कदाचिद् अपि आत्मा नैव नियमेन प्रभणन्ति योगिनः॥२३॥ नापि उत्पद्यते नापि म्रियते बंधं न मोक्षं करोति जीवः परमार्थेन योगिन् जिनवरः एवं भणति ॥ २४ ॥ कर्मणां संबंधिनः भावाः अन्यद् अचेतन द्रव्यम् आत्मस्वभावाद् भिन्नं जीव, नियमेन बोध सर्वम् ||२५|| Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. ૧૪ [ परमप्पप्पयासदोहा अप्पा मेल्लिवि णाणमउ अण्णु परायउ भाउ सो छंडेविणु जीव तुहुं भावहि अप्प - सहाउ ॥ २६ ॥ अपि अप्पु मुणंतु जिउ सम्मा- दिट्ठिी हवेह सम्मा-इट्ठि जीवडउ लहु कम्मर मुच्चेइ ॥ २७ ॥ जणणी जणणु वि कंत घरु पुत्तु वि मित्तु वि दव्वु माया - जालु वि अप्पणउं मूढउ मण्णइ सव्व ॥ २८ ॥ दुक्खहं कारणि जे विसय ते सुह- हेउ रमेइ मिच्छा - इट्ठिउ जीवडउ इत्थु ण काई करेइ ॥ २९ ॥ कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ तिमु तिमु दंसणु लहइ जिउ नियमें अप्पु मुणेइ ||३०|| जोइय अप्पें जाणिवण जगु जाणियउ हवेह अप्प केरह भावst बिंबिउ जेण वसेर ॥ ३१ ॥ अप्पु पयास अप्पु परु जिम अंबरि रवि-राउ जोइय एत्थु म भंति करि पहउ वत्थु - सहाउ ॥ ३२ ॥ ५५ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं अन्यः परकीयः भावः तं त्यक्त्वा जीव त्वं भावय आत्मस्वभावम् || २६ ॥ आत्मनाऽऽत्मानं जानन् जीवः सम्यग्दृष्टिर्भवति सम्यग्दृष्टिकः जीवः लघु कर्मणा मुच्यते ॥ २७ ॥ जननी जनकः अपि कांता गृहं पुत्रोऽपि मित्रमपि द्रव्यं मायाजालमपि आत्मनः मूढो मन्यते सर्वं ॥ २८ ॥ दुःखस्य कारणे ये विषयाः तान् सुखहेतून् रमते मिथ्यादृष्टिः जीवः अत्र न किं करोति ॥ २९ ॥ कालं लब्ध्वा योगिन् यथा यथा मोहो गलति तथा तथा दर्शनं लभते जीवः नियमेन आत्मानं मनुते ॥३०॥ योगिन् आत्मना ज्ञातेन जगत् ज्ञातं भवति आत्मनः संबंधिनि भावे बिंबितं येन वसति ॥ ३१ ॥ आत्मा प्रकाशयत्यात्मानं परं यथा अम्बरे रविराजः योगिन् अत्र मा भ्रान्ति कुरु एतादृशः वस्तुस्वभावः ॥ ३२ ॥ Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइंदु] तारा-यणु जलि बिबियउ णिम्मलि दीसइ जेम अप्पए णिम्मलि बिंबिंयउ लोयालोउ वि तेम ॥ ३३ ॥ अप्पा णाणु मुणेहि तुहुं जो जाणइ अप्पाणु जीव-पएसहिं तित्तिडउ णाणे गयण-पवाणु ॥ ३४ ॥ जइ णिविसधु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ अग्गि-कणी जिव कट्ठ-गिरि डहइ असेसु वि पाउ ॥३५॥ ७० मिल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चितउ होइ । चित्तु णिवेसहि परम-पइ देउ णिरंजणु जोइ ॥ ३३ ॥ जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु तं सुहु भुवणि वि अत्थि ण वि मेल्लिवि देउ अणंतु ॥ ३७ ॥ जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु अंबरि णिम्मलि घण-रहिए माणु जि जेम फुरंतु ॥३८॥ राएं रंगिए हियवडए देउ ण दोसइ संतु दप्पणि मइलइ बिंबु जिम एहउ जाणि णि भंतु ॥ ३९ ॥ तारागणः जले बिंबितः निर्मले दृश्यते यथा आत्मनि निर्मले बिंबितं लोकालोकमपि तथा ॥ ३३ ॥ आन्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानं । जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ॥ ३४ ॥ यदि निमेषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागं अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ॥३५॥ मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तो भूत्वा चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ॥ ३६ ॥ यच्छिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन् तत्सुखं भुवनेऽप्यस्ति नैव मुक्त्वा देवमनन्तम् ॥ ३७॥ योगिन् निजमनसि निर्मले परः दृश्यते शिवः शान्तः अंबरे निर्मले घनरहिते भानुरेव यथा स्फुरन् ॥ ३८ ॥ रागेन रञ्जिते हृदये देवो न दृश्यते शान्तः दर्पणे मलिने बिंवं यथा एवं जानीहि निर्धान्तं ॥३९॥ Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ [ परमप्पप्पयासदोहा जसु हिरणच्छि हियवडए तसु णवि बंभु वियारि एक्कहिं केम समंति वढ बे खंडा पडियारि॥ ४० ॥ ८० णिय-मणि णिम्मलि णाणियह णिवसइ देउ अणाह हंसा सर वरि लीणु जिम महु एहउ पडिहाइ ॥ ४१ ॥ देउ ण देउलि ण वि सिलए ण वि लिप्पइ ण वि चित्ति अखउ णिरंजणु णाणमउ सिउ संठिउ सम-चित्ति ॥४॥ मणु मिलियउ परमेसरहं परमेसरु वि मणस्स बीहि वि सम-रसिहूवाहं पुज्ज चडावउं कस्स ॥ ४३ ॥ जेण णिरंजणि मणु धरिउ विसय-कसायहिं जंतु मोक्खहं कारणु एत्तडउ अण्णु ण तंतु ण मंतु ॥ ४४ ॥ उत्तमु सुक्खु ण देइ जइ उत्तमु मुक्खु ण होइ तो किं इच्छहिं बंधणहिं बद्धा पसुय वि सो इ॥ ४५ ॥ ९० अणु जइ जगह जि अहिय यरु गुण गणु तासु ण होइ तो तइ लोउ वि किं धरइ णियासिर उप्परि सोइ ॥ ४६ ॥ यस्य हरिणाक्षी हृदये तस्य नापि ब्रह्म विचारय एकस्मिन् कथं सम्मातः मूढ द्वौ खड्गौ प्रत्याकारे ॥ ४० ॥ निजमनसि निर्मले ज्ञानिनां निवसति देवः अनादिः हंसः सरोवरे लीनः यथा मम ईदृशं प्रतिभाति ॥ ४१ ॥ देवो न देवकुले नापि शिलायां नापि लेप्ये नापि चित्र अक्षयः निरञ्जनः ज्ञानमयः शिवः संस्थितः समचित्ते ॥४२॥ मनः मिलितं परमेश्वरस्य परमेश्वरः अपि मनसः द्वयोरपि समरसीभूतयोः पूजां समारोपयामि कस्य ॥४३॥ येन निरनने मनः धृतं विषयकषायेषु गच्छत् मोक्षस्य कारणं एतावद् अन्यः न तन्त्रः न मन्त्रः ॥४४॥ उत्तमं सुखं न ददाति यदि उत्तमो मोक्षो न भवति ततः किमिच्छन्ति बन्धनैः बद्धाः पशवः अपि तमेव ॥४५॥ पुनः यदि जगतोऽपि अधिकतरः गुणगणः तस्य न भवति ततः त्रिलोक्यपि किं धरति निजशिरसः उपरि तमेव ॥४६॥ Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइंदु ] ९५ हरि-हर-बभु वि जिण वर वि मुणि वर-विंद वि भव्य परम - णिरंजणि मणु धरिवि मुक्खु जि झायहि सव्व ॥ ४७ ॥ जीवह सो पर मुक्खु मुणि जो परम ध्पय-लाहु कम्म· कलंक - विमुक्काहं णाणिय बोलहिं साहु ॥ ४८ ॥ जेण कसाय हवंति मणि सो जिय मिल्लहि मोहु मोह - कसाय - विवज्जिउ पर पावहिं सम-बोहु ॥ ४९ ॥ तत्तातत्तु मुणेवि मणि जे थक्का सम-भाव ते पर सुहिया इत्थु जगि जिहं रइ अप्प - सहावि ॥ ५० ॥ बिणि वि दोस हर्षति तसु जो सम-भाउ करेइ १२७ बंधु जि णिars अपणउ अणु जगु गहिल करेइ ॥ ५१ ॥ जा णिसि सयलहं देहियहं जोग्गिउ तर्हि जग्गेइ जहिं पुणु जग्गइ सयलु जगु सा णिसि मुनिवि सुवेइ ॥ ५२ ॥ मं पुणु पुण्णई भलाई णाणिय ताई भांति जीवहं रज्जई देवि लहु दुक्खई जाई जणंति ॥ ५३ ॥ हरिहरब्रह्माणोऽपि जिनवरा अपि मुनिवरवृन्दान्यपि भव्याः परमनिरञ्जने मनो धृत्वा मोक्षमेव ध्यायन्ति सर्वे ॥ ४७ ॥ जीवानां तं परं मोक्षं मन्यस्व यः परमात्मलाभः कर्मकलंकविमुक्तान् ज्ञानिनः ब्रुवन्ति साधवः ॥ ४८ ॥ येन कषायाः भवन्ति मनसि तं जीव मुञ्च मोहम् मोहकषायविवर्जितः परं प्राप्नोषि समबोधः ॥ ४९॥ तत्त्वातत्त्वं मत्वा मनसि ये स्थिताः समभावे ते परं सुखिताः अत्र जगति येषां रतिः आत्मस्वभावे ॥५०॥ द्वौ अपि दोषौ भवतः तस्य यः समभावं करोति बन्धमेव निहन्ति आत्मीयं पुनः जगत् ग्रथिलं करोति ॥५१॥ या निशा सकलानां देहिनां योगी तस्यां जागर्ति यस्मिन् पुनः जागर्ति सकलं जगत् तां निशां मत्वा स्वपिति ॥५२॥ मा पुनः पुण्यानि भद्राणि ज्ञानिनः तानि भति जीवस्य राज्यानि दत्वा लघु दुःखानि यानि जनयंति ॥ ५३ ॥ Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२८ [परमप्पप्पयासदोहा सिद्धिहि केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु जो तसु भावह मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ॥५४॥ देउ णिरंजणु इउं भणइ णाणि मुक्खु ण भंति णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ॥ ५५ ॥ णाण-विहीणहं मोक्न-पउ जीव म कासु वि जोइ बहुएं सलिलि विरोलियई करु चोप्पडउ ण होइ ॥ ५६ ॥ तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवडुइ राउ दिण यर-किरणहं पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥५७॥ अप्पा मिल्लिवि णाण-मउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु मरगउ जे परियाणियउ तहुं कच्चे कउ गण्णु ॥ ५८ ॥ णाणिहिं मूढहं मुणि-वरहं अंतर होइ महंतु देह जु मिल्लइ णाणियउं जीवहं भिण्णु मुणंतु ॥ ५९ ॥ लेणहं इच्छइ मृदु पर भुवणु वि एहु अ-सेसु बहु-विह-धम्म-मिसेण जिय दोहि मि एहु विसेसु ॥ ६० ॥ सिद्धेः संबंधी पन्थाः भावः विशुद्धः एकः यः तस्माद् भावान्मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्तः ॥५४॥ देवः निरञ्जनः एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः ज्ञानविहीनाः जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ॥ ५५ ॥ ज्ञानविहीनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि पश्य बहुना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ॥ ५६ ॥ तन्निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ॥५७॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत् मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन किं गण्यं ॥ ५९॥ ज्ञानिनां मूदानां मुनिवराणां अंतरं भवति महत् देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमानः ॥ ५९॥ लातुमिच्छति मूढः परं भुवनमप्येतदशेषं बहुविधधर्ममिपेण जीव द्वयोः अपि एषः विशेषः ॥ ६॥ Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ રરર जोइंदु ) भल्लाहं वि णासंति गुण जह संसग्गु खलेहि वइसाणरु लोहहं मिलिउ ते पिट्टियइ घणेहिं ॥ ६१ ॥ तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय लुचोड लोहई लग्गिवि हुय-वहहं पिक्खु पडतउ तोड ॥ ६२ ॥ जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥ ६३ ।। धधइ पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अायाणु मोक्खहं कारणु एक्कु खणु ण वि चिंतइ अप्पाणु।। ६४ ॥ जीव वधंतहं गरय-गइ अभिय-पदाणे सग्गु बे पह जवला दरिसिया जहिं भावइ तहिं लग्गु ॥ ६५ ॥ १३० जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिह ते कारणि वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥ ६६ ॥ विसय-सुहई बे दिवहडा पुणु दुक्खह परिवाडि भुल्लउ जीव म वाहि तुहुं अप्पण खंधि कुहाडि ॥ ६७ ॥ भद्राणामपि नश्यति गुणाः येषां संसर्गः खलैः वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन अभिहन्यते मुद्गरैः ॥ ६१ ॥ तले अधिकरणी उपरि घनपतनं संदंशककर्षणं लोहं लगित्वा हुतवहाय प्रेक्षस्व पतन्तं त्रोटनम् ।। ६२ ॥ योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति स्नेहासक्तं सकलं जगत् दुःखं सहमानं पश्य ॥ ३ ॥ प्रवृत्तौ पतितं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानं मोक्षस्य कारणं एक क्षणं नैव चिन्तयति आत्मानम् ॥६४॥ जीवं घ्नता नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः दौ पन्थानौ समीपस्थौ दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग ॥ १५ ॥ ये दृष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तमने न दृष्टाः तेन कारणेन मूर्ख धर्म कुरु धने यौवने का स्थितिः ॥ ६६ ॥ विषयसुखानि द्वौ दिवसौ पुनः दुःखानां परिपाटी भ्रांतः जीव मा वाहय त्वं आत्मनः स्कंधे कुठारम् ॥ ६७ ॥ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [परमप्पप्पयासदोहा संता विसय जु परिहरइ बलि किज्जउं हउँ तासु सो दवेण जि मुंडियउ सीसु खडिल्लउ जासु ॥ ६८॥ पंचह णायकु वसि करहु जेण होति वसि अण्ण मूल विणट्ठरं तरु-वरहं अवसई सुक्कहिं पण्ण ॥ ६९ ॥ कालु अणाइ अणाइ जिउ भव-सायरु वि अणंतु जीवि बिपिण ण पत्ताई जिणु सामिउ सम्मत्तु ॥ ७० ॥ १४० बलि किउ माणुस-जम्मडा देक्खंतहं पर सारु जह उट्ठभइ तो कुहह अह डझइ तो छारु ॥ ७१ ॥ उज्वलि चोप्पडि चिट्ठ करि देहि सुःमिट्ठाहार देहह सयल णिरत्थ गय जिम दुज्जणि उवयार ॥ ७२ ॥ विसय कसायहिं मण-सलिलु ण वि डहुलिज्जइ जासु अप्पा णि म्मलु होइ लहु वढ पञ्चक्खु वि तासु ॥ ७३ ।। णास-विणिग्गउ सासडा अंबरि जेत्थु विलाइ तुइ मोहु तडत्ति तहिं मणु अत्थवणहं जाइ ॥ ७४ ॥ १४८ सतः विषयान् यः परिहरति बलिं कुर्यां अहं तस्य . सः दैवेन एव मुण्डितः शीर्ष खल्वाटं यस्य ॥ ६८ ॥ पंचानां नायकं वशं कुरुत येन भवंति वशं अन्यानि मूले विनष्टे तरुवरस्य अवश्यं शुष्यन्ति पर्णानि ॥ ६९ ॥ कालः अनादिः अनादिः जीवः भवसागरः अपि अनन्तः । जीवेन द्वे न प्राप्ते जिनः स्वामी सम्यक्त्वम् ॥ ७० ॥ बलिः कृतः मनुष्यजन्म पश्यतां परं सारं यदि अवष्टभ्यते ततः कुथ्यते अथ दह्यते ततः क्षारः ॥ ७१ ॥ उद्वर्तय म्रक्षय चेष्टां कुरु देहि सुमिष्टाहारं देहस्य सकलं निरर्थं गतं यथा दुर्जने. उपकारः ॥ ७२ ॥ विषयकषायैः मनःसलिलं नैव क्षुभ्यते यस्य आत्मा निर्मलो भवति लघु बाल प्रत्यक्षोऽपि तस्य ॥ ७३ ॥ नासाविनिर्गतः उच्छ्वासः अंबरे यत्र विलीयते त्रुटयति मोहः झटिति तत्र मनः अस्तमनं याति ॥ ७ ॥ Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ अष्टममुद्धरणम् ॥ [जोइन्दु ।] ॥ दोहा-पाहुड्ड ॥ गुरु दिण यरु गुरु हिम किरणु गुरु दीवउ गुरु देउ अप्पहं परहं परंपरहं जो दरिसाव मेउ ॥१॥ आभुंजंता विसय-सुह जे ण वि हियइ धरंति ते सासय-सुहु लहु लहर्हि जिण वर एम भणंति ॥ २ ॥ ण वि भुंजंता विसय-सुह हियडइ भाउ धरंति सालिसित्थु जिम बप्पुडउ णर णरयहं णिवडति ॥ ३ ॥ वरु विसु विस-हरु वरु जलणु वरु सेविउ वण-वासु णउ जिण धम्म-परम्मुहउ मिच्छत्तिय-सहवासु ॥४॥ जसु मणि णाणु ण विप्फुरइ कम्मह हेउ करंतु सो मुणि पावइ सुक्खु ण वि सयला सत्थ मुणंतु ॥ ५ ॥ १० अप्पा केवल•णाणमउ हियडइ णिवसह जासु ति-यणि अत्थइ मोकलउ पाउ ण लग्गड तासु ॥ ६ ॥ [ योगीन्द्रः। ॥ दोहामाभृतम् ॥ गुरुः दिनकरः गुरुः हिमकिरणः गुरुः दीपकः गुरुः देवः आत्मनः परस्य परंपरायाः यः दशेयति भेदम् ॥ १ ॥ आभुजानाः विषयसुखं ये नापि हृदये धरन्ति ते शाश्वतसुखं लघु लभन्ते जिनवराः एवं भणन्ति ॥२॥ नापि मुनानाः विषयसुखं हृदये भावं धरन्ति शालिसिक्थः इव वराकः नराः नरकेषु निपतन्ति ॥३॥ वरं विषं विषधरः वरं ज्वलनः वरं सेवितः वनवासः न तु जिनधर्मपराङ्मुखः मिथ्यात्विसहवासः ॥ १ ॥ यस्य मनसि ज्ञानं न विस्फुरति कर्मणां हेतुं कुर्वन् सः मुनिः प्राप्नोति सौख्यं नापि सकलानि शास्त्राणि वदन्ति॥५॥ आत्मा केवलज्ञानमयः हृदये निवसति यस्य त्रिभुवने अस्ति मुक्तः पापं न लगति तस्य ॥६॥ Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३२ [ दोहापाहुड १५ अप्पा दंसण णाणमउ सयलु वि अण्णु पयालु इम जाणेविणु जोइयहो छंडहु माया जालु ॥ ७ ॥ बहुयई पढियई मूढ पर तालु सुक्कइ जेण एक्कु जि अक्खरु तं पढहु सिव पुरि गम्मइ जेण ॥ ८ ॥ तोडिवि सयल वियप्पडा अप्पहं मणु वि धरेहि सोक्खु निरंतर तर्हि लहहिं लहु संसारु तरेहि ॥ ९ ॥ तित्थ ितित्थ भमेहि वढ धोयउ चम्मु जलेण हु मणु किमु धोएसि तुहुं मइलउ पाव- मलेण ॥ अप्पा - परहं ण मेलयउ आवागमणु ण भग्गु तुस कंडत कालु गड तंदुलु हत्थि ण लग्गु ॥ ११ ॥ इंदिय - विलय चवि वढ करि मोहह परिचाउ अणु-दिणु झायहि परम - पर तो पहउ ववसाउ ॥ १२ ॥ वाद-विवादा जे करहिं जाहिं ण फिट्टिय मंति जे अत्ता गउपावियइ ते गुप्पंत भवंति ॥ १३ ॥ आत्मा दर्शनज्ञानमयः सकलमप्यन्यत् प्रजालं इति ज्ञात्वा योगिन् त्यज मायाजालं ॥ ७ ॥ बहुना पठितेन मूढ परं तालु शुष्यति येन एकमेवाक्षरं तत् पठ शिवपुरी गम्यते येन ॥ ८ ॥ त्रोटयित्वा सकलान् विकल्पान् आत्मनि मनः अपि धरे : सौख्यं निरंतरं तत्र लभेथाः लघु संसारं तरेः ॥ ९ ॥ तीर्थेभ्यः तीर्थानि भ्राम्येः मूर्ख धौतं चर्म जलेन एतद् मनः कथं भावसि त्वं मलिनं पापमलेन ॥ १० ॥ आत्मपरयोर्न मेलकः गमनागमनं न भग्नं १० ॥ २० तुषं कंडयतः कालः गतः तण्डुलः हस्ते न लग्नः ॥ ११ ॥ इन्द्रियविषयान् त्यक्त्वा मूर्ख कुरु मोहस्य परित्यागं अनुदिनं ध्याय परमपदं ततः एषः व्यवसायः ॥ १२ ॥ वादविवादान् ये कुर्वन्ति येषां न स्फेटिता भ्रान्तिः । ये आत्मानं खलु गोपायन्ति ते गुप्यमानाः भवन्ति ॥ १३ ॥ २६ Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ नवममुद्धरणम् ॥ [ जोइन्दु । ] ।। सावयायार ॥ २ ॥ अरहंतु वि दोसहि रहिउ जासु वि केवल - णाणु - मुणिय-काल-तयहु वयणु वि तस्स पमाणु ॥ १ ॥ तं पायडु जिण वर-वयणु गुरु-उवपसें होइ अंधारs विणु दीवइण अह व किं पिच्छइ को इ ॥ संजम सीलु सउच्च तउ जसु सूरिहिं गुरु सो-इ दाह - छेय-कस - घाय-खमु उत्तमु कंचणु होइ ॥ ३ ॥ मग्गइ गुरु-उवसियई पर सिव-पट्टणि जंति तिं विणु वग्घह वण-यरहं चोरहं पिडि विपति ॥ ४ ॥ मज्जु मंसु महु परिहरहि करि पंचुंबर दूरि आयहं अंतरि अट्ठहं मि तल उप्पज्जइ भूरि ॥ ५ ॥ १० [ योगीन्द्रः । ] ॥ श्रावकाचारः ॥ अर्हन् अपि दोषैः रहितः यस्य पुनः केवलज्ञानं ज्ञानज्ञातकालत्रयस्य वचनमपि तस्य प्रमाणम् ॥ १ ॥ तत्प्रकटं जिनवरवचनं गुरूपदेशेन भवति । अन्धकारे विना दीपकेन अथवा किं प्रेक्षते कोऽपि ॥ २ ॥ संयमः शीलं शौचं तपः यस्य सूरेः गुरुः सोऽपि दाहछेदकपघातक्षमं उत्तमं काञ्चनं भवति ॥ ३॥ मार्गेण गुरूपदिष्टेन नराः शिवपट्टनं गच्छन्ति तेन विना व्याघ्राणां वनचराणां चौराणां पिण्डे विपतन्ति ॥ ४ ॥ मद्यं मांसं मधु परिहर कुरुपञ्चोदुम्बरं दूरे एतेषाम् अन्तरे अष्टानाम् त्रसाः उत्पद्यन्ते भूरि ॥ ५ ॥ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ महु आसाय थोड वि णासह पुण्णु बहुत इसारखं तिडिक्कउ वि काणणु डहइ महंतु ॥ ६ ॥ वसई तावई छंडु जिया परिहर वसणासत्ति सुक्क संसर्गे हरिया पेक्खह तरु उज्झति ॥ ७ ॥ भोग करहि पमाणु जिय इंदिय म करि स-दप्प हुंति ण भल्ला पोसिया दुद्धे काला सप्प ॥ ८ ॥ सणासेण मरंतयहं लब्भइ इच्छिय-लद्धि [ सावयायार सायर-1 इत्थु ण कायउ भंति करि जहिं साहसु तर्हि सिद्धि ॥ ९ ॥ पत्तहं जिन उपसियहं तिहि मि देइ जु दाणु कलाणा पंच लहिवि भुञ्जइ सोक्ख - णिहाणु ॥ १० ॥ दंसण- रहिय-कु- पत्ति जइ दिण्णउ ताहं कु-भोउ खार- घडं अह विडियउ णीरु वि खारउ होइ ॥ ११ ॥ काई बहुत्त संपयई जा किवणहं घरि होइ - णीरु खारिं भरिउ पाणिउ पियइ ण को-इ ॥ १२ ॥ मधु आस्वादितं स्तोकमपि नाशयति पुण्यं प्रभूतं वैश्वानरस्य स्फुलिंगोऽपि काननं दहति महत् ॥ ६ ॥ व्यसनानि तावत् त्यज जीव परिहर व्यसनासक्तिं शुष्कानां संसर्गेण हरिताः प्रेक्षस्व तरवः दह्यन्ते ॥ ७ ॥ भोगानां कुरु प्रमाणं जीव इन्द्रियाणि मा कुरु सदर्पाणि भवन्ति न भद्राः पोषिताः दुग्धेन कृष्णाः सर्पाः ॥ ८ ॥ संन्यासेन म्रियमाणैः लभ्यते इप्सितलब्धिः १५ अत्र न कामपि भ्रांतिं कुरु यत्र साहसः तत्र सिद्धिः ॥ ९ ॥ पात्रेभ्यः जिनोपदिष्टेभ्यः त्रिभ्यः अपि यच्छति यः दानम् कल्याणानि पञ्च लब्ध्वा भुंक्ते सौख्यनिधानम् ॥ १० ॥ दर्शनरहितकुपात्राय यदि दत्तानि तेभ्यः कुभोगः क्षारघटके अथ निपतितं नीरमपि क्षारं भवति ॥ ११ ॥ किं बचा संपदा या कृपणानां गृहे भवति सागरनीरं क्षारेण भृतं पानीयं पिबति न कोऽपि ॥१२॥ २० Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइंदु ] १५ ॥ पत्तहं दिण्णउं थोअडउ रे जिय होइ बहुत्त वडहं बीउ धरणिहिं पडिउ वित्थरु लेइ महंतु ॥ १३ ॥ जं जिय दिजइ इत्थ भवि तं लब्भइ पर- लोइ मूळे सिंह तरु - वरदं फलु डालहं पुणि होइ ॥ १४ ॥ धमें जाहिं जंति णरा पावें जाण वहंति घर-यर गेहुवरि चडहिं कूव खणय तलि जंति ॥ सत्य-सरण वियाणियइं धम्मु ण चरह मुणेवि दिण-यर-सउ जइ उग्गमइ घूहड अंधउ तो वि ॥ १३६ ॥ रुवहु उपरि मइ म करि णयण णिवारहि जंत रूवासत्त पयंगडा पेक्खहिं दीवि पडंत ॥ १७ ॥ मउयन्तणु जिय मणि धरहि माणु पणासह जेण अहवा तिमिरु ण ठाहरइ सुरहु गयणि ठिण ॥ १८ ॥ मणुयहं विणय-विवज्जियहं गुण सयल वि णासंति अह सरवरि विणु पाणियई कमलई केम रहंति ॥ १९ ॥ पात्रेभ्यो दत्तं स्तोकं रे जीव भवति प्रभूतम् वटस्य बीजं धरणौ पतितं विस्तारं लाति महान्तम् ॥१३॥ यद् जीव दोयते अस्मिन् भवे तद् लभ्यते परलोके मूलेन सिंचति तरुवरान् फलं शाखाभ्यः पुनः भवति ॥ १४ ॥ धर्मेण यानैः यान्ति नराः पापेन यानं वहन्ति गृहकराः गृहोपरि आरोहन्ति कूपखनकाः तले यान्ति ॥ १५ ॥ शास्त्रशतेन विज्ञातेन धर्मे न चरति चिन्तयित्वा दिनकरशतं यदि उद्गच्छति घूकः अंधः ततः अपि ॥ १६ ॥ रूपस्य उपरि मतिं मा कुरु नयने निवारय गच्छन्ती रूपासक्तान् पतंगान् प्रेक्षस्व दीपके पततः ॥ १७ ॥ मृदुत्वं जीव मनसि घर मानं प्रणाश्यते येन अथवा तिमिरं न तिष्ठति सूर्यस्य गगने स्थितेन ॥ १८ ॥ मनुष्याणां विनयविवर्जितानां गुणाः सकलाः अपि नश्यन्ति अथ सरोवरे विना पानीयेन कमलानि कथं वसन्ति ॥ १९ ॥ ११५ २५ ३० ३५ Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ [ सावयायार गुणवंतहं सह संगु करि भल्लिम पावहि जेम सुवण-सु-पत्त-विवज्जियउ वरु तरु वुच्चइ केम ॥ २० ॥ ४० गंधोरण जि जिण-वरहं पहाविय पुण्णु बहुत्तु तेलह बिंदु वि विमल-जलि को वारइ पसरंतु ॥ २१ ॥ पुण्णु पाउ जसु मणि ण समु तसु दुत्तर भवसिंधु कणय-लोह-णियलई जियहं कि ण कुणहि पय-बंधु ॥२२॥ जाहं हियइ असिआउसा पाउ ण दुक्का ताहं अह दावाणलु किं करइ पाणिय गहिर ठियाहं ॥ २३ ॥ दुल्लहु लहिवि मणुयत्तणउ भोयहं पेरिउ जेण इंधण-कज्जे कप्प-यरू मूलहो खंडिउ तेण ॥ २४ ॥ ४८ गुणवद्भयः सह संगं कुरु भद्रत्वं प्राप्नोषि यथा सुवनसुपत्रविवर्जितः वरः तरुः उच्यते कथम् ॥ २०॥ गन्धोदकेन एव जिनवराणां स्नापितानां पुण्यं प्रभूतम् तैलस्य बिन्दुमपि विमलजले को वारयति प्रसरन्तम् ॥ २१ ॥ पुण्यं पापं यस्य मनसि न समे तस्य दुस्तरः भवसिन्धुः कनकलोहनिगडानि जीवानां किं न कुर्वन्ति पदबन्धम् ॥ २२॥ येषां हृदये ' असिआउसा' पापं नाभिगच्छति तेभ्यः अथ दावानलः किं करोति पानीये गभीरे स्थितेभ्यः ॥ २३ ॥ दुर्लभं लब्ध्वा मनुजत्वं भोगेभ्यः प्रेरितं येन इन्धनकार्ये कल्पतरुः मूलात् खण्डितः तेन ॥ २४ ॥ Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अत्थि चउ-सागरुज्जल-मेहला ॥ दशममुद्धरणम् ॥ [ उज्जोयणसूरि । ] ॥ सुजण - दुज्जण - सहाव - विवेयणु ॥ अहह ! पम्हु किंचि, पसियह, तं ता णिसामेह । किं च तं ? हूं ! - सम्मुह - मइ - सुंदरो चिय पच्छा-भायम्मि मंगुलो होइ । ५ विंझ गिरि - वारणस्स व खलस्स बीहेइ कइ - लाओ ॥ तेण बीहमाणेहिं तस्स थुइ-वाओ किं चिकीरहन्ति । सो च दुज्जणु कइसउ ? -हूं, सुणउ जइसउ, परमदंसणे च्चिय भसण - सीलो पट्टि - मांसासउव्व । तहे मंडलो हि अपच्चभिण्णायं भसइ, मयहिं च मासाई असइ । खलो १० हूं ! अस्ति चतुः सागरोज्ज्वलमेखला - अहह विस्मृतं किंचित् प्रसीदत, तत्तावन्निशाम्यत । किं च तद् ? , - - [ उद्योतनसूरिः । ] ॥ सुजन दुर्जनस्वभावविवेचनम् ॥ - सम्मुखमतिसुंदरः चैव पश्चाद्भागे असुंदरः भवति विंध्यगिरिवारणाद् इव खलाद् बिभेति कविलोकः ॥ तेन बिभ्यद्भिः तस्य स्तुतिवादः किंचित् क्रियत इति सः दुर्जनः कीदृश: ? हूं, श्रणोतु यादृशः प्रथमदर्शने चैव भषणशीलः पृष्ठमांसाशकः इव । तयोः शुनकः हि अप्रत्यभिज्ञातं भषति, मृतानाम् च मांसानि अश्नाति । खलः Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० [ सुयणदुज्जण सहावविवेयणु जारज्जाअहो दुज्जणहो दुट्ठ-तुरंगमहो ज्जि जेण ण पुरउ णउ मग्गउ हूं तीरइ गंतुं जि ॥ अकर वि कुणइ दोसे कए वि णासेइ जे गुणे पयडे ४० विहि- परिणामस्स व दुज्जणस्स को वा न बीहेइ ॥ अहवा कीर कहापबंधो भसमाणे दुज्जणे अगणिऊण । किं सुणरहिं धरिज्जइ विसंखलो मत्त - करिणाहो || होन्ति सुअण च्चिय परं गुण-गण-गरुआण भाजणं लोए ४५ मोण इ- णाहं कत्थ व णिवसंतु रयणाई ॥ ते सज्जण - सत्थो च्चेय एत्थ कहा- बंधे सोउमभिउत्तोति ॥ सो य सज्जणो कइसओ :- रायहंसो जइसओ, विसुद्धोभय पक्खो पय-विसेस - पणुओ व्व । तहे रायहंसो वि जारजातस्य दुर्जनस्य दुष्टतुरंगमस्य एव येन न पुरतः न तु पश्चात् भोः शक्यते गन्तुमेव ॥ अकृते अपि करोति दोषान् कृते अपि नाशयति यः गुणान् प्रकटान् विधिपरिणामात् इव दुर्जनात् को वा न बिभेति ॥ अथवा क्रियताम् कथाप्रबन्धः भषतः दुर्जनान् अगणयित्वा किं शुनकः धार्यते विशृंखलः मत्तकरिनाथः ॥ भवन्ति सुजनाश्चैव परं गुरुगुणगणानां भाजनं लोके मुक्त्वा नदीनाथं कुत्रैव नवसं रत्नानि ॥ - तेन सज्जनसार्थः एव अत्र कथाबंधे श्रोतुमभियुक्तः इति ॥ स च सज्जनः कीदृश: ? - राजहंसः यादृशः विशुद्धोभयपक्षः 'पद ( पयः) विश्लेषज्ञः एव । तयोः राजहंसः अपि Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जtयणसूरि ] उब्भड - जलयाडंबर हि पावइ माणस - दुक्खइं सज्जणु पुणु जाणे ज्जि खल-जल यह सहावई ॥' १४१ तेण हसिउं अच्छइ । होउ पुण्णिमा - यंदु जइसउ, सयलकला - भरियउ जण - मणाणंदो व्व । तहे पुण्णिमा - यंदो वि कलंक - दूसिओ, अहिसारियाण मण - दूमिओ य । सज्ज. णो पुण अकलंको सव्व जण - ग- दिहि-करो व्व । अवि मुणालु ५५ जइसउ, खंडिज्जतो वि अखुडिय - णेह तंतु सु. सीयलो व्व । त मुणालु वि ईसि कंडूल - सहाओ जल - संसग्गि वढिओ व्व । सजणु पुणु महुर-सहावु वियड्ढ - वड्ढिय - रसो य । हूं ! च, दिसा गओ जइसओ, सहावुण्णओ अणवरय- पयट्ट - दाण• पसरो य । तहे दिसा - गओ वि मय- - विआरेण घेप्पर, दाण- ६० समय य सामायंत- वयणो होइ । सज्जणु पुणि अजाय-मय :-उब्भड १ हाथप्रत उपरथी श्री. जिनविजय नीचे प्रमाणे वांचे छे:-उ जलयाडंबर सद्दहिं पावई माणसं दुक्खं । सज्जणु पुणु जाणइ ज्जि खनचलयहं सहावई ॥ उपलीं पंक्ति आर्या अने बीजी अपभ्रंश छंद दोहानी छे; ते दोहा तरीके सुधारी उपर मूकी छे. उद्भटजलदाडंबरैः प्राप्नोति मानसदुःखानि सज्जनः पुनः जानाति एव खलजलदानां स्वभावान् ॥ ५० तेन हसित्वा आस्ते । भवतु पूर्णिमाचन्द्रः यादृशः, सकलकलाभृतः जनमनः आनन्दः इव । तयो पूर्णिमाचन्द्रः अपि कलंक - दूषितः अभिसारिकाणां दूनमनाः च । सज्जनः पुनः अकलंकः सर्वजनधृतिकरः इव । अपि मृणाल: यादृशः खण्ड्यमानः अपि अक्षुण्णस्नेहतन्तुः सुशीतलः इव । तयोः मृणालः अपि ईषत्कण्डूल स्वभावः जलसंसर्गेण वर्धितः इव । सज्जनः पुनः मधुरस्वभावः वैदग्ध्यवर्धितरसः च । हूं ! च-दिशागजः यादृशः स्वभावोन्नतः अनवरतप्रवृत्तदानप्रसरः च । तयोः दिशागजः अपि मदविकारेण गृह्यते, दानसमये च श्यामायमानवदनः भवति । सज्जनः पुनः अजातमद ! Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४२ [सुयणदुज्जणसहावविवेयणु -पसरु देंतहो य विअसइ वयण-कमलु । होउ मुत्ताहारु जइसउ, सहाव-विमलो बहुगुण-सारो य । तहे मुत्ता-हारो वि छिड्डु-सय-निरंतरो वण-वढिओ य । सज्जणो पुण अच्छिडु-गुण-पसरो णायरओ य । कि बहुणा ?। समुदु ६५ जइसउ, गंभीर-सहावु महत्थो य । तहे समुद्दो वि उक्कलियासय-पउरो णिच्च-कलयलारावुव्वेविय-पास-जणो व दुग्गय कुडंबहो जि अणुहरइ । सज्जणु पुणि मंथर-सहावो महुमहुर-वयण-परितोसिय-जणवओ त्ति । अवि यसरलो पियंवओ दक्खिण्णो चाई गुणण्णओ सुहओ। मह जीविएण वि चिरं सुअणु च्चिअ जियउ लोयम्मि ॥ ७१ प्रसरः, ददतः च विकसति वदनकमलम् । भवतु मुक्ताहारः यादृशः स्वभावविमलः बहु गुणसारः च । तयोः मुक्ताहारः अपि छिद्रशतनिरंतरः वनवर्धितः च । सज्जनः पुनः अछिद्रगुणप्रसरः नागरकः च । किं बहुना ? । समुद्रः यादृशः गंभीरस्वभावः महार्थः च । तयोः समुद्रः अपि उत्कलिकाशतप्रचुरः नित्यकलकलारावोद्वेजितपार्श्वजनः इव दुर्गतकुटुम्बकम् एव अनुहरति । सज्जनः पुनः मन्थरस्वभावः मधुमधुरवचनपरितोषितजानपदः इति अपि च, सरलः प्रियंवदः दक्षिणः त्यागौ गुणज्ञः सुभगः मम जीवितेन अपि चिरं सुजनः एव जीवतु लोके ॥ Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ एकादशमुद्धरणम् ॥ [कालियासु ।] ॥ पुरुरवस्स उम्माय-वयणाई॥ मइं जाणिअं मिअ-लोअणि णिसि अरु को इ हरेइ जाव ण णव-तडि सामलो धारा-हरु वरिसेइ ॥ १ ॥ जल हर संहरु एहु कोपु आढत्तओ पविरल-धारा-सार-दिसा मुह-कन्तओ। एमई पुहवि भमन्तो जइ पिअ पेक्खीहिमि तव्वे जं जु करीहिसि तं तु सहीहिमि ॥ २ ॥ गन्धुम्माइअ-महु-अर-गीएहि वज्जन्तेहिं पर हुअ-रव-तूरेहि । पसरिय-पवणुव्वेल्लिर-पल्लव (लय)निअरु सुःललिअ-विविह-पआर णच्चइ कप्प अरु ॥३॥ १० १. (पं.) जाणिअ, (पी.) जाणिअं; (पं.) मिअलोमणि, (पी.) मिअबोअर्णि; - ( पं. रं.) , (पी.) ण; (पं.) णवतलि (पं.k.) णवतडि, (पी.) णवतलिं; तृतीयानो अर्थ लाववा. २. (पं.) कोपई (पं.k.) [कालिदासः।] ॥ पुरुरवसः उन्मादवचनानि ॥ मया ज्ञातं मृगलोचनां निशाचरः कोऽपि हरति यावन नवतडित् श्यामलः धाराधरः वर्षति ॥ १॥ जलधर संहर एतं को आरब्धं प्रविरलधारासाराकान्तदिशामुखः एवं पृथिव्यां भ्राम्यन् यदि प्रियां प्रेक्षिष्ये तदा यद् यत् करिष्यसि तत् तत् सहिष्ये ॥२॥ गन्धोन्मादितमधुकरगीतैः वाघमानैः परभृततूर्यैः प्रसतपबन्नोवेल्लनशीलपल्लवलतानिकरः सुललितविविधप्रकारेण नृत्यति कल्पतरुः ॥३॥ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४४ १५ [ पुरुरवस्स उम्मायवयणाई बंहिण पइं इअ अब्भत्थेमि आअक्खहि मं ता एत्थु रणे भमन्ते जइ पई दिट्ठी सा महु कंता । णिसम्महि मिअंक-सरिसे वअणे हंस-गइ एँ चिण्हें जाणिहिसि आअक्खिउ तुझु महं ॥४॥ पर हुअ महुर-पलाविणि कन्ति नन्दण-वण साच्छन्द भमन्ति । जइ पई पिअअम सा महु दिट्ठी ता आअक्खहि महु पर पुट्टि ॥ ५ ॥ रे रे हंसा कि गोविज्जइ गइ-अणुसारे मई लक्खिज्जइ। कई पई सिक्खिउ ए गइ-लालस सा पई दिट्ठी जहण-भरालस ॥ ६ ॥ कोपनि, (पं.k.) कोपं; (रं.) 'कोपं' एम अर्थ करे छे; (पी.) को पई वांचे छे-(प.) ए मइं (रं.) एने निपात लई मई-अहम् एम नोंधे छे; परंतु एमइ=एवम् एम वाचवु वधारे घटित छे. ३. [लय.]=लता 'चर्चरी' बरोबर बेसे एटला काजे उमेर्यु छे; बाकी (पं.) (पी.) नोंधता नथी. १. (पं.) ए (पी.) ए. बर्हिण त्वामित्यभ्यर्थये आचक्ष्व मां तावत् अत्रारण्ये भ्रमता यदि त्वया दृष्टा सा मम कान्ता। निशामय मृगांकसदृशेन वदनेन हंसगतिः एतेन चिहनेन ज्ञास्यसि आख्यातं तुभ्यं मया ॥४॥ परभृते मधुरप्रलापिनि कान्ता नन्दनवने स्वच्छन्दं भ्रमन्ती। यदि त्वया प्रियतमा सा मम दृष्टा तदाचक्ष्व मह्यं परपुष्टे ॥ ५॥ रे रे हंस किं गोप्यते गत्यनुसारेण मया लक्ष्यते । केन तुभ्यं शिक्षितं एतद् गतिलालस . सा त्वया दृष्टा जघनभरालसा ॥ ६ ॥ Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलपातु] गौरीअण-वण्णा चक्की भहि मई मंडुवासर कोलन्ति णि ण दिट्टी पर ॥ ७ ॥ एक्कक्कम-वडिअ-गुरुअर-पेम्म-रसे सरि हंस-जुवाणउ कीला काम-रसे ॥ ८ ॥ करिणी-विरह-संतावित काणणे मंधुद्ध अ-महु-अरु ॥ ९॥ हो पई पुच्छिमि अक्खहि गवर ललिअ-पहारें पोसिअ-तरु वरु । दूर-विणिज्जिअ-सस हर-कंती दिट्ठी पिअ पहं संमुह जंती ॥ १० ॥ .. (पं.) भणहि मई (पी) भण्मह मई २ (पं.) एककमा जेने अनुसरी (र.) एकक्रम; जो के (पं.) नी छाया ___ एकक; (पी.) एक्केकम.. ९. (पं) संताविअओ-महुअरु । (पी.) संताविअओ-महुअरओ १०. (ध्रुव) णामियतरुवरु सूचवें छे. गोरोचनवर्ण चक्र भण माम् मधुवासरे क्रीडन्ती प्रिया न दृष्टा त्वया ॥ ७ ॥ एकक्रमवर्धितगुरुतरप्रेमरसेन सरसि हंसयुवा क्रीडति कामरसेन ॥ ८ ॥ करिणीविरहसंतापितः कानने गन्धोद्धतमधुकरः ॥ ९ ॥ अहं त्वां पृच्छामि आख्याहि गजवर ललितप्रहारेण नाशिततरुवर । दूरविनिर्जितशशधरकान्तिः । दृष्टा प्रिया त्वया संमुखं यान्ती ॥ १०॥ Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [पुरुरवस्स उम्मायवयणा पसरिअ-खर खुर-दारिअ मेहणि वण-गहणे अविचल्ल । परिसक्का पेच्छहु लीणो णिअ-कज्जुज्जअ कोलु ॥११॥ फलिअ-सिला अल-णि म्मल-णिज्झरु बहु-विह-कुसुमे विरइअ-सेहरु । किण्णर-महुरुग्गीअ-मणो हरु देखावहि महु पिअअम महि हरु ॥ १२ ॥ पुव्वादिसा-पवणाहअ-कल्लोलुग्गअ-बाहओ मेहअ-अंगे नच्चइ साललिअं जल-णिहि-णाहओ ४० हंस-विहंगम-कुंकुम-संख-कआभरणु करि-म भराउल-कसणल-कमल-कआवरणु वेला-सलिलुब्वेल्लिअ-हत्थ-दिण्ण-तालु ओत्थरइ दस-दिसं रुंधेविणु णव-मेहालु ॥ १३ ॥ ४४ ११ (पं) मेइणि-अविचालु. (पी) मेइणिओ-अविचल्लु; (पं) परिसप्पा (पी.) परिसक्कइ (पं. K. U रं.) कज्जुज्जुअ; परंतु छंदनी दृष्टिए (पं) कज्जुज्जुअओ (पी.) कज्जुज्जुओ. १२. (पी.)ए नथी लीधो. १३. (पी) (२)ने अनुसरी पंक्ति ३ मा विहंगम (पं.) ने बदले रहंग वांचे छ; पक्कि ६ मां (पं पी.) णवमेह आलु. प्रसूतखरखुरदारितमेदिनिः वनगहने अविचलः । परिष्वप्कति प्रेक्षध्वं लीनः निजकार्योद्यतः कोलः ॥ ११ ॥ स्फटिकशिलातलनिर्मलनिर्झर बहुविधकुसुमैर्विरचितशेखर किन्नरमधुरोद्गीतमनोहर दर्शय मम प्रियतमां महीधर ॥ १२॥ पूर्वदिशापवनाहतकल्लोलोद्गतबाहुः मेघाङ्गैः नृत्यति सललितं जलनिधिनाथः । इंसविहंगमकुंकुमशंखकृताभरणः करिमकराकुलकृष्णलकमलकृतावरणः । वेलासलिलाद्वेल्लितदत्तहस्ततालः भवस्तृगाति दशदिशः रुवा नवमेघकालः ॥ १३ ॥ Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कालियासु ] 4 सुर- सुदरि जहण - भरालस पीणुत्तुंग -घण-त्थणि थिर- जोव्वण तणु - सरीरि हंस - गइ | गअणुज्जल-काणणे मिअ-लोअणि भमन्तें दिट्ठ प तह विरह - समुद्दन्तरें उत्तारहि मई ॥ १४ ॥ एँ पेक्खिविणु अपं भावमि "जर विहि-जोएं पुणु तर्हि पावमि । ता रणे वि ण करिमि णिब्भन्ती पुणु णइ मेलमि दाह कअन्ती मोरा पर हुआ हंस विहंगम अलि गअ पव्वअ सरिअ कुरंगम | तुज्झहं कारणे रणे भ्रमन्ते को ण हु पुच्छिउ महं रोअन्तें ॥ १६ ॥ "" ॥ १५ ॥ ५६ १४. (पं.) दिट्ठि वांची पई ने पंक्ति ३. मां ले छे जे छंदनी दृष्टिए खोटं छे; (पी.) दिट्ठा परं वांची तेने पंक्ति ४ मां ले छे. सुरसुन्दरी जघनभरालसा पीनोत्तुंगघनस्तनी स्थिरयौवना तनुशरीरा हंसगतिः । गगनोज्ज्वलकानने मृगलोचना भ्रमता दृष्टा त्वया तर्हि विरहसमुद्रान्तरादुत्तारय माम् ॥ १४ ॥ १४७ १५. (पं) पेरूख विणु (पी.) पेक्खु विणु (रं) टीका: लते प्रेक्षस्व विना हृदयेन भ्रमामि । परंतु पेक्खिविणु एम अव्ययभूतकृदंत होना वधारे संभव छे; अने भावमि = भावयामि । पंक्ति ४. मां (पी.) ताह कअन्ती; (पं.) दाह कलन्ती पण; (पं.) नी छायामां :- तां कृता• न्ताम् । (रं.) बन्ने य पाठांतरो नोंघे छे; (पी.) (पं.) मेल्लई. लतां प्रेक्ष्य हृदयेन भावयामि “यदि विधियोगेन पुनः तां प्राप्नोमि तद् अरण्ये अपि न करोमि निर्भ्रान्ति पुनः नापि मोचयिष्ये दाहं कुर्वन्तीम् " ॥ १५ ॥ मयूरः परभृतः हंसः विहंगमः अलिः गजः पर्वतः सरित् कुरंगमः । तव कारणेन अरण्ये भ्रमता क : न खलु पृष्टः मया रुदता ।। १६ ॥ ५० Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वादशमुद्धरणम् ॥ । दोहाकोसोद्धरियगोयाई। [ काण्ड ।] लोअह गव्व समुव्वहइ 'हउँ परमत्थे पवीण' कोडिह मज्झे एक्कु जइ होइ निरंजन-लोण ॥ १ ॥ आगम-वेअ-पुराणे पंडित्ता माण वहन्ति पक्क-सिरिफले अलिअ जिम बाहेरित भुमयन्तिः॥ २॥ एवंकार बीअ लइअ कुसुमिअउ अरविंदए महुअर रूऐं सुरअ-वीर जिंघइ मअरन्द ॥ ३ ॥ गषण-समीरण-सुह-वासे पंचेहि परिपुण्णए समल-सुरासुर एहु उअत्ति कढिए एहु सो सुन्नए ॥४॥' नित्तरंग सम सहज-रूअ सअल-कलुस-विरहिए पाप-पुण्ण-रहिए कुच्छ नाहि काण्हु फुड कहिए ॥ ५ ॥ १० ।दोहाकोषोद्धतगीतानि । [कृष्णः ।] लोकेषु गर्व समुद्वहति 'अहं परमार्थे प्रवीणः ' कोटीनां मध्ये एकः यदि भवति निरञ्जनलीनः ॥ १॥ भागमवेदपुराणे पण्डिताः मानं वहन्ति पक्वश्रीफले अलयः यथा बाह्यतः भ्राम्यन्ति ॥ २ ॥ एवंकारं बीजं लात्वा कुसुमितं अरविन्देन मधुकररूपेण सुरतवीरः जिघ्रति मकरन्दम् ॥ ३ ॥ गगनसमीरणसुखवासः पञ्चभिः परिपूर्णः सकलसुरासुराणामेषः उत्पत्तिः, मूर्ख, एषः स शुन्यः ॥ ४ ॥ निस्तरङ्गः समः सहजरूपः सकलकलुषविरहितः पापपुण्यरहितः किंचित् व अस्ति कृष्णः स्फुटं कथयति ॥५॥ Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४१ पहज एक्कु पर अत्थि तहिं फुङ काण्ड परिजानइ बहु सत्थागम पढइ गुणइ वढ किंपि न जानइ ॥ ६ ॥ अहें ण गमइ ण उहें जाइ बेण्णि-रहिअ तसु निच्चल थाइ भणइ काण्ह मन कह वि ण फुट्टइ निच्चल पवण-घरिणि घरे वकृइ॥७॥ वर-गिरि-कंदर गुहिर जगु तहिं सअल वि तुट्टइ १५ विमल सलिल सोसं जाइ कालग्गिइं पइट्ठइ ॥ ८ ॥ एहु सुदुद्धर धरणि-धर सम-विसम उत्तार न पावइ भणइ काण्ह दु:लक्ख दुरववाह को मणे परिभावइ ॥ ९ ॥ जो संवेअइ मण-रअण अहरह सहज फरन्त सो पर जाणइ धम्म-गइ; अन्न कि मुनइ कहन्त ॥ १० ॥२० पहं वहंतेण णिय-मन बंधनं कियउ जेण ति हुअण सयल विफारिआ पुणु संहारिअ तेण ॥ ११ ॥ सहजें निच्चल जेण किय सम-रसे निअ-मण-राअ सिद्धो सो पुण तक्खणे णउ जर-मरणह भाय ॥ १२ ॥ सहजः एकः परः अस्ति तं स्फुटं कृष्णः परिजानाति बहून् शास्त्रागमान् पठति गुणयति मूर्खः किमपि न जानाति ॥६॥ अधः न गच्छति न ऊर्ध्वं याति विरहिता तस्य निश्चला स्थितिः भणति कृष्णः मनः कथमपि न स्फुटति निश्चला पवनगृहिणी गृहे वर्तते॥७ वगिरिकंदरः गभीरः जगत् तत्र सकलं अपि त्रुटयति विमलं सलिलं शोषं याति कालाग्नौ प्रविष्टे ॥ ८ ॥ एषः सुदुर्धरः धरणीधरः समविषमः उत्तारं न प्राप्नोति । कृष्णः भणति दुर्लक्षं दुरवगाहं कः मनसि परिभावयति ॥ ९॥ यः संवेत्ति मनोरत्नं अहरहः सहजे स्फुरत् सः परां जानाति धर्मगतिं अन्यः किं जानाति कथयन् ॥१०॥ पन्थानं वहता निजमनः बन्धनं नीतं येन त्रिभुवनं सकलं विस्फारितं पुनः संहृतं तेन ॥ ११ ॥ सहजे निश्चल: येन कृतः समरसेन निजमनोराजः सिद्धः सः पुनः तत्क्षणे न जरामरणयोः भयम् ॥१२॥ Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५० [ दोहाकोसोद्धरियगीयाई णिच्चल निन्वियप्प निवियार उअअ-अत्थमण-रहिअ सुःसार २६ अइसो सो निव्वाण भणिज्जइ जहिं मन मानस किंपि न किज॥१३॥ वर-गिरि-सिहर-उत्तुंग-थलि शबरे जहिं किअ वास णउ लंघिअ पंचाननेहिं करि-वर दूरिअ आस ॥ १४ ॥ एहु सो गिरि वर कहिअ मई एहु सो महा सुह-ठाव एत्थु रे निअहु सहज-खण लब्भइ महा-सुह जाव ॥ १५ ॥३० एक्कु ण किज्जइ मंत ण तंत णिअ घरिणि लइ केलि करन्त णिअ घरे घरिणि जाव ण मज्जइ ताव कि पंच-वण्ण विहरिज्जइ॥१६ एसो जप-होमे मंडल-कम्मे अनुदिन अच्छसि काहि उ धम्मे । तो विणु तरुणि निरंतर-नेहे बोहि कि लाभइ एण वि देहे॥१७ जे बुज्झिअ अविरल सहज-खण काहिं वेअ-पुराण ३५ ते तुडिअ विसय-वियप्प जगु रे असेस-परिमाण ॥ १८ ॥ जिम लोण विलिज्जइ पाणिएहि तिम घरिणी लइ चित्त सम-रस जाई तक्खणे जइ पुणु ते सम चित्त ॥ १९ ॥ निश्चलं निर्विकल्पं निर्विकारं उदयास्तमनरहितं सुसारं ईदृशं तद् निर्वाणं भण्यते यत्र मनसा मानसं किमपि न क्रियते॥१३॥ वरगिरिशिखरोत्तुंगस्थली शबरेण यत्र कृतः वासः न तु लचिता पञ्चाननेन, करिवरस्य दूरिता आशा ॥ १४ ॥ एषः सः गिरिवरः कथ्यते मया एषः सः महासुखस्थानम् अत्र रे पश्य सहजक्षणं लभ्यते महासुखं यावत् ॥ १५ ॥ एकः न कुर्यात् मन्त्रं न तन्त्रं, निजां गृहिणी लात्वा केली कुर्वन् निजगृहे गृहिणी यावत् न मजति तावत् किं पञ्चवर्णेषु विह्रियते॥१६ एषः जपहोमे मण्डलकर्मणि अनुदिनं आस्से कस्मिन् खलु धर्मे तव विना तरुणि निरन्तरस्नेहेन बोधिः किं लभ्यते अनेनापि देहेन॥१७ येन बुद्ध अविरलं सहजक्षणं (तस्य) किं वेदपुराणानि तेन त्रोटितं विषयविकल्पं जगत् रे अशेषपरिमाणं ॥ १८ ॥ यथा लवणं विलीयते पानीये तथा गृहिणी लात्वा चित्ते समरसं याति तत्क्षणे यदि पुनः तया समं चित्तम् ॥ १९ ॥ Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रयोदशमुद्धरणम् ॥ । दोहाकोसोद्धरिअगीयाई । [ सरह ।] मट्टी पाणी कुस लइ पढंत घरहिं बइसिअ अग्गि हुणंत कज्जे विरहिअ वहन्ति होमे अक्खि डहाविअ कडुए धूमें ॥१॥ एक-दंडि ति-दंडि भअव-वेसे विणुआ होइ अ हंस-उवेसे मिच्छेहिं जग बाहिअ भुल्ले धम्माधम्म ण जाणिअ तुल्लें ॥२॥ अइरिएहिं उदधूलिअ छारें सीसउ बाहिय ए जड-भारे ५ घरहिं बइसी दीवा जाली कोणेहि बइसो घडा चाली ॥३॥ अक्खि निवेसी आसन बंधी कण्णेहिं खुसखुसाइ जन धन्धी रंडी मुंडी अण्ण वि वेसें दिक्खा देइ दक्षिण-उवेसे ॥४॥ दोह-क्ख जे मलिणे वेसे णग्गल होइअ उपाट्टिअ-केसें .. . खवणेहिं जान विडंबिय वेसे अप्पणु बाहिअ मोक्ख-उएले॥५॥१० । दोहाकोशोद्धृतगीतानि। [सरह । ] मृदं पानीयं कुशं लात्वा पठन्ति गृहे उपविश्य अग्नि जुवति कार्येण विरहिताः वहन्ति होमान् अक्षिणी दग्ध्वा कटुकेन धूमेन॥१॥ एकदण्डेन त्रिदण्डैः भगवद्वेशेन विज्ञकाः भवन्ति च हंसापदेशेन मिथ्यात्विभिः जगद् बाधितं भ्रान्तैः धर्माधर्म न जानन्ति तुलया ॥२॥ आचार्येण उद्धूलितं भस्मना शीर्ष बाधितं अनेन जटाभारेण गृहे उपविश्य दोपं ज्वालयति कोणे उपविश्य घण्टं चालयति ॥३॥ अक्षिणी निमिष्य आसनं बवा कर्णयोः मन्त्रयति जनान् प्रतार्य रण्डायाः मुण्डितायाः अन्यायाः अपि वेशेन दीक्षां ददाति दक्षिणा पदेशेन ॥४॥ दीर्घनखैर्ये मलिनेन वेशेन नग्नाः भवन्ति उत्पाटितकेशेन क्षपणैः यानं विडम्बितं वेशेन आत्मा बाधितः मोक्षापदेशेन ॥५॥ Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ [ दोहाकोसोद्धरियगीयाइ जो जग्गा विअ होइ मुत्ति ता सुणह सियालह लोमोप्पाहणे अत्थि सिद्धि ता जुवइ-णितंबह पिच्छी-गहणे दिह मोक्ख सा मोरह चमरह उंछ-भोअणे होइ जाण ता करिह तुरंगह सरह भणइ खवणाण मोक्ख महु किपि न भावइ १५ तत्त-रहिअ-काया ण ताव पर केवल साहइ ॥ ६ ॥ करुणा छड्डि जो सुणहिं लग्ग ण उ सो पावइ उत्तिम मांग महवा करुणा केवल भावइ सो संसारहिं मोक्ख न पावइ॥७॥ मंत ण तंत ण धेअ ण धारण सव्व वि रे वढ विब्भम-कारण असमल वित्त म झाणहि खरडह सुह अच्छत म अप्पणु जगडह ॥ ८ ॥ २० महिमाण-दोसे ण लक्खिउ तत्स तेण दूसइ सअल जाणइ सो दत्त • झाणे मोहि लअल वि लोअनिअ-सहाय ण उ लक्खइ कोइ॥९॥ - यदि नग्नस्य अपि च भवति मुक्तिः तर्हि शुनः शृगालस्य लोमोत्पाटने अस्ति सिद्धिः तर्हि युवतीनितम्बस्य पिच्छिकाग्रहणे दृष्टः मोक्षः तर्हि मयूरस्य चमरस्य उन्छभोजने भवति ज्ञानं तर्हि करिणः तुरंगस्य सरहः भणति क्षपणानां मोक्षः मह्यं किमपि न भावयति तत्त्वरहितकाया न तावत् परं केवलं साधयति ॥ ६ ॥ करुणां त्यक्त्वा यः शून्यं लग्नः न तु सः प्राप्नोति उत्तम मार्गम् अथवा करुणां केवलं भावयति सः संसारे मोक्षं न प्राप्नोति ॥७॥ मंत्रः न तन्त्रं न ध्येयं न धारणां सर्व रे मूर्ख विभ्रमकारणम् अश्यामलं चित्तं मा ध्यानेन मलिनीकुरु सुखे सन्तं मा आत्मानं ___पीडय ॥ ८॥ अभिमानदोषेण न लक्षितं तत्त्वं तेन दूषयति सकलानि यानानि सःदैत्यः ध्यानेन मोहितः सकलः अपि लोकः निजस्वभावं न तु लक्षते कोऽपि ॥९॥ Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जब्वे मण बस्थामण जातणु तुहर बंधण तब्वे सम-रस लहजे पज्जिइ ज उ सुख ण बम्हण ॥१०॥ भावहिं उवज्जर सहि णिवज्जा भाष-रहिम पुणु कहि उवज्जइ२५ बिण्ण-विवज्जिम जोमओ वज्जइ अच्छहि सिरि-गुरु-णाह कहिज्जइ ॥ ११॥ रैक्खहु सुणहु परीसहु साहु जिघाहु भमहु बइठ्ठ उहाहु भालमाल ववहारे पेल्लह मण छडु एक्कार म चल्लह ॥१२॥ गुरु-उवएसह अमिय-रसु हवहिं ण पीअउ जेहि बहु-सत्थत्थ-मरुत्थलिहिं तिसिए मरिअउ तेहि ॥ १३ ॥ ३० पंडिअ सअल सत्थ वक्खाणइ देहहिं बुद्ध वसंत ण जाणा अमणागमण ण तेण विखंडिअ तो वि णिलज्ज भणइ हर्ड पंडिअ ॥ १४ ॥ जीवंतह जो उ जरह सो अजरामर होर गुरु-उवएसें विमल-मइ सो पर धण्णा कोइ ॥ १५ ॥ यावत् मनः अस्तमनं याति तनोः त्रुट्यति बन्धनम् तावत् समरसः सहजे व्रजति न तु शूद्रः न तु ब्राह्मणः ॥१०॥ भावे उत्पद्यते क्षये निष्पद्यते भावरहितः पुनः कथं उत्पद्यते द्वि-विवर्जितः योगं व्रजति, आस्स्व, श्रीगुरुनाथेन कथ्यते ॥११॥ पश्यत शृणुत स्पृशत खादत जिघ्रत भ्राम्यत उपविशत उत्तिष्ठत आलजालं व्यवहारे प्रेरयत मनः त्यनत एकाकी मा चलत ॥१२॥ गुरूपदेशस्य अमृतरसः अस्ति न पीतः यैः बहुशास्त्रार्थमरुस्थलीषु तृषया मृतं तैः ॥ १३ ॥ पंडितः सकलानि शास्त्राणि व्याख्याति देहे वसन्तं बुद्धं न जानाति ॥ गमनागमनं तेन न विखण्डितं तथापि निर्लज्जः भणति 'अहं पण्डितः' जीवन् यः न जीर्यति सः अजरामरः भवति गुरूपदेशेन विमलमतिः सः परं यः कः अपि ॥ १५॥ Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ [दोहाकोसोद्धरियगीयाई १५४ विसअ - विसुद्धे णउ रमइ केवल सुण्ण चरेइ उड्डी वोत्थि का जिम पलुटिअ तहि वि पडे ॥१६॥ विसयासत्ति में बंध करु अरे वढ सरहे वृत्त ३५. मीण पयंगम कर भमरु पेक्खह हरिणह जुत्थ ॥१७॥ पंडिअ - लोअ महु महु एत्थ न किअइ विअप्पु जो गुरु- वअणें मइँ सुअउ तर्हि किं कहमि सु-गोप्पु ॥ १८ ॥ ४० घोरंधारें चंद- मणि जिम उज्जोअ करेइ ४५ परम - महासुह एक्कु खणे दुरिआसेस हरेइ ॥ १९ ॥ घरहिं म थक्कु म जाहि वणे जहिं तर्हि मण परिआण सलु निरंतर बोहि ठिअ कहिं भव कहिं निव्वाण ॥ २० ॥ उ घरे उ वणे बोहि ठिउ एव परिआउ भेउ निम्मल-चित्त-सहावत करह अ-विक्कल से उ ॥ २१ ॥ पहु सो अप्पा हु पर जो परिभावइ कोइ ते विणु बंधे बंधिक अप्प विमुक्कउ तो वि ॥ २२ ॥ विषयविशुद्धौ न तु रमते केवलं शून्यं चरति उड्डीय प्रवहणकाकः यथा पर्यस्य तत्रैव पतति ।। १६ ।। विषयासक्तिं मा बन्धं कुरु अरे मूर्ख सरहेण उक्तम् मीनं पतंगं करिणं भ्रमरं प्रेक्षस्व हरिणानां यूथम् ॥ १७ ॥ पण्डितलोकाः, क्षमध्वं मां अत्र न क्रियते विकल्पः यद् गुरुवचनेन मया श्रुतं तत्र किं कथयामि सुगोप्यम् ॥ १८ ॥ घोरान्धकारे चन्द्रमणिः यथा उद्योतं करोति परममहासुखं एकस्मिन् क्षणे दुरितानि अशेषाणि हरति ॥१९॥ गृहे मा तिष्ठ मा याहि वने यत्र तत्र मनः परिजानीहि सकलं निरन्तरं बोधिः स्थिता कुत्र भवः कुत्र निर्वाणम् ॥२०॥ न तु गृहे न तु वने बोधिः स्थिता एवं पारिजानीत भेदम् निर्मल चित्तस्वभावत्वे कुरुत अविकलं तत् तु ॥ २१ ॥ एषः सः आत्मा एतत् परं यः परिभावयति कोऽपि सः विना बन्धेन बंधीकृतः आत्मा विमुक्तः तथापि ॥ २२ ॥ Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्दशमुघरणम् ॥ । पइण्णछंदाई। पासिं कप्पि चउरंसिय रेवा-पय-पुणियं सेडियं च गेण्हेप्पि ससि-प्पभ-वणियं । मई सुयं पि एकलियं सयणि निवणियं । सव्व-रत्तिं घोसेइ समाण-सवणियं ॥ १ ॥ [ श्रीसंघदासरचितायाः वसुदेवहिंड्याः । णंदो राया णवि जाणइ जं सगडालो करेहिइ नंदो राया मारेविणु सिरियं रज्जे ठवेहिइ ॥२॥ [श्रीजिनदासमहत्तररचितावश्यकाः । ताव इमं गीययं गीयं गामणडीए . जो जसु माणुसु वल्लहउ तं जइ अण्णु रमेह जइ सो जाणइ जीवइ वि तो तहु पाण लएइ ॥३॥ [उद्द्योतनसूरेः कुवलयमालायाः ।। १. श्रीचतुरविजयपुण्यविजयसंपादितवसुदेवहिंड्याः प्रथमोऽशः पृ.१४॥ २. (ईन्दोर-आवृत्ति) आवश्यकसूत्रचूणी. पृ. ८४. ३. ताडपत्र (जेसलमेर-भंडार) प्रती-पृ. ३७. ।प्रकीर्णछंदांसि। पार्श्वे कल्पयित्वा चतुरस्रिकां रेवापयःपूर्णिका सेटिकां च गृहीत्वा शशिप्रभवर्णिकाम् । मां सुप्तां एकाकिनी शयने निर्विण्णां सर्वरात्रिं घोषयति समान-सवर्णिकम् (स्वमानस-वर्णितम्) ॥१॥ राजा नन्दः नैव जानाति यत् शकटालः करिष्यति राजानं नन्दं मारयित्वा श्रीयकं राज्ये स्थापयिष्यति ॥२॥ तावत् इमं गीतकं गीतं ग्रामनट्यायः यस्य मनुष्यः वल्लभः तं यदि अन्यः रमते यदि सः जानाति जीवति अपि तर्हि तस्य प्राणान् लाति ॥३॥ Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५६ [ पहण्णछंदाई राईए पच्छिमजामे केण वि गुज्जरपहियण धवलदुव्वहयं गीयं । अवि य जो णवि विहुरे वि सज्जणउ धवलउ कढ भारु सो गोइंग मंडण सेसउ तड्डिय-सारु ॥ ४ ॥ [ उद्योतनसूरेः कुवलयमालायाः । ] महु महुति भणतियहो वज्जइ कालु जणस्सु तो वि ण देउ जणदणउ गोअरिहोइ मणस्सु ॥ ५ ॥ [ आनंदवर्धनस्य ध्वन्यालोकात् । ]* कोद्धाओ को समचित्त heasarहिं काहो दिज्जउ वित्त । at are परिहिउ परिणिउ को व कुमारु, पडियउ जीव खडप्फडेहि बंधर पावह भार ॥ ६ ॥ [ शीलाङ्कविरचितसूत्रकृतांगवृत्तेः । ] ४. सदर, पृ. ४७. ५. Pischel : Materialien Zur Kenntnis Des Apas bhramsa P. 48. ६. आगमोदय समितिप्रथमाळा । सूत्रकृतांगवृत्तिः १ । ४ । इत्थिपरिन्नज्झयणे । गा. ९-१० । रात्र्याः पश्चिमयामे केनापि गुर्जरपथिकेनेदं धवलदुर्वहत्वं गौतम् । अपि च यः नापि विधुरे अपि स्वजनः धवलः कर्षति भारं सः गोष्ठाङ्गणमण्डनः शेषः त्रुटितसारः ॥ ४ ॥ मम ममेति भणतः व्रजति कालः जनस्य तथापि न देवः जनार्दनः गोचरीभवति मनसः ॥ ५ ॥ क्रोधायितः कः समचित्तः कस्मात् अपनयेत् कस्मै दद्यात् वित्तम् ॥ कः उद्घटितः परिहितः परिणीतः कः वा कुमारः पतितः जीवः भ्रान्तिषु बध्नाति पापानां भारम् || ६ ॥ Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ टिप्पणी ॥ Page #229 --------------------------------------------------------------------------  Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ प्रथममुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवन: आ उद्धरण चतुर्मुख स्वयंभूना पउमचरियमांथी लेवामां आव्युं छे. कवि विक्रमना नवमा सैकानी आसपास थयेलो होवो जोईए. तेना काळनी प्रथम मर्यादा तेना काव्यमांथी दृष्टिगोचर थाय छे ते दण्डी अने भामहनो उल्लेख करे छे: णउ बुज्झिउ पिंगल-पत्थारु णउ भम्मह-दण्डि-यलंकारु । ववसाउ तो वि णउ परिहरमि वरि रयडा-वुतु कव्वु करमि ॥' तेना काळनी द्वितीय मर्यादा अपभ्रंश महाकवि पुष्पदंतना उल्लेखथी बंधाय छे. पुष्पदंत कवि विक्रमना अगीआरमा सकानी शरुआतमां थयो. तेना तिसहिमहापुरिस गुणालंकारना उपोद्घातमां ते चतुर्मुख स्वयंभूनो उल्लेख करे छे. भावाहिउ भारहभासि वालु कोहलु कोमलगिरु कालिदासु। चउमुहु सयंभु सिरिहरिसु दोणु णालोइउ कइ ईसाणु बाणु ॥ चतुर्मुख स्वयंभूए पउमचरिय अने हरिवंशपुराण एम बे काव्यो लखवा मांडेलां ते बन्ने य अधूरी रह्यां जे तेना पुत्र त्रिभुवन स्वयंभूए पूरां कर्या. प्रथम तेणे पउमचरिय हाथमां लीधेलु एम हरिवंशपुराणना संधि १००ना आरंभनी गाथामां मालम पडे छे. ते गाथा नीचे प्रमाणे छे : कारूण पोमचरियं सुद्धचरियं च गुणगणपवियं हरिवंसमोहहरणे सरस्ससुढियदेह (?) व ॥ आखा पउमचरियमा ९० संधि छे. तेना भाग मंथने अंते आपेली गाथा परथी मालम पडशे, ते गाथाओ नीचे प्रमाणे छ : १. पउमचरिय । संघि १ । कडवक २ । Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४ सिरिविजाहरकंडे संघीउ होन्ति वीसपरिमाणा उज्झाकंडम्मि तहा बावीस मुणेह गणणा ॥ चउहह सुंदरकंडे एक्कहियवीस जुज्झकंडे य उत्तरकंडे तेरह संधीउ नवइ सव्वाउ ॥ नेमा संधिने छेडे नीचे प्रमाणे अन्तदर्शक गाथाओ छे : इय पोमचरियसेसे सयंभुवस्स कह वि उव्वरिए तिहुअणसयंभुरइए राहवनिव्वाणमिणं ॥ वंदर आसियतिहुयणसयंभुपरिविरइयम्मि महाकवे पोमचरियस्स सेसे संपन्नो नवइमो सग्गो ॥ आ उद्धरण पउमचरियनो १४मो संधि छे. मूळ हाथप्रतना ३६-३८ पानमां आ उद्धरण छे. हाथप्रतनी लखाया साल लहियानी प्रशस्ति प्रमाणे - संवत् १५२१ वर्षे ज्येष्ठमासे सुदि १० बुधवारे | श्रीगोपाचलदुर्गे श्रीमूल संघे बलात्कारगणे इ० ... पउमचरियनी हाथप्रत भांडारकर ओरीएन्टल रीचर्स ईन्स्टीटयूटनी हाथपोथी नं. ११२० छे. २. उद्धरणवस्तु : वसंत प्रकट्यो छे. माहेश्वरपुरनो पति सहस्रार्जुन नर्मदामां जळक्रीडा करी रह्यो छे. बीजी बाजुए लंकाधिनाथ रावण नर्मदाने किनारे पूजा करी रह्यो छे. यन्त्रो वडे नर्मदानो प्रवाह सहस्रार्जुनना यान्त्रिको रोक्यो छे. सहस्रार्जुननी जलक्रीडा समाप्त थतां यान्त्रिको यन्त्रोने छोडे छे, एटले कभरातो प्रवाह लंकाधिनाथनी पूजाने रेली नाखे छे. रावण गुस्से धई पोताना दूतोने बोलावी जेणे आ अविनय कर्यों तेने शोधवा मोकले छे. दूतो समाचार लावे छे. रावण गुस्से थई तरवार खेचे छे. प्रभात थतां उदयगिरिना शिखरे रवि, ' मने मूकी अने चंद्रने लई निशा क्या चाली गई ' एम जाणे शोध करतो न होय एवो देखाय छे. वसंत जगत् - रूपी घरमा प्रवेश करे छे अने नवा घरमा प्रवेशतां जाणे सूर्य-रूपी मंगळ - कलशनी स्थापना करे छे. दुष्ट फागण मासने दूर करी वसंतराज प्रवेश करे छे. (१) वसंतश्रीना घरमा प्रवेशता वसंतराजनी राजसामग्रीनुं वर्णन कवि करे छे; अने भोळी नर्मदा आ वसंतना मदे घेली थई भने छे. (२) नर्मदा पोताना पति रत्नाकरने मळवा शणगार सजी जाणे नर्मदा नदीनां सामान्य अंगोने निरूपित करी कवि जती होय एम जुदां जुदां वर्णन करे छे. आ वसंतना Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मदे मस्त बनेली नर्मदा माहेश्वरपुरना पति सहस्रार्जुनने अने लंकापति रावणने कामाविष्ट करे छे. (३) ते वसंत अने ते रेवानां जळ इत्यादि जोईने सहस्रार्जुनने जळक्रीडा करवा हरख थाय छे. यांत्रिको यंत्रो घडे नर्मदानो प्रवाह रोके छ; अने सहस्रार्जुन पोताना अंतःपुर सहित नर्मदामा प्रवेश करे छे. (४) जळक्रीडानुं जुदे जुदे प्रकारे वर्णन कवि करे छे. (५-६) अंतःपुरनी राणीओ सहस्रकिरण साथे जुदा जुदा प्रकारनी क्रीडा करे छे, तेनुं वर्णन कवि करे छे. (७) आ जळक्रीडानां वखाणो देवो करे छे. (८) रावण रेतीनी वेदी बनावी जिनवरनी ते उपर स्थापना करी पूजा करे छे. एटलामां तो यान्त्रिको यत्रोने छोडे छे एटले प्रवाह रेलाई पूजासामग्री धोई नाखे छे. रावण गुस्से थाय छ अने आ पिशुनता करनारने शोधवा माणसो मोकले छे. (९) पछी राणीओना तूटेला अलंकार, पुष्प, कुंकुम इत्यादि खेंची जती नर्मदा तरफ रावण नजर करे छे. कवि कल्पना करे छे के नदी जिनवरनी प्रतिमाने खेंची गई कारणके ते जिन. प्रभु, स्त्रीओ साथेना विलासथी अलिप्त रहेता हता अने तेमणे पोतानी निष्कामताथी नदीने गुस्से करी हती. (१०) एटलामां रावणे मोकलेला गवेषको पाछा वळे छ; अने तेमांनो एक तेनी अपूर्व कामलीला वखाणे छे अने ए कामलीलानो निर्मापक सहस्रार्जुन छे तेनी खबर करे छे. (११) बीजो गवेषक तेना अंतःपुरने विविध उपमाओए करी वखाणे छे. (१२) त्रोजो गवेषक यन्त्रोने वखाणे छ; अने यान्त्रिकोए छेवटे यन्त्रोने छोडी दीधा तेथी प्रवाह रेलाई गयो अने रावणनी पूजा तेणे धोई नाखी - ते बाबत रजु करे छे. आ सांभळी रावण पोताना हाथे तरवार खेचे छे. ३. पद्यरचना : आ उद्धरणमा १३ कडवकनो संधि लेवामां आव्यो छे. दरेक कडवक १० पंक्तिओनुं छे. छेल्ली बे पंक्तिओ घत्तानी छे. आखा संधिने मथाळे ध्रुवपद छे चतुर्मुख स्वयंभूनी कृतिमां कडवकना देहनी लगभग सरखी रीते ८ पंक्तिओ छे. त्रिभुवन स्वयंभूमां कडवकनी पंक्तिसंख्या वधे छे. पुष्पदन्त अने धनपालमां कडवकनी पंक्तिसंख्या बहलती जाय छे अने तेनो कोई नियम ज रहेतो नथी. आ चतुर्मुखनी प्राचीनता सिद्ध करवानो एक पूरावो छे. आ उद्धरणमा ध्रुवपद, अने घत्तानो एक अने कडवकना देहनो एक - एम बे छंदो वपराया छे. ध्रुवपद अने घत्ताना छंदनी मात्रागणना : ८ + ८ + १४ = ३० मात्रानी छे; पंक्तिनी वचमां बे यति छे अने ते यति प्रासबद्ध छे : विमले विहाणऍ। कियएँ पयाणऍ। उययइरिसिहरे रवि दीसइ । मइ मेल्लेप्पिणु । निसियरु लेप्पिणु । कहि गय णिसि गाइ गवेसइ ॥ Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेमचन्द्र छन्दोऽनुशासनना छट्ठा अध्यायना आरंभमां आ पत्ता अने ध्रवपद संबंधी विवेचन करता आदिमां ज सूत्र मूके छ : सन्ध्यादौ कडवकान्ते च ध्रुवं स्यादिति ध्रुवा ध्रुवकं घत्ता वा। आ ध्रुवक के घत्ता त्रण प्रकारनी छे : सा वेधा षट्पदी चतुष्पदी द्विपदी च । प्रस्तुत उद्धरण- ध्रुवपद अने पत्ता षट्पदी प्रकारनी छे; अने हेमचन्द्रना अभिप्राये आ उपजातिनो प्रकार छे. अष्टौ उपजातिः॥' ए सूत्र पर टीका करतां हेमचन्द्र लखे छे के तृतीयषष्ठयोः पादयोर्दशादिसप्तदशान्ताः कलाः शेषेष्वष्टौ चेत्तदोपजाति म षट्पदी । प्राकृतपिंगलमा आ छंदने माटे नाम नथी; परंतु दुम्मिलानी जातनो आ छंद कही शकाथ.२ कडवकना देहनो छंद पद्धडिका के प्राकृतपिंगलनो पज्झडिआ छंद छे. तेमा १६ मात्रानां चार चरण छे. हेमचंद्र पद्धडिकानुं लक्षण चीः पद्धडिका। नोंधी टीका करे छे : चगणचतुष्कं पद्धडिका । यथा, 'परगुणगहणु सदोसपयासणु, महुमहुरक्खरहि अ मिअभासणु । उवयारिण पडिकिउ वेरिअणहं, इस पद्धडी मणोहर सुअणहं ॥ एटले चार चार मात्रानां चार जूथ: कुले १६ मात्रानो आ छंद. आपणा उद्धरणनां बधां य कडवांना देहमां आ ज छंद छे. प्राकृतपिङ्गल' छेल्ला भाग उपर नियंत्रणा मूके छे, परंतु हेमचंद्र ते स्वीकारता नथी अने वळी काव्यवहनमा आ नियंत्रणानी गणतरी कोइ कवि करता पण नथी. मात्रानी गणतरीमा प्रा. पिं."प्रमाणे इं, हिं, ए के ओ शुद्ध के वर्णमिलित अने र तथा ह साथेना संयुक्ताक्षर लघु गणवा. सप्तमी तथा तृतीया एकवचननो इ; तृतीया बहुवचननो इहिं; संवंधक भूतकृदंतनो इवि इत्यादि ए, एहि, एवि एम लख्या होय छतां एनी एक ज मात्रा गणवी. होना ओनी पण एक मात्रा गणवी. आ संबंधमां वाचके सि. हे. ८।४।४१०।। ८४४११॥ लक्ष्यमा लेवा घटे छे. तेमां पण आ प्रकारनो आदेश छे. ४. टिप्पणी : [टिप्पणीमां पंक्तिओनो उल्लेख करवामां आव्यो छे. ] १. छ. शा. पान ३८ (6) पंक्ति. १४. २. प्रा. पिं. पान. ३१५ मात्रा १८+८+१४=३२. दुमिला. ३. छं. शा. पा. ४३ (अ) पंक्ति . ९. ४. प्रा. पिं. पान. २१७ पज्ञडिअ पान. २२० अडिल्ला. ५. प्रा. पिं, पान, ४ . Mm: Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १ - २. आ ध्रुवक छे. सामान्य रीते संधिना आरंभनो ध्रुवक भव्य अने आकर्षक होय छे; अने आखा संधिना प्रस्तुतार्थनो सूचक होय छे. आ ध्रुवकमां सूर्यने प्रतिनायक कल्प्यो छे. निशानायिका चंद्रने लई सटकी गई. तेने शोधवा जाणे सूरज उदयगिरिना शिखरे आव्यो होय एम उत्प्रेक्षित छे. १. सति सप्तमीनो प्रयोग छे; अपभ्रंशमां सप्तमी अने तृतीयानां रूपो सरखां होवाथी कोइ वार आवा प्रयोगमां तृतीया पण वापरी देवामां आवे छे. जुओ सदर. पान ४३. पंक्ति९० परं जीवंतपण महु एही भइय अवस्था । ३-४. सूर्यने मंगल - कलश साधे सरखाव्यो छे वसंत विश्वगृहे वास करवा आवे छे. नवा घरमां वास करता पहेला मंगलकलश तो मूकवो जोईए ने ? तो आ सूर्य जाणे मंगलकलश; प्रभात ए दहिंनो अंश; अने प्रभातनां कोमल किरणो जाणे ए कलश ढांकवानी कुमळी कमळनी पांदडीओ. ३. रवण्णउ - सुंदर सि. हे. ८|४|४२२ | ; प्रो. पीशल G. P. 603मां जणावे छे के प्राकृतमां रमणीय अने करणीयनी साथे साथे करण्य, रमण्य एवां विध्यर्थ भूतकृदंत टकेलां तेमांना रमण्यमांथी रवण्ण उत्तीर्ण थएलुं. आ स्थळे लावण्य शब्दनी व्युत्पत्तिचर्चा आवश्यक छे. सामान्य रीते तेने लवणमांथी उत्तीर्ण करवामां आवे छे; परंतु लवण 'सुंदर' ए अर्थमां संस्कृतमां ए शब्द वपरातो नथी. लवणिमा अने लावण्य आ बेज शब्दो ज संस्कृतमां रूढ छे. मने लागे छे के मागधी असरथी रनो ल थइ रवण्ण > लवण्ण अने तेनुं संस्कृत लावण्य. लावण्य पछीनो बोल लवणिमा. ३. कोमलकमलकिरणदलछण्णउं आमां खरी रीते कामलकिरणकमलदलछण्णउं एम संस्कृतनी ढबे समास होय, परंतु अपभ्रंशमां समासना बंध तूटता जाय छे अने समासना शब्दोनी गोठवण पण नियंत्रित रहेती नथी. समासना शब्दोनी गोठवण तो ठेठ जूना काळथी प्राकृतमां तृटनी आवी छे. आ संबंधे प्रो. पीशल G. P. 603. मार्कण्डेयना प्रा. स. ८। ३६ । पूर्वनिपातोऽन्यथा प्रायः || अने ते पर टीका : समासे संस्कृतविहितः पूर्वनिपातः प्राकृते प्रायोऽन्यथा स्यात् ॥ ४. णावइ २. णाइ लि. हे | ८|४|४४४ । इवार्थे नं- नउ - नाइनावइ - जणि - जणवः ॥ नं, नउ, नाइनो संबंध वैदिक न=इव नकिः = Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ काइ नही (प्रो. पीशल G. P. 6. Einleitung)साथे जोडाय. नावइ, जणि, जणुनो संबंध ज्ञा धातु साथे होइ शके. नाइ कदाच नावइनु टुंकुं रूप होवा पण संभव छे. नाइनो प्रयोग तुलसीदासना रामायणमां 'जाने' 'जाणवु ' बे य अर्थमा देखाय छे. ५. दूउ संस्कृतछायामा शासनं एम अर्थ कयों छे. आनो आधार मारी पासेना जूना गुजराती रास नामे मृगांकलेखा ( सोळमा सैका )नी कडी १२०-१२२ उपर छे जे नीचे टांकुं छु : कोठारी बोलावीउ ए इंतउ जेय सुजाण ॥१२० " अन्न पान घृत आपिज्यो ए फाटाफाटउं वस्त्र एहनइ रूडइं रहाविज्यो ए रखे जणावउ पुत्र"॥१२१ सेठि दूउ देई गया ए सतीय बोलावी धावि... आ उद्धरणनी हाथप्रतना हांसिआमां संस्कृतटिप्पण पालय : आप्यु छे ते कदाच दूतः पाल्यः 'किंकर, अधिकारी ' ए अर्थमां लेवाय. ५. कह व ण मारिउ 'जेमतेम मार्या नहि' एटले शिक्षा तो सखत करी परंतु प्राण हर्या नहि. कह-वै.सं. कथा केवी रीते ' एनां समान रूप जह-यथा, तह-तथा, अह-अथा G. P. 103. ५. पवमण्डवणिरिक आचेलिय : परब अने लतागृहोना चोरो अर्थात् कामिजनोनां वस्त्रो जेणे हरी लीधां हतां. णिरिक जुओ. दे. ना. ४. ४९. चोरट्ठियपुट्ठसुं णिरक्कं (v. 1. णिरिक्क)। ७. पइसरइ-प्रविशति मने लागे छे के पइसइनु कारकरप पइसारइ अने तेमाथी बनावेलुं साईं रूप ते पइसरइ वधारे संभवित छे; जो के पइसइ पण कांइक प्रमाणमां अपभ्रंशमा प्रचलित छे १३. पईहर [ प्रतिगृह ] अंतर्गृह; जुओ जसहरचरिउ (शब्दकोष. पा. १३६) पइहर-प्रतिगृह ( अंतर्गृहमित्यर्थे । ); 'घरनो आगलो भाग ' ए अर्थ पण संभवित अने बंधबेस्तो छे. गू. 'पडशाळ-सं. प्रतिशालाभां आ सूचित छे. पईहरमां ई माटे जुओ सि. हे. ८ ॥ दीर्घढस्वौ मिथोवृत्तौ। १४. नेउर-नूपुर । सि. हे. ८।१।१२३। G. P. 125मां प्रो. Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीशल जणावे छे के सर्व प्राकृतोमा नेउर मालम पडे छे; एटले नू पुर शब्द साथे नेपूर शब्द पण भाषामा प्रचलित हशे; अने तेनी साथे सरखाववा केयूर शब्द तरफ लक्ष खेंचे छे. वळी नेउरकेऊरं (राजशेखरना बाल रामायणमा ) अने नेउरकेऊराओ ( अप० प्राकृतपिंगल १. २६) तरफ लक्ष दोरे छे. जूना गूजरातीमां ठेठ प्रेमानंद सुधी ' नेवर' = नूपुरना अर्थमां वपरायो छे. हिं. नेपूर, नेवर. १४ अंतेउरु [ अंतःपुरं] G. P. 344 सि. हे. ८।१।६० मागधीनी असरने लीधे अन्तः अंते । १५ उज्जाणेहिं सप्तमी-बहुबचनः हिं (प्रा. एकवचन म्मि < सं. एकवचन स्मिन् ध्यानमा राखg के इहिं अने हिं बे प्रत्ययो लगाडवामां आवे छे. उज्जाणेहिं, थाणेहिं, वंदिहि, वासहि, महणासहिं इ० सि. हे. ८४१३४७ । अर्धमागधीमा हत्थंसि-पायंसि अने पालीमां स्मि अने म्हि प्रत्ययो सप्तमी एकवचनमां छे. आ प्रत्यय एकवचनमाथी बहुवचनमां लेवावा संभव छे. तृतीया बहुवचन हिं अने सप्तमी बहुवचन हिं वच्चे पण अव्यवस्था उत्पन्न थइ होवी जोइए, कारण के बन्ने प्रत्ययो सरखा छे. १६. साहुलउ-हाथप्रतना टिप्पगमा सिगिरिका शब्द आप्यो छे जे समझातो नथी. परन्तु ध्वजपट जेवो आनो अर्थ होय. सरखावो दे. ना. ८ ५२ । साहुलिआ-वस्त्र; पा. स. म. 'शिरोवस्त्रखण्ड ' ए अर्थ पण नोंधे छे. १७. कुसुमा 'अ'कार मात्राखातर लंबाव्यो छे; दवणा-दवणअ%D दमनक एटले 'आ' ' +अ+अ' नो बनेलो छे. १८. वाणरमालिय [ वंदनमालिका ] प्रा. गू. तोरण वंदुरवाल कलस धयवड लहलहए । प्रा. गु. का. श्रीनेमिनाथफागु. कडी, ६. हिं. वंदनवार, वंदनमाल. १९, भुंजा-टिप्पणमां 'अग्रेभोजकाः स्तितीषुः ' एम आपेलुं छे; प्रथम जमनारा विप्रो ए एक अर्थ लीधो छे; परन्तु वनस्पतिने अनुलक्षी बीजो कोई अर्थ होवो जोइए. ___ २०, वम्भेहि ने बदले वम्महि वांची सप्तमी एकवचन इ-प्रत्ययान्त लेबु ठीक छे. आ पंक्तिनो छायामां छे तेथी जुदी रीते अर्थ करी 'विरहिणं विध्यन् गतपतिकामर्मसु आंदोलयन् ' एम संस्कृतछाया करवी वधारे घटित थशे. २१. भुंभलभोली सरखावो प्रा. गू. भम्मर-भोली नेमिजिण Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० वीवाह सुणेई । नेहगहिल्ली गोरडी हियडइ विहसेई ॥ प्रा. गू. का. श्रीनेमिनाथफागु. कडी. १२ पं. ५-६ भुंभल (म. भिब्भल (सि.हे. ८।२।५८)-भिंभल <सं विह्वल । भोली < भुल्ल(सि.हे.८४११७७१) <सं. 1 भ्रम्+उल्ल; (O.D.B.212) गू. 'भोळो' एटले मुग्ध प्रो. पीशल M. K. A. P. 53 XVI बालो भुंभरभोलि उल्लसिअणिअंस. णी। आ पंक्ति भोजदेवना सरस्वतीकण्ठाभरणमा छे, प्रो. पीशल भुंभरभोलिंने Intensive रूप गणावी भुल ने G.P. $354 प्रमाणे (लम् मांथी व्यत्यय करी उतारे छे. हुलइ (सि.हे. ८।४।१०५) =भुलइ>भुल्लइ G. P. 666. गू. भम्मरभोळी हिं. तुलसीदासः पार्वतीभंगल. ३८. “ बालक भमरि भूलान फिरहिं घर हेरत." २२. सलोणी [सलावण्या जुओ टिप्पण. प्रथम उद्धरण. १. ३. गू. सलुणी. २५. ऊढणाई सरखावो. दे. ना. १।१५। ओड्ढणमुत्तरीए । अने वळी पा. ल. ४२ ऊढिअयं पाउअयं । गू. ओढणी हिं. ओढनी. सामान्य रीते 'पुलिन' उंचा रेताळ कीनाराने नितम्ब साथे सरखाववामां आवे छे; अहिं पुलिनने ओढणी साथे सरखावी प्रवाहने रसना साथे सरखाव्यो छे, २८ सयल [सकल] बधी कळाए सहित एटले गोळ. ३०. रण [वर्ण] रंग आ तेम ज 'रंग' बन्ने शब्दोनो संबंध सं. रज साथे छे. . ३०. तंमोलु सवाणिउ [ ताम्बूलं सवर्णकं ] सामान्य रीते म्र, आम्र, ताम्र, इ० मां म्र नो म्न थइ म्ब थाय छे ( G P. 295. सि. हे. ८।२।५६ ) गू तांबु, आंबो, परकंबा, आंबली; आमर्छ, त्रांबु, ए प्रो. पीशलनी कल्पनाने टेको आपे छे; आ दाखलामां म्म-म्बनी अवळी गति थइ छे. खरी रीते म् नी पछी तरतज म् बोलतां नाकमांथी नीकळतो स्वर बंध थइ जतां ब थइ जाय छे; नहि तो तेने हलको पाडी म् एकलो ज रहेवा देवो पडे परन्तु बीजा म् ना उच्चारनो प्रयत्न थतां अजाणे बनो वर्णागम थाय छे. ३२. अवरउहउ-भउहउः वर्णविकारमा म् , वू, ब, उनी एक बीजामा फेरबदली मालम पडे छे. ( सि. हे. ८।४।३९७ G. P. 251) हाथप्रतोमा ब् तो व ज लखाय छे; केटलीक हाथप्रतो ज भेद पाडे छे. प्रसिद्ध दाखलो करमि-करवि-करउं आ त्रणे य रूप अपभ्रंशमा प्रचलित छे. सि. हे. ८ । ४ । ३८५ । S. K. Chatterji O.D.B. 280, 288 ३६. दाहिण-मारुउऽमिय-सीयलुः दाहिण [दक्षिण] सि. हे. Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८।१।४६। मारुउमिय अ नो लोप; आ प्रकारनो लोप स्वरभार के छंदोबंध खातर अपभ्रंशमां दीठामां आवे छे. दा. त. आज उद्धरणमां पं. ३५. मोहुप्पाइउ, पं. ४५. सलिल-ब्भन्तरे इ० सरखावो संस्कृतसंधि-रामोऽगच्छत् । मोहेऽपतत् इ० अस्वरित प्रथम हृस्वनो लोप. Divatia G. L. L. I. P. 368. Turner J. R. A, S. 1921. G. Ph. 23. G. P. 99. “In Apabhrams'a also the rhyme determines the toning of the vowels”. ४०. णवल्लउ [नव+अल्ल स्वार्थ] अपभ्रंशमां अल्ल इल्ल उल्लु स्वार्थे उमेरवामां आवे छे. सि. हे. ८४४२९ भां उल्ल एकलानो ज उल्लेख छे. सि. हे. ८।२।१५९ मां बाकोनानो उल्लेख छे. G. P. 595 मा तद्धित संस्कृतमां आल (वाचाल) आलु (दयालु, श्रद्धालु) इल (फेनिल पिच्छिल) उल ( हर्षुल, चटुल) ल (अंसल, मांसल ) इ० रूपे छे. ल् बेवडायो शाथी ते माटे जुओ टिप्पण आज उद्धरण पं. ५०. ४२. सह-प्सहं [ सहकम* ] G. P. 206: "अ. सहसाकमू ( सि.हे. ८।४।३५६. ४१९ । ) आ व्युत्पत्तिना कारणमां ते जणावे छे के क ना अ उपर उदात्त होई सा नो स थाय छे; G. P. 80; अने कम्-उं G.P. 352." प्रो. भांडारकर अने गुणे (सं. सह. Divatia G. L. L. II P. 94 गू. शुं < प्रा. गू. सिउं < सं. सह-समम् ; प्रा गू. सिउंनो प्रयोग सं. १२६६ ‘जंबुसामिचरिय' प्रा. गू. का. पा. ४४. कडी. २० 'पंचसए चोरेह सिउं प्रभवउ घरि पइठउ ॥' ४३. आरक्खिय णियबलु पोतानुं बळ भेगुं करीने. ४४. छुडु-सि. हे. ८४॥२२॥ यदेच्छुडुः । परन्तु अपनंश साहि. त्यमा यदि एकलो ज नहि परन्तु सामान्य निपात तरीके पण ते वपराय छे. ४९. ससिह-रासि [ सहस्ररश्मि ] व्यत्ययन उदाहरण; सहस्रनुं सहास अने सहस रूपान्तरो छे.. ४९. लइ सामान्य निपात सि. हे. मा उल्लेख नथी; अपभ्रंश कृतिओमां बहुधा देखाय छे (सं. लात्वा ५१. उप्परि [उपरि] सि. हे. ८।२।९८-९९। सूत्रमा शब्दना आदिमां नहि परन्तु शब्दने अंते के वचमां आवेला व्यंजन- द्वित्व कोईक शब्दोमां निश्चये करीने अने कोईक शब्दोमां विकल्पे करीने थाय छे. आ प्रकारना Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शब्दोनां जुदा जुदा विद्वानो भिन्न भिन्न अभिप्रायो आपे छे. G. P. 2 मां टीका करे छे जेनुं अंग्रेजी भाषांतर हुँ मूकुं छु “ The accent of M., Amg., JM., the poetical Apbhrams'a and mostly of JS. corresponds mainly to the Vedic accent. As the weakening or dropping out as well as the raising of the vowel rests on it, as also the doubling of the consonants in certain cases, it can not be purely musical, but must have been mainy expiratory." आ मतनो आशरो लई 194 मां " A consonant be. tween vowels is doubled sometimes when followed by an accented vowel " अने वळी " The same rule explains the doubling of the suffix c in अल्ल, इल्ल and उल्ल" केटलाक ( Prof.Bloch ) एम माने छे के तैल्य, एक्य, दुकूल्य जेवा शब्दो प्रचारमा हशे तेना उपरथी आ रूपो ऊतरी आव्यां हशे; अने स्वरने तेमां लेवा देवा नथी. आ संबंधी संपूर्ण विवेचन J. R. A. S. April 1916ʻIndo-Aryan Accent in Marathi' by Turner. केटलीक बार शव्दनी मात्रा (quantity) अने संस्कृतनुं व्यंजनतत्त्वटकाववा पण व्यंजनद्वित्व करवामां आवे छे. ६४-६५. आमां विद्दममरगय-सुरघणु; इंदणीलसय-घण; चामियर-विज्जु; हार-बलाय, छायामां बलाहक ने बदले बलाक'हंस' वांचो. कडवक छट्टानी शैली जेमां कहि मि नुं पंक्तिए पंक्तिए बब्बे वार पुनरावर्तन करवामां आव्यु छे. ए शैली चारणोमां बहु प्रचलित छे, अने अंग्रेजी-असर पूर्वेनी गूजराती वर्णनात्मक कवितामां घणी वार देखा दे छे. रामायणमां किष्किन्धाकाण्डमां पम्पा सरोवरना वर्णनमां अथवा कालिदासना रघुवंश. सर्ग. १३. श्लो. ५४-५७ मां आ प्रकारनी शैलीनो अंश मालम पडे छे, पण रूढ शैली तरीके नहि ज. अपभ्रंश काव्योमां तो पगले पगले आ प्रकारनी शैली देखा दे छे. ६८. हुल्ल [पुष्प]; वउल्ल [वर्तुल]; पं. ७४ पहुत्त [प्रभूत ]; पं. ९ उलुक; अल्लीण एमां व्यंजनद्वित्व मालम पडे छे; आमां उलुक Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदी अ जातनुं छे [ उद् + लुप्त ]; आम ते कर्मणि भूतकृदंत परथी बनेलं छे. ७५ छुडु छुड; सि. है. मां ईषत् ईषत् अर्थ नथी. ७५ वलग्गहो-वि नो व थवामां ल परना उपान्त्य स्वरभारनी असर छे; आवी असर गूजरातीमां वधारे थती जाय छे. ' ७८. जुवह सहासु नासु नी छाया सुधारो; युवत्यः सहासाः यस्य एम वांचो. ८२. उल्ल (उद्र*] सि. हे. ८।१८। उदोद्वा ॥G. P. 111 अने Weber = /उद-उन्द मांथी विशेषण; अल्ल अने अह जे सि. हे. मां बताब्यां छे ते < सं. आई. ८३. इत्थु [ अत्र ] सि. हे. ८।४।४०४-४०५ । G. P. 107. मां अत्तमांथी नहि पण वै.सं. इत्था-सरखावो -सं. इत्थं, ते ज प्रमाणे जेत्थु, तेत्थु, केत्थु-यत्था, तत्था, कत्था ए ध्यानमां लेवा जेतुं छे के वै. सं., पा., अने अप. नो मेळ लाववा मथीए तो य, यद् , या सै. यद; त, तद्, ता-सं. तद् ; क, कद्, का-सं. किम् ; आ प्रमाणे सर्वनामनां मूळरुप मालम पडे छे. ८४, माजेवि भोगवीने सरखावो-ग-माणवू. ८५. करेप्पिणु लि, हे. ८४४०। G. P. 588. वैदिक संबंधक भूतकृदंतनो त्वी अपभ्रंशमां हयात छे; तेमज त्वीनम्, इष्टवीनम्, पीत्वीन ( पाणिनि ७१।४८ अने तेना परनी काशिका ) ९० जावहि-तावहिं जेत्तहे-तेत्तहेः सरखावो सि. हे. ८४४०६; G. P. 271 जाम यावत् ; ताम तावत् अने जामहि, तामहि =यावद्भिः, तावद्भिः; आमां पण तृतीया अने सप्तमीनो संकर मने लागे छे. जावहि अने तावहि-जामहिं अने तामहिं; वम् ; जेत्तहे-तेत्तहे सि. हे. ८४४३६ यत्र-तत्र; सि. हे. ८४४०४ मां अत्त, तत्तः जत्त+हे, तत्त+हे-यत्र स्मात्, तत्र+स्मात् अने ए ज एत्तहे, जेत्तहे, तेत्तहे, G. P. 107; अ ने भारपूर्वक बताववा पूरतो ए थयो छे. अथवा ए-एतद्नी असरथी अ नो ए होय. ९४. गवेसहो आज्ञार्थ बीजो पुरुष बहुवचन ९४. तासु रक्खवमि-९१. संकेयहो ढुक्कउ-१०७. कहिय Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४ सुणंतह खंधावारहो-जुओ मार्कण्डेय. १७११॥ हो च ॥ सि. हे. मां आ प्रकारनो आदेश नथी; Pischel पण आनी नोंध लेतो नथी. खरी रीते चतुर्थी अने छद्रीना अपभ्रंश अने प्राकृतमां एक बनी जवामां आ संभ्रम थयो छे. जेना तरफ गति बताववानी होय ते वस्तुनी द्वितीया के कोइक वार वतुर्थी मकवानो संस्कृतमां नियम छे एटले आवा प्रयोगोमां द्वितीया, चतुर्थी अने षष्ठीनो संभ्रम अपभ्रंशमां बहुधा होइ मार्कण्डेय आ आदेश बांधवा ग्रेरायो होवो जोइए. ९८. अहिं जोव्वण-इत्ति वांचो; जोव्वण-यावन मां व्व जुओ. ९९ पट्टवत्थई-गू. मां पट-प्रवाहनी पहोळाइ ए अर्थ अहिं अभिप्रेत होय; बाकी पट्टवस्त्र एटले सं. मां 'रेशमी वस्त्र' अथवा तो टिप्पणीमां का छे तेम ‘साडी' अर्थ लेवाय. सामान्य रीते वत्थे एकवचनमां होय; पण वत्थे भने वत्थहिना संभ्रमथी वत्थई अहिं वपरायु होय. १०० पुलिणाहोरणाई व पगुत्ती-मूळमां वीणाहोरणाई व पंगुत्ती छे; परंतु आ उद्धरणनी पं. २५ ने अनुसरी आ सुधारो कयों छे. मूळ हाथप्रतनी पंक्तिनो काइ अर्थ थइ शकतो नयी. १०१ मल्लिवदंतेहि अहिं व श्रुति नथी. सामान्य रीते इ अने ए पछी य अने उ अने ओ पछी व श्रुति होय छे. १०६. आईय G. P. 254 आवइ= आयाति (सि. हे. ८४३६७. उ. १; ४१९. उ. ३) आबहि (सि. हे. ८४१४३२ उ. १); एवी ज रीते गै-गायति-गाअइ-गावइ. Shahidulla: Dohakosa P. 33. आवइ<आअमइआगमति*, अने तेने माटे Dohakos'a p. 151. St. 70 टांके छः पण्डिअ सअल सत्थ वक्खाणइ, देहहि बुद्ध बसंत न जाणइ । अमणागमण तेन बिखण्डिअ तोबि णिलज्ज भणइ हउं पण्डिअ॥ अमणागमण-गमनागमन । आइय< सं. आगमित* ११९ सिर मुह कर-कम कमल महासरु वांचो. १२२. जोहा-कल कठिणी-जीभरूपी कोकिला; कलकंठिनी-कोकिला; एवी ज रीते मयगल-मदकलनो अपभ्रशमां 'हाथी' अर्थ थयो छे. Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५. मणधणवंतहु मन ए ज जेनुं धन छे एवानो १२६. खंतई [खन्+त] कर्मणिभूतकृदंत. १२८. निउणसमासिय [निपुणसमासित] बहु ज नैपुण्यथी बंध बेसतां करेला; टिप्पणीमां ए प्रकारनो ज अर्थ सूचित लागे छे. १३४. कड़ियउं [कृष्टम् ] कड्डइ ( लि. हे. ८।४।१८७।) पाली कड़ित; Bloch ( Langue de la Marathe 112 ); S. K. Chatterjee ( Origin and Development of Bengali Language. 272)सं. कृष्टमांथी उत्तीर्ण करे छे; परंतु ढ समझाववा खातर दिव धातुना वर्गनो (=चोथा गणनो) एने गणे छे. Prof. Bloomfield (I. A. O. S. 1921 P.365 ) कृष+द ने मूळ धातुना रूप तरीके धारे छे. > कड>कड रूप थाय. [ Shahidulla: Dohakosa P. 222 ] गू-काढवू; हिं-काढना; मरा काढणे. १३५. सहइ [राजते] सि. हे. ८४।१०० Vशुभ् मांथी उत्तीर्ण होवा संभव छे. ॥ द्वितीयमुद्धरणम् ॥ कवि अने तेनुं जीवनः प्रथम उद्धरण 'चउमुहु सयंभुना पउमचरियमाथी लेवामां आव्यु हतुं. आ द्वितीय उद्धरण पण ते ज ग्रन्थमाथी लीधुं छे. पउमचरिय अधूरु रहेलं ते चउमुहुना पुत्र तिहुयण सयंभु ए पूरुं करेलं, आ उद्धरणने छेवटे पुष्पिका आपी छे ते परथी ते समझाशे. एटले चउम्हनो पुत्र होइ, तिहुयण नवमांना अंतनो के दशमानी शरुआसनो अपभ्रंश कवि कही शकाय. पोते केवी रीते अधूरु पउमचरिय पूरूं कर्यु तेर्नु इतिवृत्त आ उद्धरणनी पुष्पिकामां वर्णव्युं छे ते वाचके जोइ लेवु, आ उद्धरणमा २० कडवां छे. आठ आठ पंक्ति अने एक कडी घत्तानी एटले एक कडवक ए नियम आ उद्धरणमां जळवायो नथी. मूळ पउमचरियमां आ उद्धरण ८३ मो संघि छे. Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उद्धरणवस्तु: आ उद्धरणमां सीतानी अग्निपरीक्षानु कथानक कहेवामां आवेलुं छे. वाल्मीकिना कथानकमां अने आमां फेर छे. लव=अनंगलवण अने कुश-मदनांकुश. आ बन्नेनो पुरमा प्रवेश थाय छे अने ते वखते तेमने आवकार मळे छे. (१) रामपुत्रोना प्रवेश वखते रामना सामंतो, खंडीआ राजाओ, मित्रराजाओ, योद्धाओ, वानरवीरो बधा य त्यां आवे छे. बधानो अभिप्राय एम छे के लोकोना नादने राजी करवा सीतानी कांइक परीक्षा करवी. (२) राम कहे छे के "सीतार्नु सतीत्व अने पवित्रता हुं जाणुं छु पण सीता उपर आवी अपकीर्ति नगरजनो नाखे छे ते ज हुँ जाणतो न हतो.” (३) ते वेळा विभीषणे त्रिजटाने बोलावी; अने हनुमाने पोतानी पत्नी लंकासुंदरीने बोलावी, तेमणे रामने वीनव्या अने कयु के सूरज पूर्वनो पश्चिम ऊगे, तो ज सीताना सतीत्व पर कलंक लावी शकाय; छतां य जो विश्वास न पडतो होय तो तुला, मंत्रेला चोखा, झेर , जळ अने अग्नि एमांना एकथी सीतानी परीक्षा करो. " (४)आ सांभळी रामे सुग्रीव, विभीषण, अंगद,चन्द्रोदरना पुत्र विराधि, अने पवनपुत्र हनुमानने पुष्पक विमानमां पुंडरीक नगरे मोकल्या. एमणे सोताने अभिनंदन आपी विमानमां बेसी राम पासे आववा अरज करी. (५) सीता गद्गद स्वरे विभीषण प्रति बोल्यां के "मारा आगळ गमर्नु नाम न लेशो कारण के तेमणे मने भयंकर वनमां मोकली दइ, मारा हृदयमां भयंकर अग्नि चेताव्यो छे ते एम होलवाय एम नथी. (६) छतां य राम माटे नहि परन्तु तमारो इच्छाने मान आपी हुं आई छु.” एम बोली सीता पुष्पक विमाने चडी, अने सवारे कौशलनगरी अयोध्यामां आवी पहोंची. (७) सीताने जोइ रामे तेनी अवलेहना करी के “सामान्य रीते स्त्रीओ निर्लज्ज होय छे; आवी स्थितिमा ते पोताना भरथार- मुख जोतां केम लज्जा पामती नथी ? " सीताने पोताना सतीत्वनी खातरी होवाथी बीधी नहि अने गद्गद शब्दे जवाब वाळयो " गुणवान माणसो पण स्त्रीनो विश्वास करवानी बात आवे छे त्यारे हलकाश बतावे छे.” (८) अनेक दृष्टांतो आपी सीता नर-नारी वच्चेनुं अंतर बताववा यत्न करे छे अने अग्निपरीक्षा स्वीकारे छे. (९) सीतार्नु वचन सांभळी बधा जनोने अने रामना योद्धा अने सहायकोने हर्ष थाय छे. (१०) सीताना बोलने अनुसरी खोदनारा बोलावी रामे खाडो खोदाव्यो; अने खड, लाकडां, चंदन, देवदार, कपूर इत्यादिथी ते खाडो पूर्यो अने चारे बाजुए सोनाना मांचडा बेठक माटे गोठव्या; देवो पण आ दृश्य जोवा आव्या. सीता लाकडांना पुंज पर चडी अने एने वैश्वानरने Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रार्थना करी " हुं पापी होउं तो मने बाळजे.” कुलकल थयो; अग्नि लगा. डतो तो मोटी ज्वाला ऊठी अने बधाए हाहाकार कयों. (११) बधा योद्धाओए धाह मूकी; अने तेओ रामना पर फीटकार वरसाववा लाग्या. (१२) ज्वालाओ नीकळवा मांडी अने जगत् धूमाडाना अंधकारथी व्याप्त थइ गयु; परन्तु सीता पोताना सतीत्वने लीधे डगी नहि. तेणे अग्निने पोते पापी होय तो बाळवा अरज करी; आटलं धैर्य कोर्नु होय ? अग्नि शीतल बनी गयो; अने पोतानी सत्ता बतावी शक्यो नहि. आ अवसरे मनमां संतोष पामेलो अग्नि सुरजनोने कहेवा लाग्यो, “ सतीत्वनो प्रभाव जुओ! अग्नि पण सीताने बाळी शकतो नथी! " (१३) एटलामा चिताने स्थाने महासरोवर बनी गयुः अने तेमां कमळ ऊग्यु. वेना पर दिव्य आसन उत्पन्न थयु. सुरवधूओए तेना पर सीताने बेसाडी. देवोए दुंदुभिनाद कर्या अने पुष्पवृष्टि करी. बधा जनोए जयजयकार कर्या. (१४) जाणे लक्ष्मीना अभिषेक समये सर्वे दिग्गजो मळ्या होय तेम सर्वे देवो अने योद्धाओ त्यां मळ्या. (१५) राम बोल्या, “खराबजनोना स्वच्छंदी बोलथी में तने त्यजी; मने क्षमा आप; अने नि:सापन्त्य राज्य कर.” (१६) सीताए जवाब वाळ्यो, " राम तमे शोक न करशो; में तमारा प्रसादे बहु भोग भोगव्या छे. हवे मने संसार पर आसक्ति रही नथी. हुं तो तप करीश." (१७) एम बोली सीताए पोतानो केशपाश ऊपाडी नांख्यो. भा जोई राम मूर्छा पामी गया. देवो सीताने ऋषिना आश्रममा लई गया. सत्यभूषण नामे मुनि पासे तेणे दीक्षा लीधी. एटलामां राम मच्छीमांधी जाग्या अने जोयु तो जनकतनया त्यां दीठी नहि. (१८) 'सीता क्यां' एम बोलता बोलता राम चारे दिशामां जोवा लाग्या. एटलामा कोइए विनयपूर्वक का. " पेला उपवनमां देवो सीताने लई गया छे; अने तेमणे दीक्षा लीधी छे." आ सांभरी रामने क्रोध चज्यो. राम उपवनमां गया. मुनिने जोता ज तेमने ज्ञान उत्पन्न थयु. रामे मुनिने नमस्कार कर्या. (१९) बीजा राजाओए पण मुनिने नमस्कार कर्या. रामे मुनिने धमोपदेश करवा कपु. मुनिए शास्त्रानुसार उपदेश कयों. (२०) ३. पद्यरचनाः ध्रुवपद अने घत्तामा १४+१३२७ मात्रा. हेमचन्द्र छं. शा. पु.४२(4) . नी छेवटनी बे पंक्तिमा आ छंद- विवेचन कर्यु छे. छ. शा. नुं दृष्टान्तः पलिस केस बल दसणावलि जर जज्जरइ सरीरबलु Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ છૂટ सव्वि व गलिहिं अणंगललिअ किज्जउ धम्मु अनंतफलु ॥ asanनो छंद पज्झडिआ छे. ४. टिप्पणी: लव १ लवणंकुसु अनंगलवण भने मदनांकुश; जैन परंपरामा ' अने 'कुश'नां आ नाम छे. मात्रानी गणतरीमां आ पंक्तिर्मा पुरे, पसारेवि; महाहवेणंमां एने हस्व गणवो. " २ आ पंक्तिना प्रथम चरणमां छन्दोभंग थाय छे; जो के मूळनो दुजस कायम राखीए तो छंदोभंग निवारी शकाय; पण आ प्रमाणे ज लेवुं घटे तो कविए छंद माटे वधारे पडती ज छूट लोधी कहेवाय. १ समोडिउ सरखावो समोडेवि पं. ७८ आज उद्धरण समोडद्द= सम् अ आ + / वृत्. ३. बलद्दद्द = बलभद्र, राम, पद्म. ५ रहे एक्कहि - हिं < सं. स्मिन् एक्कमां कनुं व्यंजनद्विव स्वरभार नथी छतां य. अण्णेक्कर्हि <सं. अन्यद् + एक + स्मिन् ; म. आणिक. ६ वज्जजंघु [ वज्रजंघः ] सीताने निर्वासित कयीं त्यारे जैनपरंपरा प्रमाणे वज्रजंघ राजाए आश्रय आप्यो हतो. • रहसें [ रभसा ] परन्तु व्यत्ययनो आश्रय लई हर्षेण करीए तो ठीक पडे छे. गु. प्रयोग ' एना दीलमां हरख न मायो' सरखावो आ ज उद्धरण पं. ४७, ९ पसंता अने पर संतानो यमक. ११ अहरुल्ल = अहर <सं. अधर + उल्लु स्वार्थे. ११ घत्तिउ = सि. हे. ८ । ४ । १४३ । 1 सं. क्षिप् १२. विवरेरउ [ विपरीत + इरउ स्वार्थ प्रत्यय ] विवरीअ + इरउ. जुओ. भविसत्तकहा ( Ed. Gune ) नो शब्दकोष विवरेर = विपरीत. १३. ससरे कुसुमसरासणिण छायामां स्वशरेण कुसुमशरासनेन परंतु सशरेण कुसुमशरासनेन एम पण अर्थ लइ शक्राय. Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ .... १४. आयल्लउ टिप्पणमा कोइक वाचके - आरातिकं । कामपीडा पा। एम नोंधेलुं छे दे. ना. मा. I. 75. आअल्लो रोगचलेसु । जुओ उद्धरण. ३. पं. ५३. आयल्लयसल्लई कुसुमसरु। आअल्लने प्रो गुणे आकुल के आकुलितं साथे जोडे छे. परन्तु भ. क. नौ वर्धा दृष्टान्तोमा ए शब्द नाम तरीके वपरायो छे; अने उपर जणाव्युं ते प्रमाणे दे. ना. मा. नो तेने टेको छे. भ. क. ना दाखलाः-सज्झसवसि वहंतु आयल्लउ । VI 20. 4. सुहमंगलजणजणियायल्लहो 1X. 9. 5. आयल्लउ जणंति पइपरियणि IX. 18. 10. परिहरि तो वि तासु आयल्लउ XI. 5. 17. १५. तेहए पमाणे पर आपेलु टिप्पण अस्पष्ट छे. १७. हक्कार सरखावो सदर उद्धरण पं. ४. ५१. आ पंकिर्मा मात्राभंग छे अने हक्कार ने बदले हक्कारउ वांचीए तो मात्रानी तूट दूर थाय छे. प. ५१ मां हक्कारा = आकारकाः ए अर्थ लीधो छे. गू. हकारो. भ. क. हक्कारइ [ D. आकारयति, शब्दापयति ] १८. जिणजम्मण = जिणजम्मणि । सप्तमीनो इ प्रत्यय त्यजी दीधो छे. २०. जाणे पांच मंदर पर्वतो एक ज स्थाने मळ्या होय तेम राम, सौमित्र, अनंगलवण, मदनांकुश अने शत्रुघ्न ते एक ज स्थळे मळ्या हता. .. ११. रहुवइहेमा हेनो ए ह्रस्व वाचवो; नहि तो मात्राभंग थाय. १२. णाहि जुओ सि. हे. ८ । ४ । ४१९ । मराठी. 'नाहि.' गूजराती कवितामां 'नाहि ' उछत-शब्द ( loan-word ) तरीके वपराय छे. २०. जाणमि ससहामंडलरायहो जाणमि सामिणि रज्जहो आयहो--आ पंक्तिमां जाणमि बे वार छे अने एक जाणमिनो मेळ वाक्यमा लवातो नथी, एने घटाववा बे मार्ग छे. एक जाणमि अमक शैलीनी जाळवणी खातर अनर्थक मूक्यु होय; या तो मंडलने मंडण सुधारी ससहामंडण रायहो = राज्ञः स्वसभामंडनम् । एम घटावाय. ३३. सीतानी अंदर रहेला सघळा सद् गुणो तो समझी शकाय छे; परन्तु नगरलोकोए भेगा मळी मारे घेर हाथ उंचा करी, जे दुर्यश सीता उपर नाख्यो ते एक ज बाबत माराधी समझाती नथी. Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. रयणासवजाएं रत्नश्रवन् रावण, कुंभकर्ण अने विभीषणनो बाप; ते कैकसी नामे कन्याने परण्यो हतो जेनाथी रावणनो जन्म थयों हतो. हेमचन्द्र - त्रि. श. पु. चरित्र पर्व ७ सर्ग १ ). ३५. लंकासुंदरी जैनपरंपरा प्रमाणे मूळ लंकाना कील्लाना रक्षक वज्रमुखनी विद्याना बळवाळी कन्या. मरुत्पुत्र हनुमाने लंकाप्रवेश वेळा वज्रमुखने हरावी तेनों घात कर्यो. लंकासुन्दरीने पण तेणे हरावी अने हनुमान बेनी वेरे परण्यो. ३८. कालंतरे कालु जइ तिट्ठइ एक युग चालतो होय त्यां बीजा युगनुं घूस जेम असंभवित छे तेम ४०. अवरें मात्रा साचववा रें दीर्घ वांच पडे छे: एना करतो अवरहिं वांच योग्य छे. अवरें एटले पश्चिमदिशामां ए अर्थ लेवानी छे. ४३. पांच दिव्यो १. तुला २. चावल - मंत्रेला चोखा ३. विष ४. जंळ. ५ अग्नि, ४९. आयामिय आयाम = बल उपरथी बनेला क्रियापदनुं कर्मणि भूतकृदंत 'आकान्त'ना अर्थमाँ. ४९. ओहामिय सरखावो ओहाइय हेट्ठामुहे । दे. ना. मा. १. १५८ ओहामह = आक्रमते । सि. हे. ८. ४. १६०. Pischel 261. 238 अपभावति * < अपभावयति = आक्रमते. ५१. अम्हइ आया तुम्ह हक्कारा इने अम्हनी साथे वांचो; अमे अtet = अम्हे सि. हे. ८. ४. ३७६. ५४ गग्गिर सरखावो पं. ७९. गग्गर. ६३ तुम्हइने बदले तुम्हह होवा वकी छे; लहिआओ छ भने ने सरखा वांचे छे. ६५. परिमिय छायामां परिमित ने बदले परिवृत वांचीए तो ठीक; कारण के व् अने म् नी फेरबदली अपभ्रंशमां बहु ज सामान्य छे. ७०. सासणदेव हाथप्रतमां ए ने य नो पण बहु जं भ्रम रहे है. अहिं एने सुधारी य वांचीए तो वधारे सारी वाचना बने. ७४. कुलग्गयाउ = कुलायकाः के कुलागताः ७५. दावियनी दापितंनी साधे दर्शित पण छाया यह शके. Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१ ८१-८२ स्त्री अने नदीनी श्लेषात्मक सरखामणी करी छे. छाया नीचेनुं टिप्पण श्लेष माटे जुओ; (1) पउराणिय पवित्र - चिरंतन (२) कुलंग्गये सारा कुळमांथी आवेली - कुलपर्वतोमांथी नीकळेली. ९१. जेण शब्द समझाववो मुश्केल छे. सामान्य रीते अर्थः कनकनी गोळी अग्निमां तप्या पछी शुद्ध बने छे तेम जो हुं हुताशनमा रहुं ती मारा विशुद्ध मनने बीजां दिव्योथी शुं थवानुं छे ? ९६. दुस्सील जेनुं मन खाटुं थइ गयुं छे तेत्रा. १०६. कंचणमंच रइय चउपासेहिं = काञ्चनमश्चाः रचिताः चतुःपाश्र्वेषु एम वांच जोईए; संस्कृत छाया सुधारी लेवी. ११५ आ पंक्ति मुद्रणप्रमादने लीघे रही गएली छे: धाहाविउ भामंडलजणयहिं धाहाविउ लवणंकुसतणयहिं । १२३. कारण व्यतिकर, बनाव आ अर्थ अहिं अभिप्रेत छे. १५१. छंदोभंग; हस पहुने बदले हंसपहु वांचीए तो आ भूल दूर थाय. १७५. जिह ण होइ पडिवारें तिथ मह संस्कृत टिप्पणीमा पुनः स्त्री न भवामि एम आपेल छे; ए अर्थ लावतां मइ ए प्रथमा = अहंना अर्थमा लेवुं पडे छे. सि. हे मां आ प्रयोगनो आदेश नथी. अर्वाचीन भाषामां मेंनो प्रथमामां प्रयोग हिंदीमां छे. २०३. छुड छुड जुओ सदर प्रन्थ उद्धरण १. पं. ७५. भ. क. IX. 6. 6. अर्थ बन्ने स्थळे सरखो ज छे. १०६. भरहेसरहु जेम पुरदेवें जेम पुरदेव = ऋषभनाथ आदि तीर्थकरे भरतेश्वरने धर्म कह्यो हतो तेवी रीते. २०७. तवचरित्तवरदंसणणाणई [ तपःचारित्रवरदर्शनज्ञानानि ] जुओ तत्वार्थ ० १. १. सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः । आ बधानां पूर्ण लक्षण जाणवा आ सूत्र परनुं भाष्य जुओ. गूजराती वाचके पं. सुखलालजीनुं पुरातत्त्व मंदिर तरफथी प्रसिद्ध थएल ' तत्वार्थसूत्र' परनुं गुजराती विवेचन जोनुं. १०७ पंच वि गइउ संसारनी चार गति, नरकगति, तिर्यग्योनिमां गति, मनुष्ययोनिमां गति के देवयोनिमां गति भने पांचमो ते मोक्ष. ―――― Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०७ जीवगुणठाणई [ जीवगुणस्थानानि ] जैनदर्शनमा १४ गुणस्थान गणाव्यां छे. जेम जेम भव्य शुद्धतर थतो जाय तेम तेम क्रमे क्रमे उपरनां गुणस्थाने चढतो जाय अने छेवटे मोक्षे जाय. २०७ खममधम्माहम्मपुराणई [ क्षमादमधर्माधर्मपुराणानि ] जुओ तत्त्वार्थ० ९. ७. उत्तमः क्षमामार्दवार्जवशौचसत्यसंयमतपस्त्यागाकिंचन्यब्रह्मचर्याणि धर्मः । आथी विरोधी ते अधर्म. आम धर्म अधर्मनां पुराणां परंपरागत विवेचनो, .. १०८ जगजीवाउच्छेयपमाणई [ जगज्जीवायुरुच्छेदप्रमाणानि ] मोक्ष माटे आ बंधनोने तोडवां जोईए ते संबंधी प्रमाणो. - २१० समयपल्लरयणायरपुव्वई [ समयपल्यरत्नाकरपूर्वाणि । पल्योपम ए एक प्रकारचें कालमान छे; एटले के कामना विभागो अने ब्रह्मांडना विभागोनां विवेचनपूर्वक. २०९. लेसाउ लेश्याः ] छ प्रकारना ओप जे जीवने चढे छे ते. ते भोपने लीधे जीव संसारबंधनमांथी छूटी शकतो नथी. जैनपरंपराना रूढ शब्दोमां, कृष्णादि द्रव्यने योगे थता जीवना अध्यवसायविशेष-कृष्ण, नील कापोत, तेज, पद्म अने शुक्ल एम छ लेश्या. ४. २०९. अणुव्वयाइं [ अणुव्रतानि ] जुओ तत्त्वार्थ० ० १. हिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहेभ्यो विरतिव्रतम् । यतिवर्ग आ व्रतो संपू णताथी पाळे छे ज्यारे गृहस्थो आ व्रतोनी झीणवटने त्यागी आछेरां (अणु) व्रत पाळे छे. आम अणुव्रत एटले गृहस्थने पाळवानां व्रतो. . २११. सयभुभडारइण [ स्वयंभूभट्टारकेण ] पोतानी इच्छाए जेणे जन्म लीघेलो छे एवा पूज्य तीर्थकरे-महावीरस्वामीए. आमां कविए पोतानी नाममुद्रा पण आणी छे ते जोवी. आखी पंक्तिनो अर्थ:-जेम परम आगममा ( सिद्धांतप्रन्थोमां ) तीर्थकरभट्टारके कह्यां हतां ते प्रमाणे '; आसि [ आसीत् ] हतुं. Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ तृतीयमुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवनः आ उद्धरण चतुर्मुख स्वयंभूना हरिवंशपुराणमांथी लेवामां आव्यु छे. आ कवि अने तेना जीवन विषे प्रथम उद्धरणमा ऊहापोह करवामां आवेलो छे, आ प्रन्थमा ११२ संघि छे ते प्रन्थना समाप्तिवचन परथी मालम पडे छे: इय ऽरिडणेमिचरिए धवलइयासियलयंभुउव्वरिए तिहुवणसगंभुरइए समाणियं कन्ह कित्तिहरिवंसं ॥ गुरुपव्वनासभयं सुयणाणुक्कम जहा जाय सयमिक्क दुइह-अहियं संधोत्थ परिसमत्ताउ ॥ संधि ११२॥ भा प्रन्थ १४००० श्लोकप्रमाण छे. पउमचरियनी माफक चतुर्मुख स्वयंभूए आ प्रन्य अधूरो राखेलो; अने तेना पुत्र त्रिभुवन स्वयंभूए ते पूरो कये आ हकीकत सदर प्रन्थमां ठेरठेर वेरायलो प्रशस्तिगाथाओ परथी मालम पडे छे. त्रिभुवन स्वयंभूना नामनी प्रशस्तिगाथा संधि १०० ना अंतथी मालम पड़े छे: इय ऽरिडणेमिचरिए धवलइयासियसयंभुएवकर उवरिए तिहुयणसयंभुमहाकइसमाणिय समवसरणं णाम सउमसग्गो । एटले संधि १०० अने तेना पछीना संधि त्रिभुवन स्वयंभूए रच्या होय एम अधिक संभवित छे. परन्तु संधि ९२ ना अंतमा केटलीक गाथाओ छे जे बतावे छे के चतुर्मुखस्वयंभूए संधि ९२ रची प्रन्य अधूरो मूक्यो होवो जोईए: तेरह जाइवकंडे कुरुकंडेकूणवीससंधीओ तह सहि जुज्झियकंडे एवं बाणउदि संधीओ ॥ १ ॥ सोमसुयस्स य वारे तइयादियहम्मि फग्गुणे रिक्खे सिउ णामेण य जोए समाणियं जुज्झकंडं व ॥ २ ॥ छव्वरिसाई ति मासा एयारस वासरा सयंभुस्स बाणवइसंधिकरणे वोलिणो इत्तिओ कालो ॥३॥ दियहाहिवस्स वारे दसमीदियहम्मि मूलणक्खत्ते एयारसम्मि चंदे उत्तरकंडं समाढत्तं ॥ ४ ॥ घरं तेजस्विनो मृत्युन मानपरिखण्डनं मृत्युस्तत्क्षणकं दुःखं मानभंगो दिने दिने ॥ ५ ॥ Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૪ उपरनी गाथाओ हरिवंशपुराणनी रचना पर घणो प्रकाश नाखे छे. तेनो सार आ प्रमाणे छे:-१३ संधि यादवकांडना, १९ संधि कुरुकांडना, अने ६० संधि युद्धकांडना एम ९२ संधिओ थाय. (१) बुधवार, श्रीज, फाल्गुन नक्षत्र, शिव नामनो योग-आ समये युद्धकांड पूरो करवामां आव्यो. (२) छ वर्ष, त्रण मास अने अगीआर दिवस स्वयंभूने ९२ संधि पूरी करता थया, (३) रविवार, दशमी, गल नक्षत्र अने अगीआरमो चांद्रमास एटले भाद्रपदमा उत्तरकांड शरु को. (४) तेजस्वीने मानभंग करतां मृत्यु वहावं लागे छे; मृत्यु तो तत्क्षण दुःख भापे छे ज्यारे मानभंग तो हमेश दुःख दे छे. (५) ___आ गाथाओ त्रिभुवन स्वयंभूए रची होय एम लागे छे. कारण के ९२ संधि पूरी कर्या पछी चमुर्मुखनो काळ थयो होवो जोईए; अने पोताना पितानी कीर्ति अधुरी न रहे एटले थोडा समय पछी त्रिभुवने उत्तरकांडनो आरंभ कयों होवो जोईए. प्रन्थनी प्रशस्ति परथी एम लागे छे के १०९ संधि पछीना संधिओ त्रिभुवने नहि रच्या होय; कारण के त्यार पछीना अधुरा अन्थनो उद्धार यश-कीर्तिभट्टारके करेलो मालम पडे छे. एवो उल्लेख संधि १०९ने भन्ते छे: इह जसकित्तिकरणं पव्वसमुद्धरंणरायएक्कमणं कारायस्तुवरियं पयइत्थं अक्खियज्जइणा ॥ १ ॥ ते जीवंति य भुवणे सज्जणगुणगणह रायभावस्था परकव्वकुलं वित्तं विहडियं पि जे समुद्धरहिं ॥ २ ॥ एटले यशःकीर्तिए संधि १०२ पछीना भागनो सोळमा सैकामा उद्धार को. आ वातनो उल्लेख प्रन्थने अन्ते पण छे:सुणि संखेषु सुत्तु अवहारिउ विउसे सयंभे महि वित्थारि पद्धडियाछंदें सुमणोहरु भवियणजणमणसवणसुहंकरु जसपरसेसि कविहिं जं सुण्णउं जं उव्वरिउ किंपि सुणियाणहों तं जसकीर्तिमुणिहि उद्धरियउ णिएवि सुत्तु हरिवंसच्छरियउ णियगुरुसिरिगुणकीत्तिपसाएं किउ परिपुण्णु मणहो अणुराएं ॥ ____ा हरिवंशपुराणनी हायपोथी भांडारकर ओरीएन्टल रीसर्च इन्स्टीट्युट, पूना, नं. ११२० सने १८९४-९७ छे. हाथपोथीने छेडे: इति हरिवंशपुराणं समाप्तं । ग्रन्थ संख्या १८००० । संवत १५८२ वर्षे Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फा. घदि १३. ॥ लखेलुं छे; एटले सं. १५८२मां भा हाथपोथी लखेली छे एम मालम पडे छे. आ उद्घाण हरिवंशपुराणनो संधि २८ छ; अने ते हाथपोथीनां पत्र ११४ -१२० (अ) मांथी अहि ऊतारवामां आवेलुं छे आ उद्धरणने एक ज हाथपोथीनो आधार छे. आ उद्वरणमां पांडवाना विराटनगरमा अज्ञातवास अने ते अरसामां द्रौपदी प्रत्ये दुष्ट मोहथी नीपजतो कीचकनो वध - ए बे बाबतोर्नु वर्णन करवामां आव्युं छे. आ उद्धरणनी वार्ता जिनसेनना हरिवंशपुराण करतां महाभारतना विराटपर्व साथे वधारे साम्य धरावे छे; जो के कोइक स्थळे वार्ताने जैन मान्यताओने अनुकूळ झोक आपवामां आव्यो छे. २. उद्धरणवस्तुः-- द्रौपदीसहित पांडवो विराटराजना नगर तरफ गया; एवामां युधिष्ठिर पोताना चार भाई भने द्रौपदीने उद्देशी बोल्या, “ बार वर्ष आपणे दुःखमा गाळ्यां; हवे जेम भ्रमर कमलसरोवरमां छूपाई रहे तेम आपणे एक वर्ष विरा. टना घरमां छूपाइने गाळवानुं छे. त्यां सेवा स्वीकारवानी छ; अने ए तो जाणीतुं छे के योगोओने पण अगम्य एवो सेवाधर्म तमारे आचरवानो छे (१) माटे तमे जे जे सेवा करी शको ते मने जणावो. हुं तो कंक नाम धारण करी पृतना जाणकार अने सभामा बेसनार एवा राजाना पुरोहित तरीके रहीश." वृकोदर बोल्यो, “हुं बल्लव नाम धारण करी राजानो रसोईओ थईश." अर्जुन बोल्यो, “ हुं नृत्याचार्य बनी नरपतिनी कन्याओने नाच शीखवीश. (२) माझं नाम बृहन्नला राखीश; अने मारी कळामा मने कोइ पहोंची वळे तेवू नथी." नकुल कहे, “हुँ अश्वपति थईश." सहदेव कहे, "हुँ गायोनो पालक थईश.” (३) द्रौपदी कहे, “ हुं सैरंध्री थई मत्स्यराजनी राणोनी दासी थईश." आ प्रमाणे नक्की करी विराटनगरनी भागोळे ते बर्धा आवी पहोंच्या त्यां श्मशान हतुं अने एक भयंकर समडीनुं वृक्ष हतु. त्या नकुले हथीयार मूक्यां; अने बधां नगरमा पेठां. (४) जे प्रमाणे तेओए नक्की कर्यु हतुं ते प्रमाणे विराटराजना द्वारपाळने तेमणे जणाव्युं अने द्वारपाळे बधी हकीकत विराटराजने सविस्तर जणावी. विराटराजे तेमने बोलाव्या एटले जीवदया सहित जाणे पांच परमेष्ठी प्रवेश करता होय तेम द्रौपदीसहित पांचे य पांडवो विराटना दरबारमा प्रवेश्या. (५) आ प्रमाणे पोतानी सेवा बजावतां पांडवोए अगीआर मास पूरा कर्या; अने जाणे कीचकने माये कालदंड पडतो न होय तेवो बारमो Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मास बेठो. कीचकनी नजर द्रौपदी पर बैठी अने तेने कामदेवनो ताप बाळवा लाग्यो. ज्या ज्यां द्रौपदी जती त्यां त्यां द्रौपदीने अनेक प्रकारे कीचक काम याचना' करतो. एक दिवस द्रौपदीए तेने धूतकारी कान्यो भने का, "मारी सेवा पांच गांधों करे छे जे आ वात जाणतां तने यमराजने त्यो मोकली आपशे.” (६) परन्तु नवहजार हाथीओना बळवाळो ते कीचक द्रौपदीनुं मुख जोइ बोल्यो “मने ब्रह्मा विष्णु अने महेश कांइ करी शके एम नथी तो पांच गांधवों मने शुं करवाना हता ? मारा पर प्रसाद करी मने जीवार भने अर्धी पृथ्वी हुँ तारी आगळ धरीश.” छतां य द्रौपदीए तेने तरछोड्यो; अने कीचकनी तो नवमी कामावस्था थई. तेणे पोतानी व्हेन कैकेयीने कां "आ स्त्रीथी मारुं मन रजित कर; अने सुगंधपदार्थों आपी वेने तुं मारे त्यां मोकल." कीचके तो एकांतघरमां द्रौपदीने पकडी; पण जेम सिंहना हाथमांथी पोताना पुण्ये करीने हरिणी छटकी जाय तेम द्रौपदी छटकी अने कंक तथा विराटराज ज्यां हता त्यां करुण रुदन करती पहोंची. (७) भानभूलेलो कीचक जमदतनी माफक तेनी पाछळ लाग्यो. तेणे द्रौपदीने तेना केशपाशथी पकडी हात मारी. राजा अने युधिष्ठिरना देखतां ते मूर्छा पामी. भीमनो मोजाज गयो अने तेनी दृष्टि वृक्ष पर पडी, पण तुरत ज युधिष्ठिरे पोताना पगनो अंगुठो डाबी तेने अटकाव्यो. नगरनी स्त्रीओ व्याकुळ थई अने बोलवा लागी "ज्यां आवो मोटो माणस दुराचरण करे त्यां सामान्यमाणस शुं करे ?" पांचाली पण रडवा लागी, " जो आ नगरमा गांधर्व होय तो शुं विट कीचक मने भाम वगोवी शके ? (८) क्रीडा माटे तेओ क्यांक गया हशे अने तेथी ज मारे हैयाबळीने आम सोर पडे छे; जो पांचमांथी एक पण होत तो युद्ध माटे ठीक थात." आम द्रौपदी बोलती हती तेवामां सूर्यास्त थयो अने रात्रीए ते कोदर पासे गई भने पोताना कणी पडेला हाथ बतावती रडवा लागी. "तारा जीवतां मारी आवी अवस्था थाय छे. " (९) भीमे द्रौपदीने आश्वासन आपी आववानुं कारण पूछयु. द्रौपदीए दरेकनी दुर्दशानुं वर्णन कर्यु; (१०) अने कहेवा लागी के “ अगीआर मास उपर पंदर दिवस थया छतां य दुःखनो छेडो भावतो नथी." भीमे आश्वासन आप्यु, "तुं शा माटे रडे छे; आंख लुंछी नांख. ते संसारधर्म नीरख्यो नथी. पूर्वजन्मनां कमरूपी वृक्ष केटलुक सुख अने केटलुक दुःख एम बे फळ आपे छे. शुं रावणे सीताने ओळु दुःख आप्यु हतुं ? (११) गई काले में कीचकने मारी नाख्यो नथी; पण आजरात्रे तो ते मारा हाथे मरशे ज. तुं एनी साथे रात्रे संकेत करी तेने नृत्यशालामा लाव." द्रौपदी हर्षे पामी अने पोताना निवासे गई. अने बीजा दिवसनो सूर्य ऊग्यो Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाणे जेणे द्रौपदीनो केशकलाप खेच्यो हतो ते मरी गयो के केम ते जोवाने न ऊग्यो होय ! (१२) बीजे दिवसे पांचाली कीचकनी पासे गई; कीचूके तेने बोलावी अने का, “जो तुं मने एक ज वार आलिंगन आपे तो तुं मागु ते वैभव तने आपुं."(१३) कीचके जे कडं ते द्रौपदीए मान्यु अने तेने नृत्यशालामा रात्रे आववानो संकेत गोठवी भीमने बात करी. रात्रे कीचक नृत्यशाला तरफ पोतानी सेना लई गयो. भीम तो त्यां पेसीने ज रह्यो हतो अने कीचक आव्यो एवो ज लेणे तेना केशपाशथी तेने पकडयो. कीचकने लाग्यु, “ आ द्रौपदोनो हाथ न होय; खरेखर गांधर्व ज मने मारी नाखे छे." (१४) कीचके जेम तेम करीने भीमनो प्राह मूकाव्यो अने कहेवा लाग्यो, “ गांधर्व, तुं शा माटे युद्ध करवा आव्यो छे ? हुं नवहजार हाथीना बळवाळो कीचक छु; अने माकं मरण जेनी वसुमती नामनी प्रियाने हुं ऊपाडी लाव्यो हतो ते भीमने झये छे." भीमे बधा पांडवोनुं ओळखाण आप्यु अने पोते भीम छे एम जणाव्यु. आ जाणी कीचके भीमने आह्वान आप्यु. (१५) बन्नेयर्नु मल्लयुद्ध जाम्यु; अवे ते द्वंद्वयुद्धमा कीचके भीमने मुष्टिप्रहार कयों. भीम लोहीनो उलटी करी अने जेम तेम करी ते उभो रही शक्यो. (१६) भीमना मनमां घडीभर एम ज थयं "शुं मारो यश आ द्वंद्वयुद्धमा हणाई जशे ? " परंतु धीरज धरी तेणे फरीथी कीचक उपर हुमलो कयों अने तेने यमसदन पहोंचाडी दीधो. तेणे तेना हाथपग भांगी मांसना लोचा जेवो तेने करी नाख्यो. भीमने बहार काढी द्रौपदीए वहार आवी जणाव्युं 'कीचकने गांधवोंए मारी नाख्यो छे." मा सांभळी 'कीचकने कोणे मार्यो ?” एम कही मोटा योद्धाओ दोडया अने कीचकना सो भाइओए घरने घेरो घाल्यो. (१७) प्रकाश करी बधाए जोयु, त्यारे “खरेखर कीचकने मांधर्वोए मार्यों छे कारण के तेना पर घा सरखो य देखातो नथी." एम तेमने मालम पडयु. एक बाजुए द्रौपदी शून्यवत् उभी हती; बधायने शंका थई के कीचक द्रौपदीने खातर मरी गयो. कीचकना सो भाइओ "सवार थवा देवानी के राजाने पूछवानी शी जरुर छ ?" एम कही कीचकनी ठाठडी उपर द्रौपदीने नाखी मसाण तरफ चाल्या. ( १८ ) द्रौपदीए आकंद करवा मांडयुं, “हे गांधर्वो तमे क्यां मर्या छो ? " भीमथी न रहेवायं; पोताना केश छूटा करी, वृक्षने ऊपाडी, राक्षस जेम कीचकना भाइओ पर धस्यो. कीचकोए ठाठडी छोडी दीधी. वात फेलावा मांडी के कीचको मराया. वृकोदर घेर पाछो वळ्यो अने सूरज ऊग्यो. मत्स्यराजना मनमा संकल्प थयो भने तेणे कैकेयीने जणाव्युं, "द्रौपदीने घर बहार काढो." एटलामां द्रौपदी पोतानां अंगोपांग धोई कोइ देवतानी माफक नगरमां पेठी; भने एकदम बृहमला पासे Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૨૦ ." गई. जेवी छुपी रीते ते बृहन्नलाने कहे छे के " तुं उत्तरानी साथे नृत्यक्रीडा कर्यां पछी तारे घेर जजे,” एटलामां तो सुज्येष्टानी वाणो ऊछळी ' तुं चाली जा, अने तारा नगरने अने राजाने सुख आप " द्रौपदी गुस्से थई. जातुं मने काढी मूकोश तो हुं आखा नगरनो विनाश करीश जो तेर दिवस तारा घरमां तुं मने स्थान आपीश, तो तुं अने तारो पति पूर्ण मनोरथथी राज्य भोगवी शकशो. " ३. पद्यरचनाः सामान्य रीते दरेक कडवकमां ८ पंक्तिओ अने २ पंक्ति घत्तानी मळी १० पंक्तिओ छे. चतुर्मुख स्वयंभूनुं आ लखाण होवु जोईए तेने आथी टेको मळे छे. घत्ता अने ध्रुवकनो छंद चतुष्पदी प्रकारनो छे अने दरेक पंक्तिमां २६ मात्रा छे; अने ९+१४ = २३ एटले ९ मात्रा पछी यति छे. हेमचन्द्रना छं. शा ६ पत्र ४०. (अ) प्रमाणे केतकीकुसुम आ छंदनु नाम छे हेमचन्द्र आ दृष्टान्त आपे छे;- ओजे दश समे पश्चदश केतकीकुसुमम् । यथा, बिंबालिउ भुवणु नवकेयइकुसुमपराइण । नं अहिवासिअ मयरद्धयकम्मणजोइण ॥ कवकना देहनो छंद हेमचंद्रना छं. शा. ६ पत्र ४३ ( अ ) प्रमाणे पारणक छे: चितौ षचपा वा पारणकम् ॥ चतुर्मात्रत्रयं त्रिमात्रश्च यदि वा षण्मात्रचतुर्मात्रपञ्चमात्राः पारणकम् । यथा, अहिं होएसइ तं दिवसु, आणंदसुहारसपावणउ होहि प्रियमुहससिचंदिमई, जहिं नयणचउरद्द पारणउ ॥ आमां अने आपणा कडवकना देहना छंदमां एटलो ज तफावत छे के आपणा उद्धरणना छंदमां दरेक पंक्तिनां बब्बे चरणना अन्तनो प्रासमेळ छे; ज्यारे हेमचंद्रना उदाहरणमां बब्बे पंतिना अन्त प्रासमेळथी बद्ध छे. दा. त. तो भणड जुहिट्ठिल भायरहो सम्भावणेहगुणसायरहो । ४. टिप्पण: ३. जुहिट्ठिलु [ युधिष्ठिरः ] जुओ सि हे. ८ । १ । ९६ । जहु लो जहिहिलो । एम आदेश छे. वळी जुओ सि. हे. ८/१/१०७,२५४. ३. भणइ भायरहो छट्ठीना रूपनो द्वितीयारूपे प्रयोग हेमचंद्र नथी आपता; परंतु मार्कण्डेय प्रा. स. १६. ११. वे नोंघे छे. Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ "-१२. पंक्ति ११ अने १२मां ९+१३=२२ ए प्रमाणे मात्रा छे; ज्यारे ९+१४२३नो छंद आह अपेक्षित छे. सरखावो सेवाधर्मः परमगहनः योगिनामप्यगम्यः । १८. बुज्झणउ, जुज्झणउ धातुने अण लगाडी बनावेला विशेषणो. २२. बिहंदल सं. बृहन्नला > बिहन्नल > बिहंदल. सरखावो. गु. पांदड २४-२६. अर्जुन बहनलाने आवश्यक एवी पोते कइ कइ विदग्धताओ धरावे छे तेनुं वर्णन करे छे. गुंथेवइ, नच्चेवइ, गाएवइ अने वाएवइ ए शब्दो नाम तरीके वपरायला विध्यर्थ कृदंतो होई सप्तमीमां छे. 'गुंथेवइ वेणि पईहरिय' एमां वेणि खरी रीते द्वितीयामा छे परंतु अर्थस्पष्टता खातर छायामां ए शब्द छट्ठी विभक्तिमा मूक्यो छे. पईहरिय ए एक सूचन प्रमाणे प्रदीर्घिका होय; परन्तु अहिं प्रक्रमभंगना दोषथी विमुक्त रहेवा प्रतिगृहिका-दासी ए अर्थ लीधो छे. पईहरिय शब्द पईहरमांथी लोधो छे. जुओ उद्धरण १. पं. ९. परन्तु आथी पण उत्तम अर्थनिर्वाह बीजी रीते थई शके एम छे. गुंथवी-गुंथेवि य इ० (-प्रथित्वा च वेणी प्रदीर्घिकां या कृष्णभुजङ्गरनुहृता । सरखावो विराटपर्व. ३. २७. पिनद्धकंबुः पाणिभ्यां तृतीयां प्रकृतिं गतः । वेणीकृतशीरा राजन् नाम्ना चैव बृहन्नला ॥ २७. जमलजे? नकुल २८. पध्धुर मूळमां पाठ पद्धर छे; दे. ना. मा. ६. १०. पद्धरमज्जू एम आपेलुं छु. तेने अनुसरो सरलान् एम संस्कृतछाया करेली छे. मूळमां करेलो सुधारो दप्पुध्धुरनी साथे प्रासमेळ लाववा करेलो छे. एम सूचित छ ज के 'जे अश्वो दर्पने लीधे धुरामांथी छटकी जाय छे तेने बरो. बर ताबेदार हुँ बनावीश.' पद्धर उपरथी गू. पाधरो. २१, जोइसिउ [ज्योतिषी ] सहदेव. ३०. धणु सरखावो गू. धण. ३८. दणुदेहवियारणइं आ पंक्ति दूषित छे कारण के दनुमाथी बनुज अर्थ घटाडवो पडे छे. Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९-४०. सरखावो भविसयत्तकहा १. ५. नी पत्ता तहिं गयउरु णाउं पट्टणु जणजणियच्छरिउ । णं गयणु सुएवि सग्गखंड महि अवयरिउ ॥ मेघदूत १. ३०. स्वल्पीभूते सुचरितफले स्वगिणां गां गतानां, शेषैः पुण्यैर्हतमिव दिवः कान्तिमत् खण्डमेकम् । ४६. चलत्थु-चलार्थः कदाच मूळपाठमां चलित्तु-चलित्र 'चंचळ'ना अर्थमां होय एम संभव छे. ५०. पंचपरमेष्ठि ते अर्हत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय भने साधु. ५३. आयल्लय जुओ टिप्पण उद्धरण. २. पं. १४. ५४. उक्कोवणइ स्पष्टता खातर उत्कोपनानि ए संस्कृत छाया सारी छे. ५४. उज्जंगल दे. ना. ७. १३४. उज्जंगलं हढे दीहे। ५५. थणयल [स्तनतल तलनो अर्थ सामान्य सपाटी एम लेवानो छे; संस्कृतमा स्तनतट ए शब्द सुप्रसिद्ध छे, अने ए छाया करीए तो पण वांधो नथी. ६१. णवणायसहासबलु नव हजार हाथीना बळवाळो; आ ज प्रमाणे भीमर्नु पण वर्णन सदर उद्धरण पं. १५१.; पं. १८७ णडणाय शब्दथी कीचकना भाइओने वर्णव्या छे; अथवा पछो कीचकने पण वर्णव्यो होय कारणके पूर्वापरसंबंधे बन्ने य अर्थ बेसता छे. ६५. णवमी कामावत्थ हुय तेनी नवमी जडतानी कामावस्था थई. दश कामावस्थाओ नीचे प्रमाणे छे:दशावस्थः स तत्रादावभिलाषोऽथ चिन्तनम् । स्मृतिर्गुणकथोद्वेगप्रलापोन्मादसंज्वराः । जडता मरणं चेति दुरवस्थं यथोत्तरम् ॥ (दशरूपक. ४. ५२. ) तेज प्रमाणे जुओ साहित्यदर्पण ३. १९०. । : - अभिलाषश्चिन्तास्मृतिगुणकथनोद्वेगसंप्रलापाच उन्मादोऽथ व्याधिर्जडता मृतिरिति दशात्र कामदशाः ॥ ६६. मणु रंजहि आयहे तीमइहे आमां तीमइहे-स्त्रियः छाया करी छे; कदाच लहियानी भूल के एवं कांइ होवा संभव छे. बाकी अर्थ तो छायानो ज ठीक छे. Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१ ६७. समालहणु [ समालंभन] चंदन विगेरे देह शोभाववाना पदार्थो वि. प. मां सुरा अने अन्न लई द्रौपदीने मोकलवामां आवे छे. ६८-७०. पंक्ति ७०ना द्वितीय भागमां बे मात्रानी तूट छे. पोताना पुण्ये करीने केमे करी सिंह पासेथी छूटेली हरिणी जेम ज्यां कंक अने विराट हता त्यां करुण रुदन करती ते पहोंची. ७१-७२. सरखावो वि. प. १७. तां कीचकः प्रधावंतीं केशपाशे परामृशत् । अथैनां पश्यतो राज्ञः पातयित्वा पदाऽवधीत् ॥१० ७३ - ७५ सरखावो वि. प. १६. तस्य भीमो वधं प्रेप्सुः कीचकस्य दुरात्मनः । दंतैर्दतांस्तदा रोषान्निष्पिपेष महामनाः ॥ १४ ॥ + + + अथावमृगादंगुष्ठमंगुष्ठेन युधिष्ठिरः । प्रबोधनभयाद्राजा भीम तं प्रत्यषेधयत् ॥ १७ ॥ तं मत्तमिव मातंगं वीक्षमाणं वनस्पतिम् । स तमावारयामास भीमसेनं युधिष्ठिरः ॥ १८ ॥ ७४. मरुमारमि छायामां म्रिये मारयामि एम लखेलुं छे; परन्तु ए अर्थ खरो नथी. खरी रोते भारवाचक द्वित्व होवा अत्रे संभव छे. सरखावो सदर उद्धरण पंक्ति १६९. मरुमारिउ कीचकु केण । ७८. काईंनी छाया किमपि त्यजी किम् एम छाया करवी ठीक पड. " ज्यां मोटो माणसं ज दुश्चरितनुं आचरण करे त्यां सामान्य माणस करे शुं ? ' "" " पोतानी क्रीडाए ८१. नियकीलई मच्छु कहि मि गय ( = स्वैरताथी ) एकदम क्यांक गया छे.' मच्छुडु = मंछुड. सरखावो भ.क. ९. ५. १-२ तं पिक्खतु मुसद्द मइविंभउ " अस्थि किंपि सुह+म्महो संभउ | सच्चउ संविहाणु फलु दोसइ लइ मंछुड सुहिसंगमु होस | मंछुड, मच्छुड मंक्षु ८२. जुप्पइ [ युज्यते | सि. हे. ८ । ४ । १०९ । ८४. कउहंतरकसणीकरणखमु दिशाओना अंतरने श्याम करवा समर्थ एवं अंधार. ८७. उज्झर प्रवाह; वल्लुर = वन दे ना. ७. ३६. वल्लुरमरणं । ९०. पई जीवंतपण महु पही भइय अवस्था तृतीयानो सति Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ सप्तमीना अर्थमां प्रयोग भइयसं भवित * ; एही रूप पण जोवा जेवुं तो छे ज. १००. पुरा इयरुक्खु पूर्वजन्मरूपी वृक्ष. ११३. नरिंद युधिष्ठिर तरफथी. ११४. अज्जोणिय - कल्लोणिय आजनुं, कालनं; लगाडेलो प्रत्यय जोवा जेवो छे. ११६. तुंगि रात्रि. अदृश्यमानस्तस्याथ तमस्विन्यामनिंदिते । वि. प. २२. ३७. ११७. गय णियथलि हेलणु दुमयसुय - आने गय नियय-निलणु दुमयसुय द्रुपद राजानी सुता पोताने गृहे गई. निहेलणु-दे ना. ७. ५१. णिहेलणमगारजघणेसु । १२४. णत्थि हत्थियसाहणई आ वाक्यमां नाम बहुवचनमां छे ज्यारे णत्थि एकवचनमां छे; परन्तु णत्थिनो अव्ययात्मक प्रयोग जे अर्वाचीन गुजरातीमां रूढ छे ते अपभ्रंशमांथी आवतो देखा दे छे. १२५. किं कमलसमाणु ण मुहकमलु आमां उपमान कमलन पुनरुक्ति छे. ए दोष छे. १२७. लइ आज्ञार्थ बीजो पुरुष एकवचन / ला १२७. मंठ दे ना. ६. १११. टीका मंठो बंध इति केचित्पठन्ति । १३१. जं करतां तं सुधारो ठीक थशे. १३६. जहि सीहु कुरंगहो कमु करिवि जेम सिंह मृग तरफ फाळ मांडीने. १३७. घंघु. दे. ना. २. १०५. घरे घंघो । घर सरखावो गू. घंघोलिउ. १३७. पिडु 'पाइअसद्द महण्णवो' आ शब्दनो 'अधीनता' अर्थ नौघे छे. पेटको अर्थ 'कांह पकडवा माटे आंगळीओसहित लंबावेलो हाथ एम पण थाय छे " १४४. वसुमइ - अवहरणु भीमनी वसुमती नामनी स्त्रीने ते वरो गयो अने तेने लीधे कीचकने भीमसेनना हाथे मरवानुं हतुं. १४६. मत्थाणयरुमां म् उच्चारसरलता खातर करवामां आवेलो छे. १४६ - १४८ पांडव अने द्रौपदीनां ओळखाण भीम कीचकने करावे छे. Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५८. आहित्थ दे. ना. १. ७६. चलियकुवियाउलेसु आहिन्थो । महि शब्दना प्रयोगमा पुनरुक्तिदोष आवेलो छे. १. ओहुल्लिय दे. ना. १. १५७. मां ओहुर शब्द छे; ओहुरं च खिण्णम्मि । टीकामां ओहुरं अवनतं त्रस्तं चेत्यवन्तिसुन्दरो । भ क. १४. ११. ५. कोवि भणई नवि बंधमि फुल्लई जाम न वइरिमुहइ ओहल्लई । परन्तु छंदने अनुसरो भ. क. मां ओहुल्लई वांचq ठीक छ; अने 'खिन्न' अर्थ बरोबर बेसे छे आ शब्द उद+ /फुल्लना विरोधार्थी धातु अव+ /फुल्लमांथी उत्तीर्ण थएल होवो जोई ए. सरखावो गू. 'पाक ओलाइ गयो.' १७०. पंचजणाहिएण पंचजन=सर्वे जन, आखं जगत; तेना शत्रुरूप, १७१. णिज्झाइउ [निध्यात] — जोयु ' ना अर्थमां. १७७. उहुनो पश्यत अर्थ कयों छे; परन्तु आ पाठ सुधारी इह के एहु करी तेनो एषः अर्थ करी कीचकने लागुं पाडी शिकाय, १७४. आ पंक्तिनो अर्थः-" आम त्यारे प्रभात थवानी राह जोवानी य शी जकर छे अने वळी राजाने पूछवानी य शी जरुर छ ? " वि प. २३. ददृशुस्ते ततः कृष्णां सूतपुत्रा: समागताः । अदूराच्चानवद्यांगी स्तंभमालिंग्य तिष्ठतीम् ॥४॥ समवेतेषु सर्वेषु तामूचुरुपकीचकाः । हन्यतां शोघ्रमसती यत्कृते कीचको हतः ॥ ५ ॥ अथवा नव हन्तव्या दातां कामिना सह । मृतस्यापि प्रियं कार्य सूतपुत्रस्य सर्वथा ॥ ६ ॥ ततो विराटमूचुस्ते कोचकोऽस्याः कृते हतः । सहानेनाद्य दोम तदनुज्ञातुमर्हसि ॥ ७ ॥ पराक्रमं तु सूतानां मत्वा राजाऽन्वमोदत । एटले वि. प. मां कीचको राजानी रजा ले छेः आपणी कथामां तेओ रजा लेवानी जरुर जोता नथी. १८०. सवडमुहु दे. ना. ८. २१. सवडंमुहो अहिमुहे। .. १८२. वि. प. २३. १२. जयो जयंती विजयो जयत्सेनो जयद्बलः। १८३. कुहिणिहि-रथ्यासु दे. ना २. ६२. कुहिणी कुप्पररच्छासु । जुओ वि. प.२३. ततः स व्यायतं कृत्वा वेषं विपरिवयं च॥ १७ ॥ अद्वारेणाभ्यवस्कंद्य निर्जगाम बहिस्तदा । स भीमसेनः Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राकारादारुह्य तरसा द्रुमम् ॥ १८ ॥ श्मशानाभिमुखः प्रायाद् यत्र ते कीचका गताः । स लंघयित्वा प्राकारं निःसृत्य च पुरोत्तमात् । लवेन पतितो भीमः सूतानामग्रतस्तदा ॥ १९ ॥ १४४. नोक्खि सि. हे. ८।४।४२२. नवस्य नवखः । गू. नोखी नव+स्वार्थ प्रत्यय (क्क>) क्ख = नवक्ख के नोक्ख. श्री. नरसिंहराव (प्रा. अण्णवक्खय <सं. अन्यपक्षक G. L. L. Part I. p. 371. १८७. णवणाय पण? पइट्ट कहि नवनागो एटले कीचकना सो भाईओ नाश पाम्या. एम वात प्रसरी. कहि 'कथा' ए विचित्ररूप छे; परन्तु भावां रूपो अपभ्रंशमां बनतां हता. १८८. पल्लट्ट सि. हे. था।६७. पर्यस्तं; ते उपरांत ८॥ २॥ ४७। G. P. 130. 285. १८९. अणियमल्ल अनिहत एटले हार्या नथी तेओमा मल्ल एटले श्रेष्ठ. १९०. मा पंकिनी छाया सुधारी वांचोः कैकेयी शिक्षयति "सैरन्ध्री निवासात् प्रतिसारय " आ माटे जुओ वि. प. २४. सु. देष्णामब्रवीद्राजा महिषों जातसाध्वसः । सैरंध्रीमागंतां बयां ममैव वचनादिदम् ॥ १९२. भविति देवी. १९४. परछण्णपउत्तिहिं गुप्तप्रवृत्तिओथी, गुप्त संज्ञाओथी. १९५. अप्पणउ णिहेलणु जाइ - संस्कृतछाया सुधारो आत्मनः इं याहि । जाइ< जाहि <सं. याहि. १९५. सुजे? [ सुज्येष्ठा ] चि. क. मां सुदेष्णा; जिनसेनना हरिवंशघुसणमा सुदर्शना नाम छे. २००. भा पंक्तिमा सरंभुनी मुद्रा छे. Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्थमुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवनः हरिवंशपुराणनो संधि १०३ आ चोथा उद्धरण तरीके लेवामा भाग्यो छे. त्रिभुवन स्वयंभुए तेना बापे अधुरं राखेखें. हरिवंशपुराण केवी रीते पूर कयु तेनी चर्चा पण त्रीजा उद्धरणना प्रवेशकमां करेली होई तेनी पुनरुकि अहिं आवश्यक नथी. आ उद्धरणमां आपेली आदिगाथा अने छेवटनां समाप्तिवचन तथा गाथा, आ संधि त्रिभुवननो छे ए बतावी आपे छे. श्रा उद्भरणमा २५ कडवक छे. भाषावैचित्र्यना मुद्दाथी कर्ताए आ संधि रच्यो छे. एने लीधे आ भाग झाझो कोइए वांच्यो होय एम हाथप्रत परथी लागतुं नथी. वळी भाषा अपरिचित होवाथी लहीआए जेवू वांच्यु एवं लख्यु; अने वधारामा पोते य अढळक प्रमादो घूसाड्या होय तो तेमां कांछ नलाई जेवू नथी. आ उद्धरण त्यारे ज शुद्ध थशे ज्यारे आपणने आ अन्थनी चार पांच हाथप्रतो मळशे. नहि तो आथी ज आपणे संतोष मानवो रह्यो. २. भाषावैचित्र्यः कडवक १-५. मामधिका भाषामां छे, एम कुर्बाना कडेवाची मने भाषाना स्वरूप उपरथी मालम पडे छे. सि. हे. ८१२८७-८४।३०२॥ सुधी मागधीनी चर्चा करी छे. आ मागधीनां लक्षण संपूर्णतया आपण कडवकमां देखा देतां नथी. खास फेरफार र नो ल अने प्रथमा एकवचनमा ए प्रत्यय एम छे. जेम सामान्य अपभ्रंशमां महाराष्ट्री अने शौरसेनी प्रथमा एकवचनना ओनो उ करवामां आवे छे, तेम प्रथमाना एने अहिं इमां फेरवी नाखवामां आव्यो छे; कोइ वार र रहेवा पण दीघेलो देखा दे छे. कडवक ३. मां रनो ल बीलकुल करवामां आव्यो नथी. भाषावैचित्र्य खातर ज आ कुड़वक मूकवामा आव्यां छे ते तो देखाई ज आवे छे. कडवक. ११. मां ढक्कामासाकडवयं एम लखेलुं छे. मृच्छकटिकना टीकाकार पृथ्वीधरे अने मार्कण्डेये प्राकृतसर्वस्व १६मां आ भाषानी चर्चा करी छे. मार्कण्डेय आ भाषाने अपभ्रंश तरीके नथी गणावतो. तेने मते तो आ विभाषा छे. परन्तु ते हरिश्चन्द्र नाममा लेखकाने मास. १६. २.मा Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (प. ५७ ) टांके छः हरिश्चन्द्र स्त्विमा भाषामपभ्रंश इतीच्छति । अने तेना मतनो निरास करतां कहे छे के अपभ्रंशो हि विद्वद्भिर्नाटकादौ प्रयुज्यते । पृथ्वीधर भरतनाट्यशास्त्र । १७ । ५३। नो विभाषानी गणतरीनो लोक की ए विभाषाओने ज अपभ्रंश तरीके गणावे छे:-अपभ्रंशे-शकाराभीरचाण्डालशबरद्रविडोडजाः । होना वनेचराणां च विभाषाः सप्त कीर्तिताः ॥ त्यार पछी ते कहे छेः-ढक्कभाषापाठको माथुरद्यतकरौ। माथुरनी भाषानु दृष्टांत नीचे प्रमाणे छे: --- माथुरः-अले भट्टा, दशसुवाणाह लुद्धु जूदकरु पपलोणु पपलीणु । ता गेण्ह गेण्ह । चिट्ट चिट्ठ दूरात्पदिट्ठोऽसि । ( मृ. क निर्णयसागर. प. ४७) ___ माथुरः-अले, विप्पदीवु पादु । पडिमाशुण्णु देउलु । ( विचिन्त्य ) धुत्तु जूदकर विप्पदीवेहिं पादेहि देउलं पवितु । (प. ४८) - माथुरः- एसु तुमं हु जूदअरमण्डलीए बद्धोऽसि । (प. ४९) - माथुरः-तस्स जूदकलस्स मुहिपहालेण णासिका भग्गा। पृथ्वीधरनी ढक्कीमा (१) उकार प्रथमा अने द्वितीयामां (२) रनो ल विकल्पे थाय छे. (३) स्नो श विकल्पे थाय छे. (१) हु-खलु देखा दे छे. (५) स्स छठीमां छे. उपरना विशेषोमा विशेष (४) अने (६) महाराष्ट्री प्राकृतमा छे; (२) अने (३) मागधीनी असर बतावे छे; ज्यारे (1) अपभ्रंशने अनुवर्ते छे. पृथ्वीधर जाते ज कहे छे: लकारप्राया ढविभाषा । संस्कृतप्रायत्वे दन्त्यतालव्यसशकारद्वययुका च । पृथ्वीधरनी ढक्कोनू मागधी तरफनु वलण आम जणाई आवे छे. • मार्कण्डेय प्रा. स. १६मां ढकीनी विशिष्टता आ प्रमाणे बतावे छे:-(१) १. मार्कण्डेय प्रा. स. १६:... टाक्की स्यात् ‘स्कृतं शौरसेनी चान्योन्यमिश्रिते । हरिश्चन्द्रस्त्विमां भाषाभपभ्रंश इतोच्छति ॥ अपभ्रंशो हि विद्भिर्नाटकादौ प्रयुज्यते । उत्स्यात्पदान्ते बहुलं ए च टः-हं हुमौ भ्यसः ॥ आमो वा-हं किमादेः स्यात्प्राग्दीघश्च विधीयते । त्वमित्यर्थे तुङ्ग भवेत्-अहमथऽम्मिहुंममाः ॥ ममेत्यर्थे महुं च स्यात् यथा जिध-तथा तिध । . दिलमात्रमुक्तमुन्नेयं शेष शिष्टप्रयोगतः ॥ Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ प्रथमा अने द्वितीया एकवचनने अन्ते (९) तृतीया एकवचनने अन्ते ए दा. त. खग्गे पहरसि; खग्गेन पण थाय (३) भ्यः-हं के हुं दा, त. घरहुं पलिदु. रुक्खहं पडिदु (४) छट्ठी बहुवचन-हं के हुँ (५) किम् जेवा सर्वनामनुं हं आगळ काहं अने काणं (6) त्वम्-तुङ्ग दा. त. तुङ्ग सर्वविद्याप्रवीणु. (५) अहम् हुं, अम्मि, मम (८) ममन्महुँ (९) यथा-जिध अने तथा-तिध. मार्कण्डेय ढक्कीनु दृष्टांत टांके छ:-राउ असमसमरैकमल्ल मअणमणाहरदेहसोहु सकलशस्त्रास्त्रविद्याप्रवीणु । भा उदाहरण तो सामान्य अपभ्रंश जेवू ज छे. वे चार विशिष्ट प्रयोगो सिवाय स्वास अपभ्रंशथी जुदी पडती कोइ भाषा होय एवी विशिष्टतामो तो टाकीमा नथी ज, माथुरनी भाषाथी मार्कण्डेयनी टाकी जुदी छे. आपणा उद्धरणमा आपेली ढक्कीमां आ प्रमाणे विशिष्ट लक्षणो देखा दे छे. (१) प्रथमा एकवचनमा उ (२) भवदि अने संभवदि शौरसेनीना जेवां रूपो. (३) हु-स्खलु (४) छट्ठी एकवचनमा स्स रूप. (५) से-तस्य महाराष्ट्री अने अर्धमागधीमां देखा देतुं रूप. आ उपरांत बीजां लक्षणो जणातां नथी. आटला उपरथी भाषानुं स्वरूप नक्की करवू मुश्केल छे. वळी भाऱ्या कडवं एक वैदग्ध्य देखाडवा खातर ज लखेलुं छे; एटले मूळगत तत्त्वो माछा सांपडे छे. मृच्छकटिक, प्राकृतसर्वस्व के आपणा उद्धरण परथी भा भाषामां खास तत्त्वो कयां होवां जोईए ए नक्की करवं मुश्केल छे. प्रो. पीशल G. P. Einleitung 26. मां मृच्छकटिकनी ढक्की उपर टीका करता कहे छे, "शौरसेनी अने मागधी प्रमाणे ज, ढकीनी बाबतमा हाथप्रतोना पूरावा विश्वनीय नथी; अने वळी ढक्कीन साहित्य एटला ओछा प्रमाणमा छे के ए भाषा केवी हशे तेने माटे कोइ पण प्रकारनी चोखवट थई शके एवी नथी." ___आ भाषानुं नाम ढक्की हशे ? प्रो. पीशल G. P. Ein. 26. मां कहे छे के ढक्की ए पूर्वबंगालना ढक्का उपरथी हशे. प्रो. पीशलनु मानवं भूलभरेलुं छे. कदाच ते मृच्छकटिकनी हुक्कीनी मागधी असर परथी था अनुमान बांधवा दोराई गएला होगा जोइए. प्रीअरसने ( J. R. A. S. 1918. P. 875-883 ) एम बताव्युं के आ भाषानुं खरं नाम टाक्की होवु जोईए अने ते भाषा अर्वाचीन रजपुतानाना ईशान प्रदेशमा एटले जयपुर, टोंक भने पंजाबना अग्निकोणमा बोलाती होवी जोईए. प्रीभरसनना भभिप्राये, Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६८ टाकी भने गौजर अपभ्रंश एटले के सामान्य अपभ्रंश लगभग सरखां छे; तेथी करीने पूर्वोक्त निर्णय तेमणे बांध्यो छे. राजशेखरनी काव्यमीमांसा ( G. O. S. I. P. 51 ) नो श्लोक चोक्खं कहे छेः सापभ्रंशप्रयोगाः सकलमरुभुवः टक्कभादानकाश्च । आ उपरथी फलित थाय छे के मारवाड, टक्क अने भादानक एटले के ग्वालीअर बाजुनो प्रदेश आ देशोमां अपभ्रंशन व्यवहार हतो भने टाकी भाषा अपभ्रंशनी एक बोली होवी जोईए ए विधानमा कल्पनातिरेक नथी. एनी उकार बहुलता आ मान्यताने टेको आपे छे. ३. उद्धरणवस्तुः " आ उद्धरणनुं नाम बलपण्डु = बलप्रश्नः छे तीर्थकर नेमिनाथ द्वारका आवे छे. समवसरण भराय छे. नेमिनाथ धर्मोपदेश करे छे. त्यार पछी बलदेव प्रश्न करे छे. आ द्वारावतीनो नाश कोनाथी अने केवी रीते थशे ?" नेमिनाथ भविष्य भाखे छे. “ द्वैपायनना शापथी द्वारामतीनो नाश थशे अने कृष्णनुं मृत्यु जरत्कुमारना बाणथी थशे." आ भविष्यवाणी सांभळी सर्व यादवो अने यादव स्त्रीओना मनमां शाक व्यापे छे. वेटलाक प्रव्रज्या ले छे अने दुष्कर तप आदरे छे. आ कथा दिगंबर परंपराने अनुसरे छे. आ कथानी श्वेतांबर परंपरा जैनागमग्रन्थोना आठमा अंग-अंतगडदसाओमां वर्णवेली छे; तेमां बलदेव नहि पण कृष्ण नेमिनाथने प्रश्न पूछे छे. देशपरदेश विहार करी नेमिनाथ साधुसमुदाय साथे आवे छे अने रैवतक पर्वतना उद्यानमा वास करे छे. ( १ ) त्यारे कृष्ण पोतानुं सिंहासन मेली शिर नमावी सात पगलां भरी नेमिनाथने प्रणाम करवा जाय छे. (२) त्यार पछी बलदेव तेमने वांदवा जाय छे. (३) एमनी पाछळ सात्यकि, चारुणि, सढरि, द्वैपायन इत्यादि यादव, पोतानी स्त्री, मित्र भने शिष्य सहित मकरांक = प्रद्युन्न नेमि नाथने वांदवा जाय छे. (४) स्यार पछी रुक्मिणीनो पुत्र भानुकुमार वांदवा जाय छे. (५) आ कडवुं विषम छे; परन्तु कृष्णनुं वर्णन अहिं फरीथी करवा प्रयास छे. वर्षाऋतुना मेघसमा कृष्ण आगळ चाल्या; भने आ रीते कृष्ण, बलदेव अने बीजा यादवो साधे वांदवा चाल्या. (६) आ रीते समवसरण थयुं अने नेमिनाथ मां लक्षित थया हता तथा देवो तेमने निहाळता हता. (७) बलदेव अने गोविंद नेमिनाथनी स्तुति करे छे (८) आ प्रमाणे स्तुति करी यादवो समवसरणमां मनुष्योने बेसवाना कोठामां बेठा (९) कृष्ण अने नेमिनाथनी प्रश्नोतरी आ करवामां छे. (१०) जेम जेम नेमिनाथ भगवान धर्म कहे छे, तेम तेम Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 56 ८८ ( १४ ) आ यादवोने शोक .. सर्वज्ञनुं बोल्युं मिथ्या थतुं "" यादवने आनंद थाय छे; अमें एमनां वचनामृतो सांभळी सांभळी तेमने अभाव नथी थइ जतो. (११) बलदेव प्रश्न पूछे छे, आ द्वारकानो क्यारे विनाश थशे ? " नेमिनाथ उत्तर दे छे, आजथी बारमे वर्षे . " ( १२ ) बलदेव फरी प्रश्न पूछे छे, " त्यारे कृष्णनुं शुं थशे ? " नेमिनाथ जवाब दे छे " मद्यने ली भने द्वैपायनना शापथी द्वारामतीनो विध्वंस थशे; कौशांबीवनमां जशे ज्यां जरत्कुमारना हाथे तेमनुं मृत्यु कृष्णनां जन्मांतरो अने मोक्ष क्यारे थशे ते नेमिनाथ कहे छे. सांभळी बलदेवनुं मुख मेंस जेवुं कालुं थई गयुं अने बधा य था लाग्यो. (१५) प्रद्यम्न चिंता करे छे. नथी. यादवोनो तथा द्वारकानो पूरो विनाश थशे. आम संकल्पविकल्प करी कांचनमाला सहित तेणे तप आदर्यु. (१६) भानुकुमार, बीजा यादवो अने कृष्णनी राणीओए पण प्र म्ननी पाछळ दीक्षा लीधी. ( १७ ) बधा जनोए जातजातनां व्रत लीधां, तेनुं वर्णन आ कडवामां करवामां आव्युं छे. (१८) द्वैपायनने पोता थकी आ सर्व विनाश थशे, एथी चिंता थवा लागी एटले ते पूर्वदेशमां गयो अने त्यां तप करवा लाग्यो. (१९) जरत्कुमार पोताने हाथे ज कृष्णनो घात थशे एम विचारी पोतानां धनुष्य बाण लई दूर वनमां चाल्यो गयो. (२०) आ प्रमाणे थवा श्री कृष्णने बधुं शून्य लागवा मांडयुं. बलदेवना सारथि सिद्धार्थे एटलामां बलदेवनी आज्ञा मागी. (२१) बलदेवे अनुज्ञा आपी अने सिद्धार्थे घोर तप आदर्यु. बलदेव अने कृष्ण नेमिनाथने नमीने त्यांथी गया. अने राजकाज छोड़ी शोकनिमग्न थया. (२२) नेमिनाथनी धर्मप्रवृत्ति विविध प्रकारे वर्णवी छे. (२३) (२४) आ प्रमाणे प्रद्यम्न इत्यादि मुनिओ नेमिनाथ समक्ष तप आचरखा लाग्या अने सर्वे जनो भविष्यना क्लेशथी पीडित थई हर्ष अने विषादने पाम्या. (२५) ४. छंदोरचनाः ( १३ ) पछी कृष्ण "" थरों. त्यार पछीन आखु य उद्धरण भ्रष्ट छे; एटले छंदनो मेळ वारंवार तूटे ते स्वाभाविक छे. उद्धरणने मधाळे प्राकृतगाथा छे, सामान्य रीते गाथा १२÷१८। ११+१५॥ मात्राना मेळे होय छे प्रस्तुत गाथामां १२+१६ । ११+१४ ॥ मात्राओ छे. थानो अर्थ तो स्पष्ट छे; पण छंदनी दृष्टिए ते भ्रष्ट होवा वधारे संभव छे. आखा उद्धरणमां २५ कडवक छे. आखा संधिने उद्धरण तरीके लेवामां आव्यो छे. आदिम आखा संधिनो एक ध्रुवक छे. दरेक कढवकना आदिमां Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हेला छे. हेला ए एक प्रकारनो ध्रुवक ज छे. हेलानो छंद ६+४+४+४+४ =२२ मात्रानो छे. छ. शा. प्रमाणे भा छंद उदाहरणमा चार पंक्तिनो छे. जे जे स्थळे हेलामा मात्रानी भ्रष्टता आवी छे, त्यां त्यां टिप्पणीमां नोंध लीधी छे. कडवक ११ मां हेला नथी. घत्तानो- छंद २ बावीसमा कडवक सुधी २२ मात्रानो सामान्यतः कही शकाय; जो के भ्रष्टताने परिणामे हेलानी माफक घत्तामां पण मात्रानो मेळ संपूर्णतया देखातो नथी. कडवक २३नी घत्ता १४+१३=२७ मात्रा मेळे छे. कडवक २४नी घत्ता १६+१३=२९ मात्रा मेळे छे. कडवक २५नी पत्ता १५+१२-२७ ना मेळे छे.३ कडवकना देहमा केटलांक कडवकमां जुग जुदा छंदो छे. कडवक १मा १५ मात्रानो एकम छे अने दरेक बे पंकिए अन्त्यानुप्रास छे. आ छंद तृतीय उद्धरणनो पारणक छंद होई, हेमचन्द्रना उदाहरणने पूर्ण रीते अनुगमतो नथी. कडवक २.मां १६ मात्रानो छंद होई बे पंकिओ अन्त्यानुप्रासे छे. ६+४+६= १६ ए प्रमाणे आ छंदनो यतिक्रम छे. एक प्रकारनी पज्झडिआ आ छन्दने कही शकाय. छेवटना गणने अंते (--) बे द्विमात्रिक स्वरो छे. कडवक ३. मां १६ मात्रानो छंद छे. बे पंक्किए अन्त्यानुप्रास छे. पण वीजा कडवकथी फेर गणने अंते(~ ~)बे एकमात्रिक स्वर ए छे. छंदनुं नाम मूळमां मत्तमातंग आप्यु छे. आ छंदमां पण ६+४+६=१६नो यतिक्रम छे. भाने पण पज्झडिआनो प्रकार कही शकाय. कडवक ४.मां पण पज्झडिआ ज छे. कडवक ५. मां १. षश्चीर्युग्जो ली; हेला । षण्मात्रचतुर्मात्रचतुष्टयं सम. स्थानगतो जा लीर्वा हेला ॥ यथा, कोअंडं पमूणरइ गुणो महुयरा बाणा कामिणीण नयणा विलासगहिरा । समयतणू जडो सहयरो तुसारकिरणो हेलाए तहावि भुवणं जिणेइ मयणो ॥ १. मा हेलाछंद ज कही शकाय. ३. छं. शामां आ छंदोनां नामः-४२ (अ) १४+१३=अनंगललिता; ११ (१) १६+१=ओहुल्लणक; १५+२ = राजहंस. Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्विपदीसमुदायनो छंद छे. आ आखू कडवक भ्रष्ट छे; एटळे छन्दनी मात्रानो निर्णय करवो एटलो सहेलो नथी. कडवक ६.मां द्वितीय पंक्ति साथे अन्त्यानुप्रासी २२ मात्रानो छंद छे. आ कडवकमां पण भ्रष्टता बहु छे. कडवक. ७. मां २० मात्रानो छंद छे. कडवक भ्रष्ट छे. कडवक. ८.मां दरेक चरणनी २८ मात्रा छे. आ कडवक पण भ्रष्ट छे. कडवक ९-१३. मां १६ मात्रानो पज्झडिआ छे. कडवक. १४.मां १५ मात्रानो पारणक छे. कडवक, १५. मां प्रतिपादयमक शब्दालंकारयुक १६ मात्रानो पज्झडिआ छे. कडवक. १६. मां १५ मात्रानो पारणक छे. कडवक. १७-२५.मां १६ मात्रानो पज्झडिआ छंद छे. हाथप्रतनी भ्रष्टता भा उद्धरणना छंदोविवेचनमा मोटुं विध्न छे. . ५. टिप्पणः १-२. १३+१५नी मात्रामेळयुक्त उपगीति आ गाथा होय एवो संभव छे; मात्रानो मेळ मूळपाठमां मळ्तो नथी, ए पाठनी भ्रष्टता बतावे छे. मूळ हाथप्रतमां तिहुवणे हतुं ते सुधारी तिहुवणो करेलुं छे. ... ३. वम्मीसर-कामदेव. दे.ना. ७.४२.आ शब्द प्रचलित हतो. सरखावो छं.शा.पत्र ३३ (अ) २९ मा छन्दनु दृष्टान्तः-वम्मीसरकंचणतोमरललिया दिट्टा छुडु सुंदरि चंपयकलिआ । घुलिओ छुडु दक्खिणओ गंधवहो विललिओ ता पहियाण मणोरहो ॥ . ५-६. आ प्रथम कडवकना देहनी माफक मागधीमां छे ध्रवा कडवकना देहनी माफक ज मागधीमां ज छे. ध्रुवानो अर्थ जिनसेन हरिवंशपुराण सर्ग. ६१. श्लो. ११-१३ ने अनुसरी को छे; ते लोक नीचे प्रमाणे छे: ततः सुरवराभ्यो नानाजनपदाञ् जिनः । विजहार महाभूत्या भव्यराजी प्रबोधयन् ॥ उदीच्यान्नृपशार्दूलान्मध्यदेशनिवासिनः । प्राच्यानपि प्रजायुक्तान् स धर्म स्थापयन बहून् । विहृत्य चिरमीशानः पुनरागत्य पूर्ववत् । . . गिरौ रैवतिके तस्थौ समवस्थानमंडनः ॥ . . . प्रस्तुत ध्रुवार्नु मुख्य क्रियापद तो घत्तामा छे. ध्रुवानो अर्थ आ प्रमाणे छे:-" मध्यदेशमा प्रवेशी अने मध्यदेशमाथी पूर्वदेशमां सर्वे राजाओने, वैश्य, Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ द्विज भने क्षत्रियने धर्म संभळावी... (घत्ता ) ( १५ - १६) बहु काळे पोताना मुनिओ साधे भ्रमण करी पुनः पाछा रैवतकना उद्यानमा नेमिजिनेश्वर आव्या.” कवकना देहमां तो बधां नेमिनाथनां विशेषणो छे. नेमिनाथ यादवकुलना हता अने कृष्ण बळदेव इत्यादिना वडेरा हता. ू ७. हर ११. उद्धरिय १४ तामरसि आ स्थळोए न ल करवो जोईए. १४. मां तो तामलसिनी साथै ज कलसिनो अनुप्रासराग बराबर जामे. केटलेक स्थळे प्रथमा एकवचननो रहेलो ए इ समान ज लघु वांचवों. १३. थेलासण - स्थविरासन ब्रह्मानुं आसन एटले कमळ. दे. ना.५.२९. गोलव= गौरव, अभिमान अभिमानरूपी कमळना निर्मळ चंद्र जेवा; एटले के जेम चंद्रने जोतां कमळ वीलाइ जाय तेम अभिमान मात्र नेमिनाथने जोतां वीलाई जतुं. १३. सल्लत्तय - आधि, व्याधि, उपाधि. १५. बहविं काले = बहुना कालेन, बहविं ए खास रूप छे भ. क. संधि. १७. कडवक४. नी घत्ताः - बहविं कालेण पइविरहमद्दादुहखेविय | १८. २२ मात्राने बदले १९ मात्रा छे ३ मात्रानी तूर छे. २१. पायसणिप्पेहुणकलणार अस्पष्ट छे. अर्थ समजातो नथी. प्हुिण = मयूर अर्थ लई छायामां मात्र अर्थनिर्वाह कयों छे. २२ धुल< धउल= धवल; सामान्यतः कृष्णनां वस्त्र धवल नहि परन्तु पीत कहेवाय छे. २२. आ पंक्तिमा भने आखा कडवकमां वर्णवेलां कृष्णनां बाल्यकालनां पराक्रम जैन तेमज अजैन परंपरामां सरखां ज छे. विशेष जिज्ञासुए जिनसेननुं हरिवंशपुराण अथवा श्रीमद्भागवतपुराणनो दशम स्कंध जोवो. १९. आ पंक्तिमा कृष्णनी सामान्य बाल्यकाळनी क्रीडा वर्णवी छे. लंगदि = रंगति क्रीडाना अर्थमां; कमळ तोडवानी क्रीडा माटे सरखावो जिनसेन - हरिवंशपुराण ३६. ८-१०. ३०. माउल = मामो कंस. ३७. णिमल्लि ने बदले णिम्मलि वांचो. ३९. वेणुदारि एक राजानुं नाम छे. छ. पु. ५० श्लोक ८५० Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वेणुदारी व विक्रान्तः । बलदेव जेणे रणयुद्धमा वेणुदारी नामना शत्रुने भयभीत को हतो. ४३-४४ घत्ता २३ मात्रानी छे. आखी घत्तामा श्लेष छे. रेवती अने रोहिणी (नक्षत्रनां नाम) थी विभूषित तथा मघा अने हस्त नक्षत्रथी युत चंद्र जेवो पत्नी रेवती भने माता रोहिणी साथे मोटा हाथी पर जतो बळदेव लोकोथी गणायो. ४५-५६. आखू कडवक. ४. प्रद्युम्नने लागु पडे छे. संस्कृतछायामा बधा य यादवोने लागु पाडो जे भर्थ करवामां आल्यो छे ते तद्दन अघटित अने खोटो छे. अण्णु-अन्यः-प्रद्युम्न. जेन्यः (मागधी). जे पराक्रमो कड. वकना देहमां वर्णववामां आष्यां छे ते प्रद्युम्नने लागु पडे छे. ४६. सच्चइ-चारुणि-सढरी-दीवायणाऽणिरुद्धा - यादववीरोना नाम-सात्यकि, सारण, [चावणि (?) भ्रष्टपाठ ] सढरी (?), द्वैपायन, अनिरुद. ४७. मरंकि स्मित सहित' अर्थ छायामां लीधो छे ते खोटो समजवो; मूळ मयरंकि = मकरांकः, कामदेव, प्रद्यम्न अर्थमां ए शब्द लेबो सुसंगत छे. सरखावो सदर उद्धरण पं. २०६. आ प्रमाणे पाठ लेवाथी मात्रानी भ्रष्टता दूर थई चरणनो मात्रामेळ मळशे. ४४. प्रद्युम्न रुक्मिणीनो पुत्र तेथी ज रुक्मिणीना मनरूपी भुवनने आनंद थापनार ए विशेषण मूकवामां आव्युं छे. ४९. जे कंचणमालापरिहरणे-कंचनमाला प्रद्युम्ननी स्त्रीनू नाम छे. सरखावो सदर उद्धरण पंक्ति. २०५. ५०. जे सोलसमहलंभावर्णिण-कालसंबर विद्याधरने त्यां प्रद्यम्नने थएल सोल लाभ; जुओ जिनसेन. ह पु ४७ श्लो. ३०-४४. षोडशेष्यपि चैतेषु लाभस्थानेषु मन्मथम् लब्धानेकमहालाभं दृष्ट्वा विस्मितमानसाः॥ ५२. जे कुरुखंधावारविणासि-ह. पु ४७ श्लो. ९८. ततः शाबरसेनाभिः विद्यया विकृतात्मभिः । दुर्योधनबलं जित्वा कन्या मादाय खं ततः ॥ आ रीते दुर्योधननी सेनानो पराजय करी तेनी उदधि नामनी कन्याने प्रद्युम्न परण्यो. ५२. जे दुज्जोहणपहुसंफासि-जेणे दुर्योधनने मदद करी हतो. कृष्ण पांडवोना पक्षमा हता ज्यारे कौरवोना पक्षमा आखू य यादवकुल तुं. Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૪ ५१. तवसुय [ तपःसुत ] युधिष्ठिर णर=अर्जुन. ५४. बंदिणजण अन्भुद्धरणि जेणे केद थएला जनोने छूटा कर्या हता. ५७. प्रथम पंकि भ्रष्ट छे; एक मात्रा खुटे छे; एटले प्रथम पंक्तिनो aise भाग अस्पष्ट रहे छे. ताव हियोलियहिं अस्पष्ट छे. ५०. भाणुकुमार सत्यभामानो पुत्र. ५९-६२. कडवक ५. ना देहनो भाग घणो ज अस्पष्ट अने भ्रष्ट छे. मात्रामेळ कोइ पंक्तिनो बरोबर मळतो नथी. द्विपदीमां १२ मात्रा होवा संभव छे, अने त्यार पछीना छंदमां एटले पं. ६१-६२मां १४ मात्रा होय. मूळमां आ छन्दने मागधिका छन्द तरीके ओळखाव्यो छे. केटलोक भाग अस्पष्ट छे. संस्कृतछाया एमांथी अर्थ काढवानी प्रकाशदिशा तरीके ज गणवानी छे. ६७-६८. घत्ता श्लेषात्मक छे. ध्रुवकमां भानुकुमारने चंद्र साथै सरखावी, कवकमां अनेक विशेषणोथी तेनी प्रशंसा करो छे. घत्तामां प्रद्युम्ननां वखाण करी तेने सूर्य साधे सरखावी भानुकुमारनी संगतिए मूक्यो छे. कमलाणंदणु= (१) कमला-रुक्मिणीने आनंद आपनार (२) कमळने आनंद आपनार, वरदीहररु - (१ ) उत्तम दीर्घ हस्त युक्त ( २ ) उत्तम दीर्घ कारण युक्त. ६९-७०. हेला ज भ्रष्ट छे. एटले ७१-७८ पंक्तिओ कोने लागु पडे छे ते ज समजवुं मुश्केल छे. आम तो कृष्णने लागु पडती होय तेम लागे छे. जो के ए तो छन्दने अनुकूल लढण आपवा खातर होय तेम लागे छे. ७१. नारायण = नारा पाणी + अयन स्थान पाणीमां वास करनार विष्णुने ( = कृष्णने पोताने) प्रिय एवी कमलनी मालाने धारण करता; अष्टमीना चंद्र समा विशाल अने उन्नत भालयुक्त. ७३. हेमल-दल-हेमल कोइ राक्षसनुं नाम लागे छे, हेमनुं सैन्य, ७४. वलग्ग=आरूढ; वलग्ग < अवलग्न | छायामां विलग्न बतान्युं छे ते खोढुं समझ वुं. ७५. जे देशो जीत्या तेनां नाम गणाव्यां छे. ७९. हरि ने छूटा पाडो. तो हरि रामकामपमुहएहिं ३० ७१-७८ आखं कडवक भ्रष्ट थएल छे. सामान्यतः २२ मात्रानुं एक चरण छे, छेवटमां एनो संगीत अर्पतो अनुप्रास छे. ७८-७९ कदाच जुदो छंद होय; कारण के तेमां एनो अनुप्रास देखातो नथी मात्रामेळ बहु त्रुटीयुक्त छे. Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८१-८२. प्रथम पंक्तिमा मात्रामेळ लाववा जगज्जणिय वांचq ठीक - पडशे. बीजी पंक्कि घणी ज अस्पष्ट छे. संस्कृत छाया बीलकुल संतोषकारक नथी. - ८३. भामंडल (1) तेजमंडल (२) भामंडल नामनो योद्धो. ८३. सीहासण (१) सिंहासन (२) सिंहनी गुहा. ८४. जइमाला (१) मुनिओनो समूह (२) काव्यनी पंक्तिनी वचमां अटकवानां स्थळोनो समूह (The group of caesura). आ पंक्तिमा छन्दनो मेळ लाववा आदि णावइ ने बदले णं वांचो. ८९-९०. बोजी पंक्तिमा २१ मात्रा छे, जे खरी रीते २२ जोईए. ९१-१०१. नेमिनाथनी स्तुति. छन्द २८ मात्रानो छे. ९२. ४ मात्रा कमी छे; एटले छेवटना भागनो अर्थ बेसतो नथी. ९३. कुवइ कु-पृथ्वी+पति-राजा. ९४. खवण ने बदले खवणय वांचो; नहि तो एक मात्रा तूटशे. ' जेना यतिवर्गमांथी कामदेव दूर थयो छे' एम अर्थ कराशे. ७५. ९. मात्रा वधारे छे. पंक्ति बहु ज भ्रष्ट छे. जयथी पंक्ति आरंभाती नथी ए वळी तेना दूषणनो पूगवो छे. ९८. मात्रामेळ लाववा वलय अथवा जडिल दूर करवू पडशे. तेम ज मलिणिदियाण वांचीशुं तो वधारे स्पष्टता आवशे. ९९. ईसि चांचवं; नहि तो एक मात्रा खूटशे, पंक्ति अस्पष्ट छे; परंतु नेमिनाथनो श्यामदेह आछां कुसुमथी समुज्ज्वलित थयो हतो तेनुं वर्णन छे. १०. कमलाभव वांचो, नहि तो मात्रा खूटशे. पंक्ति अस्पष्ट छे. १०५. णरकोट्ठइ समवसरणमां माणसोने बेसवानो कोठो... १०६. भूरिसउ-भूरिश्रवाः एक राजा जेने यादवोए सहायों हतो. १११. चक्केसरु = चक्रवर्ती जरासंधने उद्देशी ए शब्द वापयों होवो जोईए. ११५. कोडिसिल एक योजन उंची कोटीशिला कृष्णे केवल चार अंगुलीना बळधी उछाळी. हती. जुओ. ह. पु. सर्ग. ३५, लो. ३२-४. Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२५. सव्वण्ह परखावो सदर उद्धरण पं. ११५. अर्वाचीन हीदीमा दिन्हा < प्रा. दिन. १९९. केवलवरलोयण-कैवल्य ए ज जेर्नु उत्तम नेत्र छे, अथवा कैवल्य तरफ ज जेर्नु उत्तम नेत्र छे ते, १३५-१४१. टाक्की भाषा, कडवू. चर्चा माटे भा उद्धरणनी प्रस्तावना जुओ. आखा कडवकमां यादवोनां नामो गणाम्यां छे. केटलांक नामो बीजा प्रन्योमाथी शोषी कढातां नथी. केटलांक नामो ह. पु. ५०.११३-१३३ अने त्रि. श. पु. ( हेमचन्द्र ) मां मळे छे. १३७. जउणसिदस्स दिवायणस्स यमुनामा रहेला द्वैपायनने; जैन. परंपरा द्वैपायनने यादवोमां गणे छे. कुसुमसर-प्रद्युम्न; अने तेनो पुत्र ते अनिरुद्ध. १४३. सस्स-श्वास, प्राणायम; शश्वत् ए छाया प्रमाणे 'सतत. ' १४४. मात्राभंग तेव त्यजी निवारी शकाय, जिहं यत्र अर्थ करवो पडे. संस्कृतछायामां सुधारो करवो. १४६. णाहि नेमिनाथने. आ हेलामा २१ मात्रा छे; ज्यारे आवश्यक छे २२ मात्रा. १४७. रोहिणी अने दशाई ( =यादवो ) नो लघु भ्राता वसुदेव - ते बन्नेनो पुत्र बलदेव. दश दशाहों:-समुद्दविजयो अक्खोभो थिमिओ सागरो हिमपं । अयलो धरणो पूरणो अभिचंदो वसुदेवो त्ति ॥ __ १५२. जिण सत्येण हे जिनदेव शस्त्रथी द्वारिकानो विनाश ज नथी थवानो, सत्थ-शस्त्र, शास्र, सार्थ, शस्तृ एम अनेक संस्कृत शब्दो- ते प्राकृतरूप थाय छे. उपरनो अर्थ योग्य लागवायी स्वीकार्यों छे. १५५. दारहो अने दारहोनो अन्त्ययमक. १५६-१५७. घत्तानी प्रथम पंकिमां पूरी २२ मात्रा छे; ज्यारे बीजी पंकिमां बे मात्रा खूटे छे. १५८-१५९ हेला २२ मात्रानी छे. बीजी पंक्तिनो छेल्लो अक्षर हाथप्रतमां नथी. १६७. पासहो-मारफते-through ना अर्थमा Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६७-१६८ घत्तानी प्रथम पंक्तिमा २२ मात्रा छे; ज्यारे बीजी पंक्तिमा २१ मात्रा छे. १६९. चंडकंड-काण्डनो अर्थ 'शर' 'सोटो एम बे छे. 'सोटो' अर्थ लईए तो धनुषनी पणछ बांधवानो सोटो. १६९-१७०. आ हेलानी प्रथम पंक्तिमा २२ अने बीजी पंक्तिमा १९ मात्रा छे एटले ३ मात्रा खूटे छे. १७१. परमाउ इ० आ चरणमा एक मात्रा खूटे छे. णिरुहणि वांचीए तो मात्रा मळी रहे. पसुणिरुहणि-पशु- निरोधन करनार एवा जराकुमारथी. परमाउपवण्णु-पोताना परम आयुने पामेला एवा कृष्ण. १७४. विच्छोइं < विच्छोह ( दे. ना. मा. ४. ६२. ) = सं. विक्षोभ. भविसयत्तकहामां विच्छोअ शब्द प्रयुक्त छे. महाप्राणलोपDisaspirationy दृष्टान्त. पूर्वगत सोमव्यंजननी असरथी मा लोप थवो संभवित छे. १७७. पंचमईने बदले पंचमए अन्त्यानुप्रासने अनुकूल थशे. १७८. अहमउ रामु आठमा राम, जैनपुराणो प्रमाणे बलदेव. १७९. आ वचन सांभळी नरेन्द्र काळोमेश पडी गयो. १७९-१८०. आ हेलामां पूरी २२ मात्रा छे. १८० मा थियउ ने बदले थिउ वांचो; गिंभयालेमां छेल्लो हुस्व छे. १८१-१९१ भाऱ्या कडवक प्रतिपादयमक छे. १८४ काम प्रद्युम्न; आ पछीनी बधी पंक्तिओमां सुभानु, भानु, शंब, अनिरुद्ध, निषध, नंद, द्वैपायन, पजर, सारण, सात्यकि, इ. यादवो छे. जुओ जिनसेन. ह. पु. ५०. नंद अने पंजरनां नाम शोधी शकायां नथी. १८४. सरामहो रामहो = पत्नीसहित (सह + रामा) बलभद्रनो देह कंपे छे. १८५. असुभाणुहिं संस्कृत छायामां अ-च अर्थ लीधो छ; अने 'लुभानु' एक यादवर्नु नाम, एम अर्थ कयों छे. असवः एव भानवः यस्य सः एम अर्थ पण करी शकाय. 'आत्म। एज जेना प्रकाशरूप छे.' १८५. सविलासंबही । अंब-ताम्र अर्थ दूराकृष्ट छे. अंब Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आम्ल खाटा मनवालो. मा प्रकारनो अर्थ प्राकृतमां थाय छे. आ अर्थ लेई स्वविलासाम्लस्य पोताना विलासो प्रत्ये जेनुं मन क्षुब्ध थई गयुं छे तेवो. १८६. अवलुअ जुओ. दे. ना. मा. १. ३६. अवलुआ-क्रोध. प्रथम अणिरुद्ध = जे पोताने वारी शकतो नी ते अनिरुद्धने क्रोध थवा लाग्यो. १८६. णिसढ-निःश्रद्ध अने निषण्ण एम बे अर्थ थई शके. - १८७, धक्कुदधुआ जुओ. दे. ना. मा. ५,६०. 'उल्लसित' धुक्कु धुअंत मंदगति, कंपना अर्थमां भ. क. मां छे. गोणंद-गो इंद्रिय+णंद भानंद-इन्द्रिओमां ज जेनो आनंद छे तेवा नंदने कंप थयो. . .. १८८. दुहलु दे. ना. ५. ४३. दुर्भाग्य; द्वीपमां निवास करता द्वैपायनने पोतार्नु दुर्भाग्य लाग्यु. १८८. जेनी भुजा ज (शत्रु माटे) पंजर समी छे, एवा पंजरने पण विकलता लागवा मांडी. १९०. कृष्णनी राणीओना नाम पद्मावती, गौरी, लक्ष्मणा. जुओ. अंतगडदसाओ ( Ed. M. C. Modi ) P. 25. line 11-12 पउमावई य गोरी गंधारी लक्खणा सुसीमा अ। जंबवह-सच्चभामा रूप्पिणि-मूलसिरि मूलदत्ता वि ॥ १९२. जउ पछी उल वांचो नहि तो बे मात्रा खूटशे. १९३-१९४. हेलानी बन्ने य पंक्तिओ २१ मात्रानी छे. सुसइने बदले सूसइ वांचो. १९९. दिणिहि खरी रीते दिण्ण-दैन्य होय; परन्तु छन्दोविन टाळवा दिण. २०१. सरखावो जिनसेन. ह. पु. सर्ग ६३. श्लोक ४४. इत्यनेकदिनरात्रियापनैः सोऽत्यतंद्रितमनोवचोवपुः । प्रत्यहं हरिवपुर्वहन भ्रमन् प्रत्यपद्यत रतिं न कानने ॥ २०४ उहयहिने बदले उहय वांचो: नहि तो एकमात्रा वधी जशे. माल राजानी पुत्री कांचनमाला अने कुरुपति 'दुर्योधननी पुत्री उदधि ए बन्ने ए. Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०५ णरणन्दणि-जनौने आनंद आपनार. दूसिय पांचो. पत्ता २२ मात्रानी छे. . २०७ भाणुकुमरु वांचो. भानुकुमार सत्यभामानो पुत्र. २०९-२१२. सुभानु, यदु, सुन्दर, सात्यकि, जयंत, पुरन्दर, कृपवर्मा, सार, सारण, दुंदुभि, वृकोदर, धर, धारण, देवसेन, शिबि, तेनो पुत्र, अपराजित, चिह्न, उद्धव, कांचन, नंद, रुद्र-ए यादवोनी नामावली आपी छे. . २०९. मूळमां सारणु छे; ज्यारे छायामां सुंदर छे. एठले छाया सुधारवी. २१४-२१६ कृष्णनी राणीभोनां नाम, रोहिणी एकलीने वार करतां. २१६ संबलि-श्यामला वांचो. २१९-२२० प्रथम पंक्तिमा २३ मात्रा छे; ज्यारे बोजी पंक्ति गय असेस सुरय-राग रूव-विभमस्स एम वांचवं. अर्थः-तपश्चरणथी महाव्रतयुक स्त्रीजनोनां रूप अने विभ्रमनी सुरतपरनी सघळी आसति जती रही. २२३ विरतं, सम्मत्तंनी साथे लेवं. विरत्तंमा छेवटनो तं अन्त्यप्रासमेळ माटे होय एम धारी विरक्ताः छायामां लखेलुं छे. २२६. साणत्थावियाई 'साण-शाण कसोटीनो पत्थर ' ए अर्थ छायामां लीधो छे. परन्तु संशा-साण अपभ्रंशनी छेवटनी कक्षामां थाय छे. अथवा सारामां सारो मार्ग तो सवणत्थावियाई-श्रवणस्थापितानि ए प्रमाणे सुधारो- करीने अर्थ करवो ए छे. २२७ उण्णय-इत्ता-उन्नतचित्ताः के उन्नतवृत्ताः एम संस्कृत छाया थई शके. २३२ कंज केश; केशर्नु उत्पाटन करे छे.. । २३३-२३४. घत्तामा २४ मात्रा छे. " २४५ दसवावालंकिउ अस्पष्ट अर्थ छे. २५२ उवलद्ध-ग्रहण करेलो छे, दाबी दीधो छे. २५३ खगिंदगमणु गरुडवाहन विष्णुं. .. २५४ सइ-स्वयं सदा, छायामां सदा छे; स्वयं वधारे ठीक छे. २५६ एक्क+अंगणइं त्यां (कौशांबीवनमा) कृष्णने एकल जर्नु पढशे; ज्यां पोतानी अंगनाओनो मेलाप कोइ पण रीते थई शकशे नहि. भाम अर्थ Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निर्वाह कराय. छायामा एक्कंगणा एकाकिनी एम अर्थ कों छे. परंतु तेने माटे काइ प्रमाण नथी. २५७ तत्ति चिंता. दे. ना. ५. २०, तत्ती-तत्परता. . २५८-२५९ पत्ता २२ मात्रानी छे. सोयावरुने बदले सोयवरु: शोकपरः वांचीशु तो एक मात्रा वषे छ ? नहि वधे. २६२ संस्कृतछायामा सुधारो; गुरुभ्रातुः सकेन वाँचो. २६४ सोयविओयमईद भयावणु एम छुटुं वांचीए तो वाक्यनो अर्थ पूरो थशे. २६५ पासावय वापदने अनुलक्ष १) पाशमः आवी पन्यां के ते पाश+आ/पद् (१) पार्श्व+आपद् आवक अने यादवोन अनुलक्षी-जेने भापद पासे आवी पीछे से - २६७ सिद्धार्थसारथिः भ्राता बलदेवनयान्वितः । बोधनं व्य. सने स्वस्थ प्रतिपाद्य तपोऽग्रहीत् ॥ अनसेन ह. पु. ६१. लो. ४१. सिद्धार्थ बलदेवनो सारथि तेम ज भाइ हतो. २७९-२८० बलदेव अने वासुदेव साये जाय छे. २८१-२०२ नो एक संबंध .. २८६ पंचवग्गेण होने पर द सामान्य रीते मानवामां आवे छे. सरखावो जिनसेन, इ.ए. सर्ग. १. श्लोक, ८४. सप्रकीर्णकनक्षत्रसूर्याचन्द्रमसो ग्रहाः । पंचमेवास्तदानल्पवपुषो ज्यातिषो बभुः ॥ १८५-१८६. बन्ने पंकि भ्रष्ट . हेला एटले प्रामान्य रीते २१ मात्रा होवी जोईए. एटले आ बे पंक्तिओ नीचे प्रमाणे वांचवी योग्य छे: समवसरणमंडिउ विहरेद जिणवरिंदो । जिह पंचवग्गउडुगणजुमो मिसियरिंदो ॥ बीजी पंकिमां पंचवग्गेण जुर्दु पाडवासी कांड पण अर्थ भई शकतो नथी; एटले गेरसमजथी ज कोइए ए फेरफार क्यों हो. २४८ चउविह संघ 'माड, साध्वो, श्रावक भने श्राविका-ए चार तीर्थोनो बनेको संघ. - २९० वसुविहपाडिहेर आठ प्रकारनां प्रतिहार्य-एटले के समवसरणमा जिनेश्वरने सेवती वस्तुओ: Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ अशोकवृक्षः १ सुरपुष्पवृष्टि २ दिव्यध्वनि ३ चामर ४ मासनं ५ च । भामण्डलं तुम्बुभि ७ रातपत्रं ८ सत्प्रातिहार्याणि जिनेश्वराणाम् ॥ वसु संधी 'आठ' मझवानुं छे, २९१ वसुदहदोस वसु = ८ + १० एटले १८ प्रकारना दोषथी विमुक्त. २९३ दंसण जुभो तत्त्वार्थ १. २. तत्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम् । एना उपरथी टीका. १९३ वयपासार व्रतरूपी प्रासाद उपर बार व्रतो-५ अणुव्रत + ३ गुणवत + शिक्षाक्त. १९४ सामाइड - सामायिकवत जुओ तत्त्वार्थ. ७. १६. (भाष्य ) सामायिकं नामाभिगृह्य कालं सर्वसावद्ययोगनिक्षेपः । ते ज प्रमाणे पोसहुः - पौषधोपवासवतम् । सदर भाध्यः - पौषधोपवासो नाम वौषधे उपवासः । पौषधः पवैत्यनर्थान्तरम् । सोऽहमीं चतुर्दशीं पञ्चद श्रीमन्यतम या तिथिमभिगृह्य चतुर्थाद्युपवासिना + + + धर्मजागरिकापरेणानुष्ठेयो भवति ॥ १९५ सचित्तचाउ जेमां जैनमत प्रमाणे जीव के एवा पदार्थोना भोजननो त्याग. २९८ आरम्भाइवज्जणु - आरंभः प्राणिवधः । इत्यादिनो त्याग जुभो तवार्थ० ६. ९. अने भाष्य. २९९ उद्दिट्ठाहारविवज्जणु साधुने उद्दिष्ट करीने एटले तेने निमित्ते बनावेला एवा आहारनो त्याग साधुने आ प्रकारनो आहार जैनमतानुसारे त्याज्य छे. ३०० सावयवय अणुव्रतो जुभो तत्वार्थ ७. १-२. ३०१ महव्वय प्राधुने पाळवानां पांच महाव्रत तत्वार्थ० ७ १-२. ३०१ काउगर नरक, तिर्यगू, मानुष अने देवगति. आम चार प्रकारनी गति. ३०२ दलक्खणमेयहं णेयाणेयहं पांच प्रकारनी ज्ञान:- १ मतिज्ञान २ श्रुतज्ञान. अवधिज्ञान. ४ मन:पर्ययज्ञान. ५ केवलज्ञान, आयी विरुद्धri पांच अज्ञान, अने ते च प्रमाणे ज्ञेय अने अज्ञेय . १०१ चक्कि सामान्य रीते कृष्णनुं विशेषण होय के; परंतु नहिं तो Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनाथना विशेषण तरीके मूकवामां आव्युं छे. आ विशेषण जिनसेन ह. पु. मां घणे स्थळे चक्रवर्ती राजा अथवा प्रभावशाली व्यक्तिने माटे वापरे छे. ३०६ महुमहाणिसंतु-संस्कृतछाया प्रमाणे विष्णुथी असेव्यमान. ... ३०६-३०७. १९ मात्रानी पत्ता छे. ... ... ... ... .. . .३०९ ते अने दुद्धरु मात्रामेळ खातर त्याज्य छे. . . ३११ आसण्ण ने बदले ओसण्ण-अवसन्न पूरो को छे ए. अर्थमां. हाथप्रतमां तो आ छे; परन्तु संभव छे के उपरनी मात्रा रही गई होय. ३१२. पंक्ति ३११मां दुर्नयनो पण त्याग को छे एवा भव्यजनो' एम आव्यु; ज्यारे आ पंक्तिनो 'दुर्नयथी आवतां व्यसनादिथी पण जे विरक्त थया छे' एम अर्थ छे. एटळे पुनरुक्तिदोष नथी. ३१५ पंचपयई ने बदले पंचवयई-पंचनतानि. एम. वाचो. ..... ३३७ अट्टरउद्द जुओ तत्त्वार्थ० ९. २९. आर्त अने रौद्र ध्यान खराब वस्तुना अध्यवसायथी करायला ध्यानना प्रकार छे अने संसारहेतुक छे; ज्यारे धर्म अने शुक्ल ध्यान शुभहेतुक छे भने मोक्ष अपावे छे. ३१९-३२० २७ मात्रानी घत्ता छे. स्वयंभूनी नाममुद्रा छे. ३१९ विहणंतउ-विहन्यमानः । ३१० स्थिरभावथी हर्ष अने आकुलरसथी विषाद, ए प्रमाणे जनो पाम्या. ...॥ पञ्चममुद्धरणम् ॥..... १. कवि अने तेनुं जीवनः कविना जीवननी घणी माहिती छूटा छूटा लेखोमां अने कविनी प्रसिद्ध थएल कृतिओनां पुरोवचनमां विस्तारथी आपेली मळी रहे छे. कविना जीवन अने समयनी चर्चा माटे आ लखाणो वांचवां:-(१) C. P. & Berar Mss. Catalogue Ed. Hiralal-Jntroduction and Extracts from Puspadanta's works in the Appendix, ( २ ) जैन साहित्य संशोधक. ग्रंथ. २. पा. ५७-८०, १४६-१५६. (३) Jasaharachariu of Puspadanta Ed. Dr. P. L. Vaidya, Karanja Series, Karanja, Berar, (४) Nayakumarachariu of Puspadanta Ed. Prof. Hiralal Jain Devendrakirti Series, Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Karanja, Berar. उपर जणावेलां लखाणोना. आश्रये नीचे आपेली हकीकत तारवी काढेली छे.... . .पुष्पदन्तना पितानुं नाम केशवभट्ट अने मातानुं नाम मुग्धादेवी हत्. एनां मातापिता शैवधर्मी हतां अने पाछळ्थी तेमणे जैनधर्मनो अंगीकार को हतो. पुष्पदन्त क्याकथी आवी मान्यखेट ( निझामना राज्वमां आ मगर आवलं; हाल. आ स्थळे नानुं गामडुं छे. ) वस्यो. मान्यखेटना राष्ट्रकूट वंशना कृष्णराज त्रीजाना प्रधान भरते अने तेना पुत्र नन्ने तेने आश्रय आप्यो हतो; अने प्राकृत काव्यो लखवा उत्तेजन आप्यु हतुं. अत्यार सुधीमां पुष्पदन्तनी त्रण कृतिओ हाथ आवी छे: (१) जसहरचरिउ Ed. Dr. P. L. Vaidya (२) णायकुमारचरिउ Ed. Prof. Hiralal Jain (३) महापुराण हजु अप्रसिद्ध परन्तु डॉ. वैद्य तेनुं संपादन करे छे. - प्रस्तुत उद्धरण महापुराण के तिअद्विपरिसगुणालंकारमाथी लोधुं छे. भांडारकर ओरीएन्टल रीचर्स इन्स्टीटयुटनी हाथप्रतपरथी श्रीजिनविजयजीए नकल करावी लीधेली जे तेमणे अमने वापरवा :आपी हती. तेमांथी भाखो. संधि ८३ प्रस्तुत उद्धरणमां लेवामां आव्यो छे. त्यारबाद डॉ. पी. एल वैद्य पण कृपा करी तेमनी पासे जे प्रतो हती तेनी साथे तुलना करी आपी सूचनो अने पाठांतरो जणाव्यां हतां. कवि पुष्पदन्तना पोताना जणाव्या प्रमाणे तेणे महापुराण सिद्धार्थ संवत्सरमां आरंभ्युं भने क्रोधन संवत्सर आषाढ शुद १० ने सोमवारे = जुन इ. स. ९६५ = वि० सं० १०२१मां पूरु कयु. २. उद्धरणवस्तुः आ उद्धरणमां जे वस्तु चर्चवामां आवी छे ते ज. वस्तु वसुदेवहिंडि (सं० श्रीचतुरविजयजी अने पुण्यविजयजी ) मां विस्तरशः आपवामां आवी छे. जिनसेनना हरिवंशपुराणमां पण ते आपवामां आवी छे... ___ द्वारिकामा समुद्रविजय राजा राज्य करतो. हतो.. वासुदेव तेमनो. कनिष्ठ भ्राता हतो. ते बहु ज रूपाळो हतो. एक दिवस ते उत्तम गज पर स्वारी करी नगरमा फरवा नीकळ्यो. एने जोई स्त्रीओ प्रेमविवश बनी गई. (१.) भान भूलेली स्त्रीओनी प्रेमविवशतानं वर्णन कवि करे छे. .नगरनो, पुरुषवर्ग स्त्रीओनी आवी विवशता. जोई समुद्रविजयने .. फरियाद, करे . छे.. समुद्रविजय. वसुदेवने समझावे .छे " शा माटे . धूळ. अने. तापमा शरीर खराब करे छे. तारे जे , क्रीडाओ. ..करवी होय... ते. प्रासादमा कर.". कुलस्वामी समुद्रविण्यना आ बोलने वसुदेवे केटलाक दिवस. मान, आप्यु, Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिवस तेना सहाबके तेने समझण पाडी के, " तुं तो निरोधनमां छे. अने नगरलोकोए तने बंधनमा नखाव्यो छे." आ वचन सांभळी तेणे राजमहेलमाथी नीकळवा यत्न को; पण प्रतिहार ए तेने अटकाम्यो अने कह्यु, "तमारा हित माटे तमाएं निगमन राजाए अटकाव्यु छे." ( ५) वसुदेव रात्रे महेल छोडी स्मशानमां आवी पहोंचे छे. स्मशानचं वर्णन कवि करे छे. (६) श्मशानमां वसु. देवे एक बळतुं मृतशरीर जोयु. तेणे पोतानां वस्त्राभरणो ते मृतदेह पर नाख्या. एक पत्रमा पोताना मरणनी वात लखी, ते पत्र पोताना घोडाना गळे बांथ्यो; अने पछी ते यथेष्ट चाली नीकळ्यो. सवास्मां तो महेलमा खबर पडी. राजाए बघे ग वसुदेवनी शोध करावी. छेवटे श्मशानमा राजाना एक चरे घोडो भने तेने गळे बांधेलो पत्र जोयो. तेणे ते लावो राजाने आयो. राजाए ते वांच्यो. स्वजनोए श्मशानमा मडईं बाळयु; अने हाहाकार थयो. (६) नव दशाह बंधुओ शोक करवा लाग्या. समुद्रविजयनी पत्नी शिवदेवीनो विलाप आपवाम आयो छे. नैमित्तिको राजा समक्ष जोष भाखे छे के सो वर्षे वसुदेवकुमारने मेळो थशे. (७) आ तरफ वसुदेव विजयनगर आवी पहोंचे हे. मैने उद्यानम आराम ले छे. उद्याननुं श्लेषात्मक वर्णन. वसुदेवना पुण्यसामर्थ्यथी सूक सोने पान आवे छे. राजाना जोषीए भविष्य भाख्युं तुं के जेना र बेसवार्थ । वृक्ष लीलु थई जाय, ते युवान राजकुमारीनो वर थशे. आ बनेलु उद्यानपाले. जीयु अने तेणे ते राजाने जणाव्यु. (८) सांभळी राजा जाते त्यां आव्यो; अने तेगे युवान राजकुमारने नगरमा प्रवेश कराव्यो. पोतानी दीकरी श्यामादेवीने राजाए वसुदेव साथे परणावी. केटलाक दिवस पोतानी प्रिया साथे रही, वसुदेव बहार नीकळ्यो अने देवदारुना वनमा प्रवेश्यो. वननुं वर्णन. त्यां तेणे. एक सरोवर जोयं. (९) सरोवरचं वर्णन, क्षीरसमुद्रमा रहेला मेरुपर्वतसमा हाथीने तेणे सरोवरमां निहाळ्यो. (१०) हाथीनुं वर्णन; वसुदेवनुं तेनी साथे युद्ध; वसुदेवनी जीत. विद्याधरे अंधकवृष्णिना पुत्र वसुदेवनु भा पराक्रम जीयु; अने तेणे वसुदेवने उंचकी लीधो. (११) पछी विद्या पर वसुदेवने अशनिवेग नामे यक्षराज पासे लई गयो; अने तेणे तेने जणाव्युं " आने विगा हरायः छे; माटे ज्ञानीओए कह्या प्रमाणे आपनी दुहितानो आ वर छे." अशनिवेगे पोतानी राणी पवनवेगाथी जन्मेली सामरी नामनी कन्या साये वसुदेवने परणाव्यो. वसुदेवे बहु दिवस प्रेममां भासक्त थई गाळ्या. एक वार ते सूतो हतो त्यारे अंगारक नामना विद्याधरे तेने जोयो. " विवेकहीन मामाए आ भूमिचा जनने पोतानी सुता आपी छे ! " आम बोली तेने पोतानी बाथमां लई ते छज्यो अने सामरी तेनी पाछळ ऊडी, वसुदेवना समां वसुनंदक नामनी अमेय तरवार Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हती. (१२) आ तरवार जेवी अंगारक उपर वसुदेवे सेंची के तरत ज वसुदेवने अंगारके छोड़ दीधो. आमरीए पोताना पतिने नीचे पडतो देख्यो के तरतज पर्णमधुक विद्याथी बसुदेवनी त. प्रतीक्षा करो. बीजी बाजुए सामरीए वैरी अंगारक उपर हलो को. वैरी नाची गयो. मदनसमान वसुदेव चंपा पुरनगरनी बहार पडयो. वसुदेवे नगरजनने नगरनुं नाम पूछयु. लोको आ प्रसिद्ध नगरना नामना सेना महानने माटे एने मुग्ध कही इसवा काग्या. तेमणे तेने कहा "वासुपूज्य जिनन, जन्मर्थः समृद्ध एवी आ चम्पापुरी छे." आ सांभळी वसु. देव नगर जोयु अने नगरनो विद्वज्जनोथी शोमतो सभामंडप पण जोयो. त्या चारुदत्त नामे एक वणिक्पुत्र रहेतो हतो. तेने गंधर्वदत्ता नामे एक पुत्री इती. ए कन्याए विद्याधर तेमज मानवने वीणावादनमा जत्या हता. (१३) वसुदेवकुमार त्यो गयो. कन्या एने जोतांवेंत मन्मथबाणथी विद्ध थई. वसुदेव हस्यो भने कयुं, जो के मारो हाथ स्वरस्थान पर सारी रीते चाली शकशें नहि छतां य घोणा हुँ वगाडीश, " पछीथी पांच दश वीण रजु करवामां आवी. वसुदेवे बधी य वीणामां खोड बताववा मांडी. उत्तम वीणा क्या छे ते संबंधी तेणे आख्यान कहेवा मांडयुः "हस्तिनापुरमा एक राजा हतो. तेने पद्मावती नामे राणी इती. वेने विष्णु नामे ज्येष्ठ पुत्र हतो, (१४) अने पद्मरय नामे नानो पुत्र इतो. भांतिने नमी राजा तेना मोटा दीकरा साथे ऋषि बवा माटे वनमा गयो. पद्मए राज्य करवा लाग्यो. तेने बलि नामे निपुण मंत्री हतो. एक दिवस राजाए तुष्ट थई तेने वर मागका का. बलिए कयु, “ कोइ दिवस हुँ कांह मागु तो तमे ते आपजो.' थोडोक समय गयो. एटलामां अकंपन नामे मुनिवर स्या आल्या. पहेला बलिने आ मुनिए वादविवादथी हराव्यो हतो, एटळे तेणे वेर लेवानी निश्चय को, (१५) बलिए पोताने राजाए आपेलो वर सम्भारी राजा पासे तेणे सात दिवसतुं राज्य माग्यु. राजाए ते आप्यु. वैदिक कर्मकांड बलिए चलाब्यो. मांसमदिरा पीवावा लाग्यां. साधुसंघ ते पापिष्ठ बलिए पीडवा मांडयो. (१६) श्रुतिवचनोथी श्रवण पूरावा लण्या. धूमाडाथी धूळ वधवा लागी. दररोज भीषण दुःखोथी धीर जनो पीडाता हता, छतां तेओ पिशुन जन पर रोष करता नहि; आ बाजुए, पेला पिता भने तेनो पुत्र विष्णु तप करता हता. तेमणे श्रवणनक्षत्र कंपतुं जोयु. विष्णुए पोताना पिता धनरथऋषिने भान कारण पूछयु. ऋषिए जणाव्यु के, “ गजपुरमा बलि मुनिओने दुःख दे छे. सज्जनोनी पीडा बघायने भारे लागे छे; तेथी ज नक्षत्र थरथरे छे. " विष्णुए पूछयं " आनो कोई उपाय ?" बापे क्यु, “गजपुर जा, अने तारा चम Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६ कारनी समृद्धि ऋषिना उपसर्गनो नाश कर. (१७) अद्भुत वामनरूप धारी तुं त्यां जजें, अने बलि पासे निवासस्थान मागजे ए तने निवासस्थान आपवा वचन आपे के तुं आकाशे अडजे.” पछी तो ते विप्र मुनिना वेषमां बलि पासे गयो. नवा राजाए तेने जोयो अने वर मागवा कयुं. विष्णुए त्रण पगलां जेटली जगा मागी. आटलं ज माग्युं एथी बलि हसवा लाग्यो. परन्तु विष्णुए तो वधवा ज मांडयुं. एक पगलं तेमणे मंदर पर्वत उपर मूक्युं बीजुं पगलुं मानुषोत्तर पर मूक्यु. (१८) त्रीनुं पगलुं उंचुं कर्तुं पण ते मूकवा माटे स्थान न हतुं देवो अने विद्याधरोए तेनी अर्चना करी त्यारे त्रीजुं पगलुं तेणे खेंची धुं. आ समये तेणे देवोए आपेली घोषवती वीणा वगाडी हती. पद्मरथे पोताना येष्ठ भ्राताने संतुष्ट कर्यो अने बलि-द्विजकिकरने मारी नाखवा कयुं. विष्णुए रोष न करवा कयुं. आ प्रमाणे ऋषिसंघने उपद्रवमांथी मुक्त करी विष्णु वनमां चाल्यो गयो. (१९) - विष्णु वगाडी हती ते वीणा मने लावी आपो; अने गन्धर्वदत्ता जो ते मारी लामळ वगाडे तो बीजाभना अपवादने ते दूर करी शकै.” वणिक्पुत्र हस्यो अने गजपुरथी तेणे ते राजाना वंशज पासेथी वीणा मंगावी आपी. वसुदेवना हाथथी ज ते वीणा वागी; अने तेना संगीतथी गन्धर्वदत्ताना हृदयमां तीखुं कामदेव बाण पेठं. (२०) गन्धर्वदत्ता साधे वसुदेव परण्यो. आ उपरांत बीजी सात विद्याधर कन्याने ते परण्यो, थोडाक समयमां ते अरिष्टनगर आव्यो. त्यां हिरण्यवर्मा नामे राजा राज्य करतो हतो. तेने पद्मावती नामे राणी हती. तेमने रोहिणी नामे पुत्री हती. रोहिणीए जरासंध इत्यादि राजाओने त्यजी वसुदेवने वरमाला आरोपी. बीजा राजाओए हिरण्यवर्माने जरासंघ साथै कन्या मोकली दई तेनी साथे वैर न बांधवा समझाव्यो. (२१) हिरण्यवर्माए मान्युं नहि. युद्ध थयुं युद्धम समुद्रविजय राजा जरासंघ तरफथी वसुदेव सामे आव्यो. बन्ने वच्चे तुमुलयुद्ध थयुं वसुदेवे पछीथी पोताना नामथी अंकित बाज समुद्रविजय प्रति फेंक्युं. ते समुद्रविजयना पग आगळ पडयुं. तेणे ते उपाडी लीधुं; अने ते परना अक्षरो वांच्या (२२) समुद्रविजय जो के बळवान हतो, छतां पण रथ परथी ऊतयों अने आम वसुदेव पण सत्त्वर ऊतयों. तेओ मळ्या अने एक बीजाने भेट्या वसुदेवना पराक्रमनां वखाण समुद्रविजये कयीं. दशे य दशाहों पोताने नगर गया. वसुदेवे अनेक खेचर अने मानुषी कन्याओ साथे भोग भोगव्या. रोहिणीए बलदेवने जन्म आप्यो. बलदेव पूर्वे शंख नामे ऋषि हतो; जे मृत्यु पछी महाशुक्र कल्पना देव तरीके भोग भोगवी अने पछी च्यवी नवमा सीरी = राम तरीके जन्म्यो हतो. पुष्पदंतना ( नवमा तीर्थं करना) तेजमांथी तेणे तेज मेळन्युं हतुं. Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. छंदोरचनाः आ उद्धरणयां २३ कुडलक छे. कडबकनी पंक्तिसंख्या निर्णीत नथी. आदिमा आखा कडवक- एक ध्रुवक छे. दरेक कड़वकने अन्ते घचा छे. घत्ता अने ध्रुवक ११+१२=२३ मात्रानी बे पंक्तिनां छे. छ. शा. ६. पत्र ४० (अ)मां आ छंदने अरविन्दक कयो छः ओजे एकादश समे द्वादश अरविन्दकम्। यथा, प्रिअहि मुहु अरविंदु चलनयण इंदिदि दंतकंति केसरउ लच्छिविलासह मंदिरु ॥ कडवक ५ मां भुजंगप्रयात छंद छे. ते गणवृत्त छे. य गण (~--) नी चार फेरो आवृत्ति थतां एक चरण बने छे. जुओ प्रा. पिं० पान. ४४०:धओ चामरो रूअओ सेस सारो ठए कंठए मुद्धए जत्थ हारो घउच्छंद किज्जे तहा सुद्धदेहं भुअंगापआरं पए वीसरेहं ॥ ध्वज (~-) + चामर (-) = --- ने चार वार पुनरावृत्त करी एक पादमां वीस मात्रा करीए तो जेम हार कंठे बेसे छे तेको हे मुग्थे भुजंगप्रयात थाय. ___कडवक १०मां सखलित छंद छे; ते गणवृत्त छे. छ. शा. २. पत्र १० (अ) भ्जस्नाद्गौ स्खलितम् । भ (- -) ज (~- ) (~~-) न (~-~) परौ मौ (--) यथा, . पुष्पशर रम्यतनुता सलवणत्वं वाङमधुरता चतुरता बहुकलत्वम् । सर्वमपि चास्य सुभगस्य रतये मे केवलमिदं व्यथयति स्खलितगोत्रम् ॥ महिता कांता वनमयूरश्चेत्यन्ये ।। चरणनो छेल्लो हस्व दीर्घ तरीके ज गणाय छे एटले प्रस्तुत कडवकना चरणोना इस्वने दीर्घ तरीके गणवामां बाध नथी. सामान्य रीते गणवृत्तमां पास प्राकृतमा एक गुजे प्रदले बे लघु मकवानी पद्धति छे. आने लीधे केटलीक भनियमितता कडवक १० नी इंदोरचनामां आवी छे. बाकीनां कुजवकमां चगणचतुष्क एटले १६ मात्रानो पज्झड़िआ छे, जेनुं विवेचन प्रथम उद्धरणमां करेलुं छे. . प्रस्तुत उद्धरण छपाया प्रछी डॉ. पी. एल. वैये पोतानी प्रेस कोप्री साथे सरखावी, जे खास स्थळे तेमनी कोपीमांथी पाठान्तर आपां ठीक जणानां, ते स्थळे ते नोंधी मोकली आपवा कृपा करी इती. तेमनां पाठान्तर टिप्पणमां (प.) तरीके नोभ्यां छे. Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - ४. टिप्पणः १ णायणाय [शाताज्ञातं] संस्कृतछाया न्यायान्यायं पण थई शके. सरखावो. चारैः पश्यन्ति राजानः । ३ उइय ए मूलना उइउ उपर सुधारो छे (प.) उयय वांचे छे, जे मूळ परना सुधाराने अनुमोदन आपतो पाठ छे अने प्राह्य छे. ४-६ व्यतिरेकालंकारे करो कवि वसुदेवनी उत्कृष्टता वर्णवे छे. " जाणे सहस्रनेत्र विनानो इन्द्र, कुसुमना शर विनानो जाणे जाते ज कुसुमायुध (=कामदेव ), जाणे खाराश विनानो लावण्ययुक्त रत्नाकर ( = समुद्र), कपट विनानो जाणे दामोदर, राहुथी अग्रस्त जाणे सूर्य, आखा जगत्ने संक्षोभ पमाडनार जाणे जिनदेव. ५. णं अक्खारु सलवणु रयणायरु मूळमां अखारु करी सलघणुने घटित कय छे. जो अक्खारु करीए तो सलेॉणु के सलणु वांचवें ओईए. आ पंक्तिमा व्यतिरेक अने विरोधाभास ए बे अलंकारोनो संकर छे. १. अमलदेहु णावइ उज्जोयणु - (प.) अमलदेहु णावइ उग्गउ इणु वांचे छे. छापेला मूळ पाठनो अर्थ " जाणे राहुथी ( मलदेहथी) अप्रस्त सूर्य." एम अर्थ थशे. (प.) प्रमाणे अर्थमां तो कांइ फेर पडतो नथी; 'जाणे राहुथी अग्रस्त सूर्य ऊगेलो होय तेवो. इणु-इनः सूर्य. उज्जोयणु = सूर्य जुओ. पा. स. म. ७. सिरि (प०) सिर. परन्तु सिरि अर्थनी दृष्टिए उत्तम छे. ८. चत्तरि (प.) चच्चरि... ९ एकावली अलंकार. 'ए पुरुष नहि के जेणे दृष्टि नाखी नथी अने ए दृष्टि नथी के जे एना तरफ वळी नथी.' १० मणुअ सुधारेलो पाठ, मूळ अने (१०) मणुउ. सचरंतु ने बदले संचरंतु वांचो. १२ तिलु तिलु - 'जरा जरा' आ शब्दनो बीजे वपराश मळयो नथी, १३ कालंबिणि (प०) कालंबिणि सरखावो दे. ना. २. ५९. तणुघणेसु कालिंबो । सरखावो मदीयमतिचुंबिनी भवतु काऽपि कादंबिनी । कादंबिनी = मेघलेखा. १४ वम्मई आदि म् = व १५. णीसासि (प०) णीसासें Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. मि - (प.) वि षर्धा य स्थले (प०) विज राखे छे. १५. पयंधणु-(प.) परंधणु-प्रबंधन. .. .. १८. पियविओअयखेएं कंपइ; मूळमां पियविओअजखेएं, (प०) पियविओअजरवेएं वांचे छे. पियविओअजरखेएं-प्रियवियोगज्वरखेदेन आम करी जने कायम राखी मात्राभंग दूर करी छंद सचवाय. २२. बिउणावेदु णियंबहो दिण्णउ कारण के एक फेरो वस्त्र भीनुं थवाथी पारदर्शक बनता से ढांकवा ए ज भीना वस्त्र उपर ए ज बननो बीजो छेडो वींटाळ्यो. २४. मुअ-मृता मरी गई (प०)-मुअ; मुभइ सुधाराथी तो उलटी एक मात्रा वधी जाय छे एटले मुअ ए ज पाठ वाचवो उत्तम छे. २५. (प०) विसरेवि; परन्तु वीसार( =रि )विथी अर्थभ्रष्टता थती नथी. २६. संत्यज्य काचित्तरुणी रुदंतं स्वपोतमोतुं च करे विधृत्य। निवेश्य कटयां त्वरया व्रजंती हासावकाशं न चकार केषाम् ।। ३०. एक तहि-तत्र अने बीजुं तहिं तस्मै, वसुदेवाय. ३४. (१०) कूवारे-कुमारैः । जो के तृतीया एकवचनने बहुवचनमा ले पडे छे. विहुवारेमा पण ए ज संकट आवे छे. जुभो जिनसेन- ह. पु. १९. १४. अन्यदा पुरवृद्धास्ते समुद्रविजयं नृपम् । नत्वा व्यजिक्षपन्नित्थमुपांशु पिहितान्तरा ॥ ३७. जाउ जाउ पय कहि मि पयावइ = यावत् यावत् पर्द कुत्रापि प्रदापयति । “हे भट्टारक ज्यारे ज्यारे क्यांय पण ते कुमार पगलं मांडे छे त्यारे त्यारे दुःखथी जीवाय छे. " मा प्रमाणे पण अर्थ घटावाय. १२. झेंडय-कंदुकनुं प्राकृतमां गेंदुय भने मराठीमा चेंडुय रूप छे. झेंड्य पण ते ज प्रकारनुं रूप होवा संभव छे. झंडय मुद्रित थयुं छे ते सुधारी भेंडय करो. (प०) अंगणि वांचे छे. ४३.णिट्ट ने बदले (प०) णिद्ध वांचे छे. ते ज पाठ प्राय छे. णि =स्निग्ध, वळी आज पंक्तिमा रमणीने बदले (प०) रमणीय वांचे छ परन्तु ते पाठ स्वीकारवाथी एक मात्रा वधी जशे. ४६. दिअसेहि (प.) दिअहेहि ४७. अहिं वार्तामा बीजो वृत्तांतो करता फेर छे. बीजा वृत्तांतोमा च. Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ न्दनादि समालम्भन एक दासी लई जाय छे. ए दासीने वसुदेव जुवे छे. वसुदेव समालम्भन मागे छे; परन्तु दासी तेने उपालम्भ दई कहे छे के, “तुं तो केवी छे." वसुदेव ते अंटवी ले छे. आ वृत्तान्तमा सहाय एटले कोइ दास मारफते खबर पडवानुं कहेवामा आव्युं छे. ५०. जोक्खिउ मुद्रादोष छे. जोक्खिउ वांचो. ५३. (१०) बूढमाणो ५६. (५०) ललंतंतमालं । परन्तु पाठ स्वीकाराय तेवो नथी. ५८. (प०) तेम ज मूळ विहिंडंत वीरे. ६०. (५०) नृकंकाल; मूळ णिकंकाल मनुष्यनुं हाडपिंजर. संस्कृत छाया निष्कंकाल खोटी छे ते नृकंकाल करी सुधारवी. ६१. (५०) कीलाणुरायं पाठ सारो छे; कारण के घायंनी नाथे तेनो प्रास मळे छे. क्रीडानुरागं एम छाया करवी. ६३-६४. कुलं कुण्डलिनी नाडी अकुलं तु सदाशिवम् । आ प्रमाणे कुल अने अकुलना संयोगथी व्यक्तिशरीर बनेलं मालम पडे छे-आ प्रमाणे पोताना संप्रदाय, तत्त्व कौलाचार्योए पोताना शिष्योने ज्यां का हतुं. छायामा अकुलकुलानां संयोगे कुलशरीरमुपलक्षितम् । एम वांचो, कौलाचार्य तान्त्रिकोना भाचार्य (प०) कउलायरियहिं । घत्तामा ११+११% २४ मात्रानी छे. ६८. (५०) सयणाणंदिरु-स्वजनानन्दकः ७०. कणय षाण दे. ना. २.५६. कुसुमच्चअइससु कणओ य। संस्कृतछाया कनक सुधारवी. ७१. पिउवण श्मशान. ७४. (प०) बाहाउण्णई-बाष्पपूर्णानि । ७५. पयवई ने बदले (प०) नो पय चिरु-प्रजा चिरं ए पाठ सरळ भने ठीक छे. ____७७-७४. (प०) दड्दु ने बदले दडु अने हाहाकारिवि जोइ. यउ । खरी रीते मूळमां क्रियापदनी तूट तो हती ज. (प०) नो पाठ उत्तम छ तेमां हाहाकारिवि जोइउ-हाहाकार करीने भूषणयुक्त बळेलु मृतशरीर तेमणे जोयु-ए स्वीकार्य छे. Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१ ८१. (१०) तृणु (प० ) कोमलवउने बदले कोमलंगु. ८५. णरुने बंदले (पं०) पुरु ८८. आपिक्खिविने बदले (प०) आवेक्खिवि । आ पंकि पछी ( प ० ) नीचेनी पंक्ति वांचे छे: हाँ पर विणु हियउल्लउं भुल्लउं को रक्खइ मेरउ कडउलउ छाररासि यउ पविलोयउ एम बंधुवग्र्गे संसोइउं ॥ ९०. परं विणु सुण्णु हिमावलि माणिउ = तारा विना हिमगृहे आनन्द करवों ते शून्य छे, आम अर्थ थाय. पंजलीहि मीणावलि माणिड ( पं० ) आ बन्ने य पाठांतरो अने तेमाथी नीतरता अर्थं सुद्धां अस्पष्ट छे. ९२. छायामां नैमित्तिकैः वांचो. ९४-९६.विजयनगरना नंदनवनने रामायण साथै सरखान्युं छे. श्लेषात्मक सरखामणी छैः—त्यां नंदनवन केवु दीठु ? मने जेवुं रामायण गमे छे तेवुं ! ज्यां भयङ्कर रजनीचरो ( राक्षसो) फरे छे; चारे य दिशामां बगलाना ( लक्ष्मणना ) स्वर ज्यां फछळे छे; ज्यां शीत जवाने लीधे ( सीताना विरहने लीधे) पूंछडु हलवतो वानर, (हनुमान) पोतानी स्त्री साथै (राम साथे ) आकाश ओळंगे छे. ९७-९९, उपवनने भारत साथै सरखान्युं छे: - ज्यां मोर ( = शिव ) रोमांचित थई नाचे छे; ज्यां अर्जुन वृक्षने ( = अर्जुन ) घडाथी ( = द्रोणथी ) पाणी सिंचवामां आवे छे ( = स्नातक तरीके संत्रित कराय छे. ); ते ज अर्जुन ज्यां नोळीआथी ( = नकुल ) सेवायलो छे; - भाइ कोने प्रिय नथी होतो ? आ प्रमाणे वेलोथी ढंकायलं अने रविना तेजने ढांकर्तुं उपवन भारतसमुं शोभे छे. १००. सोहइने बदले णिवडर वांचो. जंड उपर श्लेष छे. डलयोरमेदः ए नियम प्रमाणे. ' जडने अनंगथी कोण प्रकटावे ? ' १०२. (प० ) महुर्थेभहिं - मधुबिन्दुभिः पाठ आपे छे. २१५. (प०) रुहचुहंति. ११६. (प०) गोंदि. मूळ पाठे गोंजि- मंजयः । दे. ना. २.९५. गच्छागोंटीगोडींगोजीओ मंजरीए य । (प०) नो पण अर्थ ' मंजरी ' हवा से छे. ११७. पहिल [लाहल] म्लेच्छनी एक जाति सि. है. ८/१/२५६. Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८. (प.) जहिं तमालतमअविलक्खियरह-ज्यां तमालना अंधकारथी रथ पण जणातो नथी ए रस्ता पर औषधिना तेजथी मार्ग देखाडाय छे. ११९. संबरहिने बदले सबरहि वांचो. १२०. छण्णउ ने बदले संछण्णउ वांचो. मात्रामेळ तो ज मळशे. १२२. (प०) सग्गह. १२३. (प०) झसमालि ए, मूळपाठ डसणालि करता उत्तम अने स्वीकार्य छे. आ पंक्तिनो अर्थ:-" जेनाथी मकरादि बीतां हतां, ते मत्त जलहस्तीनी सूंढ पाणी छोडती कोइ नवीन नालिका समो शोभती हती." अपभ्रंशमां समास बांधवामा अने तेनी श्लिष्टता साचववानी जे बेदरकारी राखवामां आवे छे तेनुं आ पंक्ति दृष्टांत छे. . १२६. खुडवियने बदले (प०) खुइवियं वांचे छे; परन्तु (५०) नी वाचना छंदोभंगने कारणे अस्वीकार्य छे. 'लक्ष्मीना नू पुरने ज्यां कलहंसे पार्छ पाडयुं हतं.' एम भापणी वाचना प्रमाणे अर्थ थशे. (प.) ना नेऊर पाठने बदले नेउर वांचीए तो ते बेसे. तेनो अर्थ “मक्ष्मीना नू पुरना रवथी ज्या कलहंसो झडावतां हता." १५४. (५०) अभिह सरखावो. दे. ना. १. ७८. अर्थमां फेरफार थतो नथी. १६३. (५०) तरुकुसुमोदिसोहपसाहिरि. भा पाठमी भर्थ स्पष्ट थाय छे. १६५. (५०) भणंति। १७२. (प.) कुमार। १८३. अवरु पउमरहु सुउ लहुआर उनो संबंध पं. १८२नी माथे छे; त्यार पछी नई वाक्य शरु थाय छे. १८४. (प.) मृगपरिपुण्णहु १८८. बुद्धिउ ने वदले बुद्धिए वांचो. . १९४. पहेला अकम्पन नामे मुनि उज्जयिनी गएला. त्यांनी भजैन राजा पोताना बलि, बृहस्पति, नमुचि अने प्रल्हाद नामना मंत्रीओने लई सेमनी माथे विवाद करवा गएलो. परन्तु तेना प्रधानो पादा हार्या. रात्रे Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६३ वैरतृप्ति माटे मुनिने चारे य मंत्रीओ मारवा गया; परन्तु देवताना प्रतापथी तेओ स्तंभित थई गया. राजाए सवारमां आ जोयुं अने ते सर्वेने देशपार कर्या. नागपुर - हस्तिनागपुरम बहि भा वखते पद्मरथ राजानो मंत्री थयो हतो. अकंपन मुनि आव्या पूर्वनुं अपमान संभारी तेमनो नाश करवा ते तैयार थयो. आखा वृर्तात माटे जुभो जिनसेननुं हरिवंशपुराण. सर्ग. २०. थोडा फेरफार साधे आ वृत्तांत वसुदेवहिंडि अंश. १ पान १२८. १९. नियमरणियमणु पोतानी बुद्धिने कुंठित करनार, १९७. ( प ) हउं उज्जमु खवमि किं दुज्जणि । १००. ओलग्गिउ जुओ दे. नो. १. १६४. सेवयअपहाबलेसु ओलुग्गो । आ ओलुग्ग शब्द परथी नाम - क्रियापद बनावी तेनुं कर्मणि भूतकृदन्त ओलग्गिड थना सम्भव थे. तेनो अर्थ सेवा. मूळ शब्द अवलग्न होना संभव छे. अलग्ग = सेवा पा. स. म. नोंधे छे. अहिं ओलग्गिउ वचनना अर्थमा पण होई शके. = २०४. (प०) मृगवहु. २०६. जंगलु=मांस. (प० ) अडवि अड्डड्इ | मूळनो अर्थ बंधबेसतो वधारे छे. २०८. (प०) जणउच्छिउ पाठ सारो छे. २०९. बहलिय - रेणु ने बदले ( प ० ) बहलयरेण । २१०. पयडिय भीसणवसणहं ने बदले पयडियभीसणवसणहं ए पाठ उत्तम छे. २२७. जंपाण पालखी. २३२. सरखावो. ह. पु. २०. ५३. मेरावेकक्रमो न्यस्तो द्वितीयो मानुषोत्तरे । अभावादवकाशस्य तृतीयोऽभ्रमदंबरे ॥ मानुषोत्तर पर्वत के जे पुष्करार्धने फरतो छे अने तेनी अढी द्वीपनी सीमा गणावे छे. तेना पछी मनुष्यवास नथी. ते १७२१ योजन उंचो १४३० योजन १ गाउ डंडो अने १०३२ योजन पहोलो डे. २३७. पद्मरथ राजा सत्ताथी छकेला द्विजकिंकर बलिने मारवा कहे छे. परन्तु विष्णु तेने क्षमा आपे छे अने रोष न करवा कहे छे. १३९. णरयविवरि पइसिज्जह । (प०) सत्तममहि पाविज्जइ Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४८ - २५१. संगीतनी परिभाषानुं विवेचन करे छे:२२. श्रुतिमेदः - हृदि द्वाविंशतिर्नाज्यस्तरश्चयः पवनाहताः एवं कंठे मुनि ताभ्यस्तावत्यः श्रुतयोऽभवन् ॥ ७. स्त्ररः ताभ्योऽभवन्स्वराः षड्जर्षभगांधारमध्यमाः पंचम धैवतश्चैव निषाद इति सप्त ते ॥ श्रुतयः स्युः स्वराभिन्नाः श्रावणत्वेन हेतुना अहिकुंडलवत्तत्र मेदोक्तिः शास्त्रसंमता ॥ १८. जातिः - षड्जमध्या तथा चैव षड्जग्रामसमाश्रयाः जातयोऽष्टादशोदिष्टा मध्यमग्राममाश्रिताः ॥ १४१ अंश :- रागमां वारंवार आवनार प्रधान अथवा मुख्य स्वरने अंश अथवा स्थायी स्वर कहे छे. आनी १४१ संख्या प्रस्तुत स्थळे बताववामां आवी छे; परन्तु शास्त्रप्रत्थोमां ते मळती नथी. ५. गीतिः - गीतयः स्युः पंच शुद्धा भिन्ना गौडी च वेसरा साधारणी च शुद्धा स्यात्वकैर्ललितैः स्वरैः ॥ २५१. आ पंक्तिमा बतावेली संगीत परिभाषाना उल्लेखो शास्त्रप्रन्थोमां मळी शकता नथी. श्रीश प्रामशत, अने तेना पर आश्रित रहेली ४० भाषा अने ६ विभाषा. २५२. ३. प्रामः - ग्रामास्त्रयः स्युर्विशिष्टस्वर संदोह रूपिणः षड्जमध्यमगांधारसंज्ञका मूर्छनाश्रयाः ॥ २१. मूर्छनाः - सप्तस्वरक्रमारोहावरोही मूर्छवोदिता ताश्च प्रोक्ताः सत्रिग्रामं सप्तसंख्या मुनीश्वरैः ॥ ४९. तानः- शुद्धप्रयोग स्वर सात छे, आ स्वरो पैकी एक के एकथी वधारे स्वरोनुं एक ज कंपथी त्वरित गतिए आरोहण करखं तेने तान कहे छे. संगीतशास्त्रकारोए सात Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सप्तकनी घटना करेली छे. आ सावे य यतका कुल ७४७ = ४९ तान थई शके. . २६३. ससिणेसर-शशीश्वराः एटले चंद्र भने सूर्य. शशि+इन+श्वर एम पण विश्लष थई शके. - २००. (प.) मा संघहि धणुगुणि सरु. धनुषनी पणछ पर बाण पडावीश नहि. मूळनो पाठ खोटो छे माटे त्यजवो. मूळनी संस्कृतछाया पण सोटी छे. २७१. (प.) वडु ने वदले वढ. ... २७४. तमे पण ए अभिमानी राजानी आज सेवा करी रया छो ज्या सुधी युद्धमा ते मरायो नथी. २७५. (प.) गेहिणी, रोहिणीने स्थळे २०८. (प.) विचंते, शर वींधतानी साथे. वृद्धत्वेन एम छाया आपी छे ते खोटी छे. २८१. वसुदेवे पोताना नामथी अङ्कित बाण फेंक्यु. २८२. सउरीणाह-शौरिनाथ, समुद्रषिजय. २८३. (प०) बाहजलोल्लिय वाचना सारी छे. २८५. (५०) सइ, सयने बदले. ( प० ) नो पाठ सप्तमी बरोबर बतावे छे. २८७. कोडिसह-कोटीश्वर, करोडोनो अधिपति. २९८. सरखावो च्युत्वा कल्पान्महाशुक्रान्महासामानिकः सुरा । गर्भऽभूदिह रोहिण्या धरण्या इव सन्मणिः ॥ ह. पु. २२. ७. मूळनो अर्थः-शंख नामे ऋषि जे हतो ते महाशुक्र नामना कल्पस्वर्गनो शशिमुख नामे देव थई त्यांथी च्यवी रोहिणीना पुत्र भरतक्षेत्रना राबाओना पूज्य नवमा रामारूपे उत्पन्न थयो. पुष्पदंत( नवमा तीर्थकर )ना तेजमाथी तेणे पोतान तेज मेव्यु. .. ३... कविनी नाममुद्रा छे. ॥ षष्ठमुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवनः .. प्रस्तुत उद्धरण धनपाल कविना भविसयत्तकहा नामे अपभ्रंश काव्यमांधी लेवामां भाव्यु के. भ. क. १२ संघिन काव्य, मानो भाखो Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६६ संधि ४ प्रस्तुत उद्धरण तरीके देवामां आव्यो छे एक प्रो. याकोबीनी जर्मन भविसयत्तकहानां वै सम्पादनो प्रसिद्ध थयां छे. आवृत्ति जे इ. स. १९१८मां प्रसिद्ध थई हती; अने बोजी सद् चिमनलाल दलाल अने सद्. डी. पी. डी. गुणेनी सहसंपादित आवृत्ति जे इ. स. १९२३मां गायकवाड ओरीएन्टल खीरीझना २०मा मणका तरीके प्रसिद्ध थई हती. आ बन्ने आवृत्तिओ एकबीजानी पूरक छे; कारण के प्रो. याकोबीनी आवृत्ति अने डो. गुणेनी आवृत्ति जुदी जुदी हाथप्रतो परथी रचायली छे. डो. गुणेनी हाथप्रत, प्रो. याकोबीनी हाथ करतां सारी हती; ज्यारे डो. गुणेनी आवृत्तिमां प्रो. याकोबीनी आवृत्ति जेटली चोकसाई नथी. परन्तु डो. गुणेनी आवृत्तिमां एक गुण ए छे जे तेमणे तेमना पुरोगामी संपादक प्रो. याकोबीनी आवृत्तिनो लाभ लीधो छे. भविसयत्त कहाना कर्ता धणवाल = धनपाल विषे तेणे आपली हकीकत उपरांत कांइ पण वधारे आपणे जाणी शकता नथी. काव्यना छेल्ला २२मा संधिना कडवक ९मां पोताना संबंधी नीचेनी माहिती तेणे आपी छे: धक्कडवणिवंसे माएसरहो समुब्भविण धणसिरिहो वि सुरण विरइउ सरसहसंभविण ॥ एटले के धक्कड वाणिभाना वंशमां पिता माएसर अने माता धनश्रीनो ते पुत्र इतो; अने ते पोताने 'सरस्वतीसंभव' कहेवडावतो हतो. धक्कड वाणिआनो उल्लेख लावण्यसमयना विमलप्रबंध (सं. मणिलाल ब. व्यास ) मां ८४ जातना वाणीआनी गणतरीमां करवामां आव्यो छे: धाकडीया भडियां भूंगडा, ब्रह्माणा, वीधू, वायडा । ( पान. ४९ . ) आथी विशेष कविसम्बन्धी हकीकत मळती नथी. आ धनपाल, ऋषभपंचाशिका, तिलकमंजरी अने पाइअलच्छीनाममालाना कर्ता धनपाल ( इ. स. नुं ११मुं शतक ) करतां जुदो छे. आपणी कविनी भाषाना पूरावाथी तेने आपणे विक्रमना १० मा शतक पूर्वेनो सहज कही शकीए. धनपालनुं अपभ्रंश बोलाती भाषाने वधारे समीपवर्ती छे; जो के धनपालनी मेधा संस्कृत अने प्राकृत साहित्यमा विचरी होय तेना अनेक पूरावा कान्यमां देखा दे छे. धनपाल दिगम्बर जैन होवो जोईए, कारण के भ. क. प. २०. ३. मां भंजिवि सेण दियंबरि लाइउ । एम लखे छे, अने अच्युतस्वर्गने ते १६ मा स्वर्ग तरीके गणे छे. Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. उद्धरणवस्तुः भविसयत्तकहा एटले भविष्यदत्तनी कथा. गजपुर नामे नगर हुतुं. त्यां धनपति नामे नगरशेठ ( रायसिटि) रहेतो हतो. ते ज नगरमा हरिबल नामे बीजो वणिक रहेतो हतो. एक दिवस धनपति हरिबलने घेर गयो भने त्यां हरिबलनी दीकरी कमलश्री प्रति तेनी दृष्टि गई. हरिबलनी पासे धनपतिए तेनी दीकरी माटे मागुं मोकल्युं जे स्वीकारायु, अने कमलश्री अने धनपतिनां लग्न थयां. तेमने भविष्यदत्त नामे पुत्र थयो. केटलोक समय वीत्यो; अने पूर्वजन्मनां कोई कर्मथी धनपतिनो प्रेम कमलश्री परथी ओसरी गयो. एक दिवस धनपतिए कमलश्रीने कडवां वेण कह्यां अने तेने तेना पिएर चाली जवा का. ते पोताना पितृगृहे गई. धनपति सरूपा नामे धनदत्तशेठनी दीकरीने परण्यो. तेनाथी तेने बंधुदत्त नामे पुत्र थयो. बंधुदत्त यौवनमां आव्यो त्यारे ते धंधा माटे परदेश नीकळ्यो. भविष्यदत्त पण माताने नहि गमवा छतां तेनी साये वेपार माटे नीकळ्यो. तेओ तिलकद्वीप नामे द्वीप पर आवी पहोंच्या. भविष्यदत्तने दूर गएलो जोई, बंधुदत्त पोतानां वहाण हंकारी गयो. आ चोथा संधिमां भविष्यदत्तने तिलकद्वीपमां केवी रीते लाभ थयो तेनी कथा कहेवामां आवी छे. भविष्यदत्त हाथपग धोई, कमल लई आवी जुवे छे त्यारे ते वहाण चाल्यां गएला देखे छे. तेने बहु ज शोक थाय छे. (१) भविष्यदत्त पोताना भाई बंधुदत्तनी हीणी वंचना उपर विचार करे छे. पोताना हृदयने दृढ करी, खलदैवने पडकार करी ते वनमां चालवा मांडे छे. (२) भविष्यदत्त गहन वनमा प्रवेशे छे. ते वन पंखी अने सावजथी भरपूर छे. छेवटे अतिमुकलताना मण्डपमां वृक्ष नीचे शिलातल उपर ते बेसे छे. (३) सूर्य आथमे छे; संध्या थाय छे; एटले हाथ पग धोई, कुसुम लई, जिननी ते अर्चना करे छे. भयंकर रात्रिनुं वर्णन कवि करे छे. (४) सवार पडे छे, भविष्यदत्त एक जूनो मार्ग जुवे छे. तेने शुभं शुक्नो थाय छे. ते मागे जवानो ते निश्चय करे छे. (५) आ प्रमाणे गिरिकन्दरानी प्रदेश अने श्यामतमालपूर्ण वनने ओळंगी प्रासाद, प्रतोली इत्यादिथी सुशोभित भने धवलित गृहोथी विराजित छतां निर्बनिक एक नगर ते जुवें छे. (६) नगरनुं वर्णन कवि करे छे. त्यां मंदिर हतां पण पूजक कोइ न हता. कुसुमं हां परन्तु वास लेनार कोइ न हता. आ प्रकारचें नगर जोई भविष्यदत्त विस्मित थाय छे. (७) आ प्रकारनुं ज वणेन चालु. अर्धे उघाडां बारणां अने बारीओवाळां गृहो, पण्य वस्तुओथी भरपूर बजारो ते जुवे छे; परन्तु त्यां कोइ रहेनार के खरीदनार नथी. आखो देखाव शोकजनक लागे छे. परन्तु ते शुभचिहो जुवे Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૬ ; अने तेना मनमां उत्साह आवे छे. (८) भविष्यदत्त नगरमां भमे छे; पण भा घोर शून्यतानुं कारण तेने समझातुं नथी. (९) करतो फरतो ते यशोधन राजाना प्रासाद आगळ आवी पहोंचे छे. ते प्रासाद अने तेनां उपगृहोने ते शून्य देखे छे. (१०) ते आयुधशाला इत्यादि स्थानोए भटकतो चन्द्रप्रभजिनना मंदिरे आवी पहोंचे छे. (११) विशाल, सुघटित अने अलंकृत मंदिरमां ते प्रवेशे छे. तेनी आगळ आवेला सुन्दर कमल-सरोवरमां ते स्नान करे छे अने चन्द्रप्रभजिननी स्तुति: करे छे. (१२) चन्द्रप्रभजिमनी तेणे करेली स्तुति आपवामां आवेली छे. (१३) ३. छंदोरचनाः प्रस्तुत उद्धरणमां १३ कडवक छे. समस्त संधिमा आदिमां त्रण ध्रुवक छे. प्रथम ध्रुवक संधिवस्तुसूचक छे. बीजां बे आ कडवकनो बोध तारवर्ता ध्रुवक छे. आ उद्धरणमी पं. ३. त्रण खरी रीते चार पंक्तिनी बनेली छे. कवक ७. अने ११. नी घत्ता बाद करतां बीजी बधी घत्ताओनो छन्द आदि ध्रुवकना जेवो ज छे; एटले के तेमनुं मात्रामान १५+१३ = २८ नुं छे. प्रा. पिं. (पा. २०५ ) प्रमाणे आ उल्लाल छन्द छे: तिण्णि तुरंगम तिअल तह छह चउ तिअ तह अंत । एम उल्लाला उट्ठबहु बिहु दल छप्पण मत्त ॥ ४ + ४ + ४ (त्रण तुरङ्गम ) + ३ = १५; ६+४+ ३ = १३; कुल्ले आखा छन्दमां ५६ मात्राओ, मात्राजूथनो बंध प्रस्तुत उद्धरणनी घत्तामां सचवातो नथी. सामान्यतः १५+१३नो मेळ ज अहिं तो इष्ट छे. छं. शा ४२ (ब) समे चतुर्दश ओजे षोडश मन्मथविलसितम् । यथा, मयवसतरुणिविलोअणतरलु कलेवरु संपइ जीविउ मेहहु रमणीअणि सहु संगु चयउ हयवम्महविलसिउ || एटले १५+१३ = २८. हेमचन्द्रना अभिप्राये प्रस्तुत घत्तानो मन्मथविलसित छन्द छे. कडवक ११. मां मारकृति छंद छे. छं. शा. ४३ (अ) 'चपदाश्वातौ वा मारकृतिः ॥ चतुर्मात्रपञ्चमात्रद्विमात्राः । चतुर्मात्रद्वयत्रिमात्रौ वा मारकृतिः । यथा, तुह मार मारकिदी कवि एह नवल्लिअ । दूरि स बालहं भलि जं हिअडर सल्लिअ || कवक. ७ मा सामान्य पज्झडिआ ज घत्ताना छंद तरीके छे. संघिना आदिनी बीजां बे ध्रुवक मंदर छन्दमां छे. प्रा. पिं. पा. ३५१ Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रमाणे -~~ = भगणनां बे जूथन एक चरण एवां बे चरणोनो भा छन्द छे. प्रस्तुत उद्धरणना दृष्टांतमा अहो जिणु अंचहु, मं पर वंचहु । मां आदि अ वधारानो छे. कडवकना देहना छन्दमां, कडवक. १. पं. ४-६, कडवक. ३., कडवक. ७., कडवक. ८., कडवक, ९., कडवक. १३. बाद करतां अन्य कडवकोमा १६ मात्रानो पज्झडिआ छे, जेनुं लक्षण प्रथम उद्धदणमां निरूपित कयुं छे. कडवक. १. पं. ४-६. १५ मात्रानो पारणक. कडवक. ३. भुजंगप्रयात चार चगण = ४ ( --) ___ कडवक. ५.-चामर आदिमां गुरु पछी लघु एम २३ मात्रा सुधी होवू जोईए. एक चरणमा १५ अक्षर होवा जोईए. (जुओ. प्रा पिं. पा. ४८४) एटले छन्दोरचनाः--- - - - - - - - - - - - - - = गालगालगालगालगालगालगालगा ॥ आ छन्दमां कवि बे लघुने केटलीक वार गुरु तरीके गणे छे; एटले प्रा. पिं. प्रमाणे आ छंदमां १५ अक्षर होवा जोईए ए बन्धन त्यजे छे. सरखावो:कडवक. ७. पं. ७७. ८०. आदि दीर्घस्वरने बदले बे लघु स्वर; पं. ८४, सरव, भमिर, भमर, इ.. ..कडवक. ८.मां किंनरमिथुनविलास १०+१४=२४ मात्रानो छन्द छे. छं. शा. ४० (अ.) ओजे एकादश समे पश्चदश किंनरमिथुन. विलासः । यथा, अविरहियई मुइअहं, हरिणहं जि रइसुहु सलीसह पर एम्वइ किम्बइ, जसु किंनरमिहुणविलासइ । प्रो. याकोबी आने कलहंस कहे छे. ते छं. शा. प्रमाणे खोटुं . कडवक. ९ मां पारणक छे. कडवक. १३मां लक्ष्मीधर छन्द छे. रगण एटले (-~-)नां ४ जूथनो आ छन्द बनेलो छे. प्रा. पिं.पा.४४४. मां आ छन्दनी व्याख्या ऑपी छे. आमां पण बे गुरुने बदले एक लघु मूकाय छे. दा.त. तिलयदी (१) भरहखे । (२) सिसिरका (३) .... Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. टिप्पणः २. णिरु मूळमा णरु-नरः छे. जो ते स्वीकारीए तो भविसतुनी साथे ते पाठ लेवो पडे. णिरु-निश्चित. ६. कोइ द्वितीया एकवचन, पिक्खइनुं कर्म, ४-६. पंदर मात्राओनो छन्द छे; कडवकना देहमा सामान्यतः एक न छन्द होवो जोईए. कविनो प्रमाद होय के गमे ते बीजु कारण होय, पण कविनी आ रीत असाधारण तो छे ज. ७. सुहावइ [ सुखापयति ] मूळमां सुहाइ छे; परन्तु मूळनो पाठ स्वीकारवामां एक मात्रानी तूट पडे छे अने अन्त्यानुप्रास बेसतो नथी. ९. दुक्खहो भरिउ तृतीयाने बदले षष्ठीनो प्रयोग, अर्वाचीन गूजरातीमां आवो प्रयोग दृष्टिगोचर थाय छे. दा. त. दूधनो दाझ्यो, दुःखनों मार्यो इ०. आवा प्रयोग रूढ थवानुं कारण ए होय छे के बोलनार ‘दाझ्यो' 'मार्यो' नो कृदन्तार्थ भूली जई विशेषणार्थ उपर ज एकलो भार मूके छे १३. दइउ परम्मुहु सामान्यतः सति सप्तमी आवे स्थळे होय; परन्तु अवान्तरागत वाक्य ( Parenthetical clause ) तरीके आ बे शब्दो कविए अहिं मूक्या छे. १५.संवारिउ डॉ. गुणेनी भ. क.ना शब्दकोषमां संवारइ-संवृणोतिनो 'संताडवू, ढांक, अटकावq" ए अर्थ थाय छे, जे संदर्भनी दृष्टिए अयुक्त अने अनर्थक छे. जो संवृणोति लईए तो सं द्विमात्रिक बने अने मात्रा. तिरेकनी अनिष्टापत्ति आवी पडे. संनो अनुस्वार ध्वन्यात्मक छे अने संवारित (प्रा. समारइउ <सं. समारचित ए अर्थ, मात्रा अने व्युत्पत्तिनी दृष्टिए स्वीकार्य छे. “दुर्जनजनमां खोटी वायका पेदा करी छे. " सरखावो सि. हे. ८४९५। समार-सं. सम्+आ+/रच. २०. आ पंक्तिनो वाक्यरचनाः-जइ तं तेम घडिउ, तो तेण इ (घडिउ); तो किर काइं (मई) एणइ विसूरइ ॥ जो ते प्रमाणे अपयश करायो छे, तो ते तेनाथी करायो छे; तो पछी खरेखर मारे एनाथी शा माटे उद्विग्न थर्बु ?" २४. प्रथम भागमा १६ मात्रा छे; संचल्लिउ संमुहु काणणहो एम वांचीए तो वनथी थतो पुनरुक्तिदोष दू थाय अने मात्रा मळे. Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५. खयाल बीजा कोइ ग्रन्थ के कोषमां या देश्य शब्द मळतो नथी. 'झाडी' ए अर्थ ठीक छे. २९. डॉ. गुणे अर्थ काढवा माटे व्याकरणनी भांगतोड करे छे. निएउं हेत्वर्थकृदन्त ते मुख्य क्रियापदनी गरज सारे के अने नरिंदं छन्दोमेळ खातर नरिदोने स्थळे मूकवामां आभ्युं छे; एटले नरिंदं तेमने अभिप्राये प्रथमामां छे. आ तद्दन खोटुं छे. २८-३२ सुधी वर्णवेला, गजेन्द्र, मृगेन्द्र, बराह, हुताश अने मयूर पं. ३३ मां मुणेविनां कर्म छे. " कोइक स्थळे नरेन्द्र (= भविष्यदत्तने ) जोवाने, नासेलो नहि अने रुष्ट थएलो नह एवा अभिमानी सिंहने जोईने. " ३०. गुणे अने दलाल कज्जलाहं गयं एम बे अक्षर छूटा पाडे छे;. मां कांइ अर्थ नथी. ते भेगा करी संस्कृतछाया प्रमाणे अर्थ करवो. ३१. हुयासो द्वितीया, सरखाबो कोइ आज उद्धरण पं. ६. ३२. अप्पाणयं विष्णडतं ( भविष्यदत्तना ) आत्माने व्याकुल करतो संस्कृत छायामां विगोपायन्तं ने बदले विनटन्तं वांचो. गूजरातीमां प्रचलित रचना. ३३. हिंडंतु थिउ हडतो थयो ३५, धुपविमां ए एकमात्रिक छे. ३७. गुणे संझतेय तंबिरसराय इत्यादि भेगां लई पं. ३६ना दिणमणिनुं विशेषण बनावे छे. ज्यारे प्रो. याकोबो संझने कर्ता गणे छे. याको-बीनी अर्थसंकलना अहिं स्वीकारी छे प्रो. गुणेनी सूचनामां (१) हुअ, 'ई' अने आय एटले 'आवी' ए समजावनुं मुश्केल छे; कारण के पं. ३६ मां दुक्कु एटले 'गयो' क्रियापद तरीके मूक्युं छे. (२) संध्यानी नायिका तरीकेनी कल्पना. अने तेनो प्रवेश - आ बाबतो समजावाती नथी. प्रो. याकोबीनी वाचनामां आ स्पष्ट रीते आवी शके छे. मन्त्र. ४०. रहंग चक्रवाक. ४७. परमिट्ठि पंच अर्हत्, सिद्ध, गणधर, उपाध्याय, साधु. ४७. दुविहें पच्चक्खाणु बे रीते - एटले भावथी - विश्वारथी अने द्रव्यतः - कार्य प्रत्याख्यान = सावद्य एटले पापयुक्त आचरणमांची निवृत्ति. ४८. मंत सत्तक्खरउ-नमो अरिहन्ताणम् । ए सात अक्षरनो ५१. पयहिणंति बरोबर जमणी बाजुए. साम काळी कागडो. Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ . ५२. कागडो घरांगणे बोले तो प्रियजननो मेळाप करावे; ए शुक्न मणाय छे. - ५६. पण होमि 'आ रस्ते जईश' पछीथी ते विचार करे छे के आ मार्ग माणसना चालवाथी ज थएलो होवो जोईए; कारण के विद्याधर अने सुर जमीन पर पग मूकी चालता नथी.' संस्कृतमा 'अनेन तावद भवामि त्यारे तो आम जईश' एवो प्रयोग मालम पडे छे. ६०. निव्वडिउ कज्जु किं वित्थरेण-बहु लांबु कात्ये कयु कार्य थयु छ ! एटले बहु चिंता करवा करतां आगळ ज जq; बहु चिंता कर्ये शु कार्य थवानु छ ? प्रो. गुणे निव्वडउ सुधारवा कहे छे पण तेनी कोई जरूर बणाती नथी. आ ज विचार ६१-६२ (घत्ता)मां भारपूर्वक प्रतिपादित करवामां आन्यो छे:-ज्यां सुधी (जनो) (कार्य प्रति)सांचरता नथी, त्यां सुधी (कार्य) दुस्तर दुर्लघ अने दुरंतरित छे; पौरुषयुक अने मरणना भयनी अवगणना करता ( पुरुषोनें ) शुं सिद्ध यतुं नथी, बोलो ! " ६१-६२. आ पंक्तिओ प्रो. गुणेने व्याकरणदृष्टिए समजाई नथी तेथी ज अवगणंतहं बहुवचनने अपभ्रंशनी बहुलतानो आश्रय लई एकवचन तरीके गणाववा यत्न करे छे; कारण के सउरिसह-सुपुरुषस्य अर्थ करवा तेमनो अभिप्राय छे. वळी संचरहि-संचरन्ति ए बहुवचनरूप छे तेनी समजावट एकवचन तरीके तेमणे करी छे. आ बघा व्याकरणदृष्टिए प्रमादो छे. आना अर्थ माटे संस्कृतछाया जुभो. ६३ सुहिसयण बे शब्दो मूळमां छूटा पाज्या छे; न छूटा पाडीए तो पण चाले. तेथी तेना अर्थमांथी काइ व्यावृत्ति नहि थाय. " मित्र अने स्वजनने छोडी " एटले के मित्र भने स्वजनने हवे मळाय के न मळाय एम करी, तेमना प्रत्येना प्रेमनो अवरोध करी. प्रो. गुणे सुहि-सुधीः, सयण-सज्जन एम अर्थ करी भविष्यदत्तना विशेषण तरीके आ शब्दोने ले छे तेनो स्वीकार करवो मुश्केल छे. बळी प्रो. गुणे कबुले छे तेम सुहिसयण ए अपवंश महत्स्वजनना अर्थमा सामान्य जोडकुं छे, तेनाथी पण विपरीत अर्थ प्रो. गुणेने लेवो पडे छे. १५. अंतरिउ कालेणं काल काल जेम कालथी अंतरित थाय छे एटले जेम एक पळ पछी बीजी पळ एक पछी एक आन्या करे छे, तेम एक पछी एक तेनां पगलां पढता हतां भने भविष्यदत्त आगळ चालतो इतो. Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४. कर्तरि वर्तमानकृदंतने स्थळे: कर्मणि वर्तमानकृदन्त एटले प्रविशता ने बदले प्रविश्यमान > पविस्समाण. Ber ७९. हेत्वर्थने ं बदळे संबंधकभूतकृदन्त - पूज्जिऊण. त्या ते (मनुष्य) न हतो जे पूजवाने माटे ( तेनौ अंदर ) दृष्टि करे. ' 5 ८०. पसूण प्रसून; गुणे- याकोबी पसुअ; पसूअ स्वीकार्य छे. दे. ना. ६. ९. कुसुमे पस्अ । ८७. संबंधक भूतकृदन्तने स्थाने हेत्वर्थ तोडिउं. ८९. प्रो. गुणे “ There was no cne who would be affected by others' riches, covet it, take it to himself and think about doubters उपरना अर्थमां ण लुब्भए ना ण =not नो अर्थ क्यां ? वळी अप्पणम्मि अप्पनी छाया प्रो. गुणेनी दृष्टिए " आत्मनि अर्पयेत् " थाय. वियप्परसु एक शब्द तरीके वांचवानुं सूचन ते करे छे. आ प्रमाणे करेली अर्थनी कल्पना दूराकृष्ट छे. अर्थ:- "पारकानुं धन जोईने भवि व्यदत्त क्षुब्ध थाय छे पण लोभातो नथी; पोतानी मेळे विकल्पो करे छे अने ते चिंतें छे." अप्पधर्मा चोथीनो ए प्रत्यय आत्मनेनो अवशेष; अने आत्मन् नुं • अप्प अने अप्पणमाथी अप्पनो स्वीकार; आमांथी अप्पर रूप बन्युं . ९०. पुत्तिचोज्जु - चोज्जु = आश्वर्य दे. ना. ३. १४. गू. मां मा बेटुं' - ' मारी बेटीनुं ! एम आश्चर्यवाचक उद्गार वपराय छे. तेवो ज भा उद्गार छे. 'पुत्तिष' ' अम्वर ' ए आश्वर्यदर्शक उद्गारो अपभ्रंशमां सामान्य छे. जुओ पाहुडदोहा. १०८. ९१. वाहि मिच्छतं जणं दुरक्खसेण खद्धयं । दलाळ गुणेनी वाचना बरोबर नथी; तेमज प्रो. गुणेए तेमनी टिप्पणमां के कोषमां कांइ समजाव्युं नथी. ' व्याधि, म्लेच्छ, खराब राक्षसथो ते माणस खवाई गया हशे !' आश्चर्योद्गार होवाथी वाहि अने मिच्छना तृतीया प्रत्ययो त्यजी दई - दुक्खसेणना प्रत्ययथी चलावी लीधुं होतुं जोईए. ९३. याणिमोनुं आखं वाक्य कर्म होवाथी जं पहुं अने कहँ गयं विभक्ति होवा छतां तेनी कर्मविभक्ति करी अव्यवस्था आणी छे. इत्थु जु पहु आसि सु कहं गउ ण याणिमो एम खरी रीते हो जोईए. अथवा तो छन्द खातर पण पहुनी जाति बदली होय. ९८. छन्द साचववा फलअद्धुग्धाडियगवक्खरं । गवने सुजेवो वांबो it by १० Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 098 १०२-१०७ आपण = बजारनं श्लेषात्मक वर्णन छे. १०४. रंधि पलिप्त (बोजानी) भूल थतां गुस्से यता, धन ए ज जेनो अभिलाष के तेवा पुरुषोनी माफक हाट तेमनां छिद्रोमांथी पण प्रकाश आपन हर्ता. बंध दुकानोन छिद्रोमांथी अंदरनां रत्नो अने एवा बीजा चळकता पदार्थोंने लीचे प्रकाश भवतो हतो. १०५. वरइत्तजुवाणां णं वकुमारिहु चित्तई वर थता जुवानोनी चित्त जेम उत्तम कुमारिकाओ तरफ होय छे तेम सुन्दर कुमारीकाओनां चित्रोथी भरपूर हाट हतां. खरी रोते वडकुमारिहु चित्तई एनो बहुवीहि समास होय तो ज आवणाइंना विशेषण तरीके तेने कई शकाय शुं आ पण अपभ्रंशनी अराजकतानुं परिणाम हशे ! हु ने बदले सु करीए तो एकमां विश्विष्ट शब्दो भने बीजामां एटले चित्रपक्षे समास एम लईए तो मुश्केली 2ळे. १०६. योगीजनोना विवाहनां साधन, जेमां यौगिक रीते प्रतिपक्षीने स्तम्भ करवानुं समायलं छे, तेवां हाट, जेर्मा सघलुं स्तब्ध भएलं देखातुं हतुं. प्रो. गुणेनुं विवेचन जरा अस्पष्ट छे. ११०. दलालनो पाठ प्रो. गुणेना सूचन करतां सारो छे; बळी प्रो. गुणे छन्दोमेळ खातर व छोडी सुरई पाठ करवा कहे छे ते खोटुं छे; उलटं तेथी तो एक मात्रा शे. दलालना पाठमी व श्रुति के ज्यारे प्रस्तुत उद्धरणम प भुति मूकी के एटलो ज फेरफार छे. १११. प्रो. गुणे तित्थ < तोर्थ 'पवित्र स्थान' ए अर्थ के छे, ते aers aथी. तीर्थ = भोवारो ए अर्थ लेवानो छे. 'जे पाणीआरीओना घाट पहेली बीचोबीच हता ते भाग्यवशात् निःशब्द भने दवाजनक स्थितिना थया छे. " ११९. टिंटा के टेंटा द्यूतस्थान. दे. ना. ४. ३. टेंटा जूयपयम्मि; आ उपरथी न टिटाउत एटके जुगारी. मयरट्टा आ शब्द मदरता उपाधी होना संभव थे. दे. ना. मां नथी. बारवनिता, वेश्या ए अर्थ बेसतो भने अनुरूप के. १२०. आहोय = आभोग बुल्लो जमीननो विस्तार; जुम्ला जमीनना विस्तार, सुन्दर घरनों भांगणांधी युक्त होना छत, लोकोथी त्यत होवाने लीधे, शोभा भापता नथी. " " १२३. जे क्षयकालथी अंतरित पयुं होय ते केभी रीते तेथी उलटी एटले सारी स्थितिर्मा मळे ! एटले के जे वस्तु नाश पामी होय ते आखी भने बाजीसमी फेत्री रीते मळे ! पंडीवउ-मेथी उलट. Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११४. जेम काल क्षयकाले करेन विनाश तरफ जुए देवी री भवि. व्यदत्ते ते नगर तरफ हरि करी. ११५. महाइउ-महात्मन् ; माय-भात्मन् ए रूप मागधीमा भने तर. नुसार महाराष्ट्रीमा देखा दे के. ११६. सोहवारहो सुधारी उपमान साथे मेळ साववा सोहवार 'माणे शरमाता होय भने तेथी अर्धा उघार्ग रहां होय एवां राजमहलना सिंहद्वारने ते जोतो हतो.' १२७. णिग्गय (१) निर्गजहाथी विनानी ( १ ) निर्गत = बहार रखडती. मा शब्द पर श्लेष करो उपमा अहिं मूको छे. . __ १२८. विगयासई (१) जेमाथी घोडा जता रह्या छे एवी दुग्गा काओ (२) मांयी भाशा विनष्ट यई एवा प्रार्थनाभंग. उपरना जेवीब षोपमा. १९. सहु पंगणउ मा वाचना सुधारी सह-पंगणउम्समाप्रांगणं सभामंडपर्नु भांगणुं ए अर्थ करवो बरोबर छे. सहुनो सर्व अर्थ हेमचन्द्र विहित को नथी. सि. हे. ८॥३६६. सर्व-साह विहित करे); जो के पाछळथी सहु वपराशर्मा तो आवे छे. १३०. चामर, पोशाक सहित अने राजचित साये छत्र भने कनकपीठ सहित सिंहासन तेणे त्यां जोयु. ११. णिप्पड पहु भने विलक्खु अलज्जिउयी विरोधाभास भलं. पर आवेको छे. विलक्खु-विलक्षः ‘गांडो.' १८. वीणालावणिवंसविसेसई वीणा, भालापनी (जुओ पा. स. म. एक वाद्यविशेष ) वंशी जेमा मुख्य के ए. १३९. अच्छंतई समत्तांनी साये लह समाप्ते सति एम करी सप्तमीनो भर्य करवानो १४६. भविष्यदत्तने नरेन्द्र एटले मानवोमा उत्तम कहेवामां आव्यो के. नरेन्द्र एटले राजा ए अर्थ नथी लेवानों. नंदीसरदीड नंदीवर नामनो भाठमो दीप जुओ तत्वार्य० ३. ७. १५. दिढपकडिला हवे बेगाना बांच्या चित्र. Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ :१०; आगमजुतिपमापविहंजिउ शास्त्रमा बतावेली मुक्ति अने प्रमाणोथी विभक्त करेलु. १५. सुहलक्खपालकखणचच्च किउ शुभ लक्षणथी युक्त एवी सु. खडनी चर्चाथी अंकित थएलं. ५२. सच्छायपंओहर (1) शोभायुक्त अथवा स्वच्छ पाणीने धारण करती वार (२). शोभयुक्त जेना स्तन छे तेत्री कामिनी. १५५. परिचिवि अंचिवि प्रदक्षिणा करी तेम ज अर्चना करी. . ५६. सामाइउ सामायिक करीने.. १५८. काले चंउत्थे भवर्षिणीनो चोथो भारो एटले सुषमदुःषमामां. जुभी तत्वार्थ. ४. १५... १५ तस्सेव तेज काळना; प्रो. गुणे तस्सने विशेषनाम ले छे' परन्तु तेनो आधार कशो य नथी. तित्थेसए मागधीना अनुकरणमां प्रथमा होवी जोईए.. १५९. दसलक्खपुध्याउसे त्यारे मनुष्यनुं आयुष्य दश लाख पूर्वन हतुं पूर्व माटे जुओ तत्त्वार्थ ४. १५. भाष्यः-वर्षशतसहस्रं चतुरशीतिगुणितं पूर्वागम् । पूर्वाङ्गशतसहस्रं चतुरशोतिगुणितं पूर्वम् ॥ भा पण मागधीना अनुकरणमा प्रथमा.. . १६०. जेमनी उंचाइ दोढस्रो धनुषनी हती. ... १६१. जेमणे आठमुं तीर्थ पवित्रित कर्यु हतुं. चंद्रप्रभ भाठमा तीर्थकर हता. १६७. तक्कुओ जुओ पा. स. म. स्वजन. - १६८. माणम्मि काउं गणतरीमां कईने, काउं हेत्वर्यकृदंत संबंधक भूतकृदंत तरीके, . ॥ सप्तममद्धरणम ॥..... १. कवि अने तेनुं जीवनः-- ... . प्रस्तुत उद्धरण जोइंदु-योगीन्द्रना परमात्मप्रकाश नामे ३२३ दुहा + अग्धा, भने । सालिनी एम् .वे कोक छेवटे मळी ३४१ गीति कामोनो Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बा अन्य छे, रायचन्द्र जैन शास्त्रमालाना एक मणका तरीके से इ. स. ११६ मां प्रसिद्ध करवामां आम्यो हतो; परन्तु एक तो अपनं शभाषाना एक अमोल रत्न तरीके नहि पण एक धर्मप्रन्थ तरीके अने ते य हिंदीमा प्रसिद्ध करवामां आवेलो होई, तेना तरफ कोइ विद्वाननुं ध्यान गएलं नहि. प्रो.याकोबी तेमनी इ.स १९१८ मां प्रसिद्ध थएल भविसयत्तकहामा जोइन्दुनो उल्लेख करता नथी; तेम ज प्रो. गुणे भ. क. नी तेमनी १९२३ नी आवृत्तिमां पण जोइन्दुनो उल्लेख करता नथी. इ. स. १९२७मां जिनदत्तसूरिनां त्रण अपभ्रंश काव्यो (अपभ्रं. शकाव्यत्रयी G.O. S: XXXV.) ना संपादनमा प्रथम वार जोइन्दुनो उल्लेख करी, परमात्मप्रकाशना केटलाक दुहा टांकी, चण्ड अने हेमचन्द्रना प्राकृत. व्याकरणमा उदाहरण तरीके आवेला केटलाक दुहा साथे साम्य बतावी, जोइन्दुने चंडथी प्राचीनतर ठराववा, ते प्रन्थना विद्वान सम्पादक पं लालचंद्र भगवानदास गांधी यत्न करे छे. (जुओ अ. का. त्र. नी संस्कृत भूमिका पान. १०२-१०३). भा ज अभिप्रायनुं समर्थन श्री उपाध्ये — Joindu and his Apabhramsa works.' नामे लेखमा सविस्तर करे छे. प्रस्तुत लेख सने १९३१मां Annals of the Bhandarkar Oriental Research Institutet प्रसिद्ध थयो हतो. ते लेखमां तेमणे जोइन्दुना बीजा प्रन्थोनो पण उल्लेख कयों छे, जेवा के योगसार ( माणिकचन्द्र दिगम्बर ग्रंथमाला नं. ५१. पा. ५५-७४.) सावयधम्मदोहा, पाहुडदोहा . छेल्ला घे प्रन्थोनुं विवेचन भाठमा नवमा उद्धरणमा करवामां आवशे. " पं. लालचन्द्र भने श्री, उपाध्येनो आधार:- : कालु लहेविणु जोइया जिमु जिमु मोहु गलेइ ... तिमु तिमु दसणु लहइ जिउ किंगमें अप्पु मुणेइ ॥ मूळ दोहा ८६. सदर उद्धरण. ३०. भा दुहो यथा तथा अनयोः स्थाने जिमतिमौ ॥ ए सूत्रना उदाहरण तरीके चण्डना प्राकृतलक्षण ( Ed. Hoernle P. 37. ) मां टांकेलो छे. चण्डने छठा सैका पछीनों ज गणी शकाय, कारण के अपभ्रंश साहित्यभाषा बने त्यार पछी ज सामान्यतः तेनी सूत्ररचना थाय. ( भ क. Intro. P. 63. Gune ) ( Pischel:G. P. Ein. $. 35 ) (चण्ड, हेमचन्द्रनो पुरोगामी छे ए विधान : माटे सर्वे विद्वान संमत छे. ). एटळे जो चण्डने छठा, सातमा सैकानो गाणीप तो; Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 26 जोइन्दुने तेनी पूर्वे मूको जोईए आ प्रमाणे श्री. उपाध्ये छेवटे चण्डना समयनी पूर्वे जोइन्दुने थएलो माने छे. परन्तु आ दलीलनी सामे वेटली ज सबळ विरोधी दलीलो छे. (१) प्रा. ल मां आ एकलो ज दुहो उदाहरण तरीके आपवामां आध्यो छे; बीजां अपभ्रंशनां सूत्रो छे तेना पर प्रा. ल. मां उदाहरण नथी. प्रा. ल. नी एक ज हाथप्रतमां एक बीजो अपभ्रंश दुहो छे. परन्तु डो. इनले तेने पाछना उमेरा तरीके गण्यो छे. प्रथम दुट्टो के जेना आधारे चण्डथी जोइन्दुने प्राचीनतर ठराववा प्रयत्न करवामां आवे छे, ते हेमचन्द्रनी उदाहरणनी पद्धतिने अनुसरीने पाछळथी उमेरायो होय तो कांइ नवाइ नथी. (२) उपरनी इलोलने वधारे टेको तो जोइन्दुनी भाषानो छे. भाषा तो आम सरल छे. परन्तु झीणवटथो जोईए तो वेटलाक प्रयोगो दा. त. अणु=भने (सदर उद्धरण. दु. ४६, ५१. ) जवला = पासे पासे (उद्धरण. दु. ६५.) अर्वाचीनता तरफ वधारे वळे छे. अणु=अने; प्रा. गु. का. जंतुसामिचरिय ( पा. ४१ - ४६ ) कडी ३९. ( वि. सं. १२६६ ) पंचमहव्वयभार मेरुसमणाउ अंगमद्द ए । अनु तेतउ परिवार सोहमसामिर्हि दिक्खिउ ओ ॥ ते ज प्रमाणे सप्तक्षेत्रिरासु ( पा. ४७-४८, ) कडी ३८. बउलि सिरोवालउ वेअलु अनु करणी पाडल । (वि. सं. १३२७ ) इ. आ प्रयोग हेमचन्द्रे विहित कर्यो नथी; तेम बीजां जूनां अपभ्रंश लखाणोमां दृष्टिगोचर थतो नथी. जवला = मेगा, साधे साधे' ए अर्थम जूना गूजरातीमां मालम पडे छे. श्री. नरसिंहराव G LL. II. P. 117 "The periods covered by this word range from Narasimha Mehta down to Akho; the word is however in frequent use upto about V. S. 1900. " अर्वाचीन मराठी जवळ= पासेना अर्थमां छे. आ उपरांत केटलां य तत्त्वो हे जे जोइन्दुना अपभ्रंशने प्रांतीय भाषाओनी समीपतर लावे छे. (1) सि. हे. ना उदाहरण साधेनुं साम्य अमोने कबुल छे. भने हेमचन्द्रनी पूर्वे जोइन्दु मूकाय; पण एक तो चण्डना समयनुं ज ठेकाणु नथी. अने तेने सामान्यतः छठा, सातमा शतकनो भारी तेनी पूर्वे जोइन्दुने मूकवो यथार्थ नथी. Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जोइन्दु-परमात्मप्रकाश ॥ हेमचंद्र-सि. हे. ॥ संता विसय जु परिहरह | संता भोग जु परिहरह बलि किज्जलं हउं तासु।। तसु कन्तहो बलि कीम् ।.. सो दइवेण जि मुंडियउ तसु दइवेण वि मुण्डियउं सीसु स्वडिल्लउ जासु ॥ २७०॥ जसु खल्लिहडउं सीसु ॥४॥३८९। पंचहं णायकु वसि करहु जिभिन्दिउ नायगु वसि करहु जेण होति वसि अण्ण । जसु अधिन्नई अन्नई। मूल विणट्टइं तरुवरहं मूलि विणदुइ तुंबिणिहे भवसई सुक्कहि पण्ण ॥२७१॥ | अवस सुकरं पण्णई ॥४॥४२७। उपरनां कारणोथी जोइन्दुने हेमचन्द्रनी पूर्वे मूकी शकाय; परन्तु विक्र. मना दशमा भगीमारमा शतकनी पूर्व तेने लई जवो बरोबर नथो. जोइन्दुना परमात्मप्रकाश पर एक संस्कृत टीका छे. टीकाकारतुं नाम ब्रह्मदेव छ भने वि. सं. सोळमा सकाना मध्य भागमा ते थई गयो (जुओ, प्रस्तावना-परमात्मप्रकाश) १. उद्धरणवस्तुः भापणे जोयु के मा प्रन्यनो मूळ कर्ता योगीन्द्रदेव छे. ा अन्य एने भट्टप्रभाकर नामे श्रोताने उद्देशीने कह्यो होय एवी रीते रच्यो . ( जुओ सदर उद्धरण दोहा. ४. ) जैनोना अनेकांतवाद करता, उपदेश परमात्मवाद के परब्रह्मवाद-जे उपनिषदोमा उपदेशायलो छे तेना तरफ वळे छे. केटली कवार तो उपनिषदना मन्त्री भने भगवद्गीताना श्लोकना अपभ्रंश भाषातर जेवा केटलाक दुहाओ छे. परमात्मप्रकाशना ७५ दुहामांथी १४ दुहाओ सदर उद्धरणमा लीधा छे. उपनिषद्ना परब्रह्मवादने जैन तत्त्वज्ञाननी परिभापामां घटावया पण भत्रे यत्न करवामां माग्यो छे. ३. छंदोरचनाः भाखा य उदरणमा दोहा-छन्द छे; प्रा पिं. पान १३८ पर नीचे प्रमाणे दोहानी व्याख्या भापे छ:-तेरह मत्ता पढम पअ पुणु एआरह देह । पुणु तेरह पारहिं दोहा लक्षण पह ॥ एटले १३+191३+9॥ एम दोहानी मात्राओ Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. टिप्पणः- . . . . १-४. आ बे दुहा साथे लई वाक्यार्थ करवानो छे. सरखावो ज्ञानाग्निः सर्वकर्माणि भस्मसात्कुरुतेऽर्जुन ॥ भ. गी. ४. ३७.... . .. ३. अच्छहि-सन्ति । छापेली आवृत्तिमा अहि टीका तिष्ठन्ति । ५. णियंति-पश्यन्ति । सि. हे. ८।४।१८१ । छापेली आवृत्तिनी छाया निर्यान्ति भने टीकाकारतुं निर्गच्छन्ति अस्वीकार्य छे.... ... ६. तिण्णि आचार्य, उपाध्याय अने साधु ए त्रण. ____५. पंचगुरु अर्हत, सिद्ध, गणधर, उपाध्याय अने साधु, ए पांचने भट्ट प्रभाकर नमस्कार करे छे अने ते योगीन्द्रने अरज करे छे. सिरिजोइ. न्दजिणाउ "श्रीयोगीन्द्रजिनः" एम टीकाकार अने छायाकार भेगुं ले छे, ते तद्दन खोटुं छे. अमारी संस्कृतछाया जुओ. ११. चउगइ नरक, तिर्यक्, मनुज, अने देव ए चार गति. १३-२२ आत्माने त्रण प्रकारनो गणावे छः मूढ, विचक्षण अने परब्रह्म. वस्तुतः आत्मा अभेद्य छ परन्तु अज्ञानने लीधे ज विभकतानो अध्यास , थाय छे. १९-४४ सुधी परमात्माने ज लक्षित करी विवेचन करेलुं छे. " ३७. कोइनी छाया कंचित् करी छे ते सुधारी कश्चित् करो, स्फुरति-संवित्तिमायाति. ३९-४० मुक्कह-एकवचनमां वपरायुं छे; आ पण जोइन्दुनी अर्वाचीनतानी नीशानी छे. "अनंत गगनमा एक नक्षत्रनी माफक त्रणे भुवन जे मुक्तना केवलज्ञानरूपी पदमा बिंबित थयां छे, ते अनादि परमात्मा छे." अनंत गगनमा विकल्प पेदा करतो सूर्य ए परम सत्व जे गगन तेनी यथार्थताने हानि करी शकतो नथी, तेवी ज रीते, त्रणे य भुवननुं अस्तित्व केवल प्रतिबिंबात्मक अने अयथार्थ होई अनंत केवलज्ञानना सत्त्वन अबाधक नथी. आम जे समजे छे ते परमात्मा ज छ; आ दुहाना स्पष्टार्थ माटे जुओ सदर उद्धरण. दुहा. ३३. ....... ५९-६० आ श्लोक चण्डना प्रा. ल. मां छे. १०. एक म्यानमां बे खांडां क्याथी रहे ? .., . १.३-१०४. या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी । यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥ भ.गी. २.६९ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२१-१२२. अहो दुर्जनसंसर्गान्मानहानिः पदे पदे । पावको लोहसंगेन मुद्गरैरभिहन्यते ॥ सुभाषित. १३५ - १३८. हेमचन्द्रना दुहाओ साधे सरखामणी. जुओ १. कवि अने तेना जीवनमां करेलुं विवेचन. १. कवि अने तेनुं जीवनः प्रस्तुत उद्धरण माटे 'Joindu and his Apabhramsa Works J. Bhand. O.R I 1931 मां दोहाप्राभृतमांथी उतारा आवेला ते अमे लखी लीघेला. त्यार पछी इ. स. १९३३मा प्रो. हीरालाले 'पाहुडदोहा ' प्रन्थ श्री अम्बादास चवरे दिगम्बर जैन प्रन्थमालाना मणका, ३ तरीके प्रसिद्ध कर्यो. आ बन्ने मूळना आधारे अमे प्रस्तुत उद्धरण तैयार कयुं छे. आने माटे अमे श्री. उपाध्ये तेम ज प्रो. हीरालालना ऋणी छीए. ॥ अष्टममुद्धरणम् ॥ . प्रो. हीरालाल आ काव्यना कर्ताने रामसिंहमुनि ओळखावे छे. तेमणे वापरेली श्री. जुगलकिशोर मुख्तारे मोकली आपेली दील्हीनी प्रतना अन्तमां लखेलुं छे के : - इति श्रीमुनिरामसीहविरचिता समाप्तम् | कोल्हापुरनी श्री. उपाध्ये वाळी प्रतने अन्तेः - इति श्रीयोगेन्द्रदेवविरचितदोहापाहुडं नाम समाप्तम् ॥ प्रो. हीरालाल दलील करे छे के सामान्य रीते जोइन्दु पोतानुं नाम ग्रंथमां मूके छे ते आ ग्रन्थमां नथी. परन्तु आ दलील एटली बधी सबळ नथी. जोइन्दुनुं नाम अमे पसंद कर्यु तेनुं कारण तो कोल्हापुरनी प्रतनो आधार अने प्रस्तुत प्रन्थनुं परमात्मप्रकाश साथै असाधारण साम्य ए ज छे. बाकी आ प्रन्धना कर्तानो प्रश्न प्रो. हीरालाल कहे छे तेम खरेखर जटिल ज छे. ११ पाहुड - दोहा अने सि. हे नां केटलांक अपभ्रंश उदाहरणो वच्चे साम्य छे. (प्रो. हीरालालनी भूमिका. पा. २२ - २५) तेमां हेमचन्द्र ज पाहुडदोहामांथी उदाहरण माटे लेनार जणाय छे. एटले विक्रमना बारमा शतकना मध्यमां थएला हेमचन्द्रनी पहेली आ प्रन्थनो कर्ता थयो होवो जोईए. २. उद्धरणवस्तुः परमात्मप्रकाशनी जेम आमां अध्यात्मवादने अप्रस्थान आपी इन्द्रिय ― Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुख, क्रियाकांड अने मा जगतनी प्रवृत्तिओने अज्ञानरूप अने अयथार्थ गणावी छे. आ प्रन्थमा कुल २२२ दुहा छे. तेमाथी प्रस्तुत उद्धरणमां फफ १३ बुहा लीधा छे. ३. छंदोरचनाः दुहा. १३+११ । १३+११ ॥ ३. टिप्पणः३-६. सरखावो. कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन् । इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥ यत्स्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन । कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥ - भ.गी. ३. ६-७. ६. सालसित्थु आने माटे एक वार्ता छे. काकीन्दी नामे नगरीमा एक राजा हतो. ते श्रावक होवा छतां एक वेदानुयायीनो संगतिथी मांसभोजन करवा देने इच्छा थई. परन्तु लोकापवादना भयथी प्रकट रोते तो ते मांस खाई शक्यो नहि. तेणे एक मांसनी वानीओ बनावनार रसोईओ राख्यो. पेलो मांसनी रसोई बनावे परन्तु राजा हृदयमा भाव होवा छतां एक या बीजा कारणथी ते खाई न शके. आम करतां रसोईओ सर्पदंशथी मरण पाम्यो अने स्वयंभूरमण समुद्रमां महामत्स्य थयो. राजाए द्रव्यतः व्रतभंग नहोतो 'कयों छतां भावयी तो कयों हतो. ते शालिसिक्थ नामे कीडो बनी पेला महामत्स्यना कानमां जन्म्यो, महामत्स्यना मुखमां अनेक जलचरी प्रवेश करी बहार नीकळतां जोई शालिसिक्थना मनमा विचार थयो के, “खरेखर आ मत्स्य मूर्ख छ; हुँ जो मत्स्य होउं तो एक पण प्राणीने जीवतुं न मू कुं.” आ प्रमाणे हृदयमा मलिन भाव धरतो ते शाहिसिक्थ मरण पाम्यो अने सातमा नरकने पाम्यो. ९-१०. पं. ९ मां कम्मह हेउ करंतु ए शब्दसमूहने सो मुणि (पं. १०) ना विशेषण तरीके लेवो. अर्थ-" जेना मनमा ज्ञान उत्पन्न थतुं नथी ते मुनि कर्मनो हेतु उत्पन्न करतो होई सुख पामतो नथी-एम बधां शास्त्रो कहे छे." ज्ञानना अभावे कदाच देखादेखी कर्म न करे तो पण तेना मनना कर्मना भाव तो जता ज नथी; एटले के एना कर्मनो हेतु तो नाश पामतो नथी, अने तेथी ज मिथ्याचार बनी ते सुख पामतो नथी. मुणंतुवर्तमानकृदंत क्रियापद तरीके. Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८३ १२. अत्थइ -अच्छर ए खरु अपभ्रंश छे. प्रो. हीरालाल, अच्छा वांचे छे. १४-१५. तमेव धीरो विज्ञाय प्रज्ञां कुर्वीत ब्राह्मणः । नानुध्यायान्बहूञ् शब्दान् वाचो विग्लापनं हि तत् ॥ बृहदारण्यकोपनिषद् ४, ४, ५. अहिं एक अक्षरनो उल्लेख छे ते ॐ छे. सरखावो ओमित्येकाक्षरं ब्रह्म व्याहरन् मामनुस्मरन् । यः प्रयाति त्यजन् देहं स याति परमां गतिम् ॥ भ.गी. ८.१३. २५-२६. जेओ वादविवाद करे छे, जेमनी भ्रान्ति तूटी नथी अने जे पोताना आत्माने भ्रान्त करे छे, ते जुगुप्सित ( = भ्रान्त ) थाय छे. प्रो. हीरालाल रत्ता वांचे छे, परंतु ते पाठ अत्ता होवा वकी छे. ॥ नवममुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जोवनः आ उद्धरणना त्रण आधार छे. (१) भांडारकर इन्स्टीट्युटनी हाथप्रत (२) प्रो. उपाध्येनो जोइंदु परनो लेख अने (३) प्रो. हीरालाल जैने संपादित करेली 'सावयधम्मदोहा ' नी आवृत्ति ( अम्बादास चवरे दिगंबर प्रन्थमाला - २. ). भाण्डारकर इन्स्टीटयुट पूना नं. १३०८/१८९१ - ९५ नी प्रतमां छेवटे : मूलं योगीन्द्रदेवस्य लक्ष्मीचन्द्रस्य पंजिका । वृत्तिः प्रभाचन्द्रमुनेर्महती तत्त्वदीपिका ॥ श्लोक छे. आ उपरथी जोइन्दु ना नाम हेठळ आ उद्धरण मूकयुं छे. परंतु आ काव्यना कर्ता विषे छेल्लो निर्णय नथी. प्रो. हीरालाल जैन एक प्रतिना अंतिम दोहाने आधारे अने परंपरागत कहाणीने आधारे देवसेनने आ कृतिना कर्ता तरीके गणावे छे. देवसेनने आ कृतिना कर्ता तरीके ठराववा तेओए आपेली दलीलो सबळ तो नथी. ज. गमे तेम हो, परंतु कृति दशमा अगीआरमा 'विक्रमशतकनी होवा संभव छे. उद्धरणवस्तुः वातमा अने आठमा उद्धरणमां सामान्यतः अभेदवाद अने तत्वज्ञानने लगता दुहाओ छे; ज्यारे आ उद्धरणमां श्रावकोना आचारने लगता दुहाओ छे. आ त्रणे य उद्धरणना दुद्दामां एक वस्तु खास ध्यान खेचे छे. लौकिक उक्तिओ अने दृष्टान्तोथी आ दुहाओ भरपूर छे. आ सत्य तो सामान्य वांचनारने पण प्रतीत थशे. मूळ ग्रंथमां २२८ दुहाओ छे; तेमांथी आ उद्धरणमा २४ दुहाओ देवामां आग्या छे. Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शानि जीव ३. छंदोरचनाः दुहा १३+११ । १३+११ ॥ ४. टिप्पण: ५-६. तपाव, कापy, कसोटीपर चढावई, टीप-आ चारे य परीक्षामां सोनुं पार उतरे छे. ते ज प्रमाणे जे मुनि संयम, शील, शौच अने तप ए चारे य मां बरोबर पार उतरेलो होय ते ज गुरू थवा योग्य छे. . पिडि = पिण्डे भ० हाथप्रत टिप्पण= पथि 'मार्गमां' एम नोंधे छे. पिण्ड-समूह ९-१०. सात व्यसन+पांच उदंबरनो त्याग आठ त्याज्य वस्तुओ. सात व्यसनो ते द्यत, मांस, सुरा, वेश्यागमन, आखेट, चौर्य अने परस्त्रीगमन साते य व्यसनो दुहामां गणाव्यां नथी, जो के पं. १०मा अट्ट शब्दनो प्रयोग कयों छे. पांच उदुबर एटले वड, पीपळो पीपळी, उंबरडो अने कोठिंबडी ए पांच जातनां फळोनो समूह. त्रस बे-इन्द्रिय आदि जीव, ११. महु प्रथम व्यसन 'मद्य ' तेनी चर्चा करे छे. तिडिक तणखो प्रो. हीरालाल: तिडिक्किडउ. १३-१४. 'सूका भेगुं लीलू बळे ' ए गूजराती कहेवत सरखावो. प्रो. हीरालाल: 'वसणासत्त-व्यसनासक्त जनो' एम अर्थ करे छे. पं. १४मां (ही.) नो पाठ डझंत छे. १५-१६. ' दूध पाईने साप उछेरवो नहि ' ए कहेवत सरखावो. १७-१८. कायउ-कामपि रूप जूनुं देखातुं नथी. जहिं साहसु तहिं सिद्धि । आ चरण लई जूना गूजरातीमां घणा दुहा बनावेला मालम पडे छे. दा. त. सींह ण जोयइ चंदबल नवि जोयइ घणरिद्धि । एकलडो बहु आभिडइ जां साहस तिहां सिद्धि ॥ १९-२०. दानने माटे त्रण योग्य जन- १ मुनीन्द्र, २ श्रावक ३. अविरत सम्यग्दृष्टि पुरुष. आ प्रमाणे दान करनारने पांच कल्याणनो लाभ थाय छे. २१-२२. कुपात्रने आपेला दानवें विपरीत परिणाम समजावे छे. २९-३०. धर्मने लीघे माणस वाहनमा जाय छे; पापने लीधे माणसने वाहन खेचवू पडे छे. घर बांधनारा घर पर चढे छे; ज्यारे कुवो खोदनारा नीचे जाय छे. ३१-३२. सेंकडो शास्त्रो जाणवा छतां, विचारीने ते धर्म आचरतो नथी; Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सो सूरज उगे तो पण घूवड तो आंधळु ज रहेवावं. (ही.) वियाणियह++ चढइ मणे वि । आपणा पाठ चरइने कोइ हाथप्रतनो टेको नथी. (ही.) नी द. हाथप्रत चडइ वांचे छे. ४१-४२. जिनपूजाने लगतो आ दुहो छे. गंधोदकप्रक्षालनना विधिनी अत्रे श्लाधा छे:-जिनवरने गंधोदकथी स्नान कराव्याथी बहु पुण्य थाय छे; विमल जलमां पडेला तेलना बिंदुने पसरतां कोण अटकावी शके ? ८५ असिमाउसा आ पांच वर्ण अनुक्रमे अईत् , सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय अने साधु एम .पांचना द्योतक छे...आ पांच जेना हृदयमा छे, तेने पाप पहोंची शकतुं नथी; उंडा पाणीमां ऊभेलाने दावानल शुं करी शके ? ॥ दशममुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवनः उद्द्योतननी कुवलयमाला हजु अप्रसिद्ध छे. श्रीजिनविजयजी शांतिनिकेतनथी बहार पडती संघी प्रन्थमालामां आ ग्रन्थ- संपादन करी रह्या छे. आ ग्रंथनी बे प्रतो मळे छे. एक भांडारकर इन्स्टीटयूटनी कागळनी हाथप्रत अने बीजी जेसलमीरना भण्डारनी ताडपत्रनी हाथप्रत. बन्ने हाथप्रतोनी वाचना फरकवाळी छे अने एकबीजानी केटलीक वार पूरक छे. श्रीजिनविजयजीए कृपा करी तेमना सम्पादनना आदिनो मुद्रित भाग अमने आप्यो हतो. तेना परथी प्रस्तुत उद्धरण लेवामां आव्यु छे. उदद्योतननी जीवनमाहिती माटे अत्यारे त्रण लेख उपलब्ध छेः (१) वसन्तरजतमहोत्सवस्मारकग्रंथमा श्री. जिनविजयजीनो उदद्योतननी कुवलय. माला नामे लेख; (२) रत्नप्रभसूरिनो कुवलयमालानो संस्कृतसंक्षेप श्री. चतुरविजयजी महाराजे भावनगर जैनसाहित्यप्रसारक सभा तरफथी संपादित को छे; तेनी संस्कृतप्रस्तावना; (३) अपभ्रंशकाव्यत्रयी ( G.O.S.No.37 ) नी पं. लालचंद्रनी संस्कृतप्रस्तावना, पा. ८९-९४. उदद्योतने पोताना जीवननी सर्व माहिती कुवलयमालाना आरंभमां ज आपी छे. तेना उपर ज आधार राखी उपरना लेखकोए सेना विषे वृत्तांत लख्यां छे. जेसलमीरनी हाथप्रतनी फोटो-कोपी बरोडा ओरीअन्टल इन्स्टीटयूट पासे छे. उद्योतन उर्फे दाक्षिण्यचिहने कुवलयमालाकथा वि. सं. ८३५ मां लखी. तेना पितानुं नाम वडेसरवटेश्वर हतुं. तत्त्वाचार्य-जेना गुरु वटेश्वर हता-ते ज उद्योतनना गुरु हता आचार्य वीरभद्र अने समरादित्यकथाना Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रचयिता प्रख्यात आचार्य हरिभासूरि उद्योतनना विद्यागुरु हता. उद्योतनना गुरु अने तेमनी परंपरानुं मुख्य निवासस्थान भिन्नमाल नामे नगर हतुं. उद्योतन लखे छे के ते समये गूर्जरदेशने जैनमुनिओए देवमंदिरो बंधावी रम्य बनाव्यो हतो. जाबालिपुर (जालोर ए जोधपुर राज्यना दक्षिण भागना एक जिल्ला- मुख्य स्थान छे ) त्या उद्योतनना गुरु वीरभद्र-आचार्य ऋषभजिननुं एक मंदिर बंधाव्युं इतुं. त्यां रही तेणे"चैत्र कृष्णपक्षनी चतुर्दशीना दिवसे भव्यजनोने बोध करनारी आ कथा पूर्ण करी.” "शककालनां सातसो वर्ष व्यतीत थवामां मात्र एक दिवस न्यून हतो ते दिवसे अपराह्नवेळाए आ कथा समाप्त थई छे." उद्योतनसूरिनी कुवलयमालाकथा भाषानी दृष्टिए अति उपयोगी ग्रंथ छे. उद्योतनसूरिना काळमां संस्कृत, प्राकृत अने अपभ्रंश ए त्रणे साहित्यभाषा तरीके एक पंक्तिए गणाती भाषा हती: आयण्णिऊण य चिंतियं णेण-' अरे कयलीए उण भासाए एणं उल्लवियइ केणावि किंपि । हूं अरे, सक्कअं ताव ण होइ, जेण तं अणेयपयसमासणिवाउवसग्गविभत्तिलिंगपरिअप्पणाकुघियप्पसंगदुग्गमं दुज्जणहिययं पिव विसमं । इमं पुण एरिसं । ता कि पाययं होज्ज । हूं । तं पि णो जेण तं सकलकलाकलावमालाजलकल्लोलसंकुलं लोयवृत्तंतमहोअहिमहापुरिसमहणुग्गयामयणीसंदबिंदुसंदोहं संघडिएक्केक्कमवपणपयणाणारूवविरयणासहं सज्जणवयणं पिव सुहसंगयं । एयं पुण ण सुट्टु । ता किं अवहसं होहिइ । हूं। तं पि णो जेण सक्यपाययउभयसुद्धासुद्धपयसमतरंगरंगंतवग्गिरं णवपाउस. जलयफ्वाहपूरपव्वालियगिरिणइसरिसं समविसमं पणयकुवियपियपणइणिसमुल्लावसरिसं मणोहरं । एयं पुण ण सुट्ठ । किं पुण होहिइ ति चिंतंतयेण पुणा समायण्णिअं । अरे अस्थि चउत्थी भासा पेसाया ता पुण इमा होहि त्ति । ( ताडपत्रप्रती-पत्र ५७-५८.) ___ उपरना अवतरणमा अपभ्रंशनुं संस्कृत अने प्राकृतनी साथे स्थान तो हतुं एटलं ज नहि पण उद्योतनना हृदयमां तेनुं स्थान संस्कृत, प्राकृत अने पैशाची करतां य उंचे आसने हतुं, ते तेना अत्यन्त श्लाघापूर्ण वचनो कही बतावे छे. Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ उपरांत आ प्रन्थनी आदिप्रशस्तिमां पण अपभ्रंशनो उल्लेख छ, पाययभासारइया मरहट्ठयदेसिवण्णयणिबद्धा सुद्धा सयलकह च्चिय तावस-जिण-सत्थवाहिल्ला ॥ कोऊहलेण कथइ परवयणवसेण सक्कयणिबद्धा किंचि अवब्भंसकया का विय पेसायभासिल्ला॥ आ प्रमाणे अपभ्रंश एक विकसित अने संस्कृत अने प्राकृतनी पंक्तिमा बेसवा योग्य भाषा तरीके उदद्योतनसूरिए गणी छे. आ उपरांत अपभ्रंश दोहा 'पण आ कथामां स्थळे स्थळे देखा दे छे. प्रस्तुत अपभ्रंशपाठावलीना चौदमा उद्धरणमां भमे बे दुहाओनी नोंध लीधी छे. आ उद्धरणमां पण बे दुहामी छ जे वाचक जोई शकशे. एटले के वि. सं. ८३५मां तो क्यारनी य अप. भ्रंश साहित्यभाषा थई चकी हती. भाषासम्बन्धी बीजी बाबत जे आपणने कुवलयमालामांथी प्राप्त थाय छे ते देश्यभाषाओ सम्बन्धी माहिती. संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंशना त्रण महानदोनी आगळ पाछळनी भूमिमां देश्यभाषाओना स्रोत वहेता हता. आना 'पूरावा आपणने कुवलयमालामाथी प्राप्त थाय छे. सामान्यतः श्वेतांबर आगमअन्थोमा अढार देशी भाषाओना उल्लेख आवे छे. (जुओ, G.P. Ein.30.). आ अढार देश्यभाषाओने उद्द्योतने बोली-प्रकारना टंकां उदाहरण मापी समजावी छे. ( ताडपत्र पत्री. १३१-१३२) आ विषयने लगती गाथाओ बीजा लेखकोए नोंधी छे एटले अत्रे तेने टांकी विस्तार करवो अनावश्यक छे. (जुओ. अ. का. त्र. संस्कृत प्रस्तावना पान. ९१-९४; पं. बेचरदास प्राकृतव्याकरण प्रवेशक, पान १८-२४). पण आ उपरांत केटलीक देश्योकिना आखा फकरा ने फकरा आ प्रन्थमां मालम पडे छे. तेवं एक दृष्टांत ताडपत्र पोथी, पत्र ५१. भांडारकर प्राच्यमन्दिरनी प्रत भने अ. का. त्र. प्रस्तावना पान. १८९-११०ने सरखावी नीचे टांक्यु छे ते जो: तउ भणियं एक्केण गाम-महत्तरेण, “एउ एहउं होउ मणुस्साहं सब्बु एउ आयरिङ । तुज्झा -णउ वंकु वलियउ। प्रारद्धउं एउ प्रइ सुगइ । भ्रातु चर भ्राति संप्रद ।" तओ अण्णेण भणियं, Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " जं जि विरइउ घणलवासाए सुह-लंपडेण एउ मई दुत्थमणमोहलुद्ध तुं संप्रति बोलियउ । उ एउ पार भल्लउं । " तर अण्णेण भणिअं चिरजराजुण्णदेहेण, एत्थ सुज्झइ किर सुवणं पि वइसाणरमुहगयउं । रे एउ पाउ मित्तल वचण । कामालियव्रतधरण एउ एउ सुज्झेज्झ गाहिं "। तउ सयलद्वंगसामिणा भणिअं, ८८ 16 66 धवलवाहण-धवल- देवस्स सिरि भ्रमति जा विमलजल धवलुज्जल स भडारि यदि प्रावेसि तुहुं मित्रद्रोज्झु तो णाम सुज्झइ ॥ "x उपरना अवतरण उपरथी मालम पडशे के देश्यभाषा अपभ्रंशनी समीपवर्तिनी हती; परन्तु ते तेनाथी कांईक अंशे जुदी पडती हती ए वात पण साथ साधे खरी छे. आ विषयनी वधु चर्चा अन्यत्र व वी पडशे एटले अहिं तो आटलेथी बस. x ततो भणितमेकेन ग्राममहत्तरेण, "" एतद् एतादृशं भवतु मनुष्यस्य सर्वमेतदाचरितम् । तव वक्रं वलितम् । प्रारब्धमेतत् प्रति सुगतिम् । भ्रातः चर भ्रातः संप्रति । "" ततोऽन्येन भणितम्, (6 यदेव विरचितं धनलवाशया सुखलंपटेन एतन्मया दुष्टामनोमोहलुब्धेन त्वां संप्रति कथितम् । एतदेतत्प्रारब्धं भद्रम् । " ततोऽन्येन भणितं चिरज जीर्णदेहेन, 66 66 अत्र शुध्यति किल सुवर्णमपि वैश्वानरमुखगतम् । रे तत्पापं मित्रस्य वचना | कार्पटिकव्रतधरणेन एतदेतच्छुध्येन्न । " ततः सकलद्रंगस्वामिना भणितं, "" धवलवाहनधवलदेहस्य शिरसि भ्रमति या विमलजला धवलोज्ज्वलां तां भट्टारिकां यदि प्रविशसि त्वं, मित्रद्रोहस्ततो नाम शुध्यति । आ छाया अर्थवाही छे. देश्यभाषाना पाठ बे प्रतोनी सरखामणी करी मूकवामां आव्यां छे. अर्थसूचन जेमांथी अधिकतर थाय तेवा पाठो लीधा छे. Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रस्तुत उद्धरणबी भाषा महाराष्ट्री अने अपभ्रंश ए बन्नेना मिश्रणयुक्त छे. आखं य उद्धरण गथमां के सिवाय के बच्चे बच्चे ६ गाथा + १ दुहा - ८ पथ छे. हाथप्रतोनी लखाणपद्धतिने कारणे उ अने ओना लखवामां शाक्षो फेर न होवाथी, एकला प्रथमाना ओने कारणे कथा उद्धरपनी भाषाले महाराष्ट्री कवी युक्त नथी. २. उद्धरणवस्तुः - आखीय कथावस्तु नाट्यदृष्टिथी मूकवामां आवी छे. लेखक पहेला वाक्यमां कथा कहेवानी शरु करे छे; पण तरत ज तेने कांइक याद आवे छे. बासजनने तो पिंड आपवानो रही गयो !' पछीथी अलंकारयुक्त गद्यम लेखक प्रथम दुर्जननी व्याजस्तुति करे छे; ( ५-४१.) त्यारपछी सज्जनप्रशंखा एवा अ अलंकारयुक्त मद्यमां लेखक करे छे. (४१-७१.) आ प्रमाणे सज्जन दुर्जनविवेक अपभ्रंशमां कविओो खास करीने करता. दा. त. जुओ भविसयत्तकहा. संधि. १. कडक ३. ४. ३. टिप्पण: ८. करसउ [ कीदृशः] अपभ्रंशपरू सि. हे. ८२४१४०३| महाराष्ट्री प्राकृत केरिलो । हूं - हुं दानपृच्छानिवारणे । सि. हे. ८। २। १९७ । सुणउ = शुनकः वांचो; श्रृणोतु छाया खोटी छे. ९. पट्ठिमांसासउ [पृष्ठिमांसाशकः] श्वानने लागू पाडतां विद्या खानार ' दुर्जनने लागु पाडतां ' चाडीओ खानार, ' सरखावो, दशवैकालिक. ८.९०. अपुच्छिओ न भासिज्जा, भासमाणस्स अंतरा । पिट्ठिमंसं न खाइज्जा मायामोसं विवज्जये ॥ तेज प्रमाणे प्राक् पादयोः पतति खादति पृष्ठमांसं कर्णे कलं किमपि रौति शनैर्विचित्रम् । छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशंकं, सर्वे खलस्य चरितं मशकः करोति ॥ सुभाषित || पट्ठि = पृष्ठि । सि. हे. ८|४|३२९| टीका. " भसणसील (१) भसनार (२) बक बक करनार, त सप्तमी बहुवचननुं रूप अपभ्रंशर्मा नबुं ज छे. सि. हे. अथवा तो सामान्य अपभ्रंशमां ते दृष्टियोचर थतुं नथी. मंडल कुतरो दे. मा. ६. ११४. मंडलो खाने । १२ Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. महिं षष्ठी बहुवचननो प्रत्यय हुं छे. तृतीया अने सप्तमी बहुवचननो प्रत्यय हिं छे. (सि. हे. ८|४| ३४७ |) मयहिं = मृतानाम् ए नवं ज षष्ठीनं बहुवचननुं रूप छे. ११. घई अपभ्रंशमां वपरातो अनर्थक निपात. सि. हे. ८|४|४२४ | मायहे षष्ठी एकवचन नारीजाति; सरखावो तहे = तस्याः | सि.हे. ८|४|३८२ | नुं दृष्टान्त. षष्ठीमाथी द्वितीयामां संक्रान्ति, जेम नरजातिना षष्ठीना प्रत्यय होनी थई तेम. सरखावो मार्कण्डेय प्रा. स. १७. ११. १२. दुर्जनना पक्षे 'हंमेश ककळाट करावनारो' अने 'पोला देखकर पेस जाना ' ए नीतिने अनुसरनारो. सरखावो पंक्ति ९. उपर टांकेलं सुभाषित ' छिद्रं निरूप्य सहसा प्रविशत्यशंकम् । 9 १३-१६. कागडाना कर्कश ध्वाननी उत्तमता ए छे जे प्रोषितपतिकाने arast तेनाथी शुभ आगमनना शुकन आपे छे; अने छिद्रोमांधी तो कागडो पोताना आहारपूरतुं ज ले छे; ज्यारे दुर्जन प्रोषितपतिका व्याकुल स्त्रीओने पोताना कर्कशध्वनिथी शारी नाखी दुःख पेदा करे छे, अने ते बीचारीओनां कांइ पण छिद्र के दूषण न होय छतां य तेमना जीवितने हणे छे. १६-२१. दुर्जननी अने गर्दभनी सरखामणी करे छे. अइमुत्तय= सामान्य रीते अतिमुकलता एटले. मोगरो; परन्तु कोइ कोइ स्थळे ' द्राक्षनो वेलो.' पण अर्थ थाय छे. गर्दभ तेने खाई शकतो नथी तेथी मनमां ज बळ्या करे छे. जायलिय = जाता रूप जोवा जेवुं छे. २१ - २४. कालसर्पनी साथे दुर्जनने कवि सरखावे छे. दुर्जन अने साप बन्ने य पारकानां छिद्र (दुर्जनपक्षे, अन्यनां दूषणो, सर्पपक्षे, बीज प्राणीए खोदेलां दर) शोघे छे अने बन्नेयनो कुटिलगतियुक्त ( दुर्जनपक्षे - कपटनीतिथी भरपूर जीवनचर्या वाळो; सर्पपक्षे - वांकीचूंकी रीते सरकी पूरो करातो ) मार्ग छे. छतां य दुर्जन करतां एक रीते सर्प उत्तम छे; कारण के सर्प तो पारकानां खोदेलां दर शोधे छे, पोते दर खोदतो नथी; अने कुटिल गतिथी चाले छे पण पोतानी गतिथी शरमातो होय एम पेटथी चाले छे - ज्यारे दुर्जन तो पोते ज बीजामां छिद्रो उत्पन्न करे छे अने जाणे अभिमानी ( थड्ढो - स्तब्धः भूत कृदन्तPage #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५-२७. दुर्जनने विषनी साथे सरखावे छे. २६. महुरउ-झेर विषं तु मधुरं प्रोक्तं ॥ (बळी जुओ आप्टे-संस्कृतअंग्रेजी कोष.) विष तो मुखे ( स्वादमा) मधुरं होय अने मन्त्रोवडे तो तेर्नु उत्तम रसायण बनावाय. खल तो पहेला अनुभवी ज कडवो होय छे, अने घडेली मन्त्रणाओने पण तोडी नाखे छे. २८-२१ दुर्जनने (=खलने) खोळनी साथे सरखाव्यो छे. बन्ने य त्यकस्नेह ( खोळने पक्षे-तैल विनानो; दुर्जनपक्षे-प्रेमविनानो ) अने पशुभक्त (खोळने पक्षे-पशुना भोजनरूप; दुर्जनपक्षे-पशु- भोजन करे छे ते, एटले मांसा. हारी); वळी खोळ तो ज्यारे पीलाय त्यारे ज स्नेह (तैल) त्यजी दे छे अने विचारो अजाण स्थितिमा पशुथी खवाय छे; ज्यारे दुर्जन तो पहेलेथी ज स्नेह विनानो होय छे भने जाणे छे छतां य पशुओने (=पशुओना मांसने) खाय छे. सामान्यतः जैनप्रन्थोमां 'मांसाहारी' कोइने कहेवो ए. अपशब्द छे. दा. त. सरखावो. भ. क. १. क. ३. पं. ९.-१०. दुव्वयणवियड्दु एक्कु वि दुम्मइ सुयणसय । जो भक्खह मंसु तासु कहिं मि कि होइ दय ॥ २१-२८ दुर्जनने विष्टा साथे सरखावे छे. दुर्जन अने विष्ट बन्नेयने विशिष्ट (=दुर्जनपक्षे-उमदा, विष्टापक्षे-पवित्र) माणस त्यजे छ; अने बन्नेयनी आगळ पाछळ अस्फुट शब्दथी क्षुद्र(दुर्जनपक्षे-छूपी रीते अस्पष्ट उक्तिथी मंत्रणा करता हलका माणसो, विष्टापक्षे-अस्पष्ट बमणाट करती माखीओ)नी मंडली गगणे छे. तो य विष्टा दुर्जन करता सारी; कारण के ए तो कोइ अन्य वस्तुनो फेरफार करे छे ज्यारे दुर्जन तो पोते न भातभातना विकारोथी भरपूर छे. एटले के विद्या बीजी वस्तुना विकारथी उत्पन्न थएली छे; ज्यारे दुर्जनं तो पोते ज विकार- स्थान छे.. . ३६. महर्नु भण्णंतस्स वर्तमानकृदन्त विशेषण छे. बन्ने य शब्दो षष्ठी विभक्तिमा छे. परन्तु छायामां संस्कृतनी दृष्टिए ते बन्नेने सप्तमीमां मूक्या छे. .' ३८-३९. दुहो छे. प्रथम पंक्तिमां ज्जाअहो भने ज्जि छन्दखातर बेवडाव्या छे. बीजी पंकिमां 'जेण-जेथी करीने 'भा दुहाने पाछली गाथा साथे जोडे छे. तेथी करीने तेनुं समान्तर दर्शक सर्वनाम आ दुहामां नथी. मग्गउ पाछळ; जुओ दे. ना. ६. १११. मग्गो पच्छा । मराठी-मागे. आखा दुहानो अर्थः Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -जेथी जारपुत्र, दुर्जन अने दुष्ट घोडो एनी आगळ के पाछळ जवानुं शक्य धतुं नथी. ४८-५२. सुर्जननिंदा पूरी करी, सज्जनप्रशंसा कवि आरंमे छे, आ पंक्तिभोमां सज्जननी सरखामणी राजहंस साथे करी छे; राजहंस अने सज्वर पन्ने य विशुद्धोभयपक्ष ( राजहंसपक्षे-जेनी बने य पांख सफेद होय-छे; सज्जनपक्षे-जेनुं पिता अने माता बन्नेयर्नु कुल विशुद्ध होय-छे.) अने (सज्जन पक्ष-शब्दने छ्टा करी समजवानी शक्तियुक्त, अने राजहंसपक्षे-क्षीरनीरविवेकनी शफियुक, अर्थ छे); तो य एकाएक भयंकर मेघाडम्बर चढी आवे तो मानस सरोवर पहोंचवानुं दुःख हंसने थाय छे [अत्रे मानसिक दुःख थाय छे एवा पण अर्थनो ध्वनि छे]. ज्यारे सज्जन तो मेघ जेवा श्याम अने भाडम्बरी खलोनो स्वभाव जाणे छे एटले तो ते ज्यारे तेमनां आक्रमण थाय त्यारे तेनो मायनो समजी हसतो ज बेसे छे. ५०-५१ दुहो छ भने पं.४७-४८ अने पं. ५२नी साथे ते एक ज वाक्य अमावे के. तेना संबंधे मूळनी नीचे आपेली टीप जुओ.. ५२-५५, आ पंक्तिमा सज्जनने पूर्णिमाचन्द्र साथे सरखाववामां आव्यो छे. ते बन्ने य सकल कलाथी ( सज्जनपक्षे-कलाओ Arts. चंद्रपक्षे-तेनी सोळ कळाओ Digits ) पूर्ण अने माणसोना मनने भानंद आपनार होय छे. तो य चन्द्र तो कलंकथी दूषित होय छे भने अभिसारिकाओना मनने पीडा आपनार होय छे ( कारण के चन्द्र कामोत्पादक तो होय छे अने अभिसारिका चन्द्रना प्रकाशमा देखाई अवाना भये पोताना प्रियतमने मळवा जई शकती नथी.); ज्यारे सजन तो निष्कलङ्क अने सर्व जनने सुख आपनार होय छे. दिहि-धृति सुख, सरखावो उद्धरण ३. पं. १६. ५५-५८. सज्जनने मृणाल (=कमळनो पेलो) साथे सरखाव्यो छे. बन्नेय ने पीले तो य तेमना स्नेह-तंतु (सृणालपक्षे-तेनी चीकट रेषाओ; सज्जनपक्षे-प्रेमनो बंध )नो घरो यतो नथी अने बन्ने य खूब शीतळ होय छे; छतां य मृणाल तो खजुरी लगाडे तेवा स्वभाक्नो, अने जड (='जल' पर श्लेष सरखावो. उद्धरण ५. पंकि १.०)ना संसर्गमां उछयों छे; ज्यारे सज्जन तो मधुर स्व. भावनो अने जेनो रख विदग्धजने वर्धित कयों छे तेवो छे. ५९-६२. सज्जनने दिशागज साथे सरखाव्यो छे. बन्ने य स्वभावे उसत (गजपक्षे-उंचो, सज्जनपक्षे-उमदा) छ, भने बन्नेयमांथी अटकया विना Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दान (गजपक्षे-मद; सज्जनपक्षे-दान को प्रसर बयाज करे छे; तेमा य दिशागजनुं तो मदविकारथी ( श्लेषे करीने-मदन आगमन थाय ते समये ) वदन श्याम थाय छे; पण सज्जनने तो मद थत्तो नथी, अने दान देतां तो तेनुं बदनकमल विकसे छे. ६१-६५. सज्जनने मुक्काहार साथे सरखान्यो छे. बन्नेय स्वभावे विमल (मोतीपक्षे-श्वेत; सज्जनपक्षे-शुद्ध) होय छ; अने बन्ने बहु उत्तम गुण (मोतीनी माळाना पक्षे-दोरा) युक्त छे. पण मुक्ताहार तो सेंकडो छिद्रोथीभरचक अने बनमा (=पाणी; श्लेषे 'बनमां उछरेलो ' एम अर्थ आ वाक्यना छेल्का भागमा लेवानो छे) उछरेलो छे; ज्यारे सज्जन तो कोइ पण छिद्र (=दूषण) विनाना गुणधी भरपूर छे भने नगरमां उछरेलो नागरिक छे. ६५-६९. सज्जनने समुद्र साथे सरखाव्यो छे. बन्ने य गंभीर (समुद्र पक्षे-उंडा) स्वभावना अने मोटा अर्थ ( समुद्रपक्षे-रत्नोथी भरेलो, महाव्यवान; सज्जनपक्षे-महान हेतुवाळो) वाळा छे. पण समुद्र तो उत्कलिका-(वीचिओ, चिताओ )शतथी भरपूर छे अवे नित्य कलकल-अवाजथी (ककळाटथी) बाजुए उभेला जनोने दुःख आपे छे-एम जाणे दुःखी स्थितिए पामेला कुटुंबचें अनुकरण करे छे. सज्जन तो धीर स्वभावनो होय छे भने मष नेवां मधुरा वचनोथी लोकोने आनंद आपे छे. ७०-७१. सज्जनगुणप्रशंसाना उपसंहारनी गाथा छे. ॥ एकादशमुद्धरणम् ॥ प्रस्तुत उद्धरण माटे नीचेना प्रमाणो लीधा छे. तेना संकेतशब्द पण कौंसमां आध्या छे: (1) S. P. Pundit's Edition of विक्रमोर्वशीय (पं.) । (2) R. Pischel: Materialien zur Kenntnis des Apabhrams'a. P. 57-64, (पी.) (3) Nirnayasagar Edition with Ranganath's Commentary (र.) (४) दि. ब. के. इ. ध्रुव : पयक्रमनी. असादी (धुव.) . Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. प्रस्तुत गीतोनी समीक्षाः आ उद्धरणमा कालिदासना प्रख्यात नाटक विक्रमोर्वशीयना चोथा अंकमाथी अपभ्रंश गीतो लेवामां आब्यां छे. भा अपभ्रंश गीतो कालिदासनां छे एम तो कोइ कही शके ज नहि. एने माटे अनेक कारणो छे. (१) आ गीतो उत्तरनी हाथप्रतोमां मालम पडे छ; अने दक्षिणनी हाथप्रतोमा बीलकुल मालम पडतां नथी. (२) आ गीतो अने मूळनी संस्कृत उक्तिओ कच्चे मेळ नथी. (३) केटलांक बीजां कारणसर-दा. त. बंगाळाना अखात तरफना पूर्वदि. शाना पवननो उल्लेख (प्रस्तुत उद्धरण पं. ३९ जुओ ) तब्वेन्तावत् (प्रस्तुत उद्धरण पं. ६ S. K. Chatterji. O. D. B. L_Intro $61.) जेवां बंगाळीरूप. भा प्रयोगो बतावे छे के बंगाळ बाजुए आनो उमेरो थएलो होवो जोईए. एटले दक्षिणनी हाथप्रतोमा भानो उल्लेख नथी. (४) बे टीकाकारोमांथी काशीमां रही टीका करनार रंगनाथ आ अपभ्रंश गीतो पर टीका करे छे; ज्यारे काटयवेमने तो तेनो ख्याल सरखो य नथी. दि. बा. केशवलाल हर्षदराय ध्रुवे आ क्षेपक अपभ्रंश भाग विषे विस्तारथी विवेचन, प्रस्तावना पा. ४०-४२ मां कर्यु छे. ते विवेचन आ विषय परत्वे विशेष द्योतक होवाथी, तेनो निष्कर्ष अमे आपवा. यत्न करीए छीए. काळिदासनां कोइ पण नाटकोमा नहि अने तेना विक्रमोर्वशीयना चोथा अंकमा ज अपभ्रंशगीत प्रक्षिप्त थवानुं कारण ए छे जे ते अंकनो मोटो भाग संस्कृत बोलनार पात्रनो अने लोकोत्तर कल्पनामय वृत्तान्तवाळो होई अपभ्रंश समजनारा लोकोने केवळ दुर्गम नीवडे एवो हतो. आथी भारत नाट्यशास्त्रना बत्रीसमा अध्यायनी ध्रुवानी युक्ति वापरी अन्योक्तिद्वारा राजाना संचारथी प्रेक्षकने वाकेफ राखवार्नु कोइने सूझ्यु. ध्रुवाओ उमेराई अने तेनी पाछळ अपभ्रंश पद्यात्मक कृतिओ पण रचाई. आम रसिक प्रेक्षकनी जिज्ञासा तृप्त करवा क्षेपक अपभ्रंशभाग अस्तित्वमा आयो. अपभ्रंश कविता कालिदासनी कृतिने पडछे झांखी लागे छे. एनुं सौन्दर्य रसमां नहि पण संगीतमा समायुं छे. ____आ क्षेपक अपभ्रंशभाग हेमचन्द्रना अरसामां के जरा पहेलां अने प्राकृत पिङ्गलनी पूर्व उमेरायो हशे, एम भाषा परथी लागे छे. आम आने लगभग ११ के १२मा सैकानुं अपभ्रंश कहेवाय. ___ आ अपभ्रंश भाग छन्द अने भाषानी दृष्टिए घणो भ्रष्ट छे. प्रस्तुत उ. दरणमा विक्रमोर्वशीयनां बर्धा अपभ्रंश गीत लेवामां नथी भाव्यां. आ उद्ध Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रणमा कुल १६ गीत छे. आ सोळ गीतमा ३, ८, ९, ११, १३ उक्तिओ नथी, ज्यारे बाकीनां १२ गीत पुरुरवा राजानां उन्मादवचनो छे. आखी परिस्थितिनुं वातावरण भने उक्तिनी परमताने लईने ज 'पुरुरवानां उन्माद. पचनो' ए अभिधान उद्धरणने आपवामां आव्यु छे. २. टिप्पणः १-२ उपदोहक ॥ १२+११ ॥ छ. शा. पा. ४२ (अ); बीजी पं. क्तिमा रं. अने तेने अनुसरी पं. 'णु.' टीकामा रं. नु निश्चयार्थे । लखी आ प्रमाणे अर्थ करे छे “ ज्यारे सरेखर नूतन विद्यत्थी विराजित श्यामल मेघ वरसे छे, त्यारे मृगलोचनी उर्वशीने कोइ राक्षस हरी जाय छे एम में जाण्यु." प्रो. पीशल नु बदले न वांचे छे. एक तो आ गीत विभावना पछोनी स्थितिने वर्णवतुं छे अने वळी जाव-यावत् ने घटाववानुं छे. एने मेघनी विभावना अने उर्वशीने हरी जता राक्षसनी भ्रान्तिनो निरास 'फोरां शरीरे भडता' थाय छे. एटले ज "ज्यां सुधी नव विद्युत्थी विराजित श्यामल मेघ वरस्यो नहि त्यां सुधी तो में जाण्यु के कोइक निशाचर मृगलोचनाने हरी जाय छे!" ३-६. अनन्तरे चर्चरी एम नाटकमा निर्देश करी, मा अपभ्रंश गीत लखवामां आव्यु छे. चर्चरीनी व्याख्या रं. प्रमाणे:-दुतमध्यलयं समाश्रिता पठति प्रेमभरानटी यदि । प्रतिमण्ठकरासकेन या द्रुतमध्या प्रथमा हि चर्चरी ॥ आम ते एक प्रकारनो नृत्तविशेष छे. प्रा.पि.पा.५२३मा चर्चरी छन्द आप्यो छे, तेनी साथे आने काइ लेवादेवा नथी. छन्द २० मात्राना चार चरणनो छे. पं. ३मां बे मात्रा वधारे छे. जइ ने दूर करी मेळ लावी शकाय. ३. एमई (र.) ए इति संबोधने एवमर्थं वा । (पी.) एँ मई वांची अनेन मया । खरी रीते एमई-इदानिम् । अपभ्रंशमा प्रचलितरूप लेवा योग्य छे. ४. (२) तच्छे वांचे छे. टीका 'मइं तच्छे जंजु इत्यादयः अहं, तदा; यद् यद् इत्याथै देश्यशब्दाः । बंगालनी हाथप्रतो तब्बे वांचे छे. एज रूप प्रा. पिनां उदाहरणमा भने दोहाकोशमां पण आवे छे, तच्छेना जेयो प्रयोग कोइ अर्वाचीन देश्यभाषामां नथी एटले ते अस्वीकार्य छे. ___ ७-१० आ उक्ति नथो पण वर्णनात्मक ध्रुवा छे. प्रा.पि. (पान.२१०) मां वर्णवेलो भडिल्ला छन्द लागे छे. १६ मात्रानुं चरण अने छेल्ली बे मात्रा लघु ए तेनुं लक्षण छे. पं. ५. ८. नियम प्रमाणे मळे छे. कदाच एम पण Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होय के बीजी ने पंक्ति २१ मात्राना बीजा छन्दनी बनावी होय. आ छेक्टनी बे पंक्ति अ का. ज.ना प्रथम काव्य चर्चरीमा छे. त्यां टीकाकार ते छन्दने एकविंशतिमात्राकलितं कुन्दनामकं छन्दः एम कहे छे. छं. शा. ५ पा. ३७ (अ.) ६ + ४ + ६ +५ = २० मात्रानो रासावलय आ छन्दने कही शकाय. वर्षाना प्रत्या वेश करतो राजा आ गीतमा वसन्तनुं वर्णन करे छे. ११- १४ आ छन्दर्मा घणी ज भ्रष्टता छे, छन्दनी प्रथम बे पंक्ति १५ + १० मात्रानी छे. अन्भत्थेमिमां ए द्विमात्रिक छे. बीजी पंतिमां ऐला भागमांथी सा छन्दनी दृष्टिए त्याज्य छे. बीजी बे पंक्तिओमां १३+९ मात्रानो छन्द छे. चिण्हेंमां हेंनी एक मात्रा गणवी. प्रथम बे पंक्तिनो छम्द छं. शा. ४२ (अ) प्रमाणे विद्याधरहास छे. हेल्ली बे पंक्तिओमां छं. शा. ४१ (ब) प्रमाणे अभिनववसन्तश्री नामे चतुष्पदी छे. १५-१८. आमां १५ मात्रानो पारणक छन्द के जेना लक्षणनुं विवेचन पूर्वे करवामां आव्युं छे. पं. १७मां दिट्ठी छे तेने बदले दिट्ठि वांचो. १९ १२. आमां १६ मात्रानो अडिल्ला छे जेनुं लक्षण आज उद्धरण पं. ७ - १०. मां निरूपित क छे. २३ - २४ आ गीतमां शशांकवदना नामनी चतुष्पदी छे. छं. शा. ४२ (अ)मां चौ दः शशांकवदना । ए लक्षण बरोबर बेसे छे. ४+४+२= १०x४=४० आखी कडीमां कुछ मात्राओ. (पी.) भणहिने स्थाने भण्णह वांचे छे. ते छन्दोदृष्टिए यथार्थ छे. आपणे पण भण्णइ वांचवं पडशे, जो के तेथी व्याकरणदृष्टि अर्थान्तर तो नहि ज थाय. १५-२६. आमां पण उपरनो ज छन्द छे. (पी.) एक्केक्कम = भन्योन्यं । दे. ना. १.१४५. घांची, वर्धित = वघेलो एम अर्थ करवा मागे छे. (रं) नी समजावट दूर कृष्ट छे. एक्कक्कम = एकक्रम युगपद् ए अर्थ करे छे. प्रो. पीशलने अनुसरी " जेमां प्रेमरस अन्योअन्यने ( पोते अने पोतानी प्रियतमानी अन्योअन्यता ) लीधे वध्यो छे, ते कामरसथी हंसयुवा सरोवरमां खेळे छे. " (रं) वियोगदशा सूचववा वर्धित = कपाई गएलो, एम अर्थ करे छे. २७-२८ ( रं. ) गजो भ्रमतीति शेषः । १४ मात्रानी द्विपदी; प्रास मळतो नथी; एटले भ्रष्ट होवानो सम्भव छे. आ उक्ति नथी परन्तु मात्र वर्णनात्मक ध्रुवा छे. Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २९-३२. प्रथम बे पंक्तिमा अडिल्ला प्यारे त्रीजी अने चोथी पंक्तिमां पज्झडिआ छे. आ बे छन्दोमा घणी बार बहु ओछो फेर होवाने कीधे भेळसेळ थई जाय छे. जुओ भ. क. Intro P. 29. बीजी पंक्तिमां णामितरुवरु (ध्रुव) एम वांचीए, तो ललियपहारे साथे मेळ सचवाय. ३३-३४ छन्द भ्रष्ट छे. वराह = भुंडनुं वर्णन छे. आ उक्ति नथी पण ध्रुवा छे. पेच्छहु 'जुओ' प्रेक्षकोने उद्देशी पडदा पाछळथी आवी ध्रुवाओ बोलाती हती ते बतावे छे. ३५-३८ छन्द अडिल्ला । प्रथम पंक्तिमां फलिह अने पंक्ति. २. मां कुसुमे ने बदले कुसुमहिं. ३९-४४ आ गीत छ पदनुं छे. आदि बे पद २५+२५=५० मात्रानां छे; अने अंतन ४ पद २१ मात्राना एक पद लेखे छे. छए पदमां वर्षाकालनु वर्णन छे. परन्तु समुद्रनी ते समये स्थिति शी हशे सेना तरफ वर्णमनुं लक्ष्य छे. पं. ३मां रहंग (रं.) वांचे छे; परन्तु विहंगम (पं.) नो पाठ छन्दनी दृष्टिए स्वीकार्यो छे. कुंकुम संख= कुंकुमवर्णना शंख. पं. ४. हाथी अने मगरथी भरपूर, श्याम, अने कमळथी ढकाएको. ४५-४८ छन्द बहु ज भ्रष्ट छे. २६, १८, १६, १८ आ प्रमाणे मात्रायुक्त ४ पंक्तिनो छन्द थाय; पण तेमांय सुधारा तो करवा ज पडे. दा.त. पं २. सरीरी वांग्चवुं पडे; पं. ४. विरहसमुद्दहं वचि पडे. पं. १मां मुद्रादोष सुधारी सुंदरि बांचो. पं. ४मां तहने बदले तुह ए प्रचलित रूप छे आ गीत मृगने उद्देशी बोलायलुं छे. "" ४९-५२ पूर्वसन्दर्भ आ प्रमाणे छे: अये किं नु खलु कुसुमरहितामपि लतामिमां पश्यता मया रतिरुपलभ्यते । + + + + यावदस्यां प्रियामुपकारिण्यां लतायां परिष्वंगप्रणयी भवामि । (रं) प्रमाणे हे लता, जो, हुं हृदय विना भमुं छं. जो विद्याना जोगे फरीथी प्रिया मने मळे, तो खरेखर हुं आ अरण्यमां तेने प्रवेश करावीश नहि [ता रण्णें विण - करमि ( विनाकरोमि - निष्कासयामि ) णिभन्ती ( भ्रान्ति विना यथा स्यात् तथा । ] ( रं.) अने फरीथी विरहवेदना करावती तेने छूटी मूकीश नहि. " आपणी वाचना प्रमाणे लता तरफ जोईने मने हृदयमां भावना थाय छे, " जो विधिजोगे ते मने प्राप्त थाय तो हुं आ वनमा भ्रमण नहि करुँ भने विरहदाह पैदा करती तेने विखुटी नहि करूं.” मूळमां पाठांतर टिप्पण जुओ. "" ५३-५६ अडिल्ला छन्द प्रथम बे पंक्तिमां; छल्ली बेमां पज्झडिआ. १३ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ द्वादशमुद्धरणम् ॥ १. कवि अने तेनो समयः काहना दोहाकोशमाथी केटलांक गीतो उधृत करी प्रस्तुत उद्ध. रणमा लेवामां आव्यां छे. काहना दोहाकोशनी वाचनानो आधार अमे बे आवृत्तिो उपर राख्यो छे (१) महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री सम्पादित "बौद्धगान ओ दोहा " जेमा काण्ह अने सरहना दोहाकोश आपवामां भावेला छे; अने (२) M. Shahidulla: Le Chants Mystiques de Kanha et de Saraha जेमां पण काण्ड अने सरहना दोहाकोश आपवामा भावेला छे. आ उद्धरणनी विशिष्टता ए छे जे प्रस्तुत गीत पूर्व हिन्दुस्तान -बङ्गाळ अने आसाम-बाजुथी मळे छे. . काण्हना समयनी चर्चाने माटे आपणी पासे त्रण साधन छे:-(.) गौद्ध गान ओ दोहानी अंग्रेजी तेम ज बंगाळी प्रस्तावना.(२) डो. सुनीतिकुमार चेटरजी: The Origin and Development of Bengali Language: Introduction P. 120-123. (३) डो. शहिदुग्लानी Le Chants Mystiquesaft Introduction ( Chapitre II Les Auteurs des Dohakosa ). आ प्रण लखाणोने नीचेनी चर्चामां प्रमाण तरीके लेवामा आव्या छे. गोपीचन्दराजाना वैराग्यना भने मत्स्येन्द्रनाथ गोरखनाथ भने भर्तृहरिना गीत गाता, रखडता भरथरीओने आपणे घणीवार सांभळीए छीए. ए गवाती भास्यायिकाओ नाथसम्प्रदायनी छे. ते सम्प्रदायमां मुख्य ८४ सिद्ध छे. एक वार नाथसम्प्रदाय, पजाब, टीबेट, बङ्गाळ भने लगभग आखा उत्तर हिन्दुस्तानमा प्रसरेलो हतो. काण्ह के काहपा (=कृष्णपाद) ए गोरखनाथ, मत्स्येन्द्रनाथ अने गोपीचन्द्र राजानो समकालीन हतो तथा टीबेटन भने हिन्दी परम्परा प्रमाणे, ८४ सिद्धानो से एक हतो. काह जालंधरिनो शिष्य हतो. गोपीचन्दनी माता मेनावती पण जालंधरिनी शिष्या हती. गोपीचन्दने जालं. धरि खरो योगी छे तेनी प्रतीति थाय छे अने ते राजवैभव छोडी योगी बने छे, ए आख्यायिका सर्वविदित छे. डो. शहिदुल्लाना अभिप्राये मत्स्येन्द्रनाथ इ. स. ६५७ मा नरेन्द्रदेवना राज्यमां थई गयो. गोपीचन्द्र के गोविचन्द्र Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ टीबेटन इतिहासकार तारानाथमा कहेवा प्रमाणे राजा विमलचन्द्रनो पुत्र भने माळवाना राजा भरथरी के भर्तृहरिनो भत्रीजो हतो. विमलचन, तारानाथना कहेवा प्रमाणे, धर्मकीर्तिनो समकालीन हतो. चाईनीस मुसापर इत्सींग इ. स. ६७३मा “ अर्वाचीन समयना" बौद्ध धर्मना महान् आचार्यामांना एक तरीके धर्मकीर्तिने गणावे छे. गोपीचन्द भर्तृहरिनो भत्रीजो हतो, ए दन्तकथा तो बलाळनी बहार पण जाणीती छे. इत्सींगना कहेवा प्रमाणे, भर्तृहरि इ. स. ६५१ मां मरण पाम्यो. भर्तृहरिए जालंधरि पासे ज वैराग्यदीक्षा लीधी हती, जालं. धरिनो गुरु, तारानाथ प्रमाणे, इन्द्रभूति धर्मकीर्तिनो समकालीन हतो. आ बधी हकीकतने ध्यानमा लेतां डो. शहिदुल्लाना मते, काह-कृष्णाचार्यनो समय इ.स. ७००नी भासपास होवो जोईए. ( Intro. P. 27-28 ). __ डो. सुनीतिकुमार चेटरजीना मते काण्हनो समय इ. स. १२०० नी भासपास छे. तारानाथ बे काण्हनो उल्लेख करे छे, एक वृद्ध अने एक नव्य. "चर्याचविनिश्चय 'नी चर्या. ३६ नी एक कडीमां ते चर्यानो कवि कान्ह पोताने जालंधरिपाबना शिष्य जेवो जणावे छे. वळी एज चर्यामां उल्लेखेलो लह-पाद, दीपकर श्रीज्ञान के अतिशनी साथे अभिसमयविभङ्ग नामे तान्त्रिक कृतिनो सहकर्ता हतो. अतिश इ. स. १०३८मा ५८ वर्षनी वये टीबेट गयो. एटले काण्ह लगभग इ. स. १९८९नी आसपास थयो हशे एम तेमनुं मानतुं छे. मराठी संत ज्ञानेश्वरनी गुरुपरम्परा पण पोताना मतनी साखमा डो. चेटरजी लावे छे. . भले आ बे अभिप्रायमांथी गमे ते खरा होय; परन्तु एक वात तो देखाई ज आवे छे के भाषा, लखाणनी धाटी अने विचारवलण उपरथी इ. स. ९५०-१२०० सुधीमा ज आ प्रन्योने आपणे लई शकीए. वधारामां आ लखाणनी हायप्रत १४ मा सेका पछीनी छे अने लहीआनी अने आ गीतोनी परम्परा साचवनार सामान्य जनतानी भाषानी छाप आ लखाण उपर विपुल प्रमाणमां देखाई आवे छे. - x Shahidulla: Intro. P. 19. ' प्रस्तुत तंत्र लहपाए रच्यु हतुं; भने दीपंकर श्रीज्ञाने ते पर टीका करी हती', एम ते तंत्रनी टीवेटन प्रतनी अंतिम प्रशस्तिनुं भाषांतर करी ते.अणावे छे. आ प्रमाणे डॉ. चेटरजीए 0. D. B. L. Intro..$63, डॉ. हरप्रसाद शास्त्रीए Intro P. 14. मां ठरावेलो लापानो समय ज ते खोटो ठरावे छे. एटले तेमना मूळभूत निगमन पर ज डॉ. पाहिहरमा पा करे छे. वांचोः Shahidulla: P. 19.-24. Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. दोहाकोशनी भाषाः आ प्रन्यन अपभ्रंश, जे सामान्य अपभ्रंश अत्यार सुधीनां उद्धरणोमा जोडे ते प्रकार- छे के कोई बीजा प्रकारनुं ? प्रो. याकोबी ( सनत्कुमारचरिउ Intro P. XVIII ) ना अभिप्राये काण्ह अने सरहना दोहाकोशन अपभ्रंश पौर्वात्य अपभ्रंश छे. तेना कारणमा ते जणावे छे के तेना व्याकरणप्रयोगो क्रमदीश्वर, रामशर्मन् अने मार्कण्डेयने अनुसरे छे. परन्तु अर्वाचीन पौर्वात्य देश्यभाषाओ जेवी के मैथिली, ओरिय, बङ्गाली, आसामी इ. आ अपभ्रंश साथे सम्बन्ध धरावती नथी. दा. त. वासु-व्यास, स्वार्थे नरजातिमां ड अने नारीजातिमा डी, हमु-अहम् , मेरम्मम, तेर-तव इ. मार्कण्डेयादि पौर्वात्य वैयाकरणोए बतावेला विशेषो अर्वाचीन पौर्वात्य देश्वभाषाओमां मालम पडता नथी. आम एक बाजुए मार्कण्डेयादिए नोंघेली अप. भ्रंश भाषा अर्वाचीन पौर्वात्य देश्यभाषाओनी जनेत्री नथी, ए तो सिद्ध ज छे.१ छतां बीजी बाजुए मार्कण्डेयादिए नोंधेला अपभ्रंशने पौर्वात्य अपभ्रंश तरीके जुहूँ ओळखाववा प्रो. याकोबी, डो. शहिदुल्ला आदि प्रयत्न करे छे. डो, शहिदुल्ला हेमचन्द्रना अपभ्रंश अने रामतर्कवागीश, क्रमदीश्वर अने मार्कण्डेये नोंघेला अपभ्रंशनी विस्तरशः सरखामणो करे छे. (सदर Introduction P.45-53.) परन्तु अपभ्रंशना प्रयोगनी बहुलताने हिसाबे तेमणे बतावेला विशेषो एवा नथी के पौर्वात्य अपभ्रंश तरीके जुदी अपभ्रंश भाषा स्थापी शकाय. टुंकमां मार्कण्डेये बतादेवी नागर अपभ्रंश अने हेमचन्द्रना व्याकरणनी अपभ्रंश जुदी छे, एवा सिद्धान्तनुं विधान वधारे पडतुं छे. त्यारे काण्ह अने सरह नी भाषाने कया अपभ्रंश तरीके गणवी ? शहिदुल्ला काण्ह अने सरहना अपभ्रंशने अर्वाचीन पौर्वात्य देश्यभाषाओ साथे सम्बन्ध न होवाने कारणे, प्रो. याकोबीने अनुसरी तेने पौर्वात्य अपभ्रंश कहेता नथी; परन्तु तेमने मते प्रस्तुत गीतोर्नु अपभ्रंश बौद्ध अपभ्रंश छे.२ अमारे मते तो आ पण भ्रम छे; कारण के सदर गीतो १. Shahidulla; Intro. P. 33. सरखावो सुनीतिकुमार चेटरजीना शब्दो " In the East, the local patois does not seem to have been cultivated after the days of Asoka." - D. D. B. L. Intro. P. 91. २. Shahidulla: Intro. P. 55 ( see the conclusicn of the chapter ). Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ܕܕ सामान्य जनतामां प्रचलित होवाने लीघे सामान्य बोलीनी छांट मूळ अपभ्रंश पर आवी छे; दा. त. कुच्छ नाहि (सदर उद्धरण पं. १०) कि ( पं.२०. पं. ३४ ) जव्वे- तब्वे ( उद्ध. १३. पं. २३ २४ ) इत्यादि प्रो. सुनीतिकुमार चेटरजी आ भाषाने पाश्चिमात्य अपभ्रंश कहे छे, ते युक्त छे. तेमना ज शब्दोमां, "The two Doha-kosas present the same dia. lect, which is a kind of Western ( शौरसेनी ) Apabhramsa, as its termination, its genetives, its passives and its general agreement in forms with the literary Western Apabhramsa, amply indicate. "४ ३. उद्धरणवस्तु अने परिभाषाविवेचनः - दोहाकोशनां गीतनो विषय बौद्ध तन्त्र अने योगने लगतो छे. लेखक आ तान्त्रिक विषयने अनुरूप परंपरागत गुह्य परिभाषा वापरे छे. टीकाकार तेने संध्याभाषा कहे छे. आ परिभाषा, टीका अने आ विषयने लगता बीजा तान्त्रिक प्रन्थोनी मददथी ज, समजी शकाय छे. आपणा उद्धरणमां वपरायली परिभाषा अमे नीवे प्रमाणे समजावीए छीए: - पं. २. निरञ्जन टीकाकार सहजकाय. कान्हना अभिप्राये आ सहज स्थिति ते माध्यमिक बौद्धनी शून्यता ' छे. सरखावो पं. १० कुच्छ नाहि. हठयोगप्रदीपिका ४. ३-४मां निरञ्जनना पर्यायशब्दोनो समूह आप्यो छे:राजयोगसमाधिश्च उन्मनी च मनोन्मनी -- 6 अमृतत्वं लयस्तत्त्वं शून्याशून्यं परं पदम् ॥ अमनस्कं तथाऽद्वैतं निरालंबं निरंजनं जीवन्मुक्तिश्च सहजा तूर्या चेत्येकवाचकाः ॥ पं. ५. एवंकार - सुभाषितसंग्रह (पा. ७६.) देवेन्द्रपरिपृच्छातन्त्रमांथी टांके छेः पकारस्तु भवेन्माता वकारस्तु पिता स्मृतः बिन्दुस्तत्र भवेद्योगः स योगः परमाक्षरः ॥ एकारस्तु भवेत् प्रज्ञा वकारः सुरताधिपः बिन्दुश्चानाहतं तत्त्वं तज्जातान्यक्षराणि च ३. पाहुडदोहा प्रन्थ जे पश्चिम हिंदमां लखायो छे तेमां आ बन्ने दोहाकोशना दोहा, चरणो अने शब्दसमूह ( phraseology) मालम पडे छे. ४. Chatterji, O. D. B. L. Intro, P. 112. Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ टीकाकारः—एवंकारः शून्यताकरुणाऽभिन्नरूपिणी महामुद्रा । करुणा शब्दनो बौद्धतन्त्रमां स्वाधिष्ठानचित्तरूपम् । = शुद्ध सत्ता. शून्यता भने सत्तानो योग से एवंकार ( सरखावो उद्धरण. १३. पं. १७-१८ ) . कमल जे थतं परम अरविंद - उष्णीषकमल एटले मेरुदण्डना शिखररूप रहेलं शुन्यतानुं आलय छे, जेमां रहेली शून्यतानी साधे सत्तानो लय समाधिसुख प्राप्त थाय छे. आ महासुखनुं बीज एवंकार छे. पं. ६. सुरतवीर = योगी. मकरन्द= टीकाकारः-अच्युतं महारागं सुखम् । समाधिसुखनो अनुभव. पं. ७-८. गअण - समीरण- सुहवासे - सुखवास = परमशुन्यता जेर्मा पंच महाभूत आकाश वायु इत्यादि सभर रह्यां छे. ते परमशून्यतामांथी सघळा सुर अने असुरनी उत्पत्ति छे. पं. १४. पवण - घरिणि प्राणावरोध ए योग प्रक्रियानुं एक अंग प्राणावरोधरूपी गृहिणी, सरखावो हठयोगप्रदीपिका ४. १४. यावान्नैव प्रविशति चरन् मारुतो मध्यमार्गे या बिन्दुर्न भवति दृढः प्राणवातप्रबन्धात् ॥ इ० पं. १५. महागिरिकन्दर- गिरि = करोडनो दण्ड; अने करोडना पोलणमां सुषुम्णा नाडी आवेली छे. तेमां श्वास स्थिर थतां सकल संसार निर्मूल थाय छे. पं. १९. मनोरत्न = सत्ता ( Existence ); सहज = शून्यता. पं. २३. समरस एटले सत्तानुं सहजमां एकरस थई जनुं ते; जेम मीठं पाणीमां समरस थई जाय छे तेम (सरखावो. प्रस्तुत उद्धरण पं. ३७-३८ . ) . पं. १६. निर्वाण = शून्यता. पं. २७-२८. वरगिरिशिखरउत्तुंग स्थल - कमळ जे मस्तकमां आवेलं छे ते; गिरि = करोडदंड तेनुं शिखर = मगज जे शून्यतानुं स्थान छे. पंचाour - शिव अथवा सिंह. करिवर टीकाकार चित्तगजेन्द्र | शबर = शून्यता. पं. ३१. ३२. घरिणि= टीकाकारः - ज्ञानमुद्रा = सत्ता. पं. ३०. ३५. सहजक्षण = समाधिनी पळ. आ परिभाषा समज्या पछी, काण्हनां आ गीतांनो निष्कर्ष समजवो मुइकेल नहि थाय. माध्यमिक बौद्धोनी शून्यताने ते परमतत्व माने के. Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (सदर उद्धरण. पं. ७-१०). ते शन्यताने पामवा मन्त्र, तन्त्र, वेद, पुराण इत्यादिनो अभ्यास निरर्थक छे. ( सदर. पं. २-३; पं. ३१-३४.) खरं तो चित्त के मन, जेने लीधे सत्ता छे, ते शून्यतामा लीन थर्बु जोईए. तो ज निर्वाण पमाय. श्वासने सुषुम्णामां स्थिर करी, सत्ताने शून्यतामा जेम मीठं एकरस थाय छे तेम समरस करी-एटले के एवंकार बीज रोपी-सुरतवीर योगी कीलेला कमळमां-शून्यतालयमा रहेल सहजक्षणरूपी मकरन्दनो वास ले छे.. ४ छंदोरचना: __कडी. १-६, ८, १०-१२, १४, १५, १८-१९ । दोहा । १३+91 १३+११॥ कडी. ५, १३, १६, १७ । पादाकुलक । १६ मात्रानो छन्द. (प्रा. पिं. पा. २२३-२२४). ____ कडी. ९. द्विपदी । (प्रा. पिं. पा. २५७. ) ६, ५४४, २(गुरु)=२८ मात्रा. ५. टिप्पणः १ लोअह< सप्तमी बहुवचन लोअहिं; प्रथमा एकवचन (श.) ले छे ते बरोबर नथी.. २ सिरिफल बिल्वफळ. सरखावो संस्कृत कहेवतः पक्के बिल्वे काकस्य किम् । अथवा बङ्गालो कहेवतः 'बेल पाकले काकेर बाबार कि ?' सिरिफल=नारीएल अर्थ लईए तो पण अर्थने वांधो नहि आवे. बाहेरित भुमर्यान्त-भुमइ (सि हे. ८४।१६१) बाहिर (सि. हे. ८।२।१४४। ) पालीमां पण ए ज रूप. अलिअ-देश्य. ५, अरविंदर तृतीया एकवचन, लइभ सम्बन्धक भूतकृदन्त (प्रा. गू प्रयोग. ) ६. मअरंदर वांचो; द्वितीया एक्वचन; ए-प्रत्ययान्त. ७-८. सुहवासे, परिपुण्णए, सुन्नए, ए-प्रत्ययान्त प्रथमा एकवचन. देश्यभाषानी असर वढिए संबोधनविभक्ति एकवचन.. ...९-१०. एप्रत्ययान्त प्रथमा. कुच्छ नाहि देश्यभाषानी असर. उहें । सि. हे. ८।३।८९; ८।२।५९. उब्भ, उद्ध; उह < उम्भ. उद्ध. अर्वाचीनता तरफ ढळतो प्रयोग, उअत्ति (पं. ८) उवज्जइ, विफारिआ <. विप्फारिआ ( पं. २२.); निवियार < निम्वियार ( पं. २५); प्रयोगो अर्वाचीन देश्यभाषा तरफ ढळे छे. . Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उ-उद्धहिर ऊर्ध्व+स्मिन् ; तेवी ज रीते अहे थाइ-संस्कृतछायामां स्थितिः । जे तसु-तस्य (पवनस्य) समजा. ववा परतुं छे. ( Bendall: Le Mus'eon, 1904. P. 26I. ) तसु ने स्थाने पहु मूके छे. आ सुधारो स्वीकारीए तो (श.) अने टीकाकार साये आपणे थाह-तिष्ठति लई शकीए. टीबेटननी संस्कृतछाया-निश्चलं तिष्ठति थशे. बेण्णि-रहिम-ऊर्ध्वगमन अने अधोगमन विना सुषुम्णामां श्वास स्थिर थाय त्यारे, १४. घर-सुषुम्णा नाडी. १५. गुहिर-गभीर. खरी रीते गहिर; सरखावो भुमयन्ति (पं.४.) मुनइ (पं. २०) गुहिर (जुओ पा. ल. मा.) शहिदुल्लाः गुहिरमा भ्रष्ट उ (Contamination) गुह् अने कुहरने लीधे आव्यानुं माने छे. हाथप्रतमा कुहिर छे. १८. दुरववाह<दुरवाह(सं. दुरवगाह. अववाह ( जुओ घररुचिनो प्राकृतप्रकाश ८. ३४. G. P. 233. ) २० मुनइ । सि. हे. ८७ कि-किम् ( देश्यप्रयोग. ) २१-२२. पह = मार्ग; योगमार्गे शन्यतामां लीन थवा यत्न करता जे योगीए पोतानी बुद्धि सत्ताने शून्यतामां बांधी दीधी छे, तेणे आखं विस्तृत जगत् पोतानामां संकेली लीधुं छे. २४. भाय (श.) क्रियापद तरीके = विमेति । जरामरणेभ्यः न विमेति । आपणी संस्कृतछायामां भायने नाम तरीके लई भयम् लीधुं छे. २६. मन-बुद्धि कांइ पण मानसिक कार्य करती नथी. ३२. पंचवण्ण = पांच इन्द्रियोना विविध भोग. कि-किम् । (देश्यप्रयोग) ३७. जिम लोण विलिज्जइ इ० आ उपमा ठेठ उपनिषदमा पण मालम पडे छे. ( जुओ छांदोग्योपनिषद् ६. १३; सि. हे. ८४४४८. सरखावो पाहुडदोहा । १७६ । जिम लोणु विलिज्जइ पाणियहं तिम जइ चित्तु विलिज्ज । समरसि हवइ जीवडा काई समाहि करिज्ज ॥ Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ त्रयोदशमुकरणम् ॥ १. कवि अने तेनुं जीवन:___आ उद्धरण सरहना दोहकोशमाथी लेवामां आव्यु छे. आः उद्वरप्पना भाधारभूत प्रमाणो बारमा उद्धरणमां जणावेला प्रन्थ 'बौद्ध गान ओ दोहा' अने डॉ. शहिदुल्लासंपादित Les Chants Mystique de Kanha et de Saraha छे. दोहाकोशनो टीकाकार अद्वयबज सरहने सरोरुहबजा, सरोरुह के सरोजवज्र नाम आपे छे. तारानाथना इतिहास, प्रमाणे महार सिद्ध सरह आर्यावर्तना पूर्व प्रदेशमा रोली नामना स्थळे जन्म्यो हतो. ते ख्नपाल नामे राजानो समकालीन हतो. आ नाममा राजाए आसाममा इ. स. १०१०-१०५० सुधी राज्य कर्यु हतुं; एटले सरह इ. स. १००० ना आससमां थई गयो. सरहे दोहाकोशः उपरांत बोजा अपभ्रंश अने संस्कृत ग्रन्थो स्च्या छे; जे टीकाकारचा टांचण, सुभाषितसंग्रह इत्यादिः परथी मालम पड़े के (जुओ विस्तृत चर्चा माटे Shahidulla: Intro. P. 29.-32. ) दोहाकोशमां कुल ११४ टीबेटन वाचना प्रमाणे अने अपभ्रंश पाठ प्रमाणे कुल १०९ गीत छे. तेमाथी प्रस्तुत उद्धरणमा २२ गीत लीधां छे. २. उद्धरणवस्तुः सरह पण काहनी माफक शून्यतावादी छे; अने 'सहजसिद्धि । नुं ज प्रतिपादन करे छे. होम, कर्मकांड इत्यादिनां धतिंग करनार ब्राह्मण आचार्यों उपर ते सखत कटाक्ष करे छे..(१-४) त्यार पछी क्षपणकना बाह्याचारनी कटाक्षपूर्वक खबर ले छे. (५-६) करणा = स्वाधिष्ठानचित्तरूप सत्ता अने शून्यता ए बन्नेनो एकरस थाय ते ज मोक्ष छे. करुणाने छोडी जे शून्यने लागे छे, हे उत्तम मार्ग पामतो नथी; अथवा करुणा एकलीने ज समजवा यत्न करे छे ते संसारमा मोक्ष पामतो नथी. (७) मंत्र, तंत्र, ध्येय, धारण, ध्यान ए बधां य चित्तने खरडे छे. (८) ते दैत्य-समान मानवी अभिमानने लीघे तच्च जोई शकतो नथी अने सर्वे खरा ज्ञाननां साधनोने दूषित करे छे. (२) सत्ताने शून्यतामां लय करी समरस एवा सहजने पहोंचाय छे; तेमां शूद्र हो के पछी ब्राह्मण हो, तेनो भेद रहेतो नथी. (१०) एकली सत्ताथी उत्पत्ति थाम के अने क्षयथी विनाश थाय छे... सत्ता ( Existence) ज न होय वो फ्छो उत्पन्न थवानुं ज क्याथी होय ? भाव अने क्षय बन्ने अ शून्यताने पामता खरो योग प्राप्त थाय छे, एम श्री गुरुनाथ कहे छे. Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०६ (११) बधा य इन्द्रियव्यवहार कर; पण मनने तो शन्यतामा ज लीन कर; एम कर्या विना एकलो रही (शून्यताथी विमुख रही ) तारो व्यवहार चलावीश नहि. (१२) गुरुनो उपदेश मरुस्थलीमां अमृत जेवो छे. (१३) शास्त्रो भणी माणस पोताने पंडित कहेवडावे छे; परंतु ते मूर्ख पोतानां जन्ममरणने विनाश्यां नथी. (१४) गुरूपदेशथी जीवन्मुक्ति प्राप्त करनार कोइक ज होय छे. (१५) विषयोने विशुद्ध करी तेने भोगववामां वांधो नथी; कारण के तेम कर्या विना केवळ शून्यना आचरणथी जेम वहाणनो कागडो समुद्र उपर ऊडवा जाय पण पाछो वहाण उपर ज आवे, तेम ते विषयने ज पुनः वळगे छे. (१६) माटे ज मीन, पतंगियुं, हाथी, भ्रमर अने हरण- जूथ जो. सरह कहे छे, हे मूर्ख विषयासक्तिने बंधनरूप मा कर. (१७) हे पंडितजन, आमां शंका न करशो; जे ज्ञान गुरुए मने आप्युं छे, तेमां शुं हुं एवं सुगोप्य कहुं छु ? (१८) घोर अंधकारमा जेम चंद्ररूपी मणि प्रकाश आपे छे, तेम सहज सुख एक ज क्षणमां बधां य पाप हरी ले छे. (१९) घरमा पण न रहीश अने वनमां पण न जईश; कारण के ज्यां त्यां सत्तास्वरूप बुद्धि छे ते जाण; ज्यां बधु य शून्यतामय छे स्यां भव क्या अने निर्वाण क्या ? (२०) घरमां के वनमा खरूं ज्ञान नथी; ए एक भेदी वस्तु जाण. स्वभावना निर्मलत्वमा वेने शोध; ते एकलं ज अविकल छे. (२१) आ आस्मा छे अने आ सनात्मा छे; एम जे कोइ भावना करे छे, तेणे बंध विना आत्माने बद्ध को छे; जो के भात्मा तो पण विमुक्त ज छे. ३ छंदोरचनाः __ कडी. १-५, ७, ९, १२. पादाकुलक । १६ मात्रा- एक चरण; अने एवां चार चरण. कडी. ६. डॉ. शहिदुल्लाना अभिप्राये, आ एक ज कडी त्रण जुदी जुदी कडीओ छ; अने ते त्रणे य कडीओने ते दोहा कहे छे. परतु सामान्यतः दोहानुं लक्षण १३ + ११ = २४ एम होय छे. ज्यारे प्रस्तुत कडीमां 'छप्पा 'नी रीतने अनुसरी, ११ मात्रा पछी यति आवे छे अने त्यार पछी १३ मात्रा आवे छे.वळी २ + ४ + ४ + ४ + ४ + ४ + २ (~~) = २४ मात्राआ प्रमाणे प्रा. पिं. पा. १७७ उपर छे. परंतु प्रा. पिं मां छप्पानी उपसंहारात्मक पाकओ २८ मात्राना उल्लालानी मूकवी जोईए जे अहिं नथी. अहिं तो २४ मात्रानी बीजी पंक्तिओ प्रमाणे ज उपसंहारात्मक पंक्तिओ मूकी के. मा उपरथी आ एक प्रकारनो 'छप्पय' होय एम लागे छे. Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - कडी. ८, ११, १४, अडिल्ला । १६ मात्रानो छंद परंतु छेल्ली में मात्रा लघु. कडी. १३, १५-२२. दोहा । १३ + ११ । १३ + ११॥ कडी. १० आ छन्द ११ + १३ अने छेल्ली बे मात्रा लघु-ए प्रकारनो छे; एटले स्पष्ट दोहो तो नथी ज, जो के डॉ. शहिदुल्ला तेने दोहो ज कहे छे. ४ टिप्पणः ३ विणुआ । सि. हे. ८।१।५६। अने प्रा.स.३.६. विष्णु < विज्ञ ।, हंसउवेसे । (श ) टीबेटन (A.) = हंसोपदेशेन; टीबेटन (B.) = हंसकवेशेन. टीकाकार = परमहंसवेशेन'।. ५. अइरिय < सं. आचार्य, प्रा. आयरिय के आइरिय (सि हे. ८।१।७३ । ; G. P. 131.); ए<एँ = सं अनेन ( उद्धरण ११. पं. १४.) जुओ. सि. हे, ८।४।३९९।. ६. बइसी = सं. उपविश्य । जाली जालइ = सं. ज्वालयति; चाली < चालइ = सं. चालयति. मूळनो मुद्रादोष सुधारो:-'बइसी घंडा चाली' एम वांचो. ७. खुखखुसाइ ध्वनिक्रियापद. गू खूसफूस करवी; बंगाळी. फुसफुशाना. धंधी = संबधक भूतकृदंत / धंध = छेतरवं. सरखावो धंधा (दे. ना. ५. ५७.) गू. 'धंधो' अने 'धांधळ' <धंध+ल्ल स्वार्थे. ८, रांडेलीना, मुंडेलीना के बीजा कोइना वेशथी दक्षिणाना हेतुथी स्त्रीओने दीक्षा दे छे. दक्षिण-उवेसेंनी छाया दक्षिणा-उद्देशेन एम करवी. मूळनी छाया दक्षिणापदेशेन खोटी छे. . १-२. कर्मकांडीना प्रत्ये कटाक्ष; ३-४. परिव्राजको सामे कटाक्ष; ५-८. शैव आचार्या सामे कटाक्ष. . ९-१६, जैन क्षपणको सामे कटाक्ष. ९. नग्गल = नग्ग + अल्ल स्वार्थ प्रत्यय. गू नागडो. उपाट्टिअकेसे केशलंचन जैनसाधुओ करावे छे तेना संबंधे. १. जान = यान मोक्षy साधन; सरखावो उद्भरण. ९. पं. २९ Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोक्व-उपसे = मोक्षोद्देशेन छाया करवी; जो के मूळनी छाया मोक्षापदेशेन करेली छे. १४. जाण %D शान. १५. भावइ = सं. भावयति (Pischel, Materialen 420. 4) (श.) = सं. भाति । सि. हे.८४१२४०। ने अनुसरी. सरखावो मे भाति = मने लागे छे' ए संस्कृत प्रयोग, ए ज प्रकारनो अहिं प्रयोग छे. 'महु भावइ.' १७-१८ करुणा भने शून्य ए बन्नेनुं तादात्म्य जोईए; जुओ उद्धरण १२नी प्रस्तावनामा परिभाषाविवेचन. १९-२० पाहुडदोहा । २०६ । मंत ण तंतु ण घेउ ण धारणु इ० ध्येय = ध्यान, प्रतीक; धारण = ध्यान. २१-२२. दत्त = दैत्य. ते दैत्य बधां मोक्षनां साधनोने पोताना अभिमानथी दूषित करे छे. . २३ मण अत्थवण जाइ । आ शब्दसमूह, पाहुडदोहा । १८३ । १६८। मां शब्दशः देखा दे छे. 'बुद्धि शून्यतामां मळी जाय.' २५-२६. एकली सत्ता, के एकली शन्यता नकामी छे; भावाभाव ए ज खरो योग छे. आमां माध्यमिकोनो नास्तिवाद उत्तम रीते जणाव्यो छे. २८. आलमाल टीकाकारः-क्रयविक्रयादि. जैनसंस्कृतग्रंथोमां आलजाल = जंजाळ ए अर्थमां आवे छे. भरटकद्वात्रिशिका ( Ed. Hertel P. 21.) आलमालं लपति = असंबद्ध बोले छे. ३२ अमणागमण । अमणा (प्रा. आअमण <सं. आगमनगमन (श.) छायामां गमनागमन । लख्युं छे. सरखावो पाहुडदोहा । १३७ । गमणागमणविवजियउ। ३६. वोहित्थ । दे. ना. ६. ९६. सं. वहिन; हिं. बोहित, बोहिथ. गू. बोयु (8) = खराबानी चेतवणी आपवा माटे दरियामां तस्तो राखेलो लोढानो गोळो. ४६. से उ = तत् तुः। Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ चतुर्दशमुद्धरणम् ॥ आ उद्धरणमा प्रकीर्ण अवतरणो मापवामां आव्या छ. १. वि. सं. ६४५ पहेलांचें : आ गीत वसुदेवहिंडी नामे प्राकृतग्रंथमाथी लेवामां आव्युं छे. आ ग्रंथना अस्तित्वनी साख आचार्यश्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमणे तेमना विशेषणवती नामे अद्यावधि अप्रकाशित एक प्रकरणप्रन्थमां नीचेनी गाथाओमा भापी छे: सामाइयजुत्तीए उसभस्स धणादओ भवा सत्त होति य पिडिज्जंता बारस वसुदेवचरियम्मि ॥ ३३ ॥ संखेवत्था जुत्तीए, सत्त इयरे सहाणुभूय त्ति सिज्जंसेणऽक्खाया, होसु वि संपिडिया सन्चे ॥ ३२ ॥ वसुदेवहिंडीने वसुदेवचरिय पण कहेवामां आवतुं (जुओ व. हिं. पा. १. पं. १६. ). श्रीजिनभद्रगणि क्षमाश्रमणना समय संबंधे श्रीजिनविजयजी लखे छे. " खास कांइ विरोधी प्रमाणो नजरे न पडे, त्यां सुधी पट्टावलियोमां जे वीरसंवत् १११५-विक्रम संवत् ६४५ नी साल एमना माटे लखेली छे, तेनो स्वीकार करीए तो कशी हरकत नथी.” (जीतकल्पनी प्रस्तावना,पा.१६.) गीतनो अर्थ: धम्मिल परण्यो छतां अध्ययनप्रवण चित्त राखी, विषयोपभोगमा आसक थतो नहि. एक दिवस धम्मिलनी सासु तेने घेर आवी. तेनी पत्नीए पोतानी मा आगळ पोतानुं दुःख रडवा मांडयु: (धम्मिल्ल) पोतानी पासे पाटी (= काष्ठपष्टिका, चतुरनिका ) गोठवी, रेवाना पाणीथी भरेली, शशीनी कान्ति समान उज्जवल खडीने लईने, उद्विम अने एकली सूतेली मारी प्रत्ये पण भाखी रात समान-सवर्ण गोखे छे. कप्पि, गेहेप्पि अपभ्रंश संबंधक भूतकृदंत. रेवापयपुणियं धम्मिल्ल कुशाप्रपुरनो हतो; कुशाप्रपुर कदाच रेवाकांठानगर होय तेथी रेवानो अत्रे उल्लेख होय ए संभवित छे. Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. वि. सं. आठमा सैकाना पूर्वार्ध: आ दुहो जिनदासगणिमहत्तरनी आवश्यं सूत्रचूर्णिमां आवे छे. जिनदासगणिए वि, सं. ७३३ मां पोतानी नन्दिसूत्रनी चूर्णि पूरी करी. (जुओ जीतकल्प. प्रस्तावना, परिशिष्ट १. पान. १९. ) गीतनो अर्थ :-जे शकटाल करशे ते नंदराजा जाणतो नथी. नन्दराजाने मारी, श्रीयक( = चन्द्रगुप्तने )ने ते राज्य पर मूकशे. ... णंदो = णंदु मात्रा प्रमाणे; एटले अपभ्रंशरूप. मारेविणु संबंधकभूतकृदंत ( अपभ्रंश ). आ परंपरागत दुहो वि. सं. १०५५ मां वर्धमानसूरि ( उपदेशपदव्याख्या ), वि. सं. ११७४ मां मुनिचन्द्रसूरि ( उपदेशपदव्याख्याटीका ), तेम ज भद्रेश्वरसूरी जे आ ज अरसामां थई गया ते तेमनी कथावली (अप्रसिद्ध) मां नेांधे छे. हरिभद्रसूरि तेमनी आवश्यकवृत्ति. पान. ६९४ पर पण आ दुहो नोंधे छे. आ माटे जुओ अका.त्र. नी प्रस्तावना. पा. १०३-१०४; अने ते पान नीचेनी नोंधो. ३-४ उद्योतनसूरिनी कुवलयमाला( वि. सं. ८३५ )मांथी नीचेना बे दोहा लेवामां आव्या छे. प्रस्तुत लेखकनी माहिती उद्धरण. १० नी प्रस्तावनामां आपवामां आपी छे. गीत ३ नो अर्थ :-" पछी प्रामनटीए आ गीत गायु:-जे जेने वहालं जन- होय तेनी साथे जो बीजु कोइ क्रीडा करे, अने जो ते जाणे अने ( ते अन्यजन ) जीवतुं होय तो पेलो तेना प्राण ले ज." रत्नप्रभसूरिना कुवलयमालाना संस्कृतसंक्षेप (पा. ३८. सं. चतुरविजयजी) मां नीचे प्रमाणे संस्कृत छाया छ : तावदिदं नट्या गीतम्। इष्टं यन्मानुषं यस्य तदन्येन रमेत चेत् । स जानन्नेवमिालुरादत्ते तस्य जीवितम् ॥ . भाण्डारकर इन्स्टीटयुटनी प्रत :-पं. २.वि तो। जेसलमीरभण्डारनी प्रत वत्तो; ( भ.) पाण । (जे.) प्राण. Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गीत ४ नो अर्थ :-रात्रिना पाछला . यामे कोइक गुर्जरपथिके बळदनी खंचवानी मुश्केली संबंधी गायु :-धवल ( बळद ) जेम ज सगो असहाय (बळदपक्षे-धुरा धारण न करी शके तेवानो ) जननो भार न खेंचे, तो ते कोढ अने आंगणानी शोभा जेवो. नकामो रह्या जेवो, अने दम वगरनो छे. छेल्ली पंक्तिमा (जे.) सेसउ वजं(= वजिय ! ) सारु । (भं.) सेसउ तडियसारु । रत्नप्रभसूरिनो संक्षेप (पा. ५३) :पाश्चात्ययामे केनापि गुर्जरपथिकेन गीतम् ।धवल इव योऽत्र विधुरे स्वजनो नो भारकर्षणे प्रवणः स च गोष्ठांगणभूतलविभूषणं केवलं भवति ॥ ५. आनन्दवर्धन ना ध्वन्यालोकमांथी :-(वि. सं. नवमा सैकानो मध्यभाग). आ दुहो निर्णयसागरनी आवृत्तिमां अतिभ्रष्ट छे. ६, शीलांकाचार्यनी सूत्रकृतांगनी टीकााथी. (वि. सं. १० मा सैकाना प्रथमार्धमां ) जुओ. जीतकल्प ( सं. जिनविजयजी ) नी प्रस्तावना पा. २९; वळी जेसलमेरभंडारनी सूचि (G.O.S.) नं. ४३, ४४. नीचे प्रमाणे आगमोदयसमितिनी आवृत्तिमां प्रस्तुत गीत माटे पूर्वापर संबंध छे:४. स्त्रीपरिज्ञा । उद्देश. १ । १०. अह सेऽणुतपई पच्छा, भोच्चा पायसं व विसमिस्सं । एवं विवेगमादाय, संवासो नवि कप्पए दविए ॥१०॥ इत्येवं बहुप्रकारं महामोहात्मके कुटुम्बक्टके पतितो अनुतप्यते ॥ किं च-'अह से' इत्यादि । अथासौ साधुः स्त्रीपाशावबद्धो मृगवत् कूटके पतितः सन् कुटुम्बकृते अहर्निशं क्लिश्यमानः पश्चादनुतप्यते, तथाहिगृहान्तर्गतानामेतदवश्यं संभाव्यते तद्यथा-- कोद्धायओ को समचित्तु । ... काहोवणाहिं काहो दिजउ वित्त। को उग्घाडउ परिहियउ परिणीयउ को घ कुमारउ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पडिक्तो जीवः खडप्फडेहि पर बंधा पावह भारओ ॥ut शीलांकनी सूयगडांगनी टीका ( आ. स. आवृत्ति पा. १०७) मां नीचे प्रमाणे बीजो दुहो पण छे : घरि विस खइयं न विसयसुहु इक्कसि विसिण मरंति । विसयामिस पुण घारिया पर णरएहिं विपडंति ॥ आगमोदय समितिनी आवृत्तिमा नीचे प्रमाणे छाया आपी छे:क्रोधिकः कः समचित्तः । कथं उपनय कथं ददातु वित्तं ॥ का उद्घाटकः परिहतः परिणीतः को वा कुमारकः । पतितो जीव खटस्फेटः प्रबध्नाति पापान भारम् ॥ Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शब्दकोशः॥ Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ॥ शब्दकोशः॥ शब्द पछीना बे अङ्क अनुक्रमे उद्धरण अने पंक्ति बतावे छे. विशेषनाम, केटलाक अपवाद सिवायना तत्सम शब्दो इ. लेवामां भाव्या नथी. देशी शब्दोनी तथा अर्वाचीन देश्यभाषा अने खास करीने गूजराती शब्दो साथै सम्बन्ध धरावता शब्दोनी ध्यानपूर्वक नोंध लेवामां आवी छे. संकेतशब्दोः-परखावी ( स.= ); गूजराती ( गू.); हिंदी (हिं); मराठी (म.); बङ्गाली (बं.); देशीनाममाला (दे. ना. ); सिद्धहेमचन्द्र (सि. हे. ); पाइयलच्छिनाममाला (पा. मा.); पाइयसद्दमहण्णवो (पा.स.म.); टिप्पणी (टि.); प्रा. गू. = प्राचीन गूजराती; प्रा. गू. प्राम्य गूजराती; द्राविडीभाषाओ(द्रा.); पाली (पाली.); मारवाडी (मा.) Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अइवि [अटवी] ५. १०६. प्रा. अडवि अ [च, अपि] १. १५९. गू. य । अइरिअ [आचार्य] १३. ५. अइस [ ईदृश ] १२. १३. हिं. ऐसा; म. असा. प्रा. गू. इस्यूं. अक्खाड [अक्षवाट] ३. १५०. गू. अखाडो; म. हिं. अखाडा V अक्ख [आ+ख्या] ११. २९. अक्खाण [आख्यान] ५. १००, अक्खि [अक्षिन् ] १. ३१. गू. म. हिं. आंख अग्ग [अप्र] ३. १५. गू. म. हिं. आगे; आगळ अग्गि [ अग्नि | १३. १. गू. म. हि.भाग; प्रा.गू .अग्गि.हिं. आगि अग्ध [अर्ध्य ] ५. १२१. अंघ [अंघ्रि] ४. ६६. अच्चन्भुय [अत्यद् भुत] ५. २२१. अच्चंत [अत्यन्त] ३. ५. अच्छ [असू] २. ९३, गू. छे; प्रा. गू. आछि; ब. आछे. अज्जुत्त [ अयुक्त] ६. १४. गू. अजुगतु अज्ज [अद्य] १. ९५. गू. म. हिं. आज. अज्जोणिय [अद्यतन] ३. ११४. म.=पाली. अज्जण्हो, अज्जुण्हो प्रा. गू. आजुनऊ गू. माजनुं. अच्छेरय [आश्चर्यक] ६. ११६. गू. हिं. अचरज. Vअंच [अर्च के अञ्च् ] १. ८८. अंचल ५. ११. गू. आंचळो अहम [ अष्टम ] ४. १७९. गू . आठमो; म. आठवा अट्टवीस [अष्टाविंशति] ३. १२७. गू . अहावीस. म. अठावीस. अट्ठारह [अष्टादश] ५. २४९. गू . अढार, अराढ (व्यत्यय). हिं. अट्ठारह अण्णेक्क [अन्यद्+एक] २. ५. म. आणिक अण्णेत्त [अन्यत्र] २. १७३. अत्थक्कु [ अस्ताघ ] २. १३५. गू. अथाग; म. अथाक, अथांग अस्थमउ [ अर्थवत् ] ३. १२६. अत्थवण [अस्तमन] ७. १४८, गू. आथमणु अंतेउर [ अन्तःपुर ] १. १४. अंदोल [ आंदोल ] १. २०, अंधल [ अंध+ल] ५. ४८. गू. आंधळु म. अंदळा.. अद्ध [ अर्ध] 1. ४७. गू . अरधु, अध. हिं. आधा अप्पा [ आत्मन् ] ७. १४, गू. म. हिं. आप अप्पाण [आत्मन् ] ६. २४. गू. म. हिं. आपण अभंतर [ अभ्यन्तर ] १. ४५. गू. भितर अभिट्ट [दे.] ५. १५४. (टि.) Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भभिड [ दे. ] ५. २४७. । संगति करवी सि. हे. ८.४. १६४.;पा.मा.,दे.ना. 1. ७८ ;प्रा. गू. आभडइ गू. भिडधु; (अ र्थान्तरे ) आभडवु. अमणागमण [ गमनागमन ] १३. ३२. अमिय [ अमृत ] १. ३६. गू. अमी. .. भलत्तअ [ अलकक ] १. १०. गू. भळतो बं. आळता अल्लीण [ आलीन ] १.३३.आसक्त अघक्खडी [ दे. ] ७. ७२. चिन्ता. गू. आखडी अवर [ अपर ] ४. २१३. गू. अवरओर; हिं. और अवर [अपर ] २.४१.पश्चिमदिशा भवरेक्क [अपर+एक] ३. ४५. अवरुड [ दे. ] १. ४६. भेटवू पा. मा.; दे. ना. १. ११. अवरुप्परु [ परस्पर ] ६. ७४. अवलुआ [ दे. ] ४. ३८६. क्रोध दे. ना. १. ३६. अवहेरि [दे] ३. ६६. अपमान स. अवखेरइ (भवि.) अंसु [ अनु ] ६. १०४. . आंसु असमत्तण [ असपत्नत्व J५.२०३. असमल [ अश्यामल ] १३.२०. अहरुल्ल [ अधर + उल्ल स्वार्थे ] २. ११. अह व [ अथ + वा के च ] ९. ४. गू.हवे; स. सि. हे. ८. ४. ४१९. अहवइ, प्रा. गू. हिव अहिणव [ अभिनव ] १. १९. गू. अवन, अहिरणि [ अधिकरणी] ७.१११. ... गू. एरण अहे [ अधः ] २२. १२. अहोरण [ दे. ] १. ७३. गू. ओढणु, होरपुं. अहोरत्ती [ अहोरात्र ] १. २२ ___ गू. अहोरात आअ [आयात ] १. ४६. प्रा. गू. आयो; हिं आया. म. आला आअ [अदस् ] २. ३०. गू आ. आइअ [ आयात ] १. १०६ आउस [ आयुस् ] ६. १५९. गू. आयखू म. आउख आएस [ आदेश ] १. ९६. प्रा. . आयस आंखलिअ [अस्खलित] १.१०० आचेलिय [ अ+चेलमांथी नाम क्रियापद अने तेनुं कर्मणि भू. कृ. ] १. ९. (टि.) आढत्त [ दे. ] ६. १५६. आरंभी . सि.हे. ८.२.१३८. आण [ आज्ञा ] ५, २६७. गू. म. हिं. आण. Wआण [ आ+नी ] २. २३. गू . आणवू; म. आणणे Wआदण्ण [दे.] ३. ७६, व्या कुल थर्बु स.=म आधण.सि.हे. ८.४.४२२. Wआपिक्ख [ आ + प्र+स् ] ५. ८८. आय [ आगत ] २. ५१.हि.आया Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आयइट [दे. ] ३. ७५. आक र्ष; खंचवं स =दे. ना. ६. २१; १. ६४. आयढि आयरिभ [ आचार्य ] ५.६४. आयल्लय [ दे. ] २. १४; ३. १५.व्याकुलता, कामपीडा.(टि.) आयामिय [आयामित ] २.४९. नियंत्रित कर्या Wआरक्ख [आ+रक्ष] १. ४३. गू. राखq. म. राखणे हिं रखना आलअ [आलय] २. ८७. आवड [ आपद् ] ५ २८८. आलमाल [दे] १३. २८. मिथ्या प्रलाप (टि.) आलार्वाण [आलापनी] ६. १३८. एक वाद्यविशेष Wआव [ आ+या ] ३. २३२. गू. आवq. आवेढ [ दे ] ५. २३, आवेष्टन, वींटाळवू ते. स.-म. वेढणे सि हे. ८.४.२११.वेढ=वेष्ट्र Wआसंघ [दे.] ५. १४० अपेक्षा राखवी. सि.हे ८.४ ३५ दे. ना.१.१६३. आसंघा=इच्छा. Wआहल्ल (दे.] ६ ९, गू.हालवुम हालणे आहित्थ [दे. ३. १५८. चलित दे.ना.1.७६ आहोय [आभोग] ६.१२० खाली जगा! आहंडल [ आखण्डल ]३.९५. इन्द्र | इ [अपि] २. ६१. ग. य. इत्थि [बी] ४. २१९. इत्थु [अत्र] ९.६८.म. इथे; मा.अठे. इंदिय [इन्द्रिय] ४. ९. इय [ इति ] ५. ९९. इलायल [ इलातल ] ५. १३१ पृथ्वीतल. ईषु [ ईषत् ] १. २१. . उक्क [ उत्क ] १. ५० उक्कोवण [ उत्कोपन ] ३. ५४. उद्दीपक उ [खलु] १२. ३३. अनर्थक निपात उअअ [उदय] १२. २५. उअत्ति [उत्पत्ति] १२.८. उग्ग [ उप्र ] ५.५९. उग्गअ [ उद्गत ] २. ६८. गू. उग्यो · उग्गम [उद्+गम् ] र. ४० ग. उगवू;म. उगवणे उग्गम [ उद्गम ] १. ४७. गू. म. ऊगम उग्गमण [ उद्गमण ] ७. १३१. गू. उगमj. म. ऊगवण Vउग्घाड [ उद्+घाट ] १४. १८ ___ गू.उघाडवू.म.ऊघाडणे;हिं.उघाडना उच्चारउ [उच्च+कार स्वार्थे] १. ९२. गू. उंचो. Vउच्चाय [क्रि. उच्च] ५.१९५. ग. उचकवू उच्चिट्ठ [उच्छिष्ट] ६. २०४ गू. उजीलु, अजीहुँ, एलु; म. ऊष्टा उच्छ ल [उत्+स] ३. १९५. ... गू उछळवं. उच्छव [उत्सव] ४. २८४. गू, _ओच्छव. Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उच्छव [उत्स्पर्श] . ६५. उच्छु [इ] १. ९. शेरडी म. ऊस ३४. उज्जअ उद्यत ] ११. उज्जंगल [दे.] ३. ६४. दीर्घ दे. ना. १. १३५. उज्जल [उज्ज्वल ] १. १२ गू. ऊजळु, हिं. ऊजरा म. ऊजळ उज्जालिय [ उज्ज्वालित ] १.६१. उज्जाण [ उद्यान] १. १५. स.= गू. उजाणी उज्जोअ [ उद्योत ] ३. १७१. उज्जोय [ उद्योतन ] ५.६. सूर्य. ६१. गू. उज्झ [ उपाध्याय ] ५. ओझा उज्झर [ दे.] १. १०३. निर्झर, म. ओजर उट्ठ [ उद+स्था] १३. २७. गू. ऊठवु म उटणें हिं ऊटना उन्ह [उष्ण] ५. ७४. गू. ऊनुं उहाल [ उष्णकाल ] ६ १५९. गू. उनाळो. म. उन्हाला उत्त [उत] ५. ६१. √ उत्तार [ उद्+तृ] ११.४८. गू. ऊतारखं. म. ऊतरणें उध्धुर [उध्धुर] ३. २८. उदूहल [ उलूखल ] ५. २७. खांडणी उधूलिय [ उद्धूलित ] १३. ५. ११८ उपज [ उत्+प६ ] २. ३९. गू. ऊपजं उप्पण्ण [ उत्+पन्न ] २. २५.स.= गू. ऊपन्युं उपरि [ उपरि ] २. ३३. गू. ऊपर उप्पाड [उत्+पाट् ] १३.९. गू. उपाडवु. म उपडणें उपील [उत्पीड] ४. √ उभ [ उद् + भावय] २. ९४. गू. उभ; म. उभ १०६. उब्भड [उद्भट] ६.२३.गू. म. ऊभड. उभा [ दे. ] २. ३२. म. हिं. ऊभा उम्माह [ उन्माथ ] ५. १८८. √ उम्मिल्ल [ उद्+मील्] १. २८. गू. ऊमळवु म उमलणें उल्ल [ उन्द्र ] १.८२. म. ओळ (टि.) उल्लव [ उल्लाप १. १९. √ उलुक्क [दे.] < उद् + लुप्. १. ४९. संताइ जं उल्लोल १. २६. गू. उरुलोल रमतीआळ = / उल्हाव [ दे. ] २.२६. गू. ओल्हवं. उवज्ज [ उत्+पद्] १३. २५. गू ऊपजवुं. म उबजणें उवरि [पर] २ १४१, उवल [उपल] २ ८५, पथरो उवेस [उद्देश] १३. ४; १३. १०; १३. ३ (१) Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . एवड [ एतावत् ] २. ८४. गू. एवडुं. म. एवढा ओह [ओष्ठ] ३. ५३. गू. ओठ. Vओत्थर [भव+स्तृ] ११. ४४. गू ओथरवु; दे.ना. १.१५१ Vओयर [ अव+] २. ११९ गू. ऊतरवं Vओलक्ख [उप+लक्ष्] ५. २७८ गू . ओळखवू; म. ओलखणे Vउव्वर [उद्+] १. ७. शेष ___ वधेलु म.उरणे;दे.ना.१, १३२ Vउव्वल [उद्+कृत् ] ७. १४३. गू. भवळू करवू • उवेल्ल [ दे. ] ५. ७३. सि. हे. ८.४.२२३. उघाडवू उहु [दे.] ३. ११७ जुओ! गू. ओहो! उहे [उ १२, १२. उंचे. ऊढण [दे.] १. २५.स. गू. ओढq भोढणी; हिं म. ओढणी ऊण [फन] २.१२८.गू .ऊगुं;म.ऊणा ए [ एतद् ] १. ९१. गू ए. एअ [ एतद् ] २. १३. एककम [ एकक्रम ] ११. २५. एक साथे एकमेक्क [एक+एक) २. ८. गू . एकमेक एकलिय [एकाकिनी] १४. ३.गू . एकली; हिं.अकेली एत्तड [एतावत्] १. १०७. गू. एटलं; प्रा.गू . एतलं एत्तिअ [एतावत् ] ६. १५. गू. एटलं एत्थु [अत्र] १२. ३० म. एथें एम [एवम् ] १. २०. गू . एम एयारह [एकादश] १. ५१. गू: अगीआर एव [ एवम् ] २. १६७ Vओलग्ग [ना. क्रि. <अवलम] ५. २००. सेवा करवी. प्रा. गू . ओलग =सेवा; गू. अंग ओळगणु; ओळगाणो. ओलि [ आवली ] १. ३८. गू. ओळ Vओसर [अप+स] ३.७६. गू. थोपर म, ओसरणे . ओहाम [ दे. आ+क्रम् ] २. ४९. हुमलो करवो सि. हे. ८.४. २५. अने १६० ओहि [अवधि] ५. १८५. जैनम तनां ५ ज्ञानमांनुं एक ज्ञान Vओहुल्ल [ दे. अव+फुल्ल* ] २. १६१. खिन्न, अवनत स. = गू. पाक ओलाइ गया. (टि.) क [ किम् ] १. २ गू. को. कइस [कीदृश ] १०. ९. हिं. कैसा म. कसा. गू . कशें प्रा. गू. कित्यूं Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कउह [ककुम्] ३. ८४. दिशा. .. कद्दम [ कर्दम ] १. ६३. गू. कज्ज [कार्य] ११. ३४. गू.म. हिं. कादव. काज कंत [ कान्त ] ५. २३, गू. कंथ. कज्जल १. ३१. गू . काजळ कप्प [क्लप्] १४. १. गोठववं कडक्ख [कटाक्ष] १. ५०.स. गू. कप्पडिय [ कार्पटिक ] ३. ४३. करडागी; कडखां गू. म. कापडी कडउल्ल [कटक+उल्ल] १. ५२. कब्बुरिय [कर्बुरित ] ६. ७१. गू. कडा, कल्लां, गू. काबरूं; म कबरा. कडियल [ कटी+तट ] ५. १८ कम [क्रम ] ३. १६६. पगलं. स-गू केड.म. कडिये, कडिये- कंचुलिअ [ कंचुलिका ] ४. २२. ला (काव्य) कंपण [कृपाण ] ५. ७.. कडिल्ल [दे.] ६. २४९. कांइ पण कंबल [दे.]३. २२, गू. कांबडी छिद्र विनानुं दे. ना. २. ६२ कम्म [कर्मन् ] ३. १४७. गू. हिं. काम कडूय [कटुक] १०. २७.गू . कडवं. करड [करट] ३. ८७. गंडस्थल म. कडू करंबिअ [ कबूरित ] १. ६३. कट्ठ [काष्ठ] ७. ७०. गू. काट (-माळ), काठी. म. काठी कयवय [ कतिपय ] ५. ४६. केटलाक Vकंड [कण्ड्] ५. २७, ८. २२. गू.खांड, म. खंडणे, खांडणे कलयल [ कलकल ] २. १११ कड्ढ [ दे. कृष् ] ३.११०. कलयंठिणि [ कलकण्ठिनी ] १. गू. का ढवू, म. काढणे. १२२. कोयल पा. मा. हिं. काढना.सि.हे.८.४.१८७. कलिय [कलिका ] १. ४०. गू. कणय [ दे. ] ५. ७.. बाण. कली; म. कळी दे. ना. २. ५६. कल्लोणिय [कल्यतन ] ३. ११४ कण्ण [ कर्ण ] १. १२१. गू. गू . काल-प्रा. गू; कालुनउं कान. कवण [ दे. ] २. ८९ गू. कंठ [ कंठिका] ३.१२५. गू.कंठो, म. हिं. कोण. कंठी कसण [कृष्ण ] ३. २४. श्याम कण्ह [कृष्ण ] ४. १८३. गू. कह [ कथ् ] १. १८७. गु. कहान कहे. कत्थ [कुत्र] ४. १६१. मा.कठे; | कह [ कथा * = कथम् ] १. ५. म. कुठे हिं. कई, कहा, Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ " काह [ कृष्ण ] १२.१० गू. हिं. कान्हा. कायर [कातर ] ४. २६५. गू. हिं. कायर कारिम [ दे. ] १. १२९. कृत्रिम. दे. ना. २. २७ । काल [ दे. ] ५, १२२. गू. काळु दे. ना. २. २६. कालंषिणि [ दे. कादंबिनी ] ५. १३. मेघमाला. (टि) कि [ किम् ] १२. २०.; १२. १५.; प्रा. गू . कि; गू. के; म. कि; हिं. कि; की. कित्थु । कुत्र ] ४. १६४. मा. ___ कठे, केथे म. कुठे हिं. कित. किय [कृत ] १. १, हिं. कीया किय [किम्+इव ] ३. १६२ ।। किर [किल ] १. ९० खरेखर प्रा. गू. किर, किरि. किलाम [क्लम् ] ४.१७४. थाफवू. इकिलकिंच [ध्वनि क्रि. दे. ] ६. ५३. कलकलाट करवो. सि. हे. ८. ४. १६८.रम् किलेस [ क्लेश ] ३. ३. किषिण [कृपण ] १. १२८. किस [इश ] ४. १४२. वकील [क्रीड्] ११. २६. कील [क्रीडा ] ३. ८१. कुच्छ [ किञ्चित् ] १२. १०. कांड हिं. कुछ कुहाडि [ कुठार ] . १३४. गू. भाग: हिं. कुहाडा; कुहिणि [ दे. ] ३. १७६. मोहोल्लो, मार्ग, कूध [ कूप ] ६. ॐ. गू. कुको केत्तड[कियत्+ स्वार्थे] ३.१२९. गू. केटलं; प्रा. गू. केतु; म. किति हिं. कितो. कत्तिअ [ कियत् ] ३.१०८. केम, केम्व [ कथम् ] २. ७८. - गू. कैम. हिं. किमि केयइ [ केतको ] १. ११. गू. हिं. केवडा. केयार [ केदार ] १. ११. गू. क्यारो, क्यारडो हिं. क्यारा केरउ [दे सत्क ] २. २९. सम्बन्ध विपिनो अनुसर्ग. गू. केरो-री-रू. केहर कीदृशं ] ५, ९४. प्रा. गू. केहूं; गू के; हिं. केहूं. कोइल [ कोकिल ] ५. ११४. गू. हिं. कोयल प्रा. गू. कोईल. म. कोयाळ कोक्क [दे.] ५ १३६. बोलाववं. म. कोकण; सि. हे. ८. ४. ७६. कोट्ट [ कोष्ठक ] ४. १०५. गू. म. कोठा; कोठो Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खरड [३.] १३. २०.गू म. हिं. खरडवू दे ना. २. ७९. ( खर+ड स्वार्थ ) Vखल [ स्खल ] १ २६. गू. खना, खाळवं. हिं. खलाना खल [ दे. ] १०. २८. गू. खोळ खवग [ क्षपणक ] ४. ९४; १३. १०. जैन साधु. खार [ क्षार ] २.८२. गु . म. हिं. . खार खिज्ज [ खिद् ] ५. १२. गू खीजवं; . खीजणे;हिं खीजना; सि. हे. ८. ४. - २२४. कोदूमिउ [दे,] १ १३ सुरतक्रीडा स-म. कोदवणे, कोदावणे (अर्थान्तरे) सि. हे. ८. ४. १६८. कोटुम-रम् कोपल [ कुडमल ] ४. १४८. कळी गू. कुंपळ सि हे. ८. १. २९. कुंपल. खिंच [ दे. कृष् ] ३ १०. गू खेचq म खेचणे हिं. खंचना खड [ दे. ] २. ८१ तृण गू. म. हिं. खड. दे. ना. २.६५. खडफड [ दे. ] १४. २३. भ्रांति गू म. हिं खटपट खडिल्लउ [ खल्वाट ] ७. १३६ स=सि. हे. ८. ४. १२६ खह-मृद इल्ल स्वार्थे खणय [ खनक ] २. १०४. खंड । खड्ग ] ७. ८०. गू खांडः हिं. खाँडा. खंत [ खात ] १. २६. खंध [स्कंध] ७. १३४. गू. म. हिं. खांध खंधावर [ स्कन्धावार ]१. १०७. सेना खप्पर [ कर्पर ] ६. ४२. गू . हिं. खप्पर; म. खपरी खयाल [ दे. ] ६. २६. झाडी खोर क्षीर] १. ८८. गू. म. हिं. . खीर खुड [दे. ६. १५३. तोडधं म. खुडणे; गू. बूंत; हिं. तना; सि. हे. ८.४.११६. खुद्द [ क्षुद्र ] १०. ३३. हलको माणस, मक्षिका खुब्भ [ भुम् ] ६. ८८. स.= ... म. खुबा, खुबवणे; हिं.खुमना. खुसखुस [ दे. ] १३. ५. छानी वातो करवी. गू. खुसफुस करवी; म. खुसखुसणे; बं. फुसफुशाना खेड [ दे. ] ३, ९४. गू, खेल Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खेच [ क्षेत्र] २. १९३.गू . हिं. खेत; म. शेत खोणी [ क्षोणी ] २. १०४. जमीन खोह [ शुभ ] ४. ३०४. क्षोभ करवो. गअ [गत ] १. २. गू. गयो गयद [ गजेन्द्र ] ६. २९. गू. गयंद -गंजोल्ल [ दे. ] ५. १११. पुलकित थवं सि. हे. ८. ४. २०२. गुज्जोर उल्लस्; दे. ना. २ १००. रोमांचित. गंठियाल [ प्रन्थिपाल ] १.१७. भण्डारी गग्गर [ गद्गद ] २. ८९. गू गळगळो; म. हिं गळगठा, गळगळित; पा. मा. गग्गिर [ गद्गद ] २. ५५ गू . गळगळो. सि. हे.८.१.२१९ गरुथ [ गरुक ] ४. १३१ गू. गरवो; पाली-गरु; स.सं = .. गरीयस् । गवक्ख [ गवाक्ष ] ६. ९८ गू गोख प्रा गू. गुख; हिं. गोख. गविट्ठ [ गवेषित ] ३. १०२ पा. मा. गंध [ गव्य ] १. १४७. गायर्नु गहिर [ गभीर ] ३. १५२. गू. घेई. हिं. धैरा, गहिल [ प्रथिल ] ७.. १०२. गू. घेलो स.म. चैलट, धैकार. गाम [ प्राम ] १. ७, गू. गाम. म. गांव. हिं. गाम. ५. २३९, संगीतना ३. प्राम. गारउ [ कारक] २. १२१. - गू. हिं. °गार. गिझ [ प्राह्य ] ६. ८६. मिणगिणाविउ [.] १०.३२. गू. गणगणवू; म. गिणगिणनें, गणगणनें गिंभ [ ग्रिष्म ] ४, १८२. उनाळो म. गीम, गीर गिव्वाण [ गीर्वाण ] २. १०७. गु [ गो ] ३. १३६. गुज्जर [गुर्जर] १४. १०. गू. __ म गूजर. गुज्झ [गुह्य] १७, स. = गू. गू झुं; प्रा. गू. गूझ गुंथ [ प्रथ् ] १.२४. गू. गुंथ, म. गुंथणे, गुंथणे (उच्चार गुतणें ). गुमगम [ध्व.क्रि.दे ]..१३५ म. घुमधुमणे; स. सि हे. ....... ४. १६१ गुम-धम् । Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुहिर [ गभीर ] १२.१५ गू. घे; पा. मा. गेह [गृह ] १४. २. मः घेणे सि. हे. ८. ४. २०९. गोंजि [ दे. ] ५.११६. मजरी. दे: ना. २. ९५. गोड [मोष्ठ ] १४.१३. गू.. गोठो म. गोठण. पा. मा:-गुह घ दे. ] १०.११ पादपाक अव्यय.सि.हे. .. ४.४२४. घंघ [.] १. १३७. घर गू. घंधोलियु. दे: ना. २. १०५. घण [ धन ] १२३. गू. पण (लहारनो) घंडा घंटा] १३. १. गू. हिं. घंट. घत्त [दे. क्षिप्त] २. ११ प्रा. गू. घातवं. सि. हे. ८. ४. १४३. क्षिप् घर [गृह] २. २२. गू. म. हिं. घर घरिणि [ गृहिणी ] ४. ३१५. ... पत्नी गू. घरुणी. घल्ल [ दे. क्षिप् ] ३. १९०. गू. घालवं; हिं. पालना, म घालण सि. हे. ८. ४. ३३४. (उ.) घवघव [ दे, ध्व. क्रि.] १. २४. घूघव. घाअ [घात] १,६६. प्रहार-गू .घा. वित्त [दे. क्षिप्त] १. ८. जुमो घत्त स.-भाष. धिंभ [ग्रिष्म के धर्म] ५. १०२. ताप, गू. म. हिं. घाम म. गिम्द Vघुज्ज [ दे. कर्मणि प्रस] २. ८६. गू. चूंचाइ जई. Vघुल दे.] ५. १२४. खंखेर सि. हे. ८. ४. ११५. म. घोळणे; गू. घोळवं. घुसिण [घुसृण] ६. १५१ कंकु. बृहड [ घूक+5 ] ९. ३२. गू. घूवड; म. गू. हिं. घूड Vघेप्प [ दे. = गे* = गृह् कर्मणिरूप] १०६० ग्रहण करवू. म. घेणे सि. हे. ८.४. २५६. घोल [.] १. २६. गू. घोळवू; हिं. घोलना. उ [चतुः] २. ५३. गू. चो. चउ-कोणी [चतुष्कोणा] २.१०४. म. चौकोण. चउत्थ [चतुर्थ] ६. १५७. ग. चोथु; म. चौथ; हिं. चौथा चउपास [चतुःपार्श्व ] २. १०६. गू. चोपास. चउरंसिय [चतुरस्रिका ] १४.१. चार खुणा वाळी लखचामां जूना वखतमां वपराती स्लेट जेवी काष्ठपट्टिका.. Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ च । [] ५.६२. मू. माहिं चाक. चक्का [चक्र ] ११.२४. चक्रवाक - गू. चकलो, चकवो. चंग १.२७. गू. चंग; हिं. चंगा; म. चांगला. दे. ना. ३.१. चट्टउ [ दे.] ५ २८. ग. चाटवो म. चाटू दे.ना.३.१. चड़ [ दे. रह ] १. ८७. गू. चडवू; हिं. चडना; म. चढणे चडफड. [ द्वे. ध्वनि. क्रि. ] १०.११. गू. तरफडवू. म. तडफडणे चडियराय [ गृहीतराग ] २.१०७. चडयार [ चटुकार * ], ३.५७. चत्त [त्यक ] ४.२९१.पा.मा. चत्तर [ चत्वर ] ५.८ गू. चोतरो, चबुतरो. चम्म [ चर्मन् ] ८.१३. गू. म. हिं. चाम. चंद [चन्द्र ] २.५३. गू. चंद, चांदो. म. हिं. चांद. उसय [ त्यज ] ४.१२४. त्याग करको. पा. मा. चालीस [चत्वारिंशत् ] ५. ५१ गू. चालीस; मः चाळीस चव [ दे. ] २.१७८. कहेवू गू . चव; चव चव करवं. सि. हे. ८. ४. १... चव[च्यु ] ४.७९. च्युत गर्नु गू. चवQ; म. चवणे चावल [ दे. ] १.४२. चोखागू, हिं.चावल; दे.ना.३.८.-चाउल Wचिकन [चमत+]. ५.२०. गू. चमक,. चिट्ठ [ चेध ] ७.१४३. गु, चेडो चित्तत्तण [ चिऋत्वा] ११२२. चिंध [ चिह्न ) ५.७. सगू. चींधq; पा. मा. चिसणऊ [ चिरंतन ] ५.१८०. पुराणु; प्रा. गू, चिराणूं, चिहुर [ चिकर ] २.१७९.केशपाश. चूर [ च ] २.८, गू. हो. करतो. चुक्क [च्युत ] ३.६९. गू. म. हिं, चूक. पा. मा. चुक्क [क्रि.<च्युत ] ४. १९७. गू. चूक, म. चूकणे पं. चुक्कना. सि. हे. ८.४.१७७ =भ्रंश चोज्ज: [ दे. ] ५.२१४. आचर्य. दे. ना. ३. १४. चुज्ज, चोज्ज; पा. मा.. चुज चोप्पड. [ दे. ] ७.१४३, तैल. मर्दन कावं, म्. चोपड म. चोपडणे; हिं. चोपडना. सिं. हे. ८.४.१९१=चुप्पड. चोप्पड [ के ]: ७.११२. चीकटुं Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ छ. [षट् ] प.५१. गू. छ. में सहा... छज्ज [ दे. ५.२४८. गू. छाजवू, 'हिं. छाजना; म. साजणे सि. हे. ८.४. १९९.-राज छड् [ दे. मुच् ] २.१२७.गू . छोडवू, हिं. छाडना; म. सांडणे. सि. हे. ८.४.९१. पाली छडेति छण [ क्षण ] ६.१४८. पूाणमा. छण्ण [ छन्न ] १.३. गू. छार्नु. छत्तिय [ छत्रिका ] ५.२२४. गू. म. हिं. छत्री, छप्पय [ षट्पद ] २.१३५. गू. खटपद, छप्पय छप्पो (अर्था छेअ [छेद ] ३.१०४. ग. छेटो. ज [ यत् ] १.२९. जअ [ जगत् ] ६. ... जइ [ यदि ] २.३७. प्रा. म. जई. जइसउ [यादृश ] १०.१. हिं. जैसा; म. जसा. प्रा. गू. जिस्यू. जउ [ यत्र] ३. ५७. जउण [ यमुना ] ४. १३७. जगड [दे. ] १३.२०. गू. झघडवू; म. झघडणे हिं. झ घडना. दे. ना. ३.४४. जणण [ जनक ] ५.३१२. जणवउ [ जानपद ] २.८. प्राम जन. जणेरी [ जनयित्री ] २.२९. माता जंत [ यन्त्र ] १.९. गू. जंत, जंतर जंत [ यात् ] १.३ व. कृ / जा. जमल [ यमल ३.२७. प्रा गू. अमलो; म. जवळ (अन्तरे) जंप [ दे. कथजल्प् ] ३ ८३ म जापणे जापणे. सि. हे. ८४ २-वथ् जंपण [ जल्पन ] ३.१६३. वाच्यता निंदा- दे. ना ३.५१. : - पाण [दे ] ५.२२७. एक प्रकारनुं पाहन, छार [ क्षार ] ७.१४२. राख गू. छार. पाली. छारिका छत्त [ दे. ] ५.२०७. स्पृष्ट; गू . छीतर्दू, हिं. गू. छूतअछूत. पा मा. -छिप्प [ दे. स्पृश ] २.८५. सि. है. ८.४.२५७. पाली.छुपति; गू छूपधुं Vछिव [दे. स्पृश् '६५६. गू. . छोवा सि हे ८४.१८२. छुडु [ दे. ] १.४७ ; छुड्डु खुड १. ७५;सि हे. ८.४.४२१ (उ.) छुडु यदि छुद्ध [धुन्ध '] ३. ९३. पाली. शुद्ध. Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / जयजयकार ['जय' जय' +] २७. गू. जेजेकार करवो जयहर [ अगदगृह ] १.४. जगत् रूपी घर. जर [ ज्वर ] ३५३. म. जर. जलजंत [ जलयन्त्र ] ६.८ वहाण जवल [ यमल ] ७.१३०. पासे पासे. प्रा. गू. जमला म. जवळ. जस [ यशस् ] २.९४. गू जस. √ जा [ या ] २६३ गू. जवुं; हिं. जाना; म. जाणें √ जाण [ ज्ञा ] ३.१३ गू. जावुं; म. जाणनें; हि जानना / जाण [ ज्ञान ] १३.१४. गू. म. हिं. जाण. जाण [ यान ] ९.२९. गू. जान जाणय [ जानपद ] २.१४०. जाम [ यावत् ] ६.५. गू. जां. जाल [ ज्वाला ] २. १२४. गू. झाळ. म. जाळ;पाली. जाल जालडिय [ ज्वाला+डिय ] २.१११. जाव [ यावत् ] २.१८१ जावहिं [ यावत+स्मिन् ] १.९०० जि [ दे. ] १.२३. अनर्थक निपात गू. ज. ज्जि [ दे. ]२. ३४. अनर्थक निपात √ जिघ [घ्रा ] १२.६. वास लेत्री. पा. मा. ? जिण [ज] ५. १९४ सि. हे. ८.४.२४१. जिभा [जिह्वा ] ३.८, गू. म. जीभ. जिह [ यथा ] २.९२. जेम. जोहा [ जिह्वा ] १.१२२. पा. मा. r √ जुज्ज युज ] ५.१७६. सि. हे. ८. ४.१०९ √ जुज्झ [ युध् ] १.४९. गु. लुजनुं म. जुजणें, जुंजणें हिं. झुंजना सिं. हे ८.४.२१७. जुज्झणअं [ योधनशील ] ३१८. गू. झूमं. जुत्ति [ युक्ति ] ५. २६५. गू. जुगत जुत्थ [ यूथ ] १३.३८. गू. जूथ. जुप्प [ दे. ] ३.८२. बेसतुं आव सि. हे. ८.४.१०९, जुंपणे जुवाण [ युवन् ] ३.१२६ गू. 'जुवान. जूवारिअ [ तकार ] ३.१६ गू. म. जूगारी. जे [ ज्येष्ठ ] ३.२७. म. जेठा. जेत्सहे [ यावत् + स्मात् ] गू. जेटले गू. जेठ Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । Vझुलुक्क [ दे. ] 3. ४४. म. मुलकणे झेंडय [दे. ] ५.४१. दडो, गू. गेंदो; म. झेंडु द्रा. चेंडु टिंटउ [दे. ] ६.११९. जुगार रमवानी अगा.दे.ना.४.३ टेटा. Wठव [स्थापय ] ५.१७८. गू. ठवQ; म.ठेवणे; पाली. उपेति जेहड [ यादश ] ५.९४. गू. जेम [ यथा २.५३. गू. जेम। जोअ [दे. ] ७.१११. गू. जोवं, म. जोवणे, पाली. जोतति (सं. धुत् ). ओअण [ दे. ] ६.९६. सृष्टि, नेत्र. जोइसिउ [ज्योतिषिन् ] ३.२९. गू. म. हिं. जोशी. जोक्ख [ दे. ] ५.५०. निर्णय करवो गू. जोखवू. म. जो. खणे हि. जोखना. सोगि [ योगिन् ] ३.११. गू. म. हिं. जोगी. जोव्वण [ यौवन ] १.९५. गू. जोबन. झंकार [ध्वनि श.] १.२४. गू. झंकार. झत्ति [ झटिति J२.७१.गू. झट. पा. मा. Vझडप [दे. ] ५. २७९. गू. ज्ञडप', म.झडपणे, हिं. झडपना झलक [ दे.] ५.१५५. गू. मळक, हिं. झळकणे मल्लरि [ दे. ] १.४. एक चाच. Vझा [ध्यै ] ६.४८.सि.हे. ८.४.६ झिज्ज [दे.] ३.५६. सूकावुलम. झिजणे. झुणि [ध्वनि ] ४.१२० हिं. झुण. ठाण [ स्थान ] ५.१३७. गू. थानक; म. ठाण ठाव [स्थामन् * ] १३.२९. गू. .. ठाम. म. ठाव Vठाहर [स्था] ९.३६. स-गू. ___ठरवं; हिं. ठहरना म. ठरणे. डसण [दशन ] ५.१ २३. दांत ख.=गू . डस, म. इसमें हिं. ढसना; पाली डसत्ति Vडह [ दह् ] २.९०.वाळवं;पाकी. डहति; स.म. गाहणी, डाह. Vडहुल [ दे. ] ७.१४६. गू. डोळवु म. डाळण डाइणी [ डाकिनी] ५.३०. हिं. डायन. डाल [ दे. ] ९.२८. शाखा गू. हिं.डाल, म. डाहळा.दे ना.४.९. Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ / उज्झ [ कर्मणि दह् ] २.३७. गू. दाझवु; डाझर्णे डिंडीर १.२०. फीण. डक्कर [ दुष्कर ] २.६१. डोंब [ डुम्ब ]५.६१. चांडाल. पा. मा. √ डोल्ल [ दो ] ४.२४९. गू. डोल; म. डोलणें; हिं. डोलना √ दुक्क [ ढोक् ] २.१२५. गू. ढुंक ढोअ [ ढौ ] ५.९. णं [ दे. ] १.४५. जेम सि. हे. ८.४.४४४. √ णश्च [ नृत्] १.१०२. गू. नाचवं; म.नाचर्णे; हिं. नाचना पाली : नच्चति. णचण [ नर्तन ] ३.११५. गू. नाचण. पाली. नच्चन व्यहर [ नाटयगृह ] १.१२३. ट्टावउ [नर्तीपक* ] ३.१४६. नर्तक, g [ नष्ट ] ६.११. गू. नाडु, स.म. नाट • ड् [ दे. ] ५.१६५. हरकत थवी गू. नडवुं म नडणें, हिं. नडना. पा. मा. णमिर [ नम्+इर ] ३.१५५. नममशील जवर [ दे. ] ५.११३. केवळ. १७ १२९ re [ नभस् ] २.६८. णह [ नख ] १.१२. नख. हिं. नह हर [नखर] १.७४. गू. न्होर V णा [ ज्ञा ] १. १०९ स =गू . नाणं णाइ [ दे. ] १.२. जेम; सि. हे. ८.४.४४४. हिं. नाई जाण [ ज्ञान ] २.१९८. गू. नाणुं; नावुं. णाव [ दे. ] १.२९. जेम; सि. हे. ८.४.४४४. णाहल [ दे. ] ५.१८. एक वन्य माणसनी जात. णाहि [ दे. ] २.२२. गू. नाहि. म. नाहिं. सि. हे. ८. ४. ४१९=नाहिं णि [ नृ ] ५.६०. / अि [ दे. ] २.१८०. जोड; सि. हे. ८. ४. १४१ / अच्छ [ दे. ] ५.१५७. जोर्बु; पा. मा. णिउड [ दे. ] १४६. डूबकी मारवी सि. हे, ८. ४. १०१ = मज्ज् णिक्खंत [ निष्क्रान्त ] ४.२१८. णिग्गल [ निर्गल ] १. १२८ म. निगळ निश्चित [ निश्चिन्त ] ७.७१. गु. . जिज्झाय [नि+यै ] ३.१७१. जोवं सि. हे.८.४. ६. Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ णिझुण [ निर्ध्वनि ] ६.१११. -णिट्ठव [निः+स्थाए ] ३.१६८. नीचे नाखg णिडाल [ ललाट] १.१४. गू. नीलवट, म. निडळ, निढळ. पा. मा. णिप्पेहुण [ दे. ] ४.२१. मोर (१) | णियल [ निगड ] १.८. बेडी जियाण [ निदान ] ६.११४ चिह्न. णिरारिउ [ दे. ] ५.९८. निश्चया थीं निपात; गू. नयु. णिरिक [३. ] १.९. चोर दे. ना. ४.४९. णिरिक्ख [निर्+ईक्ष्] ३.१०८. गू. निरखवं, म. निरेखणे णिरु [ . ] १.१०४. निधयार्थ अव्यय; गू. नये. णिरुत्त [ दे.] १. ९५, ५.४६. निश्चयार्थ अव्यय. णिल्ल [ दे. ] ४.६२. सलाट. /णिवड [नि+पद् ] ३. १३३. गू. निवड; म. निवटणे, निवडणे. इणिव्वड [निष्पद ] ६.६०. सि.हे. ८.४.६२-भू. णिस्सावण्ण [निःसापल्य] २.१९६. . णिसिकय [ दे. ] ५.१४२. बहार काढी नाखेला. गू. नसीकर्बु सि. हे. ८. ४. ९१-१४४. =उस्सिक णिहाय [ दे. ] १.७. समूह. दे. ना. ४.४९. Vणिहाल [ नि+भाल् ] २.१९१. गू. निहाळवु म. निहाळणे हिं. निहालना निहेलण [ दे. ] ५.२५. धर. दे. ना.४.५१; पा. मा. Vणे [ नी ] ६.८३. पाली. नेति णेउर [ नूपुर ] १.१४. गू. हिं. नेवर; म. नेउर,नेवर. पा. मा. णेण्ण [ नयन ] २. १९२ गू. नेण. णेह [ स्नेह ] ५.३९. गू. नेह. Vण्हा [स्ना] १.४९, गू. न्हावू म. नहाणे, न्हाणे; हिं. नहाना. त [ तद्] १. ३०. गू. त-ने.. तउ [तत्र ] ३. ५७. तउ [ ततः ] ४. १७६ गू. तो, तव. तक्खण [ तत्क्षण ] ४.२३६. प्रा. गू. ताकणे; बं. तखन. हिं. ततखण. तक्कुअ [ दे. ] ६. १६६ स्वजन पा.स.म. तण [ दे. ] ४. २६२. षष्ठी विभ किनो अनुसर्ग गू. तणो-णी -j. Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तति [ दे. ] २. ५५. चिंता तत्परता, दे. ना. ५. २०. तं [ ताम्र ] ४ १००. गू. तांबु म. तांबा; हिं. तांबा; पा. मा. तंबर [ ताम्र ] ६. ३८. तमोल [ ताम्बूल ] १.३०. गू. हिं. तंबोल. तवंग [ दे. ] ६. १४१. पलंग तव्वे [ तावत् ] ११. ६. हिं. बं. तबे. हिं. तब गू. तव. ता [ तावत् ] १३.११. ताण [ त्राण ] ४४१. . ताण [ तान ] ५. २५२. ताम [ तावत् ] ६ ५१. गू. तां ताव [ तावत् ] २. १८२. तावहिं [ तावत् + स्मिन् ] १.९०. / ताव [ तापू ] ३. ५३. गू. ताववुं; हिं. तावना, =तायना. √ तास [त्र ] ४ २४०. गू. त्रास आपवो. तिक्ख [ तीक्ष्ण ] ५. २५४. गू. तीखुं. म. हिं. तीख तिडिक्कअ [ दे. ] ९.१२. गूं. तणखो तिण्ण [ त्रि. ] २.९५. गू. त्रण. हिं. म. तीन १३१ तित्ति [ [तृप्ति ] ४. १३६६ म. [.] ५. १३१. आई कर दे. ना. १ ३७. म. तिंबणे. तिय [स्त्री ] २. १७५. स्त्री. हिं ति, ति, तिया. तियसिंद [ त्रिदशेन्द्र ] ४. १४. इन्द्र तिलु तिलु [ दे. ]५. १२. जरा जरा तीमइ [ स्त्री ] ३. ६६. हिं. तीवई. √ तीर् [ तीर् ] १० ३९. शक सि.हे.८.४.८६ √ तुट्ट [ त्रुट ] १. ५७. गू. तू. टवु; म. तूर्णे; हिं. तूटना. तुंग [ दे. ] ३. ११३. रात्रि. दे. ना. ५. १४. तुप [ दे. ] १. ८८. म. तूप. पा. मा.; दे. ना. ५. २२. तुम्हारिस [ युष्मादृश ] ३.११. तुरंत [ त्वरत् ] १.२३. गू.: तुरत. तुरिय [ स्वरित ] १. ९४. गू. तुरत. तुहार [ तब ] ५. २३०. गू. हा तुहुं [ त्वम् ] १. १३२. गू. तुं; म. तु. Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तेत्तहे [ तावत् ] १. ४२. गू. . तेत्थहो [ तत्र ] ३. १३३. तेम [ तथा ] ४. १३५. गू. तेम तेत्थु [ तत्र ] ३.४५. म. तीथे. प्रा. गू. तीथे. तेरह [त्रयोदश ] ३. १९९. गू. तेर. म. तेरा. हिं. तेरह. तो [ततः] १. ४२. गू. तो. Vतोड [त्रोटय ] १. ८७. गू. तोड म. तोडणे हिं. तोडना. सि. हे. ८.४.११६. . Wथक [ स्थक् * ] २.८२. रहे छे. गू.थाकवू, स. गू. यकी; स.सं. स्थगति; पाली. थकेति; सि. हे. ८. ४. १६. म.थाकणे, हिं. थाकना. थक [ स्थिर ] ५. १५. स्थिर थड्ढो [स्तब्ध ] १०. २४. गू. टाढो पाली. थड्ढ; पा.मा. थण [स्तन ] १. २८. गू. थान; हिं. थन; म. थन, थना. थत्ति [ स्थिति] ३. १९९.दे.ना. थरहर [ध्व. क्रि. ३.] ५. ११७ गू.थथर;पा.मा.; दे. ना.५.२७. था [स्था ] २. १८३. गू. थएँ, थाई थाण [ स्थान ] १. १५. गू. थाएं थिअ [ स्थित ] २. ५. गू.. थयु थित्ति [ स्थिति ] ५. २२०. थिप्प [ दे. ] ५. १३. झर म. थिपणे.थिवणे. सि.हे.८.४. १७५. थुइ [स्तुति ] ६. १५६. थेलासण [ दे. ] ४. ११. कमळ, दे. ना. ५. २९. थोव [ स्तोक ] ६. ५५. पाली. थोक. सि. हे. ८. २. १२५. थोड [स्तोकं ] ३. ११०. गू. थोडु, म. हिं. थोडा. थोर [ दे. ] ३. १०६. स्थूळ म. थोरला, थोर. पाली, थेर. दे. ना. ५. ३०. दइअ [ दैव ] ६. १३. नसीब, प्रा. गू. दै. 'दै जाणे' दउवारिय [ दौवारिक ] ३. ४१. दिक्खव [ दर्शय् ] १. ९५. Vथंभ [स्तम्भ ] १. १३३. गू. थांभy; म. थांबणे Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गू. दाखवबुं; म. दाखविणें सि. हे.८.४.३३. दर [ दे. ] ५.१९. थोडा दे. ना. ५. ३३; पा. मा. दवणा [ दमनक ] १. १७. एक जातनी वमस्पति; गू. दमण; हिं. म. दवणा. दहि [ धि ] १. ३. गू. दहिं. म. हिं. दहीं. दार [ झरिका ] ४. १५५. स. =म. दार. √ दाव [ दे. दृश् ] ६. १६५. सि. हे. ८.४.३२. दाहिण [ दक्षिण ] ६. ५३. जमणो; हिं दाहिना. दिअह [ दिवस ] २. ५१. प्रा. गू. दीह; गू. दी. प्रा. म. दी. दिट्ठ [ दृष्ट ] १. ४७. गू. दीठो. पाली. दीड. दिट्ठि [ दृष्टि ] ३. १३३. गू. ड्रेठी; म. दीद १३३ दिण्ण [ दत्त ] १. ३३. हिं. दीना. प्रा. म. दिन्हला. पाली. दिन्न. दिवest [ दिवसाः ] ७. १३३. - दिवसो प्रा. गू. दीहडा. दिहि [ धृति ] ३. १६. धैर्य, सुख: पाली. धिति दीउ [ दिव्य ] २. २. दीव [ दीप ] २ ८७. गू. दीवो दीव [ द्वीप ] २ १९८. दी [ कर्मणि दृश्] १. १. गू. दीस; हिं. दीखना; म दिखनें दुज्जस [ दुर्यशः ] २. २. अपकीर्ति. दुवार [ द्वार ] ६.१२५ म. दार; हिं. दुवार दुस्सील [ दुःशील ] २. ९६. दूउ [ दूतः ? ] १.५. दूहल [ दुर्भाग्य ] ४. १४८. गू. दोहलो. दे. ना. ५.४३. √ दे [ दा] २. ११. गू देतं. म. देणे; हिं; दे.ना. देवर [ दे ] २. ५२. गू. बिभर; म. देवर. देवल [ देवकुल ] ७. ३३. गू. म. हिं. देवळ. देहुर [ देवगृह ] दहे ६. ७७. गू... धण [ धन ] ३. ३०. गायोनुं ज्थ. गू. धण. धणिअ [ दे ]११. २६. प्रिया मा. धण; दे. ना. ५. ५८. Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धत्थ [ धार्थ ] ४. २९२. धंध [ दे. ] ७. १२७. मोह; गू. धंधो, धांधळ. म. धंदरा, धंदर्या. दे. ना. ५.५७. Vघंध [.] १३. ७. छेतर... दे. मा. ५. ५७.म. धंदरणे घय [ध्वज ] १. १७. धवल [घवल ] १४. १३. गू. घोळो. धाइय [धावित ] ३. १६९. गू. धाया. स. धावडणे, धावणे (काव्य). धाहडिय [ दे. ] २ ११२. गू. धुयगाय [ दे. धूतकाय ? ] १.३८. भ्रमर; दे. ना. ५. ५७ ।। धूअ [ दुहित ] ५. २७१. दीकरी मा. धी. धूमधारिअ [ धूमांधकारित ] २. गू. धूंधळु; म. धुंडाळा. नग्गल [ नम+ल्ल ] १३. ९. गू. नागडो; म. नागडा, नागटा नवल्ल [ नव+ल] १. ४०. गू. म. हिं.नवल. नास [नश् ] १. ८. गू नासवू; म. नासणे ( यौगिकार्य ) इनिअ [दे.] २. ७८. जोवू सि. हे. ८. ४. १८१. इनिउडू [ दे. ] १. ४६ गू. बूडवू. सि. हे. ८.४ १०१. नियत्थ [ निवस्त ] १. ९९. म. नेसणे नियर [निकर] १. १६. समूह नियरिसण [ निदर्शन ] ४. १६३. दाखलो नियलण [ निगडन ] ५. ४७. उनीसर [ निः+स १. ५. गू. नीसर; म. निसरणे. सण निवसन] ६. १०७. म. नेसण नोक्खी [ नव+क्ख ] ३. १८४. अपूर्व गू. नोखु; सि. है.८. ४. ४२२. घि [ धिग् ] ३. ७७.पाली, धि. घिट्ट [धृष्ट ] २. ७६. ग. धीट; म. धिट. Wधीर [धीरय् ] ३. १६३. गू. धीर, धीरो, धुअवह [ ध्रुवपथ ] ४. २७५. सनातन-मार्ग धुक्कुम्घुअ [ दे. ] ४. १८७, कंप स. गू. धकाधुंबा. म. धुगधुगणे, धुकधुकणे; दे. ना. ५. ६०. Vधुण [धू ] ४. २९२. गू. . धूणवू; सि.हे. ८ ४. २५१. Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३५ पट्ट [प्रवृत्ता] ३. १८७.. पट्टि [ प्रविष्ट ] १. १३. गू. पेठो. पहरिक [ दे. ] १. १३०. विशाळ दे. ना. ६. ७१. • पइस [प्र+विश्] १. ४. गू. पेस पइसार [ कारकरूप प्र+विश्] २. १. गू. पेसाडवू; स. गू. (पग.) पेसारो; हिं. पैसारना. पहसर [ 'पइसार' कारकरूप परथी प्रकृतिरूप] १. १२. पईहर [प्रतिगृह ] १. १३. पड. शाळ, दिवानखानुं (टि.) पउत्थवइया [प्रोषितपतिका] १०. १३. नायिका जेनो पति पर देश गयो छे ते. पउम [ पद्म ] ४. ८९ स. गू. पोमलो (अर्थान्तरे), पोयणी; पउर [ प्रचुर ] ५. ३८. पुष्कळ ...प्रा.गू. पोर पोर. पओलि [प्रतोली ] ६. ७०. गू. ____ पोळ; प्रा. गू. पोलि.. पक्ख [ पक्ष ] २. ७२. गू. पख, पच्चक्ख [प्रत्यक्ष ] १. २१७. पच्चीर [दे.] ४. ३०३. शान्त कर. पजत्त [ पर्याप्त ] २. १७६. पूरेपूर्व पजल [ प्र+ज्वालय् ] ३. ५४. गू. पजाळ पच्छव [ प्र+स्पृश् दे. ] ५. २०३. जुओ छवू -पंचेड [ दे.] ४. २७९. कचरv दे. ना. ६. १५. 'पच्चे 'मुशल.' तेना परथी क्रियापद. स. सि. हे. ८. ४. १५३. पच्चडक्षर पट्टण [ पत्तन ] ६. ११७. नगर प्रा. गू. पाटण, पट्ठव [प्रस्थापय ] २. १७. गू. पाठववू; म. पाठविणे; सि.हे. ८. ४. १७. पड [ पट ] २. ३.. पडह [ पटह ] ३. १६२. गू. पडो पडिम [ प्रतिमा ] ३. ८६. प्रतिमा पडियार [ प्रत्याकार ] ७. ८०. म्यान. गू. 'हयीआरपडियार.' पडिवक्ख [प्रतिपक्ष ] ३. १. पडिवत्त [ प्रतिपत्ति ] १. १०६. समाचार पदुक्क [प्र+ठोक् ] १. १३३. पण्ण [पर्ण ] १. ६९. गू. म. हिं. पान पाखं. पक्खाल [प्र+क्षाल्] ३. १९१. गू. पखाळवु;म. पखळणे. -पंगुर [दे.] ६.३८.म. पांघरणे स.म.पांघरूण.दे.ना.६.२९.टीका Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पण्णारह [ पंचदश ] ३. १०४. ग. पंदर; म. पंधरा, हिं. पंदरह. पण्णास [ पश्चाशत् ] ५. २५२ गू.हिं.पचास. पाली. पञ्स ; पन्नास पंडिअ [पंडित ] ७. १८. गू. पंडयो पंडित्त [ पंडित ] १२. ३. पत्तिज्ज [प्रति+इ ] २. ८०. विश्वास करतो; गू. पतीज प. डवी पत्तिज्जवण [प्रतायन ] १. ८०. वंचना पत्त [प्राप्त ] ७. १०. प्राप्त कर्यु ग. पो'तुं; प्रा.म. पातला. पस्थिव [पार्थिव ] ५. २००. राजा पद्धर [ दे.] ३. १८. परळ; ग. पाधरा. दे. ना. ६. १०. पद्धर-सरल. पंति [पङ्गि] १. ३३. हार. गू. पांती; पांथी. पंथ [ पथिन् ] ३ १६८. ग. पंथ. पम्भार [ दे.] १. २४. समूह दे. ना. ६. ६६. पम्हुट्ट [ दे. ] १०. १. विस्मृत थयु.सि.हे.८. ४. ७५ पम्हस वि+स्मृ. पयट्ट [प्रवृत] २. ४६ पयडिअ [प्रकटित ] ६. ४९, प्रकट थयुं प.-गू . 'सवार पडयु.' पयाण [प्रयाण] १. १. प्रयाण. गू. पियाj परहुय [ परभृत ] ५. २५३. कोयल पराइय [ दे. ] २. १८. भेगा थया स. ( भवि ). पराण [ प्र+आ+नय] ६. ८३. परायउ [ परकीय ] ५. ५१. गू. परायो. परिक्ख [ परीक्षा ] २. २३. गू. परख. परिट्ठिय [परिस्थित] २. ५३. परिमिय [परिवृत ] २. १५. वीटळायला परिवाडि [ परिपाटी ] ७. १३३. परंपरा परिसक्क [ परि+स्वस्क् ] .. १२५. परिक्रमण करवं परीस [स्पृश् ] १३. २७. गू. परसवं; सि.हे.८.४.१८२=फरिस परोप्परु [ परस्पर ] ३. १५१. पवल [प्रवर] ४. ७. मुख्य (मागधी) पलित्त [ प्रदीप्त ] २. ११३. स. गू. पलीतो.; म.हिं.पलिता - Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पलुमि [प्रतिनिवृत्य ] १३. ३६. पलटी.. • म. पालटणें पल्लट्ट [ प्रतिनिवृत्त ] ३. १८८. निवृत्त थयो; गू. पलटयो; म. पालटणे; सि. हे. ८.४. २८०. / पलाण. [ पर्याय ] ५. ७२. गू. पलाणं पव [प्रपा ] १९. गू. परव पसाय [ प्रसाद ] ४. २७०. गू. पसाय, पसायतु. पसाहिभ [ प्रसाधित ] ५. ७. सिलाव [ श्रावय् ] ४. ५. पसुरुहण [ पशुरोधन ] ४. १७१. पह [ प्रभा ] ४. १९१. पह [ पथिन् ] ५ ११९. पहाय [ प्रभात ] १. ३. गू. व्हो. ~ पहाव [ प्र+भावय् ] २. १३१. पहाव [ प्रभाव ] २. १३३. पहिल [ दे. प्रथिल * ] २.७२. गू. पहेलुं पाइक [ दे. ] ५.२४६. पदाति गू. पायक सि. हे ८.२.१३८. पाउस [ प्रावृष् ] ६. १५९. म. पाउस. पाडल [ दे. ] ५. २५३. हंस. दे. ना. ६.७६. पाडिहेर [ प्रातिहार्य ] ४. २९० १३७. पाणिअ [ पानीय] १. ३०. गू. पाणी पाणिग्रहारि [ पानीयहारिणी ] ५. ११. गू. पणीआरी. पाय [पाद ] ३. १६६ गु.. पाय. पायड, [ प्रकट ] १. ६८. पायस [ प्रावृष् ? ] ४, २१. ~ पाव [ प्र + आप् ] १०. ५०. गू. पाव ( कविता ) हिंपाना; म. पावणें. पावज्ज [ प्रव्रज्या ] ४. २२४. पास [ पार्श्व ] १. १०५. गू. पासे. / पासेइज्ज [ प्र+स्विद्द् ] ५. १३. गू. परसेवो थवो पाहाण [ पाषाण ] ५. १३७. गू . प्हाणो. पाहुड [ प्रामृत ] १. १०५. मेट पाहुणउ [ प्राघूर्णक] ३. ७४. गू. परोणो; म. पाहुणो. पिउवण [ पितृवन ] ५. ७१. श्मशान पिक्क [ पक्व ] ६.८२. म. पीक. / पिच्छ [ प्र+क्ष ] ६.७९. / पट्ट [ : ] . १२२. गू. पीट पिड [ दे. ] ३. १३७ ९, ८; बिड १. ९. पियर [ पितृ] ४ ८. Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पियार [ प्रियकर ] ४. २४८. गू. प्यारो. पिहिमि [ पृथिवी | २. ५३. अपील [दे. पीड्] १. ९. गू. पील; म.पिळणे. हि.पीलना पुण [पुनः] २. ८६. गू. पण. पुत्त [पुत्र ] २. ४८. गू. पूत. पुत्तियोज्जु [दे. ] ९.९०.(टि.) पुराइउ [ पुराकृत ] २. १७०. पेम [ प्रेत ] ५. ७८. पेक्ख [प्र+ईक्ष ] १. २१. गू. पेखवू; म. पेकणे, पेखणे पेम्म [प्रेमन् ] ५. २३. गू. पेम.. पेयाहिव [प्रेताधिप] ३. १६८. यमराज. पेल्लुण [ दे.] ३. ७. पीडन गू. पीलण. म. पेलण स =दे. ना. पोम [ पद्म] 1.७३. गू. पोमो पयंधण [ प्रबंधन ] ५. १९. कम्गुण [ फाल्गुन] १. ५. गू. फामण, Vफंद [ स्पंद्] १. ५४. फरक म. पांदणे. पाली. फन्दति Vफंस [स्पृश् ] ६. ८०. ग. फांसवं; म, फासणे; फासणे. पाली फस्सतिसि. हे. ८४. १०२. पेसण [ दे. ] 3. ५९. (सं. प्रेषण दे. ना. ६. ५७. स. म. पेसणे पेसणगारो [ दे. ] २. ३१< सं. प्रेषणकारिणी; दूती; दे. ना. फलअ [ फलक ] ६. ९८ फलिय [ फलित ] १. ४०. गू. फळी= विकसित थई 'ना अर्थमां फलिह [स्फटिक ] १. ६०.पाली. फलिक.. फार [ स्फार ] ६.. ७०. म. फार. फासुय [ स्पार्शक ] ६.३६. पाली. फासुक. इफिट्ट [ दे. ] ८. २५. गू. फीटवु; म. फिटणे; सि. हे. ८.४१७७ फुड [ स्फुटं ] ५. ३८. स. गू. फुड. स =सि.हे. ८.४.२३१ Vफुर [ स्फुर ] १. ५८ गू. फरवं, फोरई पोह [.] १०. २३. पेट म. पोट दे.ना. ६.६. पोद्दल [ दे. ] २. ३५. गू.पोटलं; म. पोटा Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फुल्ल [दे. १३. १२: खीला । बारहम [अदश ] ३. ५१.पू. गू. फूलवु; 'पाली. फुल्ल. पारमो. Vफेड [ दे. ] ४. २४५. गू. बावीसम [ द्वाविंशतितम ] ४. १६५ फेडचं; म. फेडणे. सि. हे. गू. बावीसभो ८.४.१७७%3Dफिड वाह [ बाष्प ] ५. ७४. गू.बाफ. Vबइस [ उप+विश् ] १३.६ गू. बाह बाहु ] ५. १०४. प्रा. गू. बेसवु; म. बसणे; हिं.बैसना. बांह; ग. बांय. Vबहसार [प्रे. रू. उप+विश् ] बाहत्तरि [ द्विसप्तति] ३.१०. ग. बोतेर; हिं. व्हात्तर २. १४०.गू . बेसाड. बाहिर [ बहिः ] २. ७६. गू बज्झ [ कर्म. प्र. क] २. बहार; बं. बाहिर; म. बाहेर. गू. बाझव.सि.हे.८.४.२४७. बाहेरित [ बाह्यतः ] १२. ४. बप्प [ दे. ] ५. २९५. गू. बाप. बहारथी. दे.ना.६.८८. बिणि [द्वि ] २. ३६. गू. बन्ने बप्पुडउ [ दे. ] ८. ६. गू. बापडो. बीया [ द्वितीया ] २. ६. गू . बीज बंभ [ ब्रह्मन् ] ७. ९६. बुझणअ [बोधनक ] ३. १८.स. बलि [ बलि ] ७. १३५. बलि =गू. बूझनार. स. म. बुझणे किज्जउ गू. बलिहारी. Vबुड्ड [दे.] १. ५०. गू बुडवु. बहुत्त [ प्रभूत ] ९. २५. प्रा. गू. म.. बुडणे; हिं. बुडना. दे. ना. ६. ९४. टीका "बहुत, हिं. बहोत. म.बहुत 'वहण [ब्राह्मण] १३. २४. गू. बे [द्वि] १. २४. गू. बे; म. दो; हिं. दो. बामण. बाक [.].५. २७२. गर्जना. बार [ द्वार] ३.४३. गू. बार, स.सि. हे. ८. ४. ९८. बार[. बुक्कामगर्जति बाइस [द्वादश ] ४. १५५ प्रा. बोल्ल[दे.] २. १५८. गू. गू. बारह गू... बार. बोलवु, म. बोलणे हि बोलना; बारह [ द्वादश ] ३. ४. गू. पार. । सि. हे. ८.. ४. २.. Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाल [ ] १.७६. गू. बोल. म. ग. हिं. बोल; दे. ना. ६. ९०. = बोल भद्दय [ भवित * ] ३. ९०. व्रज भयो. भउहा [भ्र ] १. ३२. गू. भमर; हिं. भँवर, भग्ग [ भन्न ] ६. १५ गू. मायुं भज्ज [ भार्या ] ४. १५८. गू. भारजा. भट्ठि [ भ्रष्ट ] ४.२४२. भ्रष्टतानी गर्ता. गू. हिं. भट्ठी. म भट्ठी भड [ भट ] २. ७. गू. भड. भंडारा [ महारक ] २. २०६. महापुरुष. भडारिआ [ महारिका ] २. ५२. भत्तार [ भर्तृ] २. ७८. गू. भरथार. भंति [ भ्रान्ति ] १. २६. अंतर [ अभ्यन्तर ] २. १०१. गू. भीतर हिं. म. भितर. √ भ्रम [ अम् ] १. २२. गू. भंम म. भंवर्णे, भोंवणे भमर [ भ्रमर ] १. ३३. गू. भमरो म. भंवर, भोंवर. भरड [ दे. ] ६. ९६. विस्फारित. भरिभ [ मृत ] १. ६२. गू. भ भरिअल्लड [ मृत ] १०. ३६. गू. भरेलो भल्ल [ भद्र ] ७. १०६. गू. भलुं म. भला. भलारी [ भद्रकारिणी ] ५.२६४. भवित्ति [ भवित्री ] ३. १९२. देवी. भाइ [ भ्रातृ ] ३. १४५. गू. भाइ म. भाऊ भायर [ भ्रातृ ] ४. २६७. भाइ भारह [ भा-रह ] ५. ९९. तेज ढकनार भारह [ भारत ] ५. ९९. भाव [ भावयू के भा ] ५.१०.म. भाव; ग. भाव; हि भावना. गू. भिच्च [ भृत्य ] ४ २३५. √ भिड [ दे. ] ५.२७६ युद्ध कर गू. भीडवुं; हिं. भीडना. म. भिड भुक्खालअ [ बुभुक्षित ] ३. १८. ग. भूखाळवो; म. भूकाळू भुंडिणी [ दे. ] ६. ३०. मूंडण दे. ना. ६. १०६. भुंज [ भुर्ज ? भोजक ] १. १९. आगळ जमनारा, एक जातनुं वृक्ष भुंभल [ दे. ] १. २२. (टि) म. भांभळ. दे. ना. ६. ११० संभल-मूर्ख. Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मुल [दे.] ७. १३४. भात गू. भूलो पडेलो स.म. भुलणे सि. हे. ८. ४. १७७. भोली [.] १. २२. (टि.) म. . भोळा म-म [ मा ] २. १६८; १३. २८. प्रा. ग. म मइल [दे. ] १. १०. स-सं. गू. मेलं करवू, मेल; म. हिं. मैल, मैला. दे. ना. ६. १४१. मालउ [ दे. ] ७. ७८. गू. मेलं; पा. मा. मउड [मुकुट ] १. १०३. मुकुट, गू. मोड मउर [ मयूर ] ६. ३२. गू. मोर मउलिय [ मुकुलित] ६. ४०. स. गू. मोल. पा. मा. मग्ग [ मार्ग ] ३. १९९. गू. मागवू; हिं. मगना मग्ग [ मार्ग] ४. २९३. गू. माग. मग्ग [ दे. ] १०. ३९. पाछळ. दे. ना. ६. १११. म. मंग मंगुल [दे.] १०. ५. असुंदर दे. ना. ६. १४५. पा. मा. मच्छर [ मत्सर ] २. १९५. गू. मच्छर. मच्छुड [ मंच ] ३. ८१. बलदी | "मज. [ मय]. १६८... मज्जायः [मर्याद ] ५. २१. गू. मरजाद. मज्झ [मध्य ] १. ३४. गू. माझ%; म. माझिं; हिं. मजा, मझ, मझला. मंछुड [ मंच ] ६. १९. बलदी मट्टो [ मृत्तिका ] १३. १.माटी; हिं. मट्टी. मडप्फर [ दे.] १.६. अमिमान. दे. ना. ६. १२०. पा. मा. मडय [ मृतक ] ३. ३६. ग. मडु म. मह; पा. मा. . मडयाजाण [ मृतकयान.] ३.१७९. ठाठडी. मढ [ मठ ] ६. ७७. गू. मढी "मणेजर [ मनसि+ज+र स्वार्थे ] १. ३५. मण्ण [ मन् ] १. ९.. भोगवतुं गू. माण. मंठ [ दे. ] ३. १२७. दे. ना.६. १११. टीका. . मंडल [दे.] १०. ९. श्वान. दे. ना. ६. ११४. पा. मा. "मंडव [ मंडप ] १.९. गू. मांडवो. मंती [ मत्ता] १. २१. - मयअच्छी [गाक्षी] ४. १२४. Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ माय मातृ] १. ५५, गू. माय, मा माहप्प [ माहात्म्य ] ४. ११७. गू. मोटप. मिहुण [ मिथुन ] १. ८. स्त्री पुरुषतुं युगल. म. मेहूण मुअ [ मृत ] २. ११५.गू. मुओ. मुक्क [ मुक्त ] १. ८५. स. गू. मूक मयगल [ मदकल ] ५. ११७. 'हाथी. मू. मेगल पा. मा. मयरंक [ मकरांक ] ४. ४७. प्रद्यम्न. मयरष्ट्र [ दे. मदरका ] . ११९. वेश्या. मयरद्धअ [मकरध्धाज] ५. १४३. मर [] १. ५. गू. मरवू; हिं. मरना; म. मरणे मरट्ट [ दे. ] ४, ५५. गर्व. दे. ६. १२०. गू. मरड.पा. मा. Vमरुमार [ मृ. नुं भारप्रदर्शक द्वित्व ] ३. ७४; ३. १६९. मरुसिज्ज [ मृष् ] २. १६०, दथा करवी. मल [ मृट् ] ३. १००; ५. १८८; सि. हे. ८. ४. १२६. मसाण [ श्मशान ] ३. १०० गू. मसाण पा. मा. मह [ दे.] ४. २९७. कहेवू सि. हे. ८. ४. १३२ कांक्ष् मह [ मख ] ५, २०५. यज्ञ. माइय [ मात. ] २. ८. गू. मायो माण [मानय् ] १. ८५. गू. माण माणुस [ मनुष्य ] २. ५९. गू. माणस. म. माणुस. माम [दे.] ५. १५१. गू. मामो. दे. ना. ६. १२ मुक्क ल [ दे.] ३. १८५, गू. मोकळं करवू; म. मोकळा दे. ना. ६. १४७; पा. मा. मुट्टि [ मुष्टि ] ५. २८७. गू. मूठी मुण [ दे ] ४. २२३. सि. है. ८.४. ७-ज्ञा. मुद्धत्त [ मुग्धत्क] ५. १६५. मुसुमूर [ दे. ] ४. १२३. मसळी नाखवू. सि. हे.. ४. १.६. मुह [मुख ] १. १०. गू. म्हों; हिं. मुँह. मेत्ति [ मैत्री ] १०. ३५. मेलोवध [ मेलापक ४. २५६. गू. मेळावडो V मेल्ल, मिल्ल दे. ] १.२; ६.७ गू. मेलवू; हिं. मेलना. सि.हे. ८. ४. ९१. मेह [ भेध ] २. १२. ग. मेह Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । मेहाल [ मेषकाल ] १. ४४. मेहुणअ [३. ] ३. ७४. साळो म. मेहूणा.दे.ना.६.१.४. मोक्कलउ [ मुक्त+ल स्वार्थे ] ८. १२. ग. मोकळो; जुओ मुक्कल मोड [ दे.] १. २८०. म. मोडणे; ग. मोडवू मोत्तिय [ मौक्तिक ] १. १२१. गू. म. हि मोतो. मोर [ मयूर ] १. ५३. ग. म. हिं. मोर. याण [ज्ञा ] ५. १४२. - रक्ख [ रक्ष् ] २. ५०. ग. राखg रक्खस [ राक्षस ] २. ५६. प्रा. गू. राखस रिंखोल [ दे.] १. २९. सि. हे. ८. ४. ४८.=दोल् रंग [ ] १. ३०. गू. रयण [रत्व] २. २५. .., रयणि [ रजनी ] ३. ८४. गू. रेणी, रेण. रवण्ण [ दे. रमण्य * ] १. ३. सुंदर स. गू. रामणदीवो; (टि.) रसोइ [रसवती ] ६. १२१. गू. रसोई रहस [ हर्ष ] २. ८. राइत्तण [ राजत्व ] ५. २०३ राउल [ राजकुल ] ३. १९६. गू. राओल; म. राऊळ. राणिय [ राज्ञो ] ३. ३३. गू. राणी. राय [ राजन् ] २. ३०. ग. राक रिक्ख [ऋक्ष] ५.२१७.नक्षत्र. रिच्छ [ऋक्ष ] २. ५८. ग. रिछ; पा. मा. रिंछोलि [ दे.] १. ३८. हरोल. दे. ना. ७. ७; पा. मा. रिद्धि [ ऋद्धि ] १. ६. गू. हिं. रिद्धि. रिय [ऋच् ] ५. २२३. रीण [ रीण ] ५. १०१. थाकेको रुक्ख [ वृक्ष ] ३. १०९. गू. ___ रुखडा म. रुख (कोंकणी.) रु? [ रुष्ट ] ३. १५३. गू. स्ठवं. रुण्ण [ रुदित ] ५. ८५. रुंद [दे.] .. १. विशाळ. म. रंद; दे. ना. ७. १४.पा. मा. रंग रज [ राज्य ] २. ३०. गू. राज रण- [वर्ण .] १. ३०. रंग. रणउह [रणयुध ] ४. ३९. रण [ अरण्य ] ५. १८४. गू. म. हिं. रान. रत्त [ रक्त ] १. ५१. गू. रातुं. रत्ति [ रात्रि ] ३. १४४. गू. रात ह गन Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । रुव [भ] २. ५६. गू. रोई सि. हे. ८. ४.. २२६ एच. रुहवुह [ दे. ] ५.. ११५. रुहुरुहः [ दे..] ६. ५१. रेल [ दे] १. ९२. गू. /रेह [दे. ] ४. २८९, शोभq सि. हे. ८. ४.१०० राज् लड [ दे.] १. ९. (सं. लात्वा, सामान्य निपात गू, ले... लाय [ लातव्य.] २. ६६० लेवा योग्य: लक्कड [दे.] २. ८१. गू. लाकडं. म. हिंलकडा. दे. ना. ७. १९. लक्कुट इलाव [प्रेरकरूप ला] १.५३. गू. लाव लावण्ण [ लावण्य ] १. ११८. लाह [ लाभ ] ६. २. ग. लहावो लिह [ लेखा ] २. ९४. लुक [ लुप्त ] ४. २७८. स.सि. हे. ८. ४. ५५=ली. लुंचोड [ दे. ] ७. १२३. खेच.. Vलुच [ लुच् ] २. ५९. लूटई म. ढुंचणे लुह [ दे.] २. ९४. गू. लोहवं; सि. हे. ८. ४. १०५. मृज लक्खि [ लक्ष्मी ] ५. ११९. गू. ___ लखी लच्छि [ लक्ष्मी ] ३. ४७. पा. मा. लंगदि [ दे. रंगति * ] ४. २९. क्रीडा (3) लह [टस ] ३. २०. गू. लाडो दे. ना. .. १.. लद्ध, [लब्ध ] १. ९६. गू. लाधq लह [लभ्] ७. ५९. गू. लहे Vल्हस [.] ५. १८. सि. हे. ८. ४. १९७=संस् लाइम [लायित ] १. ३५. गू. गम्यो. Vले [ला] १. २. गू. ले; हिं. लेना; म. लेणे लेह [ लेखा ] २. ७२. लोह [ लुट् ] २. ३८. गू. डोटवं. सि. हे. ८. ४. २३० Vलोड [ लठ्] १. १३३. ग. लोथवू. लोण [ लवण ] १२. ३५. गू. लूण; म. लोण. लोलि [ दे. ] २. ९२. गू. लोला. वइवस [ विवस्वत् ] ३. १६५. यमराज. वउल्ल [ वर्तुल ] १. ६८ बंक [वक ] ५. १८६. ग. वांक क्स [ पक्ष ] ४. १८४. Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वक्खार [ वक्षस्कार ] ४. ११८. म. म. हिं. वखार. 'वच्छ [ वृक्ष ] १. १२०. वच्छ [ वक्षस् ] २. ११. वज [ कर्म. प्र. वद् ] २. ४. वाजवू, वागवू वज [ वाद्य ] ५. १७१. गू. वाजूं. Vवज्जर [ दे. ] २. २०५, कहे, सि. हे. ८. ४. २. Vवट्ट [ वृत् ] ३. ९४. म. वाटणे वट्टि [वर्ति ] २. ८८. गू. वाट; म. वात 'वडाय [ पताका ] २. ८९. वड्ड [ दे. ] ५. २७१. गू. वडो; दे. ना. ७.. २९. Vवड्ढ [वध् ] १. ४३. हिं. बढना. म. वाढणे वढ [ दे. ] ७. ८०. मूर्ख वणप्फड [ वनस्पति ] १. ६. वत्ता [ वार्ता] ५. ६७. गू. वात वत्ति [वृत्त ] २. १०२. वंद [वृन्द ] १. १८. वमाल [ दे. ] ६. ४६. दे. ना. ६. ९०. पा. मा. वम्म [ मर्मन् ] १. २०.; ५. १४. वरमह [ दे. ] ५. १४. <सं. मन्मथ. पा. मा. वम्मीसर[ दे. ] ४. ३. कामदेव; दे. ना. ७. ४२. वयण [ वचन ] २. ९३. गू. वेण वरइत्त [ वरयित ] ६.१०५. दे. ना. ७. ४४. परि [ वरम् ] ३. १०५. वरिस [ वर्ष ] २. ६२. गू. वरस वरिस [ वर्ष ] ३. ५. गू. वरस. Vवलग्ग [ दे ] २. ८६ <अव लग्न. गू. वळगवु म. वळगणे वलग्ग [ दे. ] १. ७५. वल्लर [ दे.] ३. ८७. दे. ना. .. ८६. पा. मा. ववगय [न्यपगत ] ३. ३४.: वहु [ वधू ] १. ४६ गू. बहु वाणरमालिय [वन्दनमालिका ] १. १८. बारणे लटकाववामां आवतां तोरण. प्रा. गू. वंदुरवाल (टि.) वाय [वाचा ] २. ५५. Vवाय [ पाद् ] १. १०२. गू. 'स्वर वाय छे.' 'वार [ द्वार ] १. ३०. गू. बार; म. दार. वावड [ व्यापृत ] १०. २२. गू. वावड. Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वावि [ वापी ] ५.४५. गू. वाव. वास [ वर्ष ] २. १४२. वास [ व्यास ] ५. १७७ पहोळाई वि [ अपि ] २. ३५, विव्वण [ विकुर्वण ] ५.२१९. चमत्कार विउज्झाविअ [ विबोधित ] ३. ८८. विउस [ विद्वस् ]५. १६७. पा. मा. विग [ वृक ] २.५८. Varta [ वि + ] ३, ८०. ग. वगोaj विच्छड [ दे. ]२. १०५. समूह. दे. ना. ७, ३२. विच्छंड [ दे. ] २. १३५. समूह. विच्छोअ [ दे. ] ४. १७४. वियोग गू. विछोह दे. ना. ७. ६२. √ विज्ज [ वीज् ] ५. १०२. गू. वीजवुं विज्ज [ विद्युत्] १. ६५. गू. वीज. विज्जुल [ विद्युत् + ल ] २. १२४. गू. वीजली. १४६ विद्रु [ विष्णु ] ५. १८२. म. fag, विठोबा गू. विट्ठल. जथो. 'विड [ दे. ] १. ९. विs [ विट ] ३. पुरुष ८०. विषयी विण्ड [ विनष्ट ] ७ गू. विणकुं. गू. विट्ट [ वितत ] ६.४०. विद्ध [ विघ् ] १. वींध १३८. प्रा. वंठयु विस्तर्यो. २०. ग. विद्धत्त [ विद्वत्व ] ५. २७८. √ विन्नव [विज्ञापय् ] २.३६. गू. वीव विष्फुर [ वि+स्फुर् ] २. ९५. विभाड [ दे. ] १. ६. <सं. विभ्रष्ट प्रा. गू . विभाढं विभिअ [ विस्मित ] ६.६. वियडूढ [ विदग्ध ] १. ९१. वियप्प [ विकल्प ] २. १५८. विरुआरी [ विरूपकारिणी ] २. ११०. / विरोल [ दे. ] ७. ११२. गू. वलोब सि. हे. ८.४.१२१. विलक्ख [ विलक्ष] ६. १३६. ग. लखु विलय [ दे. ] ६. १०१. वनिता. विवरेरउ [विपरीत + इरउ स्वार्थे ] २. १२. उलटं (भवि.) विवावड [ दे. ] १. ९४. सं. विव्यापृत, व्याकुल स.=गू . बावरो Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४७ विसट्ट [ दे.] २. ४६. विकसेलं; | वेढ [विष् ] ३. १७०. म. पा.मा.पाली, विसट-सं.विस्तृत वेढणे; पाली. वेठेति सि.हे. स.सि.हे. ८.४.१७६-दलू ८.४.२२१. विसुज्झ [ विशुद्ध ] २. ९१. स. वेल्लि [ वल्ली ] २. ८८. गू. म. =गू. सूझएँ; पारसी. गू.सोजु, हिं. वेल. विसुर [ दे. ] ३. ८१. खेद वेराउ [ वैराग्य ] ४. ३११. करवो गू . सोर सि. हे.८, Vवेव [ वेप्] ५. २५७. कंप ४. १३२. खिद् वोहित्थ [ दे. ] ६. ४. वहाण. विस्सत्थ [ विश्वस्त ] १. ९९. गू . बोयें हिं. बोहित, बोहित. विहडप्फड [ दे. ध्व. शब्द ] १. सअ [शत ] २. ६२. गू. सो. __९३. गू. हडफड. सइत्तण [ सतीत्व ] २. १०९. विहाणअ [ विभानक ] १. १. . गू. व्हाएं; दे.ना,७.९०. सिक [ शक् ] २. १३३. गू. विहुवार [ व्यवहारिन् ] ५. ३४. सक गू. वहेवारीओ. सग्गवच्छ [ स्वर्गवृक्ष ] १. १२० विहूण [ विहीन ] १. १३१. गू. कल्पवृक्ष. विहोणं. संखोह [ संक्षोभ ] ५. ६. Vवीसम [वि+श्रम् ] ६. ३४. संगरिय [ दे. ] ३. ३५. शींगो; वोसम, विसामो लेवो गू . सांगर-री. वीसढ [विस्निग्ध ] ५. ५५ ।। सच्च [ सत्य ] १. १२६. गू. साधु Vवीसार [ वि+स्म ] ५. २५. सणेह [स्नेह ] ३. १३४, गू. गू. वीसरवू.म. विसरणे; हिं. स्नेह. विसरना; पाली. विस्सरति. संझ [ संध्या ] ६. ३८. गू. सांज, वुड्ढत्त [ वृद्धत्व ] १. १३१. गू. संझा बुड्ढापो. सण्णिय [ संज्ञित ] ३. ६. वुत्त [ उक्त ] २. ५४.पाली. वृत्त । सण्णिउं [ शनैः ] ६, ११५. Vवे [ दे.] २. १९४. जोवू संठिय [संस्थित ] २. १०८. Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (टि.) १४८ संडस्सय [ संदंशक ] .. १२३. । समुट्टिय [ समुत्थित ] १. २७. गू. सांडसो; हिं. संडसा;म. समुब्भिय [ समूचिंत ] २. ८९. सांडस. समोड [ दे. ] २. २, २. ७४.; सत्त [ सप्त ] ५. ५८. गू. सात. गोठवg; >सं.सम्+आ+वृत् . सत्थ [ सार्थ ] २. १४२. गू. साथ; सत्थ [ शस्त्र] ५. १५२. संफास [ संस्पर्श ] ४. ६२. सत्थ [ शास्त्र ] ४. ८४. संम [ सम्यक्त्व ] २. २७. सद्द [ शब्द ] २. ३. गू. साद सम्मा [ सम्+मा] १. ११८. गू. सद्दल [ शार्दल ] ५. १२४. ग. समावं म समावणे; हिं समाना - सादूलो संवारिअ [ समारचित ] ६. १५. संत : सत् ] २. ९. छतां, सारो माणस. गू. संत. सयल [ सकल ] १. २८. कलायो संदाण [ दे. ] ५. १४२. निय युक्त, गोळ. त्रित करवु स =सि हे. ८.४. सर स्मृ] ६. १२. ६७-कृ सरघर [ सरोवर ] १ ४५. गू. सम [ सम्+आ+इ ] ७. ८० सरवर गू. समाएं समत्थिअ [ समर्थित ] २. १०३. सरिस [ सदृश ] १ ४४. गू. सरसुं-साथे समसाण [ श्मशान ] ३. ३७. सलवण [ सलावण्य ] ५. ५. ग. समसाण. समाण [सम्+मानय २ १७२. सलोणी [ सलावण्या ] १. २२. मानथी भोगवद् सि हे. ८४ गू. सलुणी हिं. सलूना ११ भुज़ सल्ल [ नामक्रियापद शल्याय] उसमाण [सम्+आप ]५.२५२.सि. ५. १४ गू. सालवू हे.८.४.१४२. समाण [ समान ] ३. १९४. साथे. सव्व [ श्रव्य ] १. ११६. समालहण [ समालभन ] ३ ६७ । सवडंमुह । दे. ] ३. १८०.संमुख अलंकार इ० दे. ना.८.२१. समील [सम+इल ] ६. ४३. सवण [श्रमण ] ५. २०८ समु । सम्+उच्च ] २. १३९. सवत्ति [ सपत्नी ] ६. ४२. म. गू. उंचुं सवत Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सवाणिअ [स+वर्ण+इक ] १. ३० । साहुलउ [ A.] १. ध्वजानुं वस्त्र सस [ स्वस ] ३. ६६. दे.ना.८ ५२. साहुली वस्त्र, कपहुं ससुरय [ श्वसुरक ] ६. २२. गू. साहूकार [ साधुकार ] २. १४.. ससरो; हिं. ससुर;म. सासरा. जयजयकार. . सिक्ख [शिक्ष].३. १९०. सह [ दे. ] १. १३५. शोभq सि. हे. ८. ४.१००=राज् गू .शीखवई,स. शीख. सह [ सभा ] ४. १३५. शीखामण.म. शिखविणे. सिग्घु [ शीघ्रम् ] ४. २७१ सहाव [स्वभाव ] २. ८७. सहसत्ति [ सहसा+इति ] 1. ४३. सिंग [ शृङ्ग ] ३. १५१. सिर [शिरस्] १.११.गू. शिर; सहास [ सहन] ३. १४३. हिं. सिर सड [ सह ] १. ४२. साड [शात् ] १.६. विनाश सिरि [श्री] १. १३. शोभा, लक्ष्मी स. गू. सडवू; हिं. सडना सिरिखंड [ श्रीखंड ] २. १०५. साण [श्वन् ] २. ८३; ५.५५. एक प्रकारचं चंदन साण [ संज्ञा ] ५. ५५. गू. सान, सिविण [ स्वप्न ] ५. ३३. साण [ श्रवण ] ४. २२६. सिसिर [ दे. ] १. ८८. दहिं सामण्ण [ सामान्य ] ३. ७८. दे.ना.८.३१ सामिसाल [ स्वामिश्रेष्ठ ] ५. १४८. सिहि [शिखिन् ] १, १६. मोर प्रा. गू. सामिसाल. सिहि [शिखिन् ] २.२५. भाग्न. सायर [ सागर ] २. २८. गू. सायर सिहिण [ दे. ] ३. ११३. स्तन सार [सार] १. १०७. समाचार दे. ना. ८.३१. सार [ दे. ] ३. १. दलन करनार. सीयल [शीतल ] १.३६.गू शीर्छ पा. स. म. - सीस[ दे ]२.१.०९. सि.हे.८.४.२. सावय [ श्वापद ] ४.२६५. -कथ सावय [ श्रावक ] ४. २६५. सीह [सिंह ] ३.६५.प्राःगू.सीह सालण [स्मरणक] ५. ३२. स्मरण. 'सुक्क [शुष्क ] ५. १०५. गू सूई साह [ दे. ] ४. २९९. सि सुण [ श्रु ] १. १०७. मू. हे. ८.४.२ कथ् सुणवू; 'हिं. सुनना. सि. है. साहार [ सहकार] १. १७. ८. ४. २४१. साहुक्कार [ साधुकार ] ५. ३४. सुणहुल्ल [ श्वानिक ] ४. २२९. शुभशब्द बोलवा ते. कुतराना जेवू Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुण्णउ [शून्यं] ६. ८५. गू. सूनुं सुण्ह [स्नुषा ] ४. २१८. म. सून. सुत्त [ सुप्त ] १. १००. गू. सूतुं सुंदिर [ सौन्दर्य ] ३. १२३. सुव्व [ कर्म, प्र. - श्रु]४. .. २५७. सि. हे. ८.४. २४३. सुमर [स्म] ४. ३१५. गू. समरवं. हिं. सुमरना. सि.हे.८.४.७४. सुम्म [ कर्म.प्र. - श्रु ]५.२६२. सुह-अच्छण [ सुखासन ] २. ५३. पालखी. सुहम [ सुभग] ३. १२६. . सुहाव [क्रि. <सुख ] ६. ७. सुहि [ सुहृद् ] ५. २२. सूयार [ सूपकार ] ३. ४५. सूइ [सूचि] १.५२. गू.सोय.म. सुई । सूहव [सुभग] ५. १५. सेज्जा [शय्या ] ४. २५. गू. सेज, सज्जा. म. शेज, सेडिय [ सेटिका ] १४. २. खडी. म. शेडी. सेहर [ शेखर ] १. ११. ह. सेहरा. सोत्त [ श्रोत्र ] ५. २०९. सोत्तिअ [श्रोत्रिय ] ५. २०५. सोमाल [दे. सुकुमार ] ६. ९७. गू. सूवाळू दे.ना.८.४४. सोव [स्वप्] ५. ३३. हिं. सोना सोह [शुभ ]५.१००.गू .सोहवू सोहाल [ शोभा+अल ] ५. १५. स.-गू. सोह्यलुं सोहिल्ल [ शोभा+इल ] १. ४५. प्रा. गू. सोहेलो हकार [ दे.] ३. १४९. गू. हकारवू. म. हाकारणे हकार [दे] २.१७.गू हकारो,हाक. हकार [दे. ] ४. २४३. बोला वनार, हकारनार हट्ट [ दे.] ५. ८. गू. हाट हड्ड [ अस्थिन् ] ५. २०६. गू. म. हिं. हाड. दे. ना. ८.५९. हत्थ [ हस्त ] ५. २८. गू. हिं. हाथ. म. हात हरिस [ हृष् ]१.४१.गू .हरखवं हलबोल [ दे. ] ५.१२६. कोलाहल, स.-म. हळबला. दे.ना.८. ६४. हलि [ हरि (मा.) हलिन् ] ४. ८. उहव[भू] ७.३.सि.हे.८.४.६०. हिअवअ [ हृदयक ] २. १०२. हिट्ठा [अधस्तात् ] ४.१०३.पाली हेहा; गू. हेलु म. हेट;हिं. हेटा. हियय [ हृदय ] २, ५६. गू. हियवड [ हृदय+3] ७. ७९. हिरणच्छि [ हरिणाक्षी ] ५.७९ V हिंड [हिण्ड ] २. १७४. गू. हीडवू हीर [धीर ] ३. ९३. हु [खलु ] ४. २२६. Vहुण [हु] ७. ४. होमवु सि. हे. ८.४. २४१. हो [भू] २. ७४. गू. हो. म. होणे; हिं. होना; पाली, होति. सि.हे.८.४.६०. Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संकेतसूचि G.L.L.-Gujarati Language and Literature by Prof. ___N.B. Divatia, Vol. I, 1920 A.D. & Vol. II, 1932 A.D., University of Bombay, Bombay. G.P.-Grammatik der Prakrit-sprachen, by Prof. R. ____Pischel (Encyclopaedia of Indo-Aryan Research) 1900 A.D. Strassburg. J.A.O.S.-Journal of American Oriental Society. J.R.A.S.-Journal of Royal Asiatic Society. M K.A.P. or Materialien-Materialien zur Kenntnis des Apabhrams'a by Prof. R. Pischel 1902 A.D. Berlin. O.D.B.L. or O.D.B.-The Origin and the Develop ment of Bengali Language Part I, by Dr. Sunitikumar Chatterji 1928 A.D. Calcutta Uni. versity, Calcutta. Shahidulla-Le Chants de Mystiques de Kanba et de Saraha, Ed. M. Shahidulla 1928 A.D. Paris. अ.का.त्र.-अपभ्रंशकाव्यत्रयी ( जिनदत्तसूरि ) सं. पं. लालचंद्र गांधी, (G.O.S. XXXVII) 1927 A.D. Oriental Institute, Baroda. म.पा.-अपभ्रंशपाठावली. का.मी.-काव्यमीमांसा ( राजशेखर ) Ed. C. D. Dalal, (G. O.S.I.) 1920 A.D., Oriental Institute, Baroda. छं.शा.-छंदोऽनुशासन (हेमचंद्र ) प्रकाशक, शेठ देवकरण मुलचंद, इ. स. १९१२, मुंबाई. तत्वार्थ-तत्वार्थाधिगमसूत्र ( उमास्वाति) आईतप्रभाकरप्रन्थमाला,मयूख, २. वीरसंवत् २४५३, पूना. Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दे.ना. अथवा दे.ना.मा.-देशीनाममाला ( हेमचंद्र ) Part I, Ed. Murlydhar Banerjee, 1931 A.D. Calcutta Univer sity, Calcutta. प्रा.गु.का.--प्राचीनगुर्जरकाव्यसंग्रह Ed. C. D. Dalal, (G.O.S. XIII) 1920 A.D. Oriental Institute, Baroda. प्रा.पि.-प्राकृतपैगलम् Ed. Chandra Mohan Ghosha, 1902 A.D., Bibliotheca Indica Series, Calcutta. प्रा.स.-प्राकृतसर्वस्व ( मार्कण्डेय ) Ed. S. P. V, Bhattanath Swami, 1927, A.D. Grantha Pradarshini Series No. 4, Part I, Vizagapattam. पा.स.म.-पाइअसहमहण्णवो सं.पं.हरगोविन्ददास इ. स.१९२८,कलकत्ता. भ.क. अथवा भवि.-भविसयत्तकहा Ed. C. D. Dalal, & .. Dr. P. D. Gune, (G. O. S. XX ) 1923 A.D. Oriental Institute, Baroda. सि.हे.-सिद्धहेमचन्द्र [प्राकृतव्याकरण] (हेमचन्द्र) Ed. Dr. _P. L. Vaidya, (आईतप्रभाकरप्रन्थमाला,मयूख ६.), Poona. विप.-विराटपर्व ( Kumbakonam Edition.) ह.पु.-हरिवंशपुराण (जिनसेन ), आ उपरांत शब्दकोशना आदिना संकेतो जे वपरायला छे, ते ते प्रमाणे समग्रे समजी लेवा. बीजा संकेतो सहेलाईथी समजाय एवा. होई अत्रे नोंच्या नथी. Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | शुद्धिपत्रम् । अस्य शुद्धिपत्रस्य वाचने निम्नलिखिताः सूचनाः अवषेयाः । (१) प्रस्तुतोद्धरणकत्येकः अशुद्धपाठः शुद्धपाठश्चेति क्रमो निम्नाले खितशुद्धिवाचनेऽवसेयः । (२) [ ] मूलवाचनाशुद्धयर्थं कल्पितः पाठः । ( ३ ) + इति अवशिष्टोद्वारचिह्नम् । (४) मूळपाठशुद्धिः स्थूळाक्षरैः संस्कृतछायाशुद्धिश्च सूक्ष्माक्षरैर्निर्दिष्टा । (५) स्पष्टशुद्धयर्थज्ञानाय टिप्पणी दृष्टव्यैव । ॥ १ ॥ 1 २० । विरहेन विध्यन् मन्मथगजपतौ । विरहिणः विध्यन् गतपतिकामर्मसु । २१ । ईषु । ईसु । ४९ । युध्यत स्नात | युध्यत रमध्वं स्नात । ६३ । ऋर्बूरितं । करंबितं । ६५ । बलाहकैः । बलाकाभिः । ६६ । करोति । कुर्वती ६८ | पायड | पाडल | ८० । प्रतायनायासेन । प्रत्यायनायासेन । ८३ । प्रविष्टः । प्राप्तः । ८६ । विरचय | विरचय्य । ८७ । आरोह्य । आरोप्य । ८८ । अभिसिंच्य । अभिषिच्य । ९२ । धावत् । धावयत् । १०७ । श्रूयते । 1 शृण्वते । ११२ । परिणामिताः । परिणामितौ । ११८ | मुयरहु । मुरयहु । प्रेक्षनक । प्रेक्षणक । सुमनोहरम् । मनोहरम् । ११९ 1 करकमल । करकमकमल | १२१ | सण | [ संदण]। १२३ । समुहाभंग | [भमुहाभंगउ ] | १२९ । कृत्रिमानि । कृत्रिमाणि । १३० । सज्जनचितानि । सज्जनचित्तानि । १३२ । उरुचरण । ऊरुकरचरण । १३३ । स्तब्ध्वा ... लुठथता । स्तम्भित्वा ... लोठयत् । ॥ २ ॥ ८ । मायितः । मातः । १७ । आकरणं... अशेषानां । आकारणं... अशेषाणां । ४३ । तुल । तुला । ४४ । एतद् निश्रुत्य । तद् निश्रुत्य । ४७ । मायिताः । माताः । ५१ । अम्ह इ । अम्हइ । वयं आयाता । ५२ पुष्प । पुष्प । ६२ । आर्यते । विध्याप्यते । ६५ । परिमिता । परिवृता । ६६ । अस्तमनि । अस्तमनं । ७५ । दापित । दर्शित अपि अयाता । वयं । ८१ । काष्टं । काष्ठं । ९३ । श्रुत्वा उच्चत्तरः । श्रुत्वा जनः हृष्टः उच्चतरः । १०२ । कलशं । कलुषं । १०६ । काञ्चनमञ्चः रचितः चतुःपार्श्वः । काञ्चनमञ्चाः रचिताः चतुः पार्श्वेषु । ११५ । + धाहाविउ भामंडलजणयहिं धाहाविउ लवणंकुसतणयहिं । १२० । नागरिकेन । नागरिकेण । १२९ । द्रोहिनी । द्रोहिणी । १४१ । लक्ष्मी । लक्ष्मीः । १४५ । दीर्घायुः ... पाश्व । दीर्घायुः...पार्श्व १४६ । ते । तौ । १४८ । सविभीषणौ कुमुदांगदौ । विभीषणाः कुमुदांगांगदाः । १६३ । हृद । हूद ।१६६ । शचिः । शची । १६७ । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैदेयाः । वैदेत्या । १७९ । रोघव । राघव । १९६ । देवहं "। देवहं ।१९॥ भिच्चिहिं । भिच्चिहि " । २१० । अवराणि । अपराणि ॥ १० । भयान्ति । एतानि । २३ । करे । करयोः । ५५। स्तनतले । स्तनतटे । ६७ । समालभनं । समालंभनं । ७४ । मरु मारमि। मरमारमि । प्रिये मारयामि। मारयाम्येव । ७८ । किमपि । किम् । ११५ । कृत्वा । कुरु । ११७। नियणि हेलणु। निययणिहेलणु । निजस्तने हेलनां । निजक-गृहे । १४४। ण। णं। १७७ । उहु । [एहु] । पश्यत । एषः । १८४ । वरिं । वहरि । १९० । निवासे । निवासात् । १९५ । निहेलना जायते । गृहं याहि । १९६ । जा जाहि । जाजाहि । ३७ । णिमल्लि । णिम्मलि । ३८ । वेणुदारि रिपु । घेणुदारि -रिपु । ४७ । मरंकि । म[य]रंकिं । ४५-५६ । ये । 'यः' तथा च बहुवचनस्थाने एकवचनं वाच्य; एवं च ५५-५६. । ५३ । धुततपः तपःसुत । ७९ । हरि-राम । हरि राम । हरिः राम । ११२ । विस्सभर । वि. स्संभर ।२०४। उहयहिं । [उहय] । उभयोः मालाकुरुपत्योः सुता । उदधिः मालकुरुपतेः सुता । २२६ । शाण | श्रवण ॥३५० । सामित्ति । सोमित्ति । १६२ । विआए । विओए । गुरुणा भ्रातुः । गुरुभ्रातुः । ३११ । आसण्ण। ओलण्ण । ३१५ । पंचपयई । पंचवियई। पंचपदानि । पचव्रतानि । ३ । उहय उयय। १० । सचरंतु । संचरंतु । २४ । मुह। मुभ । म्रियते । मृता । ४२ । झडय । झेंडय । ।। णि? । णिद्ध । निष्ठ । निग्ध । ५० । जीक्खिउ । जोक्खिउ। ६० । निष्कंकाल | नृकंकाल । ६३ । कोल । 'कुल' इति सर्वस्थानेश्वस्या पंक्तौ । ७० । कनक । शर । ७२ । पट। पट्ट । ९२ । नमित्तिकैः । नैमित्तिकैः । १३ । सुदरु । सुंदरु । ९ । रोमचिउ । रोमंचिउ । ९९ । सछण्णउ । संछण्ण । १..। सोहइ । निवडइ । १०३ । अचइ । अंगह। ११३। सतुट्ठउ । संतुद्वउ । ११९ । संबरहि । सबरहि । १२० । गत्ता। घत्ता। १२१ । अर्यः यथा दत्तम् । अर्घ्यः यथा दत्तः। ३।। स्तीमित । स्तिमित । १३५ । कुंभकला । कुंभस्थल । १४० । ससि । ससि । १५२ । दीण्णी । दिण्णी । १५३ । सुहउ । सूहउ । १५४ । तावगारय । तावंगारय। Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५५० १६५ । भणंत "मुद्धत्त । भणंति "मुद्धत्तें । १६६ । चपाउरि । चंपाउरि । १७० । सपत्तउ । संपत्तउ । १८८ । बुद्धिउ । बुद्धिए । २२३ । पढतु । पढंतु । २१२। मानसोत्तरे। मानुषोत्तरे । २४६ । वल्लकीं । वल्लकी । २५१ । रचिताश्रयः । रचिताश्रयाः ।२५९। रिष्टनगर । भरिषमगरं । २७० । घणगुणिसरु । धणुगुणि सरु । धनगुणेश्वरं । धनुर्गुणे शरं । २७१ । ध्रव । ध्रुवं । २७८ । वृद्धत्वेन । विद्वत्वेन । २९९ । भरत क्षेत्रे । भरतक्षेत्रे । १५ । समाचरितं । समारचितं । २३ । चितंतु । चिंतंतु । १२ । अवियल । [इम अवियल। ५६॥ छिवति । छिवंति । ७४ । पुर। पुरं । ८० । पसुण । पसूभ। ८२ । प्रनष्टे । प्रणष्टे । १०७। (नि) न् । न् । १३८ । वीणालावणि वंस । वीणालावणिवंस । भालापने वंस।भालापनीवंश । १४७ । नरेन्द्र सुरेन्द्रैः । नरेन्द्रासुरेन्द्रैः। ८ । विज्ञाप्तः । विज्ञप्तः । कंचित् । कश्चित् । १० । अष्टानाम् । अष्टानामपि ।।८ । साहसः। साहसं ।२०। कल्लाणाई । कल्लाणई । ३९ । गुणवद्भयः । गुणवद्भिः । ६ । लाओ। लोओ। ८ । श्रणोतु । शुनकः । १५ । मेदसंपादनैः । वेधसंपादने ।४६। णइणाहं । णईणाहं । ६३ । बहु गुणसारः बहुगुणसारः । १४ । जाणिहिसि । जाणीहिसि । १७ । दिट्टी। दिहि ॥२३॥ भणहि । भण्णइ । ४५ । सुर । सुंदरि । ४६ । सरीरि । परीरी । ६ । मअरन्द । मभरंदए ।१८। फरन्त फुरन्त । ॥१३॥ ... । बइसा घडा । बइसी घंडा । । दक्षिणापदेशेन । दक्षिगो शेन । ४० । अतं । श्रुतं । ४६ । सहावत । सहावत्त । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ૯૬ टिप्पणी: उद्धरण ५.२४७-२८९. आमां श्लिष्ट विशेषणो वापरी धनुष अने व्हाला न्हाना वाळकनुं साम्य ध्वनित छे. (१) कोडिसरु = १. कोटिशर २ कोटीश्वर; (२.) सुवंशगुणेन = १. सारा वांस अने पण थी; २. सारावंश अने गुणथी. (३) भजइ - १. पराजीयते; २. पलायते । उ. ५. पंक्ति ३००=पुष्पदन्त = (१) सूर्याचन्द्रमसौ ( २ ) तन्नामा कविः | Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३८ [सुयणदुजणसहावविवेयणु घई मायहे विभसइ, चडप्फडतहं चम्महि-मासाइं असइ त्ति । होउ काएण सरिसु, णिच्च-करयरण-सीलो छिड्ड-पहारि व्व । तहे वायसो हि करयरेंतो पउत्थ-वइयाणं होइ हिययरो, छिड्डेहिं च आहारमेत्तं विलुपइ । खलो घई पउत्थ-वइयाकुलबालियाणं विज्झ-संपायणेहिं दुक्ख-जणउ, अच्छिड्डे वि १५ जीविअं विलुपइ । जाणिउ खरो जइसउ, सुयण-रिद्धि-दसणे झिज्झइ निलज्जो, महल्लेणं च सद्दे उल्लवइ । तहे रासहो हि ऽइमुत्तय रिद्धि-महल्लं असिउ न तीरइ त्ति चित्तए झिज्झइ, अविभाविज्जंत-अक्खरं च उल्लवइ । खलु घई आयहो किर महल्ल-रिद्धि जायल्लिअत्ति मच्छरेण झिज्झइ । २० पयड-दोस-खरालावं च उल्लवइ। अवि काल-सप्पु जइसउ, छिड-मग्गण-वावडो कुडिल-गइ-मग्गो व्व । तहे भुयंगमो हि पर-कयाई छिड्डाई मग्गइ, सव्वहा पोट्टेण च कसइ । खलो घई सई जे कुणइ छिड्डाइ, थड्ढो व भमइ । चिंते, खलु मातरम् अपि भवति क्लेशपीडितानां चर्मास्थिमांसानि अश्नाति इति । भवतु काकेन सदृशः, नित्यकलकलनशीलः छिद्रप्रहारी इव । तयोः वायसः हि कलकलायमानः प्रोषितपतिकानां भवति हितकरः छिद्रेषु च आहारमात्रं विलुम्पति। खलः खलु प्रोषितपतिकाकुलबालिकानां भेदसंपादनैः दुःखजनकः अछिद्रे अपि जीवितं विलुम्पति । ज्ञातः खरः यादृशः, सुजनऋद्धिदर्शने क्षीयते निर्लज्जः महता शब्देन च उल्लपति। तयोः रासभः हि अतिमुक्तकमृद्धिमहान्तं अशितुं न तीरयतीति चित्ते क्षीयते; अविभाव्यमानाक्षरं च उल्लपति । खलः खल्लु अस्य किल महर्द्धिः जाता इति मात्सर्येण क्षीयते, प्रकटदोषखरालापं च उल्लपति । अपि कालसर्पः यादृशः,छिद्रमार्गेण व्यापृतः कुटिलगतिमार्गः इव । तयोः भुजंगमो हि परकृतानि छिद्राणि मार्गयति, सर्वथा उदरेण च कर्षति । खलः खलु स्वयमेव करोति छिद्राणि, स्तब्धः इव भ्रमति । Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उज्जोयणसूरि] हूं! - विसु जइसउ, पमुह-रसिउ जीअंत-करो व्व । तहेव २५. महुरउ मुहे महुरं, मंतेहि च कीरइ रसायणं । खलो घई मुहे ज्जे कडूयउ, मंतइं च घडियई वि विसंघडइ । हूं, बुज्झइवट्टइ खलु खलो ज्जि जइसउ, उज्जिय-सिणेहु पसु-भत्तो य । तहे खलो वि वरउ पीलिज्जंतो विमुक्क-णेहो, अ-याणतो य पसूहि खज्जइ । इअरु घई एक पए ज्जे मुक्क-णेहु, जाणइ ३० जे पसु तह वि खज्जइ। किं च भण्णउ, सव्वहा खलु अ. सुइ जइसउ, विसिट्ठ-जण-परिहरणिज्जो अ-परिप्फुड-सदाबद्ध-खुद्द-मंडली-गिणिगिणाविउ व । तहे सो वि वरउ, किं कुणइ अण्णहो जि कस्सइ विआरु । खलो घई सई ज्जि बहु-विआर-भंगि-भरिअल्लउ त्ति । सव्वहा, मह पत्तियासु एवं फुडं भणंतस्स संसयं मोत्तुं। मा मा काहिसि मेत्ति उग्ग-भुअंगण व खलेण ॥ चिन्तये, हूं ! विषं यादृशं; प्रमुखरसिकः जीवांतकरः इव । तयोश्च विषं मुखे मधुरं मंत्रैश्च क्रियते रसायनम् । खलः खलु मुखे एव कटुकः मंत्रान् च घटितान् अपि विसंघटति । हूं, बुध्यते वर्तते खलः खलः एव यादृशः, उज्झितस्नेहः पशुभक्तः च । तयोः खलः अपि वरः पीड्यमानः विमुक्तस्नेहः अजानन् च पशुभिः खाद्यते । इतरः खलु एकपदे एव मुक्तस्नेहः, जानात्येव पशुं तथापि खादति । किं च भण्यताम् , सर्वथा खलु अशुचिः यादृशः विशिष्टजनपरिहरणीयः अपरिस्फुटशब्दाबद्धक्षुद्रमंडलीशब्दायमानः इव। तयो सः अपि वरः, किं, करोति अन्यस्य एव कस्यापि विकारः । खलः खलु स्वयमेव बहुविकारभंगीभरितः इति । सर्वथा मयि प्रतीहि एवं स्फुटं भणति संशयं मोक्तुं मा मा करोषि मैत्री उपमुजगेन इव खलेन ॥ . 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