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________________ तिछयण सयंभु] ॥ हेला ॥ दीसइ समवसरणु जग जणिय-उज्जोयउ ___णं लोहिउ 'जम्म-अ.सेयाहियाणागिदउ । भामंडल-समिद्ध णावइ रामायणु सीहासण-साणाहु थिउ णाइ महा-वणु णावइ छंद-सत्थु सुंदर-जइ-माला-हरु ण मंदर-णियंबु णंदण वण-मणहरु दीसइ णाई पाउस णः परतिह जे घय........................... ८५ णावइ महि-पवण्ण-सुर-उयय समाप्पहु देविदाय-बहुल-पसरिय-रयण-प्पहु ॥घत्ता॥ तहि जिणु लक्खियउ जायव-जणेण गरुय-अणुराएं आइ-महेसरु रिसहु व चिरु अमर णिहालए ॥ ॥ हेला ॥ पुणु ते पउम सहाव पियर-गुण-साणुराय बल-गोविंद पुणु पुणु णमंति जिणह पाय ॥ जय जिण मणुय-दणुय-गण-धण-वा-फण-वइ-णमिय-पय जुया अथिर-मण-पवण-दिण मणि-विलयण-वरुण-ऽसणि-जुया 2 लोहियउ । २. ओय । बीजा पादमा:-देवींदरीयबहुलुपसरियरणप्पहु । ३. जयवजणेणा ४. धवइ ।। ॥ हेला ॥ दृश्यते समवसरणं. जगजनितोद्योतं यथा लोहितः [वृक्षः] जन्माश्वेताधिकनागेन्द्रः भामंडलसमृद्धं यथा रामायणं सिंहासनसनाथं स्थितं यथा महावनं यथा छंदःशास्त्रं सुंदरयतिमालाधरं यथा मंदरनितंब नंदनवनमनोहरं दृश्यत यथा प्रावृट्........................... यथा महीप्रपन्नसूरोदयसमप्रभं देवेन्द्रराजबहुलप्रसतरत्नप्रभं ॥पत्ता।। तत्र जिनः लक्षितो यादवजनेन गुरुकानुरागेण आदिमहेश्वरं ऋषभमिव चिरममराः निभालयन्ति ।। ॥ हेला ॥ पुनस्तौ पद्मस्वभावौ पितृगुणसानुरागौ बलगोविन्दौ पुनः पुनर्नमतः जिनस्य पादौ ॥ जय जिन मनुजदनुजगणधनपतिफणापतिनतपदयुग ! अस्थिरमनःपवनदिनमणिविलयनवरुणाशनियुत !
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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