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________________ ३७ [१] अनुस्वारयुक्त स्वर पछी ह् आवे तो हघ थाय छे; [२] भने ह पछी जो अनुनासिक व्यंजन आवे तो हू नो व्यत्यय थई, जे वर्गना अनुनासिक पछी । भाव्यो होय ते वर्गना चतुर्थ वर्णमां (सोम व्यंजनमां), फेरवाई जाय छे. भावां उदाहरणोमां पण सोष्म व्यंजन ह नो पूर्वकालीन पण कोइ वार होय. दा. त. [१] संघारण-संहारण (४. ३८.) सिंघ-सिंह (सि. हे. ८।१। २६४.) इ० [२] चिंध-चिह्न, बंभ-ब्रह्मन् (५. ७) बंभण ब्राह्मण, (७. ९६.) (स.१३. २४.) आसंघइ (आसंहइ * <आशंसते (५. १४०.), संभरह <सम्हर* < संस्मरति इ. ६ ३२. व्यंजनविर्भाव (Doubling of Consonants) स. हे. ८।२। ९८-९९ मां व्यंजन द्विर्भावनां दृष्टान्तो भापैकी के पर अन्यनी टिप्पणी (१. ५१)मां पण मानी विवेचना करी के. प्रो. पीशलना अभिप्राये केटलांक व्यंजनविर्भावनां दृष्टान्तोमां वैदिक स्वरनी भसर रहेली छः दा. त. जित्त-जित (५. १७१.) केत्यु-कथा, (४. १६४.) फुट्टइ-स्फुटति, उज्जु-ऋजु इ० आ ज नियमने आधारे स्वार्थ तद्धित इल्ल, उल्ल इ. ने ते समजावे छे. केटलीक वार काव्यमा छंदनी आवश्यकताने अनुसरी विर्भाव करवामां आवे छे. केटलीक वार व्यंजनतत्त्व टकाववा तथा शब्दनी मात्रा साच. ववा पण आ प्रकारे द्वित्व करवामां आवे छे. दा. त. अवि (५. २०६.). दीर्घ स्वर पछीना व्यंजनने बेवडावी दीर्घ स्वरने इस्व बनाववानी प्रक्रिया पण रष्टिगोचर थाय छे: दा. त. पुज्ज-पूजा (१. ९०.) जोव्वण-यौवन (१. ९८.) अल्लीण आलीन (१. ३३.) पहुत्त-प्रभूत (१. ७४.) दुका डोकते (१. ४९.) १० केटलाक विद्वानो प्रो. पीशलना अभिप्रायनो अस्वीकार करे छ; अने द्विर्भावने भ्रान्तानुकृति (False Analogy) इत्यादिथी समजावे छ: दा.त. उपरि (उपरि (१. ५१.) प्रान्तानुकृति-परुप्पर-परस्पर जेमा प्प यथास्थान छे. सुकिउ <सुकृत (६. २) भ्रान्तानुकृति-दुकिउ-दुष्कृत जेमा क यथास्थान छे. पविस्समाणरण-प्रविशता (६. ७४.) मां स्स छंदोमेळ खातर अपवा कर्मणि अने कर्तरि प्रयोगनी भ्रान्तिभी उद्भूत छे. बिणि <द्वौ ए तिण्णि <त्रीणि नी भ्रान्तानुकृति छे. प्रो. पीशलना अभिप्राय करतां आ अभिप्राय वधारे ठीक छे.
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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