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४. टिप्पणः
२. णिरु मूळमा णरु-नरः छे. जो ते स्वीकारीए तो भविसतुनी साथे ते पाठ लेवो पडे. णिरु-निश्चित.
६. कोइ द्वितीया एकवचन, पिक्खइनुं कर्म,
४-६. पंदर मात्राओनो छन्द छे; कडवकना देहमा सामान्यतः एक न छन्द होवो जोईए. कविनो प्रमाद होय के गमे ते बीजु कारण होय, पण कविनी आ रीत असाधारण तो छे ज.
७. सुहावइ [ सुखापयति ] मूळमां सुहाइ छे; परन्तु मूळनो पाठ स्वीकारवामां एक मात्रानी तूट पडे छे अने अन्त्यानुप्रास बेसतो नथी.
९. दुक्खहो भरिउ तृतीयाने बदले षष्ठीनो प्रयोग, अर्वाचीन गूजरातीमां आवो प्रयोग दृष्टिगोचर थाय छे. दा. त. दूधनो दाझ्यो, दुःखनों मार्यो इ०. आवा प्रयोग रूढ थवानुं कारण ए होय छे के बोलनार ‘दाझ्यो' 'मार्यो' नो कृदन्तार्थ भूली जई विशेषणार्थ उपर ज एकलो भार मूके छे
१३. दइउ परम्मुहु सामान्यतः सति सप्तमी आवे स्थळे होय; परन्तु अवान्तरागत वाक्य ( Parenthetical clause ) तरीके आ बे शब्दो कविए अहिं मूक्या छे.
१५.संवारिउ डॉ. गुणेनी भ. क.ना शब्दकोषमां संवारइ-संवृणोतिनो 'संताडवू, ढांक, अटकावq" ए अर्थ थाय छे, जे संदर्भनी दृष्टिए अयुक्त अने अनर्थक छे. जो संवृणोति लईए तो सं द्विमात्रिक बने अने मात्रा. तिरेकनी अनिष्टापत्ति आवी पडे. संनो अनुस्वार ध्वन्यात्मक छे अने संवारित
(प्रा. समारइउ <सं. समारचित ए अर्थ, मात्रा अने व्युत्पत्तिनी दृष्टिए स्वीकार्य छे. “दुर्जनजनमां खोटी वायका पेदा करी छे. " सरखावो सि. हे. ८४९५। समार-सं. सम्+आ+/रच.
२०. आ पंक्तिनो वाक्यरचनाः-जइ तं तेम घडिउ, तो तेण इ (घडिउ); तो किर काइं (मई) एणइ विसूरइ ॥ जो ते प्रमाणे अपयश करायो छे, तो ते तेनाथी करायो छे; तो पछी खरेखर मारे एनाथी शा माटे उद्विग्न थर्बु ?"
२४. प्रथम भागमा १६ मात्रा छे; संचल्लिउ संमुहु काणणहो एम वांचीए तो वनथी थतो पुनरुक्तिदोष दू थाय अने मात्रा मळे.