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________________ [दोहाकोसोद्धरियगीयाई १५४ विसअ - विसुद्धे णउ रमइ केवल सुण्ण चरेइ उड्डी वोत्थि का जिम पलुटिअ तहि वि पडे ॥१६॥ विसयासत्ति में बंध करु अरे वढ सरहे वृत्त ३५. मीण पयंगम कर भमरु पेक्खह हरिणह जुत्थ ॥१७॥ पंडिअ - लोअ महु महु एत्थ न किअइ विअप्पु जो गुरु- वअणें मइँ सुअउ तर्हि किं कहमि सु-गोप्पु ॥ १८ ॥ ४० घोरंधारें चंद- मणि जिम उज्जोअ करेइ ४५ परम - महासुह एक्कु खणे दुरिआसेस हरेइ ॥ १९ ॥ घरहिं म थक्कु म जाहि वणे जहिं तर्हि मण परिआण सलु निरंतर बोहि ठिअ कहिं भव कहिं निव्वाण ॥ २० ॥ उ घरे उ वणे बोहि ठिउ एव परिआउ भेउ निम्मल-चित्त-सहावत करह अ-विक्कल से उ ॥ २१ ॥ पहु सो अप्पा हु पर जो परिभावइ कोइ ते विणु बंधे बंधिक अप्प विमुक्कउ तो वि ॥ २२ ॥ विषयविशुद्धौ न तु रमते केवलं शून्यं चरति उड्डीय प्रवहणकाकः यथा पर्यस्य तत्रैव पतति ।। १६ ।। विषयासक्तिं मा बन्धं कुरु अरे मूर्ख सरहेण उक्तम् मीनं पतंगं करिणं भ्रमरं प्रेक्षस्व हरिणानां यूथम् ॥ १७ ॥ पण्डितलोकाः, क्षमध्वं मां अत्र न क्रियते विकल्पः यद् गुरुवचनेन मया श्रुतं तत्र किं कथयामि सुगोप्यम् ॥ १८ ॥ घोरान्धकारे चन्द्रमणिः यथा उद्योतं करोति परममहासुखं एकस्मिन् क्षणे दुरितानि अशेषाणि हरति ॥१९॥ गृहे मा तिष्ठ मा याहि वने यत्र तत्र मनः परिजानीहि सकलं निरन्तरं बोधिः स्थिता कुत्र भवः कुत्र निर्वाणम् ॥२०॥ न तु गृहे न तु वने बोधिः स्थिता एवं पारिजानीत भेदम् निर्मल चित्तस्वभावत्वे कुरुत अविकलं तत् तु ॥ २१ ॥ एषः सः आत्मा एतत् परं यः परिभावयति कोऽपि सः विना बन्धेन बंधीकृतः आत्मा विमुक्तः तथापि ॥ २२ ॥
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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