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________________ जब्वे मण बस्थामण जातणु तुहर बंधण तब्वे सम-रस लहजे पज्जिइ ज उ सुख ण बम्हण ॥१०॥ भावहिं उवज्जर सहि णिवज्जा भाष-रहिम पुणु कहि उवज्जइ२५ बिण्ण-विवज्जिम जोमओ वज्जइ अच्छहि सिरि-गुरु-णाह कहिज्जइ ॥ ११॥ रैक्खहु सुणहु परीसहु साहु जिघाहु भमहु बइठ्ठ उहाहु भालमाल ववहारे पेल्लह मण छडु एक्कार म चल्लह ॥१२॥ गुरु-उवएसह अमिय-रसु हवहिं ण पीअउ जेहि बहु-सत्थत्थ-मरुत्थलिहिं तिसिए मरिअउ तेहि ॥ १३ ॥ ३० पंडिअ सअल सत्थ वक्खाणइ देहहिं बुद्ध वसंत ण जाणा अमणागमण ण तेण विखंडिअ तो वि णिलज्ज भणइ हर्ड पंडिअ ॥ १४ ॥ जीवंतह जो उ जरह सो अजरामर होर गुरु-उवएसें विमल-मइ सो पर धण्णा कोइ ॥ १५ ॥ यावत् मनः अस्तमनं याति तनोः त्रुट्यति बन्धनम् तावत् समरसः सहजे व्रजति न तु शूद्रः न तु ब्राह्मणः ॥१०॥ भावे उत्पद्यते क्षये निष्पद्यते भावरहितः पुनः कथं उत्पद्यते द्वि-विवर्जितः योगं व्रजति, आस्स्व, श्रीगुरुनाथेन कथ्यते ॥११॥ पश्यत शृणुत स्पृशत खादत जिघ्रत भ्राम्यत उपविशत उत्तिष्ठत आलजालं व्यवहारे प्रेरयत मनः त्यनत एकाकी मा चलत ॥१२॥ गुरूपदेशस्य अमृतरसः अस्ति न पीतः यैः बहुशास्त्रार्थमरुस्थलीषु तृषया मृतं तैः ॥ १३ ॥ पंडितः सकलानि शास्त्राणि व्याख्याति देहे वसन्तं बुद्धं न जानाति ॥ गमनागमनं तेन न विखण्डितं तथापि निर्लज्जः भणति 'अहं पण्डितः' जीवन् यः न जीर्यति सः अजरामरः भवति गुरूपदेशेन विमलमतिः सः परं यः कः अपि ॥ १५॥
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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