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जोइंदु] तारा-यणु जलि बिबियउ णिम्मलि दीसइ जेम अप्पए णिम्मलि बिंबिंयउ लोयालोउ वि तेम ॥ ३३ ॥ अप्पा णाणु मुणेहि तुहुं जो जाणइ अप्पाणु जीव-पएसहिं तित्तिडउ णाणे गयण-पवाणु ॥ ३४ ॥ जइ णिविसधु वि कुवि करइ परमप्पइ अणुराउ अग्गि-कणी जिव कट्ठ-गिरि डहइ असेसु वि पाउ ॥३५॥ ७० मिल्लिवि सयल अवक्खडी जिय णिच्चितउ होइ । चित्तु णिवेसहि परम-पइ देउ णिरंजणु जोइ ॥ ३३ ॥ जं सिव-दंसणि परम-सुहु पावहि झाणु करंतु तं सुहु भुवणि वि अत्थि ण वि मेल्लिवि देउ अणंतु ॥ ३७ ॥ जोइय णिय-मणि णिम्मलए पर दीसइ सिउ संतु अंबरि णिम्मलि घण-रहिए माणु जि जेम फुरंतु ॥३८॥ राएं रंगिए हियवडए देउ ण दोसइ संतु दप्पणि मइलइ बिंबु जिम एहउ जाणि णि भंतु ॥ ३९ ॥
तारागणः जले बिंबितः निर्मले दृश्यते यथा आत्मनि निर्मले बिंबितं लोकालोकमपि तथा ॥ ३३ ॥ आन्मानं ज्ञानं मन्यस्व त्वं यः जानाति आत्मानं । जीवप्रदेशैः तावन्मात्रं ज्ञानेन गगनप्रमाणम् ॥ ३४ ॥ यदि निमेषार्धमपि कोऽपि करोति परमात्मनि अनुरागं अग्निकणिका यथा काष्ठगिरिं दहति अशेषमपि पापम् ॥३५॥ मुक्त्वा सकलां चिन्तां जीव निश्चिन्तो भूत्वा चित्तं निवेशय परमपदे देवं निरञ्जनं पश्य ॥ ३६ ॥ यच्छिवदर्शने परमसुखं प्राप्नोषि ध्यानं कुर्वन् तत्सुखं भुवनेऽप्यस्ति नैव मुक्त्वा देवमनन्तम् ॥ ३७॥ योगिन् निजमनसि निर्मले परः दृश्यते शिवः शान्तः अंबरे निर्मले घनरहिते भानुरेव यथा स्फुरन् ॥ ३८ ॥ रागेन रञ्जिते हृदये देवो न दृश्यते शान्तः दर्पणे मलिने बिंवं यथा एवं जानीहि निर्धान्तं ॥३९॥