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[परमप्पप्पयासदोहा सिद्धिहि केरा पंथडा भाउ विसुद्धउ एक्कु जो तसु भावह मुणि चलइ सो किम होइ विमुक्कु ॥५४॥ देउ णिरंजणु इउं भणइ णाणि मुक्खु ण भंति णाण-विहीणा जीवडा चिरु संसारु भमंति ॥ ५५ ॥ णाण-विहीणहं मोक्न-पउ जीव म कासु वि जोइ बहुएं सलिलि विरोलियई करु चोप्पडउ ण होइ ॥ ५६ ॥ तं णिय-णाणु जि होइ ण वि जेण पवडुइ राउ दिण यर-किरणहं पुरउ जिय किं विलसइ तम-राउ ॥५७॥ अप्पा मिल्लिवि णाण-मउ चित्ति ण लग्गइ अण्णु मरगउ जे परियाणियउ तहुं कच्चे कउ गण्णु ॥ ५८ ॥ णाणिहिं मूढहं मुणि-वरहं अंतर होइ महंतु देह जु मिल्लइ णाणियउं जीवहं भिण्णु मुणंतु ॥ ५९ ॥ लेणहं इच्छइ मृदु पर भुवणु वि एहु अ-सेसु बहु-विह-धम्म-मिसेण जिय दोहि मि एहु विसेसु ॥ ६० ॥
सिद्धेः संबंधी पन्थाः भावः विशुद्धः एकः यः तस्माद् भावान्मुनिश्चलति स कथं भवति विमुक्तः ॥५४॥ देवः निरञ्जनः एवं भणति ज्ञानेन मोक्षो न भ्रान्तिः ज्ञानविहीनाः जीवाः चिरं संसारं भ्रमन्ति ॥ ५५ ॥ ज्ञानविहीनस्य मोक्षपदं जीव मा कस्यापि पश्य बहुना सलिलविलोडितेन करः चिक्कणो न भवति ॥ ५६ ॥ तन्निजज्ञानमेव भवति नापि येन प्रवर्धते रागः दिनकरकिरणानां पुरतः जीव किं विलसति तमोरागः ॥५७॥ आत्मानं मुक्त्वा ज्ञानमयं चित्ते न लगति अन्यत् मरकतः येन परिज्ञातः तस्य काचेन किं गण्यं ॥ ५९॥ ज्ञानिनां मूदानां मुनिवराणां अंतरं भवति महत् देहमपि मुञ्चति ज्ञानी जीवाद्भिन्नं मन्यमानः ॥ ५९॥ लातुमिच्छति मूढः परं भुवनमप्येतदशेषं बहुविधधर्ममिपेण जीव द्वयोः अपि एषः विशेषः ॥ ६॥