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जोइंदु )
भल्लाहं वि णासंति गुण जह संसग्गु खलेहि वइसाणरु लोहहं मिलिउ ते पिट्टियइ घणेहिं ॥ ६१ ॥ तलि अहिरणि वरि घण-वडणु संडस्सय लुचोड लोहई लग्गिवि हुय-वहहं पिक्खु पडतउ तोड ॥ ६२ ॥ जोइय णेहु परिच्चयहि णेहु ण भल्लउ होइ णेहासत्तउ सयलु जगु दुक्खु सहंतउ जोइ ॥ ६३ ।। धधइ पडियउ सयलु जगु कम्मई करइ अायाणु मोक्खहं कारणु एक्कु खणु ण वि चिंतइ अप्पाणु।। ६४ ॥ जीव वधंतहं गरय-गइ अभिय-पदाणे सग्गु बे पह जवला दरिसिया जहिं भावइ तहिं लग्गु ॥ ६५ ॥ १३० जे दिट्ठा सूरुग्गमणि ते अत्थवणि ण दिह ते कारणि वढ धम्मु करि धणि जोव्वणि कउ तिट्ठ ॥ ६६ ॥ विसय-सुहई बे दिवहडा पुणु दुक्खह परिवाडि भुल्लउ जीव म वाहि तुहुं अप्पण खंधि कुहाडि ॥ ६७ ॥ भद्राणामपि नश्यति गुणाः येषां संसर्गः खलैः वैश्वानरो लोहेन मिलितः तेन अभिहन्यते मुद्गरैः ॥ ६१ ॥ तले अधिकरणी उपरि घनपतनं संदंशककर्षणं लोहं लगित्वा हुतवहाय प्रेक्षस्व पतन्तं त्रोटनम् ।। ६२ ॥ योगिन् स्नेहं परित्यज स्नेहो न भद्रो भवति स्नेहासक्तं सकलं जगत् दुःखं सहमानं पश्य ॥ ३ ॥ प्रवृत्तौ पतितं जगत् कर्माणि करोति अज्ञानं मोक्षस्य कारणं एक क्षणं नैव चिन्तयति आत्मानम् ॥६४॥ जीवं घ्नता नरकगतिः अभयप्रदानेन स्वर्गः दौ पन्थानौ समीपस्थौ दर्शितौ यत्र रोचते तत्र लग ॥ १५ ॥ ये दृष्टाः सूर्योद्गमने ते अस्तमने न दृष्टाः तेन कारणेन मूर्ख धर्म कुरु धने यौवने का स्थितिः ॥ ६६ ॥ विषयसुखानि द्वौ दिवसौ पुनः दुःखानां परिपाटी भ्रांतः जीव मा वाहय त्वं आत्मनः स्कंधे कुठारम् ॥ ६७ ॥