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________________ कालियासु ] 4 सुर- सुदरि जहण - भरालस पीणुत्तुंग -घण-त्थणि थिर- जोव्वण तणु - सरीरि हंस - गइ | गअणुज्जल-काणणे मिअ-लोअणि भमन्तें दिट्ठ प तह विरह - समुद्दन्तरें उत्तारहि मई ॥ १४ ॥ एँ पेक्खिविणु अपं भावमि "जर विहि-जोएं पुणु तर्हि पावमि । ता रणे वि ण करिमि णिब्भन्ती पुणु णइ मेलमि दाह कअन्ती मोरा पर हुआ हंस विहंगम अलि गअ पव्वअ सरिअ कुरंगम | तुज्झहं कारणे रणे भ्रमन्ते को ण हु पुच्छिउ महं रोअन्तें ॥ १६ ॥ "" ॥ १५ ॥ ५६ १४. (पं.) दिट्ठि वांची पई ने पंक्ति ३. मां ले छे जे छंदनी दृष्टिए खोटं छे; (पी.) दिट्ठा परं वांची तेने पंक्ति ४ मां ले छे. सुरसुन्दरी जघनभरालसा पीनोत्तुंगघनस्तनी स्थिरयौवना तनुशरीरा हंसगतिः । गगनोज्ज्वलकानने मृगलोचना भ्रमता दृष्टा त्वया तर्हि विरहसमुद्रान्तरादुत्तारय माम् ॥ १४ ॥ १४७ १५. (पं) पेरूख विणु (पी.) पेक्खु विणु (रं) टीका: लते प्रेक्षस्व विना हृदयेन भ्रमामि । परंतु पेक्खिविणु एम अव्ययभूतकृदंत होना वधारे संभव छे; अने भावमि = भावयामि । पंक्ति ४. मां (पी.) ताह कअन्ती; (पं.) दाह कलन्ती पण; (पं.) नी छायामां :- तां कृता• न्ताम् । (रं.) बन्ने य पाठांतरो नोंघे छे; (पी.) (पं.) मेल्लई. लतां प्रेक्ष्य हृदयेन भावयामि “यदि विधियोगेन पुनः तां प्राप्नोमि तद् अरण्ये अपि न करोमि निर्भ्रान्ति पुनः नापि मोचयिष्ये दाहं कुर्वन्तीम् " ॥ १५ ॥ मयूरः परभृतः हंसः विहंगमः अलिः गजः पर्वतः सरित् कुरंगमः । तव कारणेन अरण्ये भ्रमता क : न खलु पृष्टः मया रुदता ।। १६ ॥ ५०
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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