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________________ १२२ [ परमप्पप्पयासदोहा केवल दंसणणाणमउ केवल सुक्ख-सहाउ केवल-वीरिउ सो मुणहिं जो जि परावर भाउ ॥१२॥ जेहउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहि णिवसइ देउ तेहउ णिवसइ बंभु पर देहहं मं करि मेउ ॥ १३ ॥ में दिहिं तुटुंति लहु कम्मइं पुध-कियाई सो पर जाणहि जोइया देहि वसंतु ण काइं ॥ १४ ॥ अ-मणु अाणिदिउ णाणमउ मुत्ति-विरहिउ चि-मित्तु अप्पा इंदिय-विसउ ण वि लक्खणु एहु णिरुत्तु ॥ १५ ॥ ३० भव-तणु भोय-विरत्त-मणु जो अप्पा झाएइ तासु गुरुक्की वेल्लडी संसारिणि तुट्टइ ॥ १६ ॥ देहा-देवलि जो वसइ देउ अणाइ अणंतु केवलणाण-फुरंत-तणु सो परमप्पु णिभंतु ॥ १७ ॥ देहे वसंतु वि ण वि छिवइ णियमें देहु जि जो जि ३५ देहिं छिप्पइ जो जि ण वि मुणि परमप्पउ सो जि ॥ १८ ॥ केवलदर्शनज्ञानमयः यो केवलसौख्यस्वभावः केवलवीर्यस्तं मनुष्व यः एव परापरो भावः ॥१२॥ यादृशः निर्मलः ज्ञानमयः सिद्धौ निवसति देवः तादृग् निवसति ब्रह्म परं देहे मा कुरु भेदम् ॥१३॥ येन दृष्टेन त्रुट्यंति लघु कर्माणि पूर्वकृतानि तं परं जानासि योगिन् देहे वसंतं न किम् ॥ १४ ॥ अमनस्कः अनिन्द्रियः ज्ञानमयः मूर्तिविरहितः चिन्मात्रः आत्मा इन्द्रियविषयः नापि लक्षणं इदं निरुक्तम् ॥१५॥ भवतनुभोगविरक्तमनाः यः आत्मानं ध्यायति तस्य गुर्वी वल्ली सांसारिकी त्रुट्यति ॥१६॥ देहदेवकुले यः वसति देवः अनादिः अनंतः केवलज्ञानस्फुरिततनुः सः परमात्मा निीतः ॥१७॥ देहे वसन्नपि नैव स्पृशति नियमेन देहं एव यः एव देहेन स्पृश्यते यः एव नापि मन्यस्व परमात्मानं तमेव ॥१८॥
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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