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१४१ पहज एक्कु पर अत्थि तहिं फुङ काण्ड परिजानइ बहु सत्थागम पढइ गुणइ वढ किंपि न जानइ ॥ ६ ॥ अहें ण गमइ ण उहें जाइ बेण्णि-रहिअ तसु निच्चल थाइ भणइ काण्ह मन कह वि ण फुट्टइ निच्चल पवण-घरिणि घरे वकृइ॥७॥ वर-गिरि-कंदर गुहिर जगु तहिं सअल वि तुट्टइ १५ विमल सलिल सोसं जाइ कालग्गिइं पइट्ठइ ॥ ८ ॥ एहु सुदुद्धर धरणि-धर सम-विसम उत्तार न पावइ भणइ काण्ह दु:लक्ख दुरववाह को मणे परिभावइ ॥ ९ ॥ जो संवेअइ मण-रअण अहरह सहज फरन्त सो पर जाणइ धम्म-गइ; अन्न कि मुनइ कहन्त ॥ १० ॥२० पहं वहंतेण णिय-मन बंधनं कियउ जेण ति हुअण सयल विफारिआ पुणु संहारिअ तेण ॥ ११ ॥ सहजें निच्चल जेण किय सम-रसे निअ-मण-राअ सिद्धो सो पुण तक्खणे णउ जर-मरणह भाय ॥ १२ ॥ सहजः एकः परः अस्ति तं स्फुटं कृष्णः परिजानाति बहून् शास्त्रागमान् पठति गुणयति मूर्खः किमपि न जानाति ॥६॥ अधः न गच्छति न ऊर्ध्वं याति विरहिता तस्य निश्चला स्थितिः भणति कृष्णः मनः कथमपि न स्फुटति निश्चला पवनगृहिणी गृहे वर्तते॥७ वगिरिकंदरः गभीरः जगत् तत्र सकलं अपि त्रुटयति विमलं सलिलं शोषं याति कालाग्नौ प्रविष्टे ॥ ८ ॥ एषः सुदुर्धरः धरणीधरः समविषमः उत्तारं न प्राप्नोति । कृष्णः भणति दुर्लक्षं दुरवगाहं कः मनसि परिभावयति ॥ ९॥ यः संवेत्ति मनोरत्नं अहरहः सहजे स्फुरत् सः परां जानाति धर्मगतिं अन्यः किं जानाति कथयन् ॥१०॥ पन्थानं वहता निजमनः बन्धनं नीतं येन त्रिभुवनं सकलं विस्फारितं पुनः संहृतं तेन ॥ ११ ॥ सहजे निश्चल: येन कृतः समरसेन निजमनोराजः सिद्धः सः पुनः तत्क्षणे न जरामरणयोः भयम् ॥१२॥