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________________ हे. ८. ४. ९८=बुक्कइ); सवक्कि (सवत्ति (सपत्नी (जुओ लक्ष्मणगणिन्-सुपासनाहचरिय, प्रस्तावना. सं. पं. हरगोविंददास. आ शब्द ते ग्रंथमां स्याप्त छे.) कप्पइ <कत्तइ <सं. - कृत् (सि. हे. ८. ४. ३५७) (ज) ष्ण-टु । विट्ठ <विण्हु < विष्णु (५. २१४) (झ) ह्व-म्भ । जिंभा-जिह्वा (३. ८.), जो के जीहा (१. १२२) पण रूप छे. विभिउ <विम्हिउ <विस्मित (६. ६.) रूपरचना १. नामरूप. ६४४. व्यंजनान्त नाम अपभ्रंशमांथी वस्तुतः अदृश्य ज थई गयां छे; तो पण कोइ वार वपरायलां दीठामां आवे छे. त् , न् , सू- व्यंजनान्त नामोना अवशेष कदीक दृष्टिगोचर थाय छे. दा. त. बंभाणब्रह्माणः (२. १०७.) रायाणोराजानः (४. २२५.) वइणो-वतिनः (४. २२८.). आवा अवशेषो अर्धमागधीमां अने तेना पछो प्राकृतमां वधारे छे. अपभ्रंशमां तो लगभग लुप्त ज छे. म्यंजनान्त नामोमां बे प्रकारना फेरफार करवामां आवे छेः [१] केटलीक वार अन्त्य व्यंजन दूर करवामां आवे छे: दा. स. मण=मनस् (२. ९२.) जग-जगत् (६. ४३.) अप्प-आत्मन् (७. ६०.) मणहारि-मनोहारिणी (५. १७९.) [२] केटलीक वार अन्त्य व्यजनमां अ ऊमेरी अकारान्त नाम प्रमाणे तेनी गणना थाय छे; स्त्रीलिंगे आ के इ ऊमेरवामां आवे छे. दा. त. जुवाण-युवन् (५. ११०), आउसआयुष् (२. १९.) अप्पण-आत्मन् (७. ५६.) इ. [३] ऋकारान्त नामना ऋ-अर करवामां आवे छे. दा. त. पियर-पितृ (४. ८९.) भायर भ्रातृ (५. १.) इ.; पण भत्तार-भर्तृ (५. ३१.) सस-स्वस् (३. ६६.); माय, माइ-मातृ (३. १०७); भाइभ्रातृ (३. १४५.) इ. संस्कृतानुसारी विकृति छे. [४] अत्-अन्ती वर्तमानकृदन्तो अने वत्-अन्ती नामना अन्त अन्त अने वन्त थई जाय छे. मत् नो मन्त के वन्त थई जाय छे. कोइ वार प्राकृतने अनुसरी त् एकलो पण त्यजी देवामां आवे छे दा. त. भयव-भगवत् [५] स्त्रीलिंगी आकारान्त भने ईकारान्त नामनो अन्त्य स्वर हस्वित करवामां आवे छे. दा. त. कील=
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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