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(क) ण अने न अनुनासिको हाथप्रतोमां काई भय नेद वगर. लखाया : छे; उच्चारणदृष्टिए कयो अनुनासिक ते काळे प्रचलित हो, तेजको कर विषम छे. आ पाठावलीमां मुख्यत्वे करीने ण योजवामां आव्यो छे.
२. स्वरविकार ६ ३. इस्वस्वर- दीर्धीकरणः
(क) र + व्यंजन, खास करीने ऊष्माक्षर; ऊष्माक्षर + य, र, व के ऊष्माक्षर - थी बनता संयुक्त व्यंजन पूर्वे रहेलो ह्रस्व स्वर घणी वार दीर्घ करवामां आवे छे अने संयुक्त व्यंजनने सादा व्यंजनमा फेरवी नाखवामां आवे छे. दा त. पोसारिउ-सं. निःसारित; (१.५) कासु-प्रा. कस्स; (५.९८.) पेक्खोहिमिन्प्रेक्षिष्ये, (११.५) सहोहिमि-सहिष्ये, (११.६),वीसास =विश्वासः ३०
(ख) केटलीक वार दीर्धीकरण मात्र भाषाविशिष्टताने ( Dialectal Peculiarity) अंगे ज होय छे. दाहिण-दक्षिण, (६.५३.) धूय-दुहित, (५.२७१.) जीह-जिह्वा. (१.१२२.) पईहर-प्रतिगृह, (१.१३.) सूहव: सुभग. (५.८८.)
(ग) अपभ्रंशमां केटलीकवार छंदने अंगे इस्व स्वरतुं दीपीकरण थाव छे; स ज संबोधनविभक्ति एकवचनना अंतनो स्वर दीर्घ कराय छे. दा. त. कुसुमामंजरिधय साहारहिं (१. १७.) रे रे हंसा कि गोविज्जा (११. १९.)
.(घ) अनुस्वारयुक्त ह्रस्व स्वर पछी र् म् , श्, ष् के ह भावे तो हस्व स्वरनुं दीधीकरण थाय छे: अनुस्वारनो लोप थाय छे. वीस सं.विंशति, अने (५.२५२.) सीह-सं. सिंह. (२.५७)
दीर्धीकरणमा मूळमत सिद्धांत स्वरमात्रानु प्रमाण जाळववानो होय छे. काव्यमा छंदोमेळ खातर मात्रानी तूट पूरी लेवा पण दीर्धीकरण अपभ्रंशमां थाय छे. एटले के उपर जणावेला नियमो उपरांत पण दीर्धीकरण अपभ्रंशमां देखा दे छे. ६ ४. दीर्घस्वरतुं इस्वीकरणः
(क) सि. हे. ८ । १ । ६७. मां केटलाक शब्दो गणावे छे जेयां दीर्घस्वरनो ह्रस्व थाय छे:-प्रो. पीशलने अभिप्राये तेनो शास्त्रीय नियम वैदिक स्वरभारने अवलंबे छे. [१] जो स्वरभार दीर्धस्वरनी पूर्वना स्वर पर होय तो