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________________ [ सीयदिव्वकहाणउ (१३) थिउ एत्यंतरे कारणु भारिउ णिरवसेसु जगु धूमधारिउ । जालउ विप्फुरंति तहि अबसरे णं विज्जुलउ जलण-जालंतरे सीय सइत्तणेण णउ कंपिय “दुक्कु दुक्कु लिहि" एम पजंपिय "एहु देहु गुण-गहण-णिवासणु डहि' डहि जइ सञ्चउ जिहुआसणु डहि डहि जइ जिण-सासणु छड्डिउडहि डहि जइणिय-गोत्तु ण मंडिउ डहि डहि जइ हउं केण विऊणी डहि डहि जइ चारित्त-विहूणी डहि डहि जइ भत्तारहो दोही डहि डहि जइ पर लोय-विरोही उहि डहि सयल-भुवण-संतावणु जइ मइ मणिण वि इच्छिउ रावणु" तं एवड्ड धीरु को पावइ सिहि सीयलउ होइ ण पहावइ पित्ता॥ तहि अवसरि मणि परितुद्वउ कहइ पुरंदरु सुर-यणहो "सिहि संकइ डहिवि ण सक्कइ पेक्खु पहाउ सइत्तणहो"॥ १३३ १. मूळ हाथप्रतमां आ तेम ज नीचेनी केटलीक पंक्तिमा डहे अने डहि विकल्पे वापया छे. डहे ए पाछळनो उच्चारविकारात्मक फेरफार छे अने तेनो डहि उच्चार तो करवो ज पडे छे; एटले में सरखो डहि ज स्वीकारी डहे ने बहिष्कृत करेलो छे. २ जे। स्थितं अत्रान्तरे कारणं भारि निरवशेषं जगत् धूमांधकारितं ज्वालाः विस्फुरन्ति तस्मिन्नवसरे यथा विद्युतः ज्वलनज्वालान्तरे सीता सतीत्वेन न कंपिता "ढौकस्व ढौकस्व शिखिन्"एवं उक्तवती "एषः देहः गुणगहननिवासनं दह दह यदि सत्यः एव हुताशनः दह दह यदि जिनशासनं त्यक्तं दह दह यदि निजगोत्रं न मंडितं दह दह यदि अहं केनापि ऊना दह दह यदि चारित्रविहीना दह दह यदि भत्रै द्रोहिनी दह दह यदि परलोकविरोधिनी दह दह सकलभुवनसंतापनः यदि मया मनसा अपि इच्छितः रावणः" तद् एतावद् धैर्य कः प्राप्नोति शिखी शीतलः भवति न प्रभवति ॥घत्ता॥ तस्मिन् अवसरे मनसि परितुष्टः कथयति पुरंदरः सुरजनेभ्यः " शिखी शंकते दग्धुं न शक्नोति प्रेक्ष्वध्वं प्रभावं सतोत्वस्य ।।
SR No.023391
Book TitleApbhramsa Pathavali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorMadhusudan Chimanlal Modi
PublisherGujarat Varnacular Society
Publication Year1935
Total Pages386
LanguageApbhramsa
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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