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रूप बतावे छे. वे ज प्रमाणे तृ. पु. ना अनेकवचनमां करंतु, करहुं एम रूप समजवा; परंतु वपराशमां तो वर्तमानकालना रूप ज प्राधान्य भोगवे छे. (च) विध्यर्थःएकवचन
अनेकवचन प्र. पु. करिज्जउ (५.२२६.) किज्जउं (७.१३५.) [.] द्वि. पु. करिजहि (२.१००) करिजइ (३.१३२.) करिजहु (२. १०९)
करेज्ज (४. २७५.) करेज्जसु (५. ९०.) तृ. पु. [करिज्जउ
[करिजंतु, करिजहुं] उपरनां रूपोमा देखाशे के ज्ज (सं. याम् , याव इ. विध्यर्थना प्रत्ययोना या समान ज्ज छे)+आज्ञार्थना प्रत्ययोना मेळथी विध्यर्थना प्रत्ययो बनेला छे.
सामान्य रीते विध्यर्थनो अर्थ दर्शाववा विध्यर्थ कृदंत, वर्तमानकाळजें रूप अथवा हो प्रयुक्त होय तो तेनुं वर्तमान कृदंत वापरवामां आवे छे. दा. त. जइ पंचहं इक्कु वि होन्तु पुरि तो जुप्पइ रणभरधरणधुरि (३. ८२.); जइ एवहिं घल्लिय कह वि पइं तो पुरु घाएवउ सयलु मइं (३. १९८.) प्राकृतमा पण हो धातुनुं वर्तमान कृदंतनुं रूप वपराय छे.
(छ.) कर्मणिप्रयोगः-[१] इज्ज लगाडी परस्मैपदना प्रत्यय दा. त. तृतीय पुरुष एकवचन गणिज्जइ (२. ८३.) ण्हाइज्जइ (२. ८३.) [२.] इय लगाडवाथी पिट्टियइ (७. १२२.) [३] संस्कृतनी अनुकृति वुच्चइ (८.४०.) किज्जइ (२.५५.) दीसइ (१.१.) ६७०. कृदंतविचारः[9] वर्तमानकृदंत-पइसंत (१. ४.) णासंत (१. ८.) एंत (१. २१.)
जंत (१. २३.) उग्गमंत (१. ४७.) करंत (२. १४.) वज्जंत (२. ४.) संत (२. ९.) पविस्लमाण (इ. ७४.) वट्टमाण
(६. १५८.) आसीण (५. १०१.) इ. [२] भूतकृदंत-गय (१. २.) किय (१. १.) धूमाविय (१. ७.)
पइड (१. १३.) दिण्ण (१. १३.) लइअ (१. २३.) ३० [३] विध्यर्थ कृदंत -वंचेवाइं (३. १०.) खंचेवाइ (३. १०) अच्छे
वउ (३. ५.) करिव्वउ (६. १९.) होइव्वउ (६. १९.) इ.