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उत्तर यदि संक्षेपसे दिया जाय तो यह है कि त्रिलोकवर्ती सर्व संसारी जीव चौदह गुणस्थानों में रहते हैं । और जो संसार - परिभ्रमणसे छूट गये हैं, ऐसे सिद्ध जीव सिद्धालय में रहते हैं । यदि उक्त प्रश्नका उत्तर विस्तारसे दिया जाय तो यह है कि वे चौदह मार्गणा स्थानोंमें रहते हैं । प्रत्येक . मार्गणा अपने अन्तर्गत उत्तर भेदोंके द्वारा और भी विस्तारसे उक्त प्रश्नका उत्तर देती है, जैसा कि ऊपर गति आदि मार्गणाओंका परिचय देते हुए बतलाया गया है ।
प्रस्तावना
ग्रन्थ आरम्भ करते हुए आचार्य पुष्पदन्तने मंगलाचरणके पश्चात् जीवसमासोंके अनुमार्गणा के लिए दो सूत्रोंके द्वारा गति आदि १४ मार्गणाएं ज्ञातव्य बतलाई हैं और उनकी प्ररूपणा के लिए सत्, संख्यादि आठ अनुयोगद्वार ज्ञातव्य कहकर उनके नामोंका निर्देश किया है । इतना कथन समस्त जीवस्थान से सम्बन्ध रखता है । इसके पश्चात् आठवें सूत्रमें ओघ और आदेशसे निरूपणका निर्देश कर ९ वें सूत्रसे २३ वें सूत्र तक १४ गुणस्थानोंका नाम-निर्देश कर सिद्धोंका निर्देश किया गया है । जिसका भाव यह है कि यदि संक्षेपमें जीवोंके अस्तित्वकी प्ररूपणा की जाय तो यही है कि वे चौदह गुणस्थानों में रहते हैं और उनके अतिरिक्त सिद्ध जीव भी होते हैं । इसके पश्चात् २४ वें सूत्रसे लेकर १७७ वें सूत्र तक आदेशसे जीवोंके अस्तित्वका विस्तारसे निरूपण किया गया है । जिसका बहुत कुछ दिग्दर्शन हम मार्गणाओंके परिचय में करा आये हैं और विशेषकी जानकारीके लिए प्रस्तुत ग्रन्थके सत्प्ररूपणा अनुयोगद्वारको देखना चाहिए ।
२ संख्याप्ररूपणा अथवा द्रव्यप्रमाणानुगम
दूसरे अनुयोगद्वारका नाम संख्याप्ररूपणा या द्रव्यप्रमाणानुगम है । समस्त जीवराशि कितनी है और किस किस गुणस्थान, तथा मार्गणास्थानमें जीवोंका प्रमाण कितना कितना है, यह बात इस अनुयोगद्वार में बतलाई गई है । जीवोंका प्रमाण द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षा चार प्रकार से बतलाया गया है । इस संख्याप्ररूपणाका स्वाध्याय करनेवालोंको द्रव्य-क्षेत्रादि प्रमाणोंका स्वरूप जान लेना अत्यावश्यक है, अन्यथा इस प्ररूपण में वर्णित विषय समझमें नहीं आ सकता । अतः यहां संक्षेपसे उनका वर्णन किया जाता है ।
१ द्रव्यप्रमाण - मूलभूत द्रव्यकी गणना या संख्याको द्रव्यप्रमाण कहते हैं । इसके तीन भेद हैं- संख्यात, असंख्यात और अनन्त । जो प्रमाण दो, तीन, चार आदि संख्याओंसे कहा जा सके, उसे संख्यात कहते हैं। जो राशि इतनी बढ़ी हो कि जिसे संख्याओंसे कहना संभव नहीं, उसे असंख्यात कहते हैं । जो राशि इससे भी बहुत बढ़ी हो और जिसकी सीमाका अन्त न हो, उसे अनन्त कहते हैं । इनमेंसे संख्यात राशि हमारे इन्द्रियोंका विषय है, हम अंक गणनाके द्वारा उसे गिन सकते हैं और शब्दोंके द्वारा उसे संज्ञा - विशेषसे कह सकते हैं । अतः वह श्रुतज्ञानका विषय है । किन्तु असंख्यात राशिको न हम शब्दोंके द्वारा कह ही सकते हैं और न
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