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छक्खंडागम आश्रय लेकर त्रैलोक्यके प्राणियोंके अन्वेषण करनेको सम्यक्त्वमार्गणा कहते हैं ।
१३ संज्ञिमार्गणा- नोइन्द्रिय- ( मन-) आवरण कर्मके क्षयोपशमको या तज्जनित ज्ञानको संज्ञा कहते हैं। इस प्रकारकी संज्ञा जिनके पाई जाती है, ऐसे शिक्षा, क्रिया, आलाप ( शब्द ) और उपदेशको ग्रहण करनेवाले मन-सहित जीवोंको संज्ञी कहते हैं । जिनके इस प्रकारकी संज्ञा नहीं पाई जाती है, ऐसे मन-रहित जीवोंको असंज्ञी कहते हैं। एकेन्द्रियसे लेकर चतुरिन्द्रिय तकके समस्त जीव असंज्ञीही हैं। पंचेन्द्रियोंमें देव, मनुष्य और नरकगतिके समस्त जीव संज्ञीही होते हैं। तिर्यंच पंचेन्द्रियों में कुछ जलचर, थलचर और नभचर जीव ऐसे होते हैं, जिनके मन नहीं होता, उन्हें भी असंज्ञी जानना चाहिए । असंज्ञी जीवोंके केवल एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही होता है। संज्ञी जीवोंके पहिलेसे लेकर बारहवें तकके बारह गुणस्थान होता है। सयोगिकेवली, अयोगिकेवली और सिद्ध भगवान् को संज्ञी-असंज्ञीके नामसे अतीत या परवर्ती जानना चाहिए । इस प्रकार संज्ञा और असंज्ञाके द्वारा जीवोंके अन्वेषण करनेको संज्ञीमार्गणा कहते हैं।
१४ आहारमार्गणा- औदारिकादि तीन शरीर और छह पर्याप्तियोंके योग्य नोकर्मवर्गणाओंके ग्रहण करनेको आहार कहते हैं। इस प्रकारके आहार ग्रहण करनेवाले जीवोंको आहारक कहते हैं और जो इस प्रकारके आहारको ग्रहण नहीं करते हैं, उन्हें अनाहारक कहते हैं। जब जीव एक शरीरको छोड़कर अन्य शरीरको ग्रहण करनेके लिए दूसरी गतिमें जाता है, तब बीचमें यदि विग्रह ( मोड़ ) लेकर जन्म लेना पड़े तो उसके अनाहारक दशा रहेगी। इस. विग्रह गतिमें एक मोड़ लेनेपर एक समय, दो मोड़ लेनेपर दो समय और तीन मोड़ लेनेपर तीन समयतक जीव अनाहारक रहता है। तदनन्तर वह नियमसे आहारक हो जाता है। केवली भगवान् जब केवलि समुद्धात करते हैं, तब चढ़ते और उतरते प्रतर समुद्धातमें तथा लोकपूरण समुद्धातमें इस प्रकार तीन समयतक वे भी अनाहारक रहते हैं। इन उक्त प्रकारके जीवोंको छोड़कर शेष सब संसारी जीवोंको आहारक जानना चाहिए। अयोगिकेवली और सिद्ध जीवभी अनाहारक ही हैं । विग्रहगतिकी अनाहारक दशा पहिले, दूसरे और चौथे गुणस्थानमें होती है । केवली भगवान्के केवलिसमुद्धात तेरहवें गुणस्थानके अन्तमें होता है । इस प्रकार आहारक-अनाहारकके रूपसे त्रैलोक्यके सर्व जीवोंके मार्गण करनेको आहारमार्गणा कहते हैं ।
१ सत्प्ररूपणाका विषय सत्प्ररूपणा- सत् नाम अस्तित्वका है। तीन लोकमें जीवोंका अस्तित्व कहां कहां है । और किस प्रकारसे है ? इस प्रश्नका उत्तर देनाही सत्प्ररूपणाका विषय है। उक्त प्रश्नका उत्तर सत्प्ररूपणामें दो प्रकार से दिया गया है- ओघसे और आदेशसे । ओघ नाम सामान्य, संक्षेप या गुणस्थानका है और आदेश नाम विस्तार, विशेष या मार्गणा स्थानका है । उक्त प्रश्नका
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