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छक्खंडागम
गई हैं, केवल एक अतिसूक्ष्म लोभ शेष रह गया है, ऐसे दशम गुणस्थानवर्ती साधुके जो संयम होता है, उसे सूक्ष्मसाम्परायसंयम कहते हैं। कषायोंके सर्वथा अभाव होनेसे जो वीतराग परिणतिरूप चारित्र होता है, उसे यथाख्यातसंयम कहते हैं। श्रावकके व्रत पालनेको देशसंयम कहते हैं। और किसीभी प्रकारके संयम नहीं पालनेको असंयम कहते हैं । प्रारम्भके चार गुणस्थान असंयमरूप ही हैं । देशसंयम पांचवें गुणस्थानमें होता है । सामायिक और छेदोपस्थापनासंयम छठे गुणस्थानसे नववे गुणस्थानतक होते हैं। सूक्ष्मसाम्परायसंयम दशवें गुणस्थानमें होता है । यथाख्यातसंयम : ग्यारहवें गुणस्थानसे लेकर चौदहवें गुणस्थानतक होता है। इस प्रकार संयमके द्वारा जीवोंके अन्वेषण करने को संयममार्गणा कहते हैं ।
९ दर्शनमार्गणा- सामान्य विशेषात्मक पदार्थके विशेष अंशका ग्रहण न करके केवल सामान्य अंशके ग्रहण करनेको दर्शन कहते हैं। अथवा पदार्थको जाननेके लिए उद्यत आत्माको जो आत्म-प्रतिभास होता है, उसे दर्शन कहते हैं। इसके चार भेद हैं- चक्षुदर्शन, अचक्षुदर्शन, अवधिदर्शन और केवलदर्शन । चक्षुरिन्द्रियसे सामान्य प्रतिभासरूप अर्थके ग्रहण करनेको चक्षुदर्शन कहते हैं। चक्षुकेसिवाय शेष इन्द्रिय और मनसे जो सामान्य प्रतिभास होता है उसे अचक्षुदर्शन कहते हैं । अवधिज्ञानके पूर्व उसके विषयभूत पदार्थके सामान्य प्रतिभासको अवधिदर्शन कहते हैं। केवलज्ञानके साथ त्रैकालिक और त्रैलोक्यवर्ती अनन्त पदार्थोके सामान्य प्रतिभासको केवलदर्शन कहते हैं। अचक्षुदर्शन एकेन्द्रियोंसे लगाकर बारहवें गुणस्थानतक होता है। चक्षुदर्शन चतुरिन्द्रियोंसे लगाकर बारहवें गुणस्थान तक होता है । अवधिदर्शन चौथे गुणस्थानसे बारहवें तक होता है। केवलदर्शन तेरहवें और चौदहवें गुणस्थानवी जीवोंके तथा सिद्धोंके होता है। इस प्रकारसे दर्शनके द्वारा जीवोंके मार्गण करनेको दर्शनमार्गणा कहते हैं ।
१० लेश्यामार्गणा- कषायसे अनुरंजित योगकी प्रवृत्तिको लेश्या कहते हैं । लेश्याके छह भेद हैं- कृष्णलेश्या, नीललेश्या, कापोतलेश्या, पीतलेश्या, पद्मलेश्या और शुक्ललेश्या । तीव्र क्रोध करना, बदला लिये विना वैरका न छोड़ना, लड़ाकू स्वभाव होना, दया-धर्मसे रहित दुष्ट प्रवृत्ति करना, सदा रौद्र ध्यानरूप परिणत होना कृष्णलेश्याके चिन्ह हैं । विषय-लोलुपि होना मानी, मायावी होना, आलसी और बुद्धि-विहीन होना, धन-धान्यमें तीव्र तृष्णा होना, दूसरेको ठगनेमें तत्पर रहना नीललेश्याके चिन्ह हैं। दूसरोंसे जरासी बातमें रुष्ट होना, परनिन्दा और आत्म-प्रशंसा करना, दूसरेका विश्वास न करना, अपनी प्रशंसा या चापलूसी करनेवालेको धनादिका देना, अपनी हानि-वृद्धि, लाभ-अलाभ और कार्य-अकार्यका विचार न रखना, कापोतलेश्याके चिन्ह हैं। ये तीनों अशुभलेश्याएं कहलाती हैं। हानि-लाभ और कर्तव्य-अकर्तव्यका विचार रखना, दया-दानमें तत्पर रहना, सबपर समान दृष्टि रखना और कोमल परिणामी होना पीत या तेजोलेश्याके चिन्ह हैं। भद्र परिणामी होना, त्यागी होना, किसीकेद्वारा उपद्रव और उपसर्गादिके
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