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प्रस्तावना
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जानना चाहिए । इस प्रकार कषाय मार्गणाके द्वारा समस्त प्राणियोंका अन्वेषण किया जाता है ।
७ ज्ञानमागेणा- जिसके द्वारा वस्तु-स्वरूप जाना जाता है, उसे ज्ञान कहते हैं । ज्ञानके पांच भेद हैं- आभिनिबोधिक ज्ञान ( मतिज्ञान ), श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्ययज्ञान और केवलज्ञान । अभिमुख स्थित नियमित वस्तुका इन्द्रिय और मनकी सहायतासे जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसे आभिनिबोधिकज्ञान कहते हैं। आभिनिबोधिकज्ञानसे जानी हुई वस्तुका आश्रय लेकर उससे सम्बद्ध किन्तु भिन्न ही पदार्थके जाननेको श्रुतज्ञान कहते है। जैसे किसी स्थानसे निकलते हुए धूमको देख कर रसोईघर आदिमें स्थित अग्निका ज्ञान करना और धूम शब्दको सुनकर उसके कारणभूत अग्निका ज्ञान होना । द्रव्य, क्षेत्र, काल, भावकी अपेक्षा लेकर इन्द्रियोंकी सहायताके विनाही रूपी पदार्थोंके साक्षात् जाननेको अवधिज्ञान कहते हैं। भूतकालमें मनके द्वारा विचारी गई, वर्तमानमें मनःस्थित और आगामी कालमें मनके द्वारा सोची जानेवाली बात जानलेनेको मनःपर्ययज्ञान कहते है। त्रिलोक और त्रिकालवर्ती समस्त द्रव्योंको तथा त्रैकालिक अनन्तगुण और पर्यायोंके साक्षात् युगपत् जाननेवाले ज्ञानको केवलज्ञान कहते हैं। इनमेसे प्रारम्भके तीन ज्ञान मिथ्यारूपभी होते हैं, जिन्हे क्रमशः मति-अज्ञान, श्रुताज्ञान और विभंगाज्ञान कहते हैं। सम्यग्दर्शन होनेके पूर्वतक प्रारम्भके तीन गुणस्थानोंमें संसारीजीवोंके जो मति, श्रुत, अवधिज्ञान होते हैं, उन्हें मिथ्याज्ञानही जानना चाहिए। चौथे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके गुणस्थानोंमें जो ज्ञान होते हैं, वे सब सम्यग्ज्ञानही होते हैं। मनःपर्ययज्ञान छठे गुणस्थानसे लेकर बारहवें गुणस्थान तक होता है । केवलज्ञान तेरहवें, चौदहवें गुणस्थानोंमें और सिद्धोंके होता है ।
८ संयममार्गणा- पंच महाव्रतोंके धारण करना, पंच समितियोंका पालन करना, क्रोधादि कषायोंका निग्रह करना, मन-वचन-कायरूप तीन दण्डोंका त्याग करना और पांच इन्द्रियोंके विषयोंका जीतना संयम है। संयमके पांच भेद हैं- सामायिक, छेदोपस्थापना, परिहारविशुद्धि, सूक्ष्मसाम्पराय, यथाख्यात । इनके अतिरिक्त देशसंयम और असंयमभी इसी मार्गणाके अन्तर्गत आते हैं। सर्व सावद्ययोगके त्यागकर अभेदरूप एक संयमको धारण करना सामायिकसंयम है । उसी अभेदरूप एक संयमको दो, तीन, चार, पांच महाव्रतोंके भेदरूपसे धारण करना छेदोपस्थापना संयम है। तीस वर्षतक गृहस्थाश्रममें रहकर और अपनी इच्छानुसार सर्व प्रकारके भोगोंको अच्छी तरहसे भोगकर तदनन्तर मुनिदीक्षा लेकरके जो तीर्थंकरके पादमूलमें वर्षपृथकत्व (तीनसे ऊपर और नौ वर्षसे नीचेकी संख्याको पृथकत्व कहते हैं ) कालतक रहकर प्रत्याख्यानपूर्वका भलीभांति अध्ययन करना इस प्रकारकी साधनाको प्राप्त करता है कि उसके गमनागमन, आहार-विहार और शयनासन आदि क्रियाओंको करते हुए किसीभी प्रकार जीवको रंचमात्र भी बाधा नहीं होती है। इस प्रकारकी साधनाविशेषके साथ जो संयमका अभेदरूपसे या भेदरूपसे पालन होता है, उसे परिहारविशुद्धि संयम कहते हैं। जिनकी समस्त कषायें नष्ट हो
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