Book Title: Namo Purisavaragandh Hatthinam
Author(s): Dharmchand Jain and Others
Publisher: Akhil Bharatiya Jain Ratna Hiteshi Shravak Sangh
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नमो पुरिसवरगंधहत्थीणं केवलचन्द जी बोहरा जब प्लेग की महामारी में दिवंगत हुए तब पीपाड़ के अनेक ऐसे लोग भी काल कवलित हो गए जिन पर बोहरा परिवार का ऋण था। दूसरी बात जिनके पास इस परिवार का पैसा था उसकी उगाही करने वाला भी कोई न था। नौज्यांबाई ज्यों-त्यों कर पुरानी सम्पत्ति के आधार पर घर का खर्च चलाती थी। फिर उन्होंने एवं रूपादेवी ने घर पर चरखा चलाकर सूत कातना प्रारम्भ किया। इससे परिवार का आत्म-सम्मान एवं स्वावलम्बन भी सुरक्षित रहा तथा समय भी आसानी से गुजरने लगा।
विरक्ता माता रूपादेवी ___ जननी रूपादेवी के मन में पुत्र के प्रति वात्सल्य था, तो वैराग्य की भावना भी अटल थी। एक ओर बालक हस्ती को बड़ा होते देख वह मन ही मन प्रसन्न थी तो दूसरी ओर वैराग्य का भाव भी हिलोरे ले रहा था। उसे लगता था कि वह शीघ्र ही सासूजी से अनुमति लेकर श्रमण धर्म में दीक्षित हो जाएगी। परन्तु यह इतना सहज नहीं था। नौज्यांदेवी कहती थी –“कुल का उजियारा शिशु पढ़ लिखकर योग्य बने तब तुम दीक्षा लेना।" रूपादेवी को इतना धैर्य कहाँ था? उसके सामने दो उदाहरण थे जो वैराग्य की उत्कट भावना के सम्बल बने रहे। एक तो उनकी मौसीजी महासती फूलांजी एवं दूसरी उनकी अपनी जेठानी, जिन्होंने अपने पति रामूजी के देहान्त के पश्चात् दीक्षा ग्रहण कर ली थी।
रूपादेवी की दीक्षा-भावना अत्यंत प्रबल थी। एक बार वह शिशु हस्ती को अपनी दादी के पास छोड़कर | नयापुरा के नोहरे में गई एवं वहाँ केश कर्तन कर श्वेत वस्त्र धारण कर लिए। यह नोहरा स्थानक के पास ही था। रूपादेवी पीहर एवं ससुराल में किसी को बताये बिना साध्वी बन जाना चाहती थी, किन्तु वह सफल नहीं हो सकी। ऐसा सम्भव भी नहीं था। उन्हें समझाया गया कि इस प्रकार साध्वी नहीं बना जा सकता। रूपादेवी के पास न रजोहरण था और न ही पात्र, न ही उन्हें साध्वी-मंडल का सान्निध्य प्राप्त था। इसके पूर्व भी एक बार रूपादेवी जी ने दीक्षित होने का प्रयास किया। रूपादेवी की मौसी फूलांजी ने जयमल सम्प्रदाय में दीक्षा ग्रहण की थी। उनका पीपाड़ से सोजत विहार हुआ था। रूपादेवी के मन में आया कि वे सोजत जाकर महासती जी से दीक्षा की प्रार्थना करें। महासती जी ने रूपादेवी को समझाया कि इस प्रकार घर वालों की अनुमति के बिना दीक्षा नहीं दी जा सकती
ये घटनाएं इस तथ्य की ओर संकेत करती हैं कि बालक हस्ती की माँ रूपादेवी पर वैराग्य का रंग खूब गहरा |चढ़ा हुआ था। वह श्रमणी बनने के लिए पुत्र के प्रति ममता का भी परित्याग करने के लिए तत्पर थी। रूपादेवी का
संसार के प्रति कोई आकर्षण नहीं था। पति केवलचन्द जी का स्वर्गवास हआ तभी से उनके मन में संसार त्याग कर | साध्वी बनने की तरंगें हिलोरें ले रही थीं। सोजतरोड़ जाना एवं वेष परिवर्तन करना उनके वैराग्य की उत्ताल तरंगों का ही परिणाम था।
परिवारजनों के द्वारा आग्रह एवं प्रेमपूर्वक यह बोध कराया गया कि इस समय पुत्र हस्ती के पालन-पोषण एवं | शिक्षण का कर्त्तव्य मुख्य है, अतः उसका निर्वाह किया जाना आवश्यक है। उसके बाद दीक्षा की बात सोची जा सकती है। रूपादेवी आखिर तो माँ थी ही। परिवार जनों के प्रेमपूर्वक समझाने से उसका पुत्र के प्रति वात्सल्य उमड़ आया और उसने कुछ समय पुत्र की परवरिश में बिताने का निश्चय किया।