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जेन लक्षणावली
इस प्रसंग से सम्बद्ध तत्त्वार्थसूत्र के स. सि. सिद्धिसम्मत और भाष्यसम्मत सूत्रों में भी कुछ भिन्नता रही है । यथा
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पृथिव्यप्तेजोवायु-वनस्पतयः स्थावराः । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयस्त्रसाः । स. सि. सूत्र २,१३,१४. पृथिव्यम्बु-वनस्पतयः स्थावराः । तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः । भाष्य सूत्र २, १३, १४.
स. सि. औरत. वा. के अन्तर्गत उपर्युक्त शंकासमाधान को देखते हुए सर्वार्थसिद्धिकार के सामने उक्त भाष्यसम्मत सूत्र रहे हैं या नहीं, यह सन्देहास्पद है । पर तत्त्वार्थवार्तिककार के समक्ष वे भाष्यसम्मत सूत्र अवश्य रहे हैं, ऐसा प्रतीत होता है। कारण इसका यह है कि उन्होंने प्रकृत शंका के समाधान में बायु, तेज और जल कायिक जीवों के प्रस्थावरत्व का प्रसंग दिया है, जब कि स. सि. में केवल श्रागमविरोध ही प्रगट किया गया है, वहां वायु, तेज और जल कायिक जीवों का कुछ भी निर्देश नहीं किया गया ।
दशकालिक चूर्णि (पृ. १४७ ) के अनुसार जो जीव एक स्थान में अवस्थित रहते हैं उन्हें स्थावर कहा जाता है । त. भा. की हरिभद्र विरचित वृत्ति (२-१२ ) में कहा गया है कि जो जीव परिस्पन्दन आदि से रहित होते हुए स्थावर नामकर्म के उदय से अवस्थित रहते हैं वे स्थावर कहलाते हैं। श्रावकप्रज्ञप्ति की टीका (२२) में भी उक्त हरिभद्र सूरि के द्वारा प्रायः इसी अभिप्राय को प्रगट करते हुए कहा गया है. कि जिसके उदय से जीव स्पन्दन से रहित होता है उसे स्थावर नामकर्म कहते हैं । उक्त त. भा. की सिद्धसेन विरचित वृत्ति ( २ - १२ ) में कहा गया है कि स्थावर नामकर्म के उदय से जिन जीवों के सुख-दुःखादि के अनुमापक चिह्न स्पष्ट नहीं रहते वे स्थावर कहलाते हैं । सूत्रकृतांग की शीलांक विरचित वृत्ति (२, १, ३ पृ. ३३ ब २,६,४ पृ. १४० ) में 'तिब्छन्तीति स्थावरा:' इस निरुक्ति के साथ पृथिवी श्रादिकों को स्थावर कहा गया है । पर 'आदि' शब्द से वृत्तिकार को अन्य और कौन से जीव अभिप्रेत हैं, यह वहां स्पष्ट नहीं है । यही अभिप्राय प्रायः स्थानांग की अभयदेव विरचित वृत्ति ( ५७ व ७५ ) में भी प्रगट किया गया है। विशेष इतना है कि वहां 'पृथिवी आदिक' यह निर्देश नहीं किया गया। योगशास्त्र के स्वो विवरण (१-१६) में स्पष्ट रूप से भूमि अप्, तेज, वायु और महीरुह (वनस्पति) इन पांच एकेन्द्रिय जीवों को स्थावर कहा गया है ।
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स्थिरनामकर्म - इसके स्वरूप का निर्देश करते हुए सवार्थसिद्धि ( ८-११ ) तत्त्वार्थाधिगम भाष्य (८-१२) तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक ( ८-११ ) और भगवती प्राराधना की मूला टीका (२१२४) में प्राय: समान रूप से यही कहा गया है कि स्थिरभाव ( स्थिरता ) के जनक नामकर्म को स्थिर नामकर्म कहा जाता है । त. वार्तिक (८,११,३४ ) में सर्वार्थसिद्धिगत इस लक्षण को शब्दशः ग्रात्मसात् करके उसे स्पष्ट करते हुए यह कहा गया है कि जिसके उदय से दुष्कर उपवास श्रादि तपों के करने पर भी अंग व उपांगों की स्थिरता रहती है बह स्थिर नामकर्म कहलाता है । त. भा. की हरि वृत्ति और श्रावकप्रज्ञप्ति (२३) की हरि. टीका में कहा गया है कि जिसके उदय से सिर, हड्डियां और दाँत आदि शरीरगत अवयवों की स्थिरता होती है उसे स्थिर नामकर्म कहते हैं । त. भा. की हरि वृत्तिगत इस लक्षण को उसकी सिद्धसेन विरचित वृत्ति और प्रज्ञापना की मलय. वृत्ति (२५३ ) में ज्यों का त्यों ले लिया गया है । धवला (पु. ६, पृ. ६३ ) में कहा गया है कि जिसके उदय से रस, रुधिर, मेदा, मज्जा, हड्डियां, मांस और शुक्र इन सात धातुओं की स्थिरता होती है—उनका विनाश या गलन नहीं होता है-उसका नाम स्थिर नामकर्म है | धवलागत यह लक्षण मूलाचार की वृत्ति ( १२-१६५ ) में प्रायः उसी रूप में उपलब्ध होता है । आगे इसी धवला (पु. १३, पृ. ३६५ ) में उसके लक्षण को पुनः दोहराते हुए यह कहा गया है कि जिस कर्म के उदय से रसादि धातुत्रों का प्रवस्थान कुछ काल तक अपने स्वरूप से होता है उसे स्थिर नाम कर्म कहते है । समवायांग की अभयदेव विरचित वृत्ति (४२) में कहा गया है कि जिसके आश्रय से स्थिर दांत आदि श्रवयवों की उत्पत्ति होती है वह स्थिर नामकर्म कहलाता
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- बालचन्द्र शास्त्री हैदराबाद १६-१-७६
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