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मिश्रद्रव्यस्थान]
६२४, जैन-लक्षणावलो
मिश्रयोग
होता है उसे मिश्रसंयुक्तसंयोग कहते हैं।
अनसार जो प्रतिक्रमण किया जाता है उसे मिश्र मिश्रद्रव्यस्थान-जं तं मिस्सदव्वठाणं तं लोगा- (मालोचन-प्रतिक्रमण) प्रायश्चित्त कहते हैं। गासो। (धव. पु. १०, पु. ४३६)।
मिश्रभाव-१. उभयात्मको (उपशम-क्षयात्मको) मिश्र (सचित्त-अचित्त) द्रव्यस्थान लोकाकाश है। मिश्रः। यथा तस्मिन्नेवाम्भसि कतकादिद्रव्यसम्बमिश्रद्रव्यस्पर्शन-मिस्सयदव्वफोसणं छण्हं दव्वा- न्धात् पङ्कस्य क्षीणाक्षीणवृत्तिः। (स. सि. २-१; णं संजोएण एगूणसट्ठिभेयभिण्णं । (धव. पु. ४, पृ. पारा. सा. टी. ४) । २. उभयात्मको मिश्रः १४३)।
क्षीणाक्षीणमदशक्तिकोद्रववत । यथा प्रक्षालनविशेमिश्रद्रव्यस्पर्शन छह द्रव्यों के संयोग से उनसठ षात् क्षीणाक्षीणमदशक्तिकस्य कोद्रवस्य द्विधा वृत्तिः, (५६) भेद रूप है।
तथा यथोक्तक्षय हेतुसन्निधाने सति कर्मण एकदेशस्य मिश्रद्रव्योपक्रम-१. मिश्रद्रव्योपक्रमः सचित्तस्यैव क्षयादेकदेशस्य च वीर्योपशमादात्मनो भाव: उभयाद्विपदादेः प्रचित्तकेशादिसहितस्य स्नानादिसंस्कार. त्मको मिश्र इति व्यपदिश्यते । (त. वा. २,१, ३)। करणम् । Xxx मिश्र द्रव्योपक्रमोऽपि तथैव १ उपशम और क्षय उभयस्वरूप भाव को मिश्र शंख-शृंखलाद्यलंकृतद्विरदादेः सचेतनस्य मगरादि- (क्षायोपशमिक) भाव कहते हैं। जैसे -- मलिन भिरभिधातः। (उत्तरा. नि. शा. वृ. २८, पृ. ११)। जल में निर्मली आदि के डालने पर उसके सम्बन्ध २. तेषामश्वादीनामेडकान्तानां कुङ्कुमादिभिर्मण्डि- से जल कुछ स्वच्छ हो जाता है, साथ ही नीचे तानां स्थासकादिभिस्तु विभूषितानां यच्छिक्षादिगुण- कीचड़ भी बैठा रहता है उसी प्रकार कर्म के कुछ विशेषकरण खड्गादिभिविनाशो वा स मिश्रदव्योप- उपशम और क्षय के साथ देशघाती स्पर्धकों का क्रमः । (अयो. स. मल. हेम. व. ६६, १४७)। उदय बना रहने पर जो भाव उत्पन्न होता है उसे १अचेतन बालों आदि से सहित चेतन द्विपद (दो मिश्र या क्षायोपशमिक भाव कहते हैं। पांव वाले) प्रादि प्राणियों को स्नान प्रादि से संस्कृत मिश्रमंगल-मिश्रमंगलं सालंकारकन्यादिः । (धव. करना, यह परिकर्मविषयक मिश्रद्रव्योपक्रम कह- पु. १, पृ. २८)। लाता है। शंख व सांकल ग्रादि से अलंकृत हाथी अलंकार सहित कन्या प्रादि को मिश्रमंगल कहा प्रादि सचेतन प्राणियों का मुद्गर प्रादि से विनाश जाता है। करना, इसे विनाशविषयक मिश्रद्रव्योपक्रम कहा मिश्रयोग-जो सरिवाइनो खलु भावो उदएण जाता है।
मीसिनो होइ । पन्नारस संजोगो सम्वो सो मीसिनो मिश्रपूजा-१. जा पुण दोण्हं कीरइ णायव्वा जोगो ।। (उत्तरा. नि. गा. ५३, प. ३५) ।। मिस्सपूजा सा ॥ (वसु. श्रा. ४५०)। २. यत्पुनः जो सान्निपातिक भाव उदय से मिश्रित होता है वह क्रियते पूजा द्वयोः (अहंदादि-तच्छरीरयोः) सा मिश्र- पन्द्रह प्रकार के संयोग वाला मिश्रयोग (मिश्रसंज्ञिका ।। (धर्मसं. था. ६-६३)।।
सम्बन्धसंयोग) कहलाता है। वे पन्द्रह संयोग ये १ जिन आदि और उनके शरीर दोनों की जो पूजा हैं । द्विकसंयोग ४–प्रौदयिक-औपशमिक, प्रौदयिककी जाती है वह मिश्रपूजा कहलाती है। क्षायिक, औदयिक-क्षायोपशमिक और प्रौदयिकमिश्रप्रक्रम-साभरणाणं हत्थीणं अस्साणं बा। पारिणामिक । त्रिकसंयोग ६-प्रौदयिक-प्रौपशपक्कमो मिस्सपक्कमो णाम। (धव. पु. १५, प. मिक-क्षायिक, प्रौदयिक-क्षायिक-क्षायोपशमिक, प्रो. १५)।
दयिक-क्षायोपशमिक-पारिणामिक, प्रौदयिक-प्रोपप्राभरणों से सहित हाथी अथवा घोड़ों आदि के शमिक-क्षायोपशमिक, प्रौदयिक-ग्रौपशमिक-पारिप्रक्रम को मिश्रप्रक्रम कहते हैं।
णामिक और प्रौदयिक क्षायिक-पारिणामिक । मिश्रप्रायश्चित्त- मिश्रमालोचन प्रतिक्रमणरूपम्, चतुःसंयोग ४-प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायिक-क्षायोप्रागालोचनं पश्चाद् गुरुसन्दिष्टेन प्रतिक्रमणम् । पशमिक, औदयिक क्षायिक-क्षायोपशमिक-पारिणा(योगशा. स्वो. विव. ४-६०)।
मिक, प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायिक-पारिणामिक पूर्व में मालोचना करके पश्चात गुरु के सन्देश के और प्रौदयिक-प्रौपशमिक-क्षायोपशमिक-पारिणा
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